Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

हीरक राजार देशे :  एक अभिशप्त देश की कहानी

सत्यजीत रे भारतीय सिनेमा के बेहतरीन निर्देशकों में से रहे हैं। 'हीरक राजार देशे' के माध्यम से लेखिका डॉ अंजु लता सत्यजीत रे के सिनेमा की राजनीतिक और सामाजिक समझ पर रौशनी डाल रही हैं।
हीरक राजार देशे
Image courtesy: Amazon

सिनेमा को समाज का आईना मानने वाले लोग इस बात से कभी इनकार नहीं कर सकते हैं कि सिनेमा ने समय समय पर अपनी प्रासंगिकता को और मजबूत किया है। साहित्य और सिनेमा की यही समरसता समाज में हो रहे बदलावों को अपने भीतर समेटने की क्षमता रखता है। समाज के बदलावों को देखने के लिए उनमें हो रहें आंदोलनों की अनदेखी नहीं की जा सकती है। यही एक स्वस्थ लोकतंत्र की निशानी है। अपने जीवन के महत्वपूर्ण साल सत्यजीत रे ने ऐसे ही परिदृश्यों को अपने सिनेमा में दर्शाने की सफल कोशिशें की है। उनकी फिल्म ‘हीरक राजार देशे’ बंगाल की राजनीति के इर्द- गिर्द घूमती है। इस फिल्म में उन्होंने एक राजा को निरंकुश शासक बनते हुए चित्रित किया है। अभी के समय में हो रहे आंदोलन चाहे वो किसान आंदोलन हो या छात्र आंदोलन शासक वर्ग के वास्तविक चेहरे को स्पष्ट करती है । शासक वर्ग के द्वारा दिये गये प्रलोभन समाज को एक विशेष रूप के टकराव की स्थिति में पहुँचाने में सक्षम है। इसी श्रृंखला में इस फिल्म की महत्ता तत्कालीन राजनैतिक और सामाजिक परिप्रेक्ष्य में बढ़ जाती है।      

सत्यजीत रे द्वारा निर्मित ‘हीरक राजार देशे’ एक बाल फिल्म के रूप में रिलीज होती है। इस फिल्म का निर्माण 1980 में किया गया। यह फिल्म ‘गूपी गायन बाघा बायन’ (1968) की सीक्वल के रूप में निर्मित की गयी। सत्यजीत रे की अधिकांश फिल्में साहित्य रचनाओं पर आधारित होती हैं। यह दोनों ही फिल्में बाल फिल्म के रूप में काफी लोकप्रिय हुई । अपनी सीमित कथात्मकता के बीच यह फिल्में दर्शकों पर अपना गहरा प्रभाव छोड़ती हैं। यह कहानियाँ सत्यजीत रे के दादा उपेंद्र किशोर राय चौधुरी के द्वारा रचित हैं। जिसका रे ने सिनेमाई रूपांतरण प्रस्तुत करते हैं। यह फिल्में तत्कालीन बंगाल की राजनीति में व्याप्त मतभेद को प्रमुखता से व्यक्त करती है। फिल्म में जलते हुए घरों को दिखाना, शिक्षा और स्कूलों का बहिष्कार तथा पुस्तकों को जलाने के दृश्य उपस्थित है। शासन और सत्ता तंत्र जिस तरह से अपने विचारधारा को थोपने के लिए लोकतांत्रिक मूल्यों और सामाजिक तंत्र को नष्ट करती है उसे यह फिल्म बेहतर ढंग से दिखाती है। सामाजिक यथार्थ और समाज में व्याप्त विसंगतियों को सत्यजीत रे बेहतर रूप में अपनी फिल्मों में व्यक्त करते हैं।

सत्यजीत रे का जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ जो ब्रह्म समाज की विचारधारा से प्रभावित था। जिसका गहरा प्रभाव रे के जीवन पर भी पड़ता दिखाई  देता है। ब्रह्म विचारधारा सामाजिक और धार्मिक पुनुर्उत्थान पर जोर देता है। उनकी फिल्मों में भी सामाजिक परिवर्तन की आकांक्षा गहरे रूप में दिखाई देती है। यह परिवर्तन सामाजिक मूल्यों के परिवर्तन से भी संबंधित होती है। अधिकांश फिल्मों में नई और पुरानी सामाजिक मान्यताओं और मूल्यों के द्वंद्व को गहरे रूप से देखा जा सकता है। खासतौर से नई और पुरानी मान्यताएं मानवीय संबंधों को किसप्रकार से प्रभावित करती है इन विषयों पर इन्होंने अनेक फिल्मों का निर्माण किया है। समाज में व्याप्त वर्गीय विभेद तथा उन वर्गों के बीच के संघर्ष को बेहतर रूप से अपनी फिल्मों में दिखाते हैं। ऐसा माना जा सकता है कि सत्यजीत रे के पारिवारिक और सामाजिक संस्कारों का गहरा प्रभाव उनकी फिल्मों के विषय – वस्तु पर पड़ता है। इन्होंने सामाजवादी यथार्थवाद को अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति का साधन बनाते हैं। इनकी फिल्में ना सिर्फ सामाजिक यथार्थ की आलोचना ही नहीं व्यक्त करती हैं वरन् उनमें परिवर्तन की गहरी आकांक्षा भी व्यक्त करती हैं। इसलिए अपने समय के साथ उनका गहरा संबंध स्थापित होता है।

अपनी पहली फिल्म पाथेर पांचाली (1955) एक यथार्थवादी फिल्म है जो उस समय में बंगाल में व्याप्त गरीबी और सामाजिक विभेद को प्रदर्शित करते हैं। इस फिल्म में हरिहर की कहानी को रचनाकार सामने लेकर आतें हैं। जो मुशकिल से अपने परिवार का गुजारा करता है। सत्यजीत रे बाल मनोविज्ञान के भी गहरी समझ रखते हैं। पाथेर पांचाली में दुर्गा और अप्पू के माध्यम से उनके अभावपूर्म जीवन को मार्मिक रूप से व्यक्त करने का कार्य किया है। हीरक राजार देशे फिल्म भी बच्चों के लिए बनायी गयी थी। इस फिल्म में व्यक्त यथार्थ यह प्रदर्शित करता है कि सत्यजीत रे बच्चों  के मन में तानाशाही और लोकतंत्र के मूलभूत फर्क को स्थापित कर सके। उनके भविष्य को एक दिशा दे सके।  

इनकी फिल्म “गूपी गायन और बाघा बायन” तथा इसके दूसरे भाग “हीरक राजार देशे”  सामाजिक और राजनैतिक विचारधारा को व्यक्त करता है। इन फिल्मों की पृष्ठभूमि बंगाल होने के बावजूद इसे किसी क्षेत्र विशेष में सीमित करके नहीं देखा जा सकता है। यह दोनों ही फिल्में दुनियाँ में व्याप्त वर्गीय विभेद की व्याख्या प्रस्तुत करती हैं। वर्तमान समय में जब इन फिल्मों की व्याख्या की जा रही है तो यह जान लेना आवश्यक है कि दुनियाँ में फांसीवादी शक्तियों का स्वरूप एक जैसा ही है। उच्च वर्ग या शासक और उपेक्षित के बीच के संबंध को व्याख्यायित करने में सक्षम यह फिल्में गहरी आलोचना की मांग करती हैं। यह फिल्म 1960-70 के बीच बंगाल के राजनैतिक संघर्ष को कलात्मक रूप में व्यक्त करने में सफल हुयी हैं। फिल्म की समीक्षा से पहले यह समझना होगा की राजतंत्र में  वर्ग, जाति, लिंग , तकनीक तथा ज्ञान का गहरा संबंध शक्ति के साथ होता है। यह तंत्र अपने हिसाब से इन सामाजिक तंत्रों का उपयोग करती है। इस फिल्म में भी राजतंत्र के द्वारा लोकतंत्रिक अधिकारों का हनन करने वाले राजा को चित्रित किया गया है। वह अपने लाभ के लिए अपनी प्रजा को शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित करता है।

