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कैसे कहें कि हम आज़ाद हैं?

अपनी आज़ादी के 74वें वर्ष में प्रवेश करते वक्त हमारे लिए सबसे बड़ी चिंता की बात क्या हो सकती है या क्या होनी चाहिए? क्या हमारे वे तमाम मूल्य और प्रेरणाएं सुरक्षित हैं, जिनके आधार पर आज़ादी की लंबी लड़ाई लड़ी गई थी और जो आज़ादी के बाद हमारे संविधान का मूल आधार बनी थीं?
migrant worker
प्रतीकात्मक तस्वीर

देश में कोरोना की महामारी से मची अफरातफरी और सत्ता-प्रेरित सांप्रदायिक नफरत से भरे माहौल के बीच अपनी आज़ादी के 74वें वर्ष में प्रवेश करते वक्त हमारे लिए सबसे बड़ी चिंता की बात क्या हो सकती है या क्या होनी चाहिए? क्या हमारे वे तमाम मूल्य और प्रेरणाएं सुरक्षित हैं, जिनके आधार पर आज़ादी की लंबी लड़ाई लड़ी गई थी और जो आज़ादी के बाद हमारे संविधान का मूल आधार बनी थीं? क्या आज़ादी के बाद हमारे व्यवस्था तंत्र और देश के आम आदमी के बीच उस तरह का सहज और संवेदनशील रिश्ता बन पाया है, जैसा कि एक व्यक्ति का अपने परिवार से होता है?

आखिर आज़ादी और फिर संविधान के पीछे मूल भावना तो यही थी। आज़ादी मिलने के पहले महात्मा गांधी ने इस संदर्भ में कहा था- 'मैं आज़ादी के बाद ऐसे भारत के लिए प्रयत्न करुंगा, जिसमें किसी भी समुदाय के छोटे से छोटे व्यक्ति को भी यह एहसास हो कि यह देश उसका है, इसके निर्माण में उसका योगदान है और उसकी आवाज का यहां महत्व है। मैं ऐसे संविधान के लिए प्रयत्न करुंगा, जिसमें ऊंच-नीच और गरीब-अमीर का कोई भेद नहीं होगा, जो स्त्री-पुरुष के बीच समानता की बात करेगा और जिसमें नशे जैसी बुराइयों को खत्म करने की बात होगी।’

दरअसल, गांधी की यही बात हमारी आज़ादी के अब तक के सफर और आगे की दिशा के मूल्यांकन की सबसे बडी कसौटी हो सकती है। भारत के संविधान में राज्य के लिए जो नीति-निर्देशक तत्व हैं, उनमें भारतीय राष्ट्र-राज्य का जो आंतरिक लक्ष्य निर्धारित किया गया है, वह बिल्कुल महात्मा गांधी और हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के अन्य नायकों के विचारों और सपनों का दिग्दर्शन कराता है। लेकिन हमारे संविधान और उसके आधार पर कल्पित तथा मौजूदा साकार गणतंत्र की सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि जो कुछ नीति-निर्देशक तत्व में है, राज्य का आचरण कई मायनों में उसके विपरीत है। मसलन, प्राकृतिक संसाधनों का बंटवारा इस तरह करना था जिसमें स्थानीय लोगों का सामूहिक स्वामित्व बना रहता और किसी का एकाधिकार न होता तथा गांवों को धीरे-धीरे आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर किया जाता।

लेकिन हम आज़ादी की 73वीं सालगिरह मनाते हुए देख सकते है कि जल, जंगल, जमीन, आदि तमाम प्राकृतिक संसाधनों पर से स्थानीय निवासियों का स्वामित्व धीरे-धीरे पूरी तरह खत्म हो गया है और सत्ता में बैठे राजनेताओं और नौकरशाहों से सांठगांठ कर औद्योगिक घराने उनका मनमाना उपयोग कर रहे हैं.....और यह सब राज्य यानी सरकारों की नीतियों के कारण हो रहा है। यही नहीