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कैसे उदारीकरण ने भारत की अर्थव्यवस्था को तबाह किया

निजी उद्यम में जान डालने के बजाय, देश में हुए ढांचागत सुधारों ने बड़े पूँजीपतियों की सार्वजनिक संसाधनों और सरकारी संपत्तियों को हड़पने में मदद की है।
How Liberalisation Destroyed

मेरे परिवार में पहला टीवी सेट 1982 में आया था, जब मैं 10 साल का था। हर शाम, जब मैं पड़ोस से वन-टिप-वन-हैंड क्रिकेट खेल कर वापस आता था, और अपना होमवर्क पूरा कर लेता तो मुझे इडियट बॉक्स (टीवी) के सामने बैठने की अनुमति मिल जाती थी। वे दिन दूरदर्शन के गौरवशाली दिन थे, जब सरकारी बाबुओं ने देश की व्यापक आबादी के लिए टीवी की सामग्री की योजना बनाई थी। इसलिए, मेरी शाम अक्सर कृषि दर्शन के साथ शुरू होती थी। वह एक ऐसा शो जिसने मुझे सिखाया कि भिंडी कैसे उगाई जाती है और सर्दियों में फसलों को कैसे बचाया जाता है। वैसे यह बेतुका कार्यक्रम एक ऐसे समय में किसानों के लिए पेश किया जाता था जब गाँवों में शायद ही किसी के पास टीवी सेट होता था।

एक मायने में देखा जाए तो दूरदर्शन की कार्यक्रम बनाने की योजना देश की एक मिरर-इमेज थी, जिसमें अर्थव्यवस्था और यहां तक कि समाज को चलाने के संबंध में ख़ुद की ऊपर से लेकर नीचे तक की योजनाएं थीं। लेकिन, 80 का दशक भी कुछ ऐसा दशक था जब इस ढांचे को धीरे-धीरे ख़त्म किया जा रहा था। डीडी के ज़रीये वह बदलाव दिखा-क्योंकि टीवी तेज़ी से मध्यम वर्ग केंद्रित हो गया। ग्रैमी अवार्ड्स, ऑस्कर, मिस यूनिवर्स प्रतियोगिता, ग्रैंड स्लैम टेनिस - सभी का सीधा प्रसारण होने लगा। इसके साथ ही, पहला सोप ओपेरा आया – हम लोग फिर बाद में बुनियाद और ये जो है ज़िंदगी आए। अंत में, 1988 में, द वर्ल्ड दिस वीक आया, जो मध्यम वर्ग के लिए एक खिड़की बनी, जिसने इसे विकसित दुनिया में होने वाली घटनाओं की जानकारी हासिल करने का मौका दिया।

राज्य यानी राष्ट्र मध्यवर्ग को आनंद उठाने के लिए प्रोत्साहित कर रहा था। मारुति और मैगी दोनों ही 1980 के दशक की शुरुआत में ही आ चुके थे, और उनके पीछे-पीछे अन्य उच्च श्रेणी के उत्पाद जैसे शैंपू, साबुन से लेकर मिक्सर-ग्राइंडर और एयर-कंडीशनर तक – यानी उपभोक्ता वस्तुओं और ड्यूरेबल्स की एक विस्तृत संख्या लोगों के सामने आ चुकी थी। चार दशकों के राज्य निर्देशित पूंजीवाद से मुँह मोड़ने का वक़्त आ गया था जिसे लोकप्रिय व्यवस्था या एक ग़लत धारणा के तहत ‘नेहरूवादी समाजवाद’ भी कहा जाता है।

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राव-मनमोहन द्वारा किए गए सुधार जिसमें -उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण शामिल था, बेशक बहुत लंबे समय से काम कर रहे थे लेकिन उन्होंने सरकार की आत्म-छवि में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया। राष्ट्र ने अर्थव्यवस्था का निर्देशन करने से पीछे हटने का फ़ैसला ले लिया, ताकि निजी पूंजी के अनपेक्षित संचालन को सुगम बनाया जा सके। गुलाबी काग़ज़ वाले पंडितों, बाज़ार के समर्थक राजनेताओं और अमेरिकापरस्त नीतियों ने हमें बताया कि ये ढांचागत सुधार भारत को एक बड़े औद्योगिक देश में बदल देंगे, ये सुधार धन-संपदा पैदा करेंगे और लोगों को खेत से निकालकर, कारखाने में ला देंगे जिससे देश में ग़रीबी कम हो जाएगी।

तीन दशक बाद जब हम मूड देखते हैं तो पाते हैं कि ऐसा नहीं हुआ। उदारीकरण से उधयोग मजबूत नहीं हुए। इस क्षेत्र की सकल मूल्य में हिस्सेदारी लगभग 15 प्रतिशत की है, जैसा कि 1980 के दशक में थी। नौकरियों के संदर्भ में, कारखानों ने 1980 के दशक में हर साल 2 प्रतिशत नए रोजगार जोड़े थे। 1990 के दशक में यह गिरकर 1.6 प्रतिशत हुए, 2000 के दशक में बढ़कर 1.9 प्रतिशत और फिर 2010-11 से 2015-16 के बीच घटकर 1 प्रतिशत रह गए।

निजी उद्यम में जान फूंकने के बजाय, ढांचागत सुधारों ने इंडिया इंक यानि बड़े पूँजीपतियों को सार्वजनिक संसाधनों और सरकारी संपत्तियों को अर्जित करने में मदद की। राष्ट्र ने अपनी नीतियों को वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन से लेकर एक ढांचागत संरचना बनाने के लिए काम किया, ताकि निजी पूंजी का संचालन सक्षम हो सके। ’ढांचा’ तैयार करने पर नए फोकस के परिणामस्वरूप निर्माण क्षेत्र में बड़ा उछाल आया, जिसे काफी हद तक निजी निर्माण कंपनियों द्वारा अंजाम दिया गया था।

जहां लाइसेंस-कोटा राज ने कुछ व्यापारिक घरानों को अनुचित फायदा पहुंचाया था, भारत की अर्थव्यवस्था के 'खुलने' से अनुबंधित सार्वजनिक क्षेत्र जब खाली हुए तो उन क्षेत्रों में काम और नियंत्रण के लिए एक पागलपन छा गया। यह वक़्त बिचोलियों और सत्ता के दलालों की सेना तैयार होने के लिए उपजाऊ जमीन थी जिन्होंने राजनेताओं और बाबुओं को प्रभावित करने के लिए कॉरपोरेट्स के लिए बिचोलियों का काम किया। इसलिए, जिन नीतियों से भ्रष्टाचार खत्म होने की बात कही गई थी वास्तव में उन्होंने भ्रष्टाचार को कई गुणा बढ़ा दिया। और बड़े भ्रष्टाचार ने भारत के निर्माण क्षेत्र के लिए दूसरा इंजन प्रदान किया।

भ्रष्टाचार का मतलब काले धन से था और इसे ठिकाने लगाने की सबसे अच्छी जगह थी रियल एस्टेट। जिन लोगों के पास बेहिसाब नकदी थी, उन्होंने महानगरों के आस-पास खेत ख़रीदना शुरू कर दिया और आज्ञाकारी राज्य सरकारों ने उनके मुताबिक़ भूमि उपयोग के क़ानूनों को बदल दिया। इसने अचल संपत्ति में एक उछाल पैदा कर दिया, और निजी रियल एस्टेट कंपनियों को आवास परियोजनाओं को शुरू करने और वाणिज्यिक भवनों के निर्माण के लिए प्रोत्साहित किया।

उदारीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों ने भारत के मध्यवर्ग को काफ़ी प्रभावित किया। जैसे-जैसे निजी लाभ बढ़ता गया, बहुराष्ट्रीय निगमों ने भारत में खोजपूर्ण कार्यालय खोले और भारत के आईटी आउटसोर्सिंग की चरम सीमा तक पहुंच गए, मध्यम वर्ग के पेशेवर व्यक्तियों को सुंदर वेतन पैकेज मिलना शुरू हो गया था। भारत के इस छोटे से हिस्से ने – जो आबादी का अधिक से अधिक 10 प्रतिशत होगा ने वॉशिंग मशीन, माइक्रोवेव ओवन, फ्लैट-स्क्रीन टीवी सेट, एयर-कंडीशनर ख़रीदना शुरू कर दिया। वे छुट्टियां बिताने विदेश जाने लगे और नियमित रूप से ऊंची दामों वाले रेस्तरां में भोजन करने लगे। इसी तबके के घर खरीदने की चाहत ने रियल एस्टेट बुलबुले को पैदा करने में भी योगदान दिया।

ये तीन चीजों, जिसमें बुनियादी ढांचे में सार्वजनिक निवेश, अचल संपत्ति में काले-धन का इस्तेमाल और मध्य-वर्गीय लोगों में घर खरीदने की चाहत-ने उदारीकरण के बाद के भारत में निर्माण क्षेत्र को नौकरियों के सबसे बड़े स्रोत के रूप में उभारा। 1990 के दशक में सभी नौकरियों में इसकी 4 प्रतिशत की हिस्सेदारी थी, जबकि 2010-11 में निर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़कर 10 प्रतिशत को पार कर गई थी। और, 2010 की पहली छमाही में, यह अर्थव्यवस्था में सभी नौकरियों का 12 प्रतिशत हिस्सा बन गया था।