भारतीय सामाजिक संदर्भ में इस फिल्म की समीक्षा करने पर यह पता चलता है कि इसमें स्वत्रंत्रता पूर्व भारत तथा स्वत्रंत भारत की राजनैतिक, आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों की व्याख्या की गयी है। जहाँ शासक वर्ग अपनी शक्ति का प्रयोग विद्रोह करने वालों का सामाजिक रूप से तिरस्कृत करने के लिए करती है। यह फिल्म अपने समय की कलात्मक अभिव्यक्ति है। फिल्म चूंकि बच्चों के लिए बनायी गयी थी इसलिए अत्यंत ही सहज ढंग से जीवन में सही और गलत, सत्य और असत्य तथा अच्छे और बुरे के बीच फर्क करना सिखाती है। फिल्म में एक ऐसे देश की कहानी कही गयी है जिसकी मिट्टी से हीरे निकलते हैं। वहाँ का राजा उन हीरों का व्यापार करके स्वयं को तो सम्पन्न करता है लेकिन अपनी प्रजा की उन्नति का ख्याल नहीं करता है। उल्टे उन्हें प्रताड़ित करने अपने लाभ के लिए उनका प्रयोग करता है। फिल्म में उस देश की जनता अपने राजा के विरूद्ध विद्रोह करती दिखाई देती है। जिसप्रकार अंग्रेजी सत्ता की दमनकारी नीतियों के विरूद्ध भारतीय जनता एकजुट होकर मुक्ति की लड़ाई लड़ती है फिल्म में भी उसी प्रकार से विद्रोह का चित्रित किया गया है।

आज़ादी के बाद के भारत की परिस्थितियाँ बदलने के बजाए और जटिल होती चली गयी। खासतौर से साठ के दशक के बाद भारतीय राजनैतिक परिदृश्य की दिशा बदलने लगी थी। नेहरूवियन युग के अंत के बाद देश में राजनैतिक विद्रोह की परिस्थितियाँ उत्पन्न होने लगी थी। जिसमें सरकार के द्वारा लागू की गयी इमरजेंसी, बंगाल का विभाजन तथा नक्सलबाड़ी आंदोलन को महत्वपूर्ण परिघटना के रूप में देखा जा सकता है। सरकार की दमनकारी नीतियों का गहरा प्रभाव जनता पर पड़ रहा था। ऐसे समय में साहित्य और कलाओं की जिम्मेदारी बढ़ती चली गयी। जिसके परिणामस्वरूप उसमें मूलभूत परिवर्तन दिखाई देता है। जनता का सरकार और व्यवस्था से मोहभंग की परिस्थितियाँ उत्पन्न होती दिखाई देती हैं। हीरक राजार देशे इन्हीं घटनाओं को कलात्मक रूप देने का प्रयास करता हैं। 

सत्यजीत रे की गहरी सामाजिक और राजनैतिक समझ के प्रतिबिंब को इन फिल्मों में देखा जा सकता है। इनकी अधिकांश फिल्में साहित्य पर आधारित हैं। साहित्य पर आधारित होने के कारण उसके फिल्मी रूपांतरण में कई तरह की समस्याओं को सामना करना पड़ता है। इस संदर्भ में ‘सत्याग्रह’ में 20 मई 2019 में छपे एक लेख में लिखा है कि :  साहित्यिक रचनाओं पर बनी फिल्मों पर आलोचकों की तीखी नज़र होती है। अक्सर रचनाओं का फिल्म रूपांतरण आलोचना का सबब बनता है। लेकिन पाथेर पांचाली हो या शतरंज के खिलाड़ी , सत्यजीत रे कि फिल्में इस चलन की अपवाद रही हैं। शतरंज के खिलाड़ी के बारे में अनका कहना था कि अगर उनकी हिंदी भाषा पर पकड़ होती तो यह फिल्में दस गुना बेहतर होती। ( सत्यजीत रे : जिन्होंने भारत के सिनेमा को दुनिया का बनाया, अंक  सत्याग्रह 20 मई 2019) सत्यजीत रे कि फिल्मों में सामाजिक यथार्थ की कलात्मक अभिव्यक्ति को देखा जा सकता है। यहाँ यथार्थ और विचारधारा के बीच लेखक गहरे सामंजस्य के साथ अपनी फिल्मों को बनाते दिखाई देते हैं। 

1968 में हीरक राजार देशे का पहला भाग गूपी गायन बाघा बायन प्रदर्शित होती है। इस कहानी को बंगाल के प्रमुख बाल रचनाकार उपेंद्र किशोर राय चौधुरी ने लिखा जो सत्यजीत रे के दादा थे। यह कहानी मूलरूप से शक्तिशाली और शक्तिहीन के बीच के संघर्ष को व्यक्त करती है। फिल्म में गूपी और बाघा दो प्रमुख पात्र हैं। गूपी एक गाँव का व्यक्ति है जिसकी आवाज बहुत खराब है लेकिन वह एक महान गायक बनना चाहता है। गाँव के लोग उसकी खराब आवाज को बर्दाश्त नहीं कर पाते और उसे गाँव से बाहर निकाल देते हैं। गाँव की सीमा से बाहर निकलने पर उसकी मुलाकात बाघा से होती है। जो एक ढोल बजाने वाला है। एक रात भूतों के राजा ने उन दोनों के गायन से प्रसन्न होकर उन्हें अनंत भोजन, सीमाहीन यात्रा तथा जादुई शक्तियों का वरदान देते हैं। गूपी और बाघा यात्रा करते हुए सुन्दी राज्य में पहुँच जाते हैं। जहाँ पर संगीत की प्रतियोगिता आयोजित की गयी है। यहाँ गूपी तथा बाघा प्रमुख संगीतज्ञ के रूप में प्रतिस्थापित किये गये हैं। इसी बीच सुंदी के पड़ोसी राज्य हल्ला के राजा तथा उसके शैतान सेनापति ने मिलकर आक्रमण की योजना बनायी। गूपी और बाघा ने अपनी जादुई शक्तियों से इस युद्ध को असफल कर दिया तथा दोनों ने राजाओं की पुत्रियों से विवाह कर लिया।

वहीं इस फिल्म का दूसरा भाग हीरक राजार देशे 1980 में प्रदर्शित होती है। फिल्म के आरंभ में गूपी और बाघा अपना परिचय देते हुए एक गीत गाते हैं। वह अपने सुविधा सम्पन्न जीवन से उब चुके हैं। वह हीरों के राजा के देश से मिल आमंत्रण से काफी उत्साहित हैं और वहां जाकर अपनी जादुई शक्तियों का उपयोग भी करना चाह रहे हैं। फिल्म में हीरों के राज को एक आधुनिक तानाशाह के रूप में चित्रित किया गया है। वह अपने हीरों की खान में काम करने वाले मजदूरों को बल पूर्वक काम करवाता है। उसके राज्य में जो गरीब है वह लगातार लगान दे रहा है। राजा अपने राज्याधिकारों के साथ मिलकर गरीब कृषकों, हीरें की खान में काम करने वाले मजदूरों तथा गरीब गायक को प्रताड़ित करता है। अपनी राज व्यवस्था के बीच में उसे ऐसे लोग चाहिए जो उसके लाभ के लिए काम करते रहें। राजा की इन स्वार्थपरक नीतियों से केवल राज्य के स्कूल का शिक्षक लड़ने की कोशिश करता हैं। वह विद्रोही है। राजा उसे भी कैद करने की कोशिश करता है लेकिन वह असफल हो जाता है। शिक्षक पहाड़ियों में छुपकर अपने प्राणों की रक्षा करता है। साथ ही वह जनता को विद्रोह के लिए तैयार भी करता है। इसक्रम में बाघा और गूपी भी उसके साथ मिल जाते हैं। शिक्षक उन्हें क्रूर राजा के अन्याय से अवगत कराता है। अंत में तीनों मिलकर राज्य के लोगों के साथ राजा को पराजित करते हैं। इस कार्य में गूपी और बाघा की जादुई शक्तियाँ महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। 

