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शाह-सोरेन मुलाकात: क्या झारखंड में भी होगा महाराष्ट्र वाला खेल?

झारखंड में कांग्रेस के साथ गठबंधन की सरकार चला रहे झामुमो अध्यक्ष और मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात की। जिसके बाद राजनीतिक गलियारों में खेला की आवाज़ तेज़ हो गई हैं।
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अगर सवाल किया जाए कि भाजपा के पैमाने पर राजनीति क्या है? तो शायद सबसे बड़ा जवाब होगा किसी भी हालत में सत्ता पर काबिज़ रहना। फिर इसके लिए विधायक तोड़ने पड़ें या जांच एजेंसियों का सहारा लेना पड़े। ताज़ा उदाहरण हम महाराष्ट्र में देख ही रहे हैं, जहां एकनाथ शिंदे के कंधे का सहारा लेकर भाजपा महाराष्ट्र की कुर्सी हासिल करने में लगी है।

ऐसे में झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात कर एक और राजनीतिक इशारे को जन्म दे दिया, कि कहीं एक और महाराष्ट्र बनाने की तैयारी तो नहीं है?

द प्रिंट की एक रिपोर्ट कहती है कि भाजपा के एक वरिष्ठ नेता के मुताबिक जब पार्टी महाराष्ट्र को जीत लेगी, तो पूरा ध्यान झारखंड पर केंद्रित किया जाएगा। फिलहाल तो राज्य नेतृत्व से सरकार की विफलताओं को आक्रामक रूप से उजागर करने के लिए कहा गया है।

शायद यही कारण है कि मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन पर लगाए गए ‘ऑफिस फॉर प्रॉफिट’ के आरोप पीछा नहीं छोड़ रहे हैं, इसी के तहत उन्हें बीते मंगलवार यानी 28 जून को भारत के चुनाव आयोग के समक्ष पेश होना था। इसी दिन मौका देख उन्होंने गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात कर ली। और देश जानता है कि विपक्षियों पर लगे आरोप और जांच एजेंसियां तब तक पीछा नहीं छोड़ती जब तक वो भाजपा की वॉशिंग मशीन में धो नहीं दिए जाते।

अब सोरेन और शाह की मुलाकात का समय भी कई राजनीतिक समीकरणों की ओर इशारा कर रहा है। जिसमें ताज़ा मामला तो राष्ट्रपति चुनाव का ही है। दरअसल झामुमो असमंजस में फंसी है कि वह विपक्ष के उम्मीदवार का समर्थन करे या फिर आदिवासी समाज से आने वाली और सत्ता पक्ष की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू का। क्योंकि इसमें भी कई बातें निकल कर आती हैं।

एक तो झामुमो और उसके कार्यकारी अध्यक्ष और मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को विपक्ष में रहने का दायित्व भी निभाना है, और दूसरी बात ये कि विपक्षी दलों के एक ग्रुप ने संयुक्त रूप से जिस यशवंत सिन्हा को अपना उम्मीदवार बनाया है वो भी झारखंड से आते हैं। इसके अलावा सिन्हा पूर्व केंद्रीय मंत्री और वित्त मंत्री भी रह चुके हैं। यानी कई कारणों से हेमंत सोरेन और उनकी पार्टी को उन्हें ही वोट देना चाहिए।

लेकिन एक और बात ये है कि भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए ने जिस द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद के लिए अपना उम्मीदवार बनाया है वो आदिवासी समाज से आती हैं, फिर वो महिला हैं और झारखंड से राज्यपाल भी रह चुकी हैं। और ये बात किसी से छिपी नहीं है कि पिछले विधानसभा चुनाव में आदिवासी समाज ने झामुमो को दिल खोलकर वोट दिए थे, जिसके कारण प्रदेश में वो कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बना सके थे। यानी यहां भी झामुमो का वोट बैंक एनडीए की ओर जाने को मजबूर हो सकता है।

वहीं हमेशा भाजपा को सिर-आंखों पर बिठाए रखने वाले आदिवासी समाज ने साल 2019 में उसका साथ नहीं दिया। यही कारण है कि आने वाले लोकसभा चुनावों से पहले भाजपा अनुसूचित जनजाति यानी एसटी समुदायों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाने के लिए राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार मुर्मू पर फोकस कर रही है। साथ ही साथ सोरेन सरकार के कथित भ्रष्टाचार को लोगों के सामने लाकर उनके आदिवासी समर्थक रुख को एक दिखावा के रूप में ‘उजागर’ करने में लगी है।

ये जानना बेहद ज़रूरी है कि झारखंड में कुल 14 लोकसभा सीटें हैं, जिसमें से 11 पर तो सिर्फ भाजपा के ही सांसद हैं, जबकि एक कांग्रेस एक झामुमो और एक सांसद एजेएसयू का है।