लेकिन, ये रोजगार कम कुशलता, कम वेतन वाले और अस्थिर रोजगार थे। इसे इस तथ्य से जांचा जा सकता है कि 1980 के दशक के बाद से निर्माण-क्षेत्र में सकल उत्पादन में मजदूर  की आय का हिस्सा सिर्फ 28 प्रतिशत रह गया था। इन निर्माण श्रमिकों में थोक प्रवासी मजदूर अधिक थे, जो अपने परिवारों को गाँव में पीछे छोड़ कर आते थे। वे शून्य शहरी सुविधाओं के साथ निर्माण स्थलों की झोपड़ियों में रहते थे। उनका एक पैर गांव में रहता और बुवाई और फसल के मौसम के दौरान मदद करने के लिए घर चले जाते थे। इन कमर तोड़ नौकरियों को स्वीकार करने का मुख्य कारण यह था कि खेत के आकार अब छोटे हो रहे थे जिसका सीधा मतलब था कि खेती अब उन्हें ज़िंदा नहीं रख सकती थी।

भारत के निर्माण क्षेत्र में बूम शारीरिक रूप से प्रभावशाली रहा हो सकता है, लेकिन जब सकल उत्पादन की बात आती है तो यह कोई बहुत बड़ा उछाल नहीं रह जाता है। 1980 और 1990 के दशक के दौरान कुल सकल उत्पादन में निर्माण क्षेत्र का हिस्सा लगभग 10 प्रतिशत रहा, 2000 के उछाल वाले वर्षों में यह 13 प्रतिशत तक बढ़ गया और फिर 2010-11 से 2015-16 के बीच घटकर 11 प्रतिशत रह गया। और, सकल उत्पादन में श्रम-आय का हिस्सा 1990 के दशक की तुलना में 2010 के दशक में मामूली कम था। वास्तव में, निर्माण क्षेत्र में कार्यरत प्रत्येक व्यक्ति द्वारा जोड़ा गया मूल्य 1980-81 में लगभग 2 लाख रुपये से घटकर 2015-16 में 1.3 लाख हो गया, जो कि 2011-12 के मूल्य के बराबर था।

जबकि गरीब लोग मुश्किल से ही अपना जीवन व्यतीत कर पा रहे थे लेकिन संपन्न मध्यम-वर्ग ने नई दुकानों और मॉल का आनंद उठाया। इसने व्यापार, परिवहन और भंडारण को बढ़ावा दिया, जो उदारीकरण के बाद के वर्षों में दूसरा बड़ा मालिक बन गया। 1980 के दशक में 9 प्रतिशत की रोज़गार हिस्सेदारी से, व्यापार, परिवहन और भंडारण में 2000 के दशक तक सभी नौकरियों का 14 प्रतिशत हिस्सा था। इनमें से अधिकांश नौकरियां,  कम वेतन वाली थी, और आमतौर पर प्रवासी लोगों द्वारा की जाती थीं। लेकिन, इसने पारंपरिक व्यापारिक जातियों को भी समृद्ध किया, जो इस दौड़ में नए उभरे मध्य वर्ग के सम्मानित सदस्य बन गए।

यह आज भारत की अर्थव्यवस्था की बड़ी समस्या बन गई है। देश के बहुसंख्यक लोग उन मूल  उपभोग की वस्तुओं से आगे कुछ भी करने में असमर्थ हैं जो उन्हें जीवित रखती हैं। और देश के शीर्ष 10 प्रतिशत भारतीय, जो बड़े खरीदने वाले वर्ग हैं, वस्तुओं और सेवाओं के लिए महत्वपूर्ण अतिरिक्त मांग पैदा नहीं कर सकते हैं – ज्यादा से ज्यादा वे एक वस्तुओं के बदलने  की मांग को बनाए रख सकते हैं। इसका असर कारों, घरों, इलेक्ट्रिक वस्तुओं और यहां तक कि तेजी से चलने वाले उपभोक्ता सामानों की बिक्री की मंदी में दिखाई दे रहा है।

यह केवल एकमात्र व्यावसायिक चक्र नहीं है, बल्कि एक गहरी ढांचागत मंदी है। निजी क्षेत्र कभी भी हमें इस संकट से नहीं उबार सकते हैं, क्योंकि निजी क्षेत्र को इन हालत में मुनाफ़ा कमाने की कोई राह नज़र नहीं आ रही है। अगर देश के नीति निर्माता मान ले कि नव-उदारवादी अर्थशास्त्र के 29 वर्षों का मायाजाल भारत में असफल हो गया है तो रास्ता ठीक इसके उलट हो जाएगा। लेकिन, इसके लिए एक अलग तरह की वर्गीय राजनीति होनी चाहिए और इतना दम हो कि वह वित्त पूंजी से टक्कर ले सके। क्या मोदी सरकार से ऐसा करने की आख़िरी उम्मीद की जा सकती है? अभी देखना बाक़ी है।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

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