इन दोनों ही फिल्मों में शासन की शक्ति बदलती हुई दिखाई देती है। राजा के द्वारा प्रताड़ित जनता विद्रोह करती है। हीरक राजार देशे फिल्म में आधुनिक तकनीक के प्रयोग शासक किस प्रकार अपने पक्ष में करता है इसका उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। खासतौर से ‘ब्रेन वाशिंग मशीन’ के द्वारा राजा अपनी प्रजा की सोच बदलने के लिए करता दिखाई देता है। यह मशीन स्वयं राज वैज्ञानिक ने निर्मित की है। वहीं दूसरी तरफ वह एक ऐसे दूरबीन का निर्माण करता है जिससे वह अपनी प्रजा की गतिविधियों पर नियंत्रण कर सके। अपने राज्य को नियंत्रण में रखने के लिए राजा लगातार उनपर अपनी नज़र बनाएं रखें हुए है। उसकी प्रजा के प्रत्येक मंत्री प्रमुख रूप से स्वास्थय मंत्री, शिक्षा मंत्री, वित्त मंत्री तथा प्रसारण मंत्री आदि अपने कामों में व्यस्त हैं। इनमें से प्रत्येक अपनी प्रशासनिक शक्ति का प्रयोग शासन तंत्र को मजबूत करने के लिए कर रहे हैं। राजा को यह पता है कि राज्य में शिक्षा के प्रसार से जनता उसकी क्रूरता और अन्याय के प्रति सजग हो जाएगी। इसलिए वह विद्यालयों को बंद करने का आदेश देता है। पुस्तकों को जलवा देता है और शिक्षक को बंदी बनाने का प्रयास करता है। इन सभी गतिविधियों को करते हुए वह अपनी प्रजा के सामने एक तानाशाह के रूप में स्थापित हो जाता है। सभी उसके सामने नतमस्तक हो जाते हैं। फिल्म में विद्रोह शिक्षक के नेतृत्व में कराया गया है साथ ही गूपी और बाघ की जादुई शक्तियों का भी प्रयोग किया गया है। 

यह कहानी उन सभी देशों के लिए सच हो जाती है जिसका नेतृत्व किसी तानाशाह के हाथों में हैं। बच्चों के लिए बनी होने के कारण हीरक राजार देशे का अंत जादूई शक्तियों का वरण करके किया गया है। नहीं तो वहाँ पर होने वाले सामाजिक परिवर्तन को राजतंत्र से लोकतंत्र में परिवर्तन के लिए होने वाले विद्रोह के रूप में समझा जा सकता है। हीरो के देश का राजा अपने राज्य के उस गायक चंदन दास को चुप करा देता है जिसके गीत लोगों के बीच जागरूकता फैलाने का कार्य करते हैं। राजा से कैदखाने में डलवा देता है। चंदनदास अपनी अंतिम सांसों तक राजा की क्रूरता के खिलाफ गीत गाता रहा। अपने देश की जनता को लगातार प्रताड़ित करने के क्रम में राजा लगातार आत्ममुग्धता का शिकार होता गया। इसी से प्रेरित होकर वह अपनी बहुत बड़ी मूर्ति राज्य के बीच में स्थापित करने का फैसला लेता है। वह जनता की शक्ति से अनभिज्ञ यह सोचता है कि उसकी मूर्ति उसकी शक्ति का प्रतीक बनेगी। इन घटनाओं के जरिए सत्यजीत रे आधुनिक समाज में व्याप्त तानाशाहों के चरित्र को रेखांकित करने की कोशिश करते हैं। जिनका मुख्य कार्य जनता की गतिविधियों पर नज़र रखना होता है। उन्हें अपनी जिम्मेदारियों का नहीं वरन् जनता की गतिविधियों की चिंता होती है। इस क्रम में वह लगातार गलतियाँ करते जाते हैं। राजा बाहर से आये अतिथियों गूपी और बाघा के सामने अपने उदार स्वरूप को ही उजागिर करता है। हीरो की खान में दिन रात काम करने वाले मजदूर हर तरह से प्रताडित होने के बावजूद उनके सामने नतमस्तक हैं। 