भले ही लोकसभा चुनावों में भाजपा ने प्रचंड जीत हासिल की हो, लेकिन फिर विधानसभा चुनावों में झामुमो ने बाज़ी मार ली थी। जिसमें सबसे महत्वपूर्ण ये था कि 81 विधानसभा सीटों में ज्यादातर झामुमो के खाते में आई थीं। झारखंड में 28 ऐसी सीटें हैं जो अति पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित हैं। कहने का अर्थ ये है कि यहां 50 फीसदी से ज्यादा सीटों पर अति पिछड़ा वर्ग के वोटों का महत्व है, सिर्फ आदिवासी बेल्ट की बात करें तो झामुमो-कांग्रेस गठबंधन ने 2019 में 28 में से 25 सीटें जीती थीं, जबकि भाजपा दो सीटों पर दावा करने में सफल रही। झारखंड में 81 विधानसभा सीट हैं जिसमें से झामुमो के 30, कांग्रेस के 16 और भाजपा के 25 विधायक हैं।

अब क्योंकि मामला आदिवासी समाज पर ही सबसे ज्यादा आकर फंसता है, और भाजपा सोरेन सरकार पर इसी बात को लेकर हमलावर भी रहती है। भाजपा का हर बार यही स्टैंड रहता है कि झामुमो और कांग्रेस की राजनीति आदिवासी समाज के इर्द-गिर्द घूमती है, और ये बात किसी हद तक सही भी है, लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि भाजपा ने भी आदिवासियों के सहारे ही यहां सरकार बनाई है, और अब एक बार फिर वो झामुमो के पक्ष में जा चुके आदिवासियों को अपने पाले में लाने के लिए सोरेन से हाथ मिलाने को लगभग तैयार है।

ज़ाहिर है सोरेन को अपनी ओर लाने के लिए भाजपा अपने हथियार तो इस्तेमाल करेगी ही, जिसकी शुरुआत सही मायने में फरवरी में ही हो गई थी, तब कुछ भाजपा विधायकों ने सोरेन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए थे कि सीएम ने पद पर रहते हुए रांची के अंगारा ब्लॉक में खुद को खनन लाइसेंस जारी किया था। भाजपा के पूर्व मंत्री राज्यपाल रमेश बैस ने इस मामले को चुनाव आयोग के पास भेजा था। चुनाव आयोग की सिफारिश के आधार पर सोरेन की अयोग्यता पर फैसला किया जाएगा। झारखंड उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका भी दायर की गई जिसमें खनन आवंटन में कथित अनियमितताओं के मामले में मुख्यमंत्री के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों से जांच कराने की मांग की गई है।

इसके अलावा ख़बरें ये भी हैं कि पिछले कई सालों से प्रदर्शन कर रहा आदिवासियों का एक समूह ‘सरना’ चाहता है कि उसे एक अलग धर्म कोड के रूप में शामिल किया जाए। जिसको लेकर सोरेन और अमित शाह में बात हुई है, लेकिन ये भी सच है कि राजनीतिक में मान-मनौव्वल मुफ्त में नहीं होती।

अब सबसे बड़ा सवाल ये कि आख़िर ऐसी क्या बात हो गई जो हेमंत सोरेन को अमित शाह के साथ मुलाकात की ज़रूरत पड़ गई। जिसका जवाब राज्यसभा चुनावों में उम्मीदवारी को लेकर हुई खींचतान के बाद शुरु हुई कांग्रेस और झामुमो के बीच चल अनबन ही देने के लिए पर्याप्त है।

पिछले महीने झामुमो ने राज्यसभा सीट के लिए अपने सहयोगी दल यानी कांग्रेस की मांग को खारिज कर दिया और इसके बजाय अपना खुद की उम्मीदवार महुआ माजी को मैदान में उतारा था। जो शायद अब एक बड़ा कारण साबित हो रहा हो।

द प्रिंट की ही एक रिपोर्ट के अनुसार कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने नाम नहीं छापने की शर्त के साथ बताया कि झारखंड में कांग्रेस के सदस्य झामुमो से अलग होना चाहते हैं। उन्होंने कहा कि कई कांग्रेस विधायक हैं जो गठबंधन और झामुमो के साथ हुए सौदे से नाखुश हैं। राज्यसभा में गड़बड़ी के बाद हालात ठीक नहीं रह गए। जिसके बाद अब कांग्रेस के कई नेता गठबंधन तोड़ने और झामुमो को बाहरी समर्थन देने के पक्ष में हैं।

अब जब झारखंड के भीतर ही कांग्रेस और झामुमो में इतनी रार है, और भाजपा.. जो ऐसे मौकों की तलाश में रहती है, क्यों न कुछ खेला करे। दूसरा ये कि झामुमो के सामने किस राष्ट्रपति उम्मीदवार को वोट दिया जाए ये भी बड़ी चुनौती के रूप में है। जिससे इतना तो कहा जा सकता है कि राष्ट्रपति चुनाव के बाद नतीजे तय कर देंगे कि क्या वाकई झारखंड गठबंधन पर कोई संकट मंडरा है या नहीं।

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