सत्यजीत रे देश की राजनैतिक और सामाजिक परिस्थितियों से भली भांति परिचित थे। खासतौर से बंगाल की राजनीति के संदर्भ में उनकी समझ काफी गहरी दिखाई देती है। जबकि कुछ आलोचक हैं जिन्होंने इनके विषय में लिखा कि वह समकालीन भारत की परिस्थितियों को प्रस्तुत करने में सक्षम नहीं हैं इनमें प्रमुख रुप से चिदंदा दास लिखते हैं कि : Calcutta of the burning trams, the communal riots , refugees unemployment, rising price and food shortage does not exist in Ray’s films, (Chindanda das Gupta : Ray and Tagore sight and sound , 36:1 ( 1966-67) : 72. यह सच है कि प्रत्यक्ष रूप से किसी भी सामाजिक व राजनैतिक हिंसा को इनकी फिल्मों में नहीं दिखाया गया है। इस फिल्म में पर्दे के सामने उन्होंने राजा की क्रूरता को प्रत्यक्ष रूप में नहीं दिखाया है बल्कि उसके तानाशाही स्वरूप को उजागर किया है। राजा ब्रेन वाशिंग मशीन के जरिये लोगों के सोच – विचार पर नियंत्रण करने की कोशिश करता है। जिसकी वज़ह से जनता अपने शासक के प्रति आलोचनात्मक रवैया रखना भूल जाती है। वह राजा के विरूद्ध कोई आलोचना सहन नही कर पाते। जिस समय में यह फिल्में रिलीज हो रही थी भारतीय जनता ने देश की सरकारों का तानाशाही रवैया देख लिया था। देश में इंदिरा गाँधी की सरकार ने जिस प्रकार से लोकतांत्रित मूल्यों के हनन की प्रक्रिया चलायी उसे इमरजेंसी के दौर में देखा जा सकता है। रचनाकार इन्हीं सामाजिक यथार्थ के बीच अपनी कलात्मकता का साबित करता है। फिल्म अत्यंत ही सहज ढंग से नेताओं के राजनैतिक दोहरेपन को व्यक्त करती है।

सत्यजीत रे अपनी फिल्मों में जाति, लिंग और धर्म की यथार्थवादी व्याख्या प्रस्तुत करते दिखाई देते हैं। इन सामाजिक वर्गों के आधार पर यदि इनकी फिल्मों का मूल्यांकन किया जाए तो कई महत्वपूर्ण बिंदू सामने आते हैं। सत्यजीत रे की फिल्मों में औरतों की भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण रूप से व्यक्त की जाती है। इनकी अधिकांश फिल्मों की मुख्य भूमिकाओं में महिलाओं की सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक स्थिति को रेखांकित किया गया है। इनकी फिल्में महिलाओं की सामाजिक पहचान और उनके अधिकारों की बात करती दिखाई देती हैं। ब्रह्म समाज से प्रभावित होने के कारण विधवा पुनर्विवाह तथा अन्य स्त्री संबंधी अधिकारों की बात रे के यहां महत्वपूर्ण हो जाती हैं। हीरक राजार देशे एक ऐसी फिल्म है जिसमें कोई भी स्त्री पात्र नहीं है। पूरी फिल्म बिना किसी स्त्री के ही पूरी हो जाती है। यहाँ सिर्फ एक सीन ऐसा है जिसमें स्कूल टीचर उदयन के घर में सैनिक आते हैं तो उसकी माँ उसके बूढ़े पिता की रक्षा करती है। इस क्रम में जो भय और शंका उस स्त्री की आंखों में दिखाई देती है वह ध्यान देने योग्य है। यह भय हर उस स्त्री की आंखों में देखा जा सकता है जो किसी तानाशाही राज्य का हिस्सा है। 

भारतीय समाज में आधुनिकता के आगमन के साथ लोकतांत्रिक मूल्यों का भी विकास देखा जा सकता है। जिसके केंद्र में स्त्री और दलित प्रश्न प्रमुख विषय रहें हैं।  इन मूल्यों से प्रभावित कलाकार और फिल्म निर्माता सत्यजीत रे की कलात्मक अभिव्यक्ति पर भी इसका प्रभाव देखा जा सकता है। इस संदर्भ में प्रकाश रे लिखते हैं कि : यूरोपिय सिनेमा के यथार्थवाद को भारतीय संवेदना के साथ परदे पर उकेरने वाले सत्यजीत रे ने जिसतरह से बतौर निर्देशक अपनी फिल्मों को अपनी दृष्टि से पूरा करते थे, वैसा की दूसरा उदाहरण हमें नहीं मिलता है। वर्ष 1950 में अपनी यूरोप यात्रा के दौरान उन्होंने 100 से अधिक फिल्में देखी थी। उनकी बहुमुखी प्रतिभा का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने बच्चों की कहानियाँ लिखी, चित्र बनाएं, बांग्ला और अंग्रेजी भाषाओं के अनेक नये टाइप फेस तैयार किया तथा सिनेमा तथा अन्य विषयों पर लेख लिखा। ( सत्यजीत रे एक अद्भुत प्रतिभा, प्रकाश रे, युगवार्ता . कॉम) इन फिल्मों को देखने से पता चलता है कि सत्यजीत रे ने इसे अपनी दृष्टि से मुक्कमल किया है।

कलात्मक दृष्टि से यह फ़िल्में कई तरह के प्रयोग करती नज़र आती हैं। फिल्म के सभी पात्रों ने अभूतपूर्व अभिनय का परिचय दिया है। फिल्म के संवाद अत्यधिक प्रभावशाली हैं। प्रमुख भूमिकाओं में उत्पल दत्त ( हीरों के देश का राजा), शौमित्र चैटर्जी (पंडित मोशाय), रबी घोष (बाघा बायन), तपन चैटर्जी ( गूपी गायन) आदि प्रमुख भूमिकाओं में उत्कृष्ट अभिनय का परिचय देते दिखाई देतें हैं। इस फिल्म के संवाद बहुत ही प्रभावपूर्ण ढंग से लिखे गये हैं। राजा की तानाशाही राज्य पर लागू करने के क्रम में फिल्मकार गहरे संवादों का प्रयोग करता है। उदाहरण के लिए :  लिखा पढ़ा करै जेई, अनाहारै मरे से( लिखने पढ़ने वाला व्यक्ति भूखे पेट मरता है।) , जानार कुनो शेष नाय, जानार चेष्टा वृथाकाय ( ज्ञान का कोई अंत नहीं है ज्ञान सदैव व्यर्थ जाता है) , विद्यालको नुकसान, नाई अर्थ नाई मान ( विद्यालय का नुकसान है ना धन प्राप्त होता है और ना ही मान सम्मान ) इस प्रकार के संवाद राज्य के मंत्री विद्यालय को बंद कराने के क्रम में शिक्षक को यह संवाद बोलते हैं। और विद्यालय को बंद करने का आदेश देते हैं। अंत में वह कहते हैं कि हीरक राजा बुद्धिमान, करै सभी जयगान। एक तानाशाह राज्य में राजतंत्रिक शक्तियों के दुरुपयोग को बेहतर ढंग से उभारकर सामने लाती है। इन सब के साथ फिल्म बेहतर कॉस्ट्यूम तथा रंगों का प्रयोग करती है। गीत दार्शनिक तथा प्रभावपूर्ण तत्वों को उभारकर सामने लाने में समर्थ है।

लेखिका डॉ. अंजु लता  तेजपुर विश्वविद्यालय, तेजपुर, असम में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं।

सहायक ग्रंथ सूची : 

  1. समकालीन सृजन, हिंदी सिनेमा का सच, सम्पादक , शंभुनाथ , वाणी प्रकाशन 1997

  2. Deep focus reflection on cinema, Editor . Sandip ray ,HarperCollinsn Publisher India 2012

  3.  https://satyagrah.scroll.in/article/100589/satajit-ray-life-work-cenema.

  4. http://www.ichowk.in/society/intersting-facts-about-legendary-director-satyjit--ray-and-his unique-film-making-techniques/stoy.

  5. http://www.flimcomment.com/article/interview-satyjit-ray//

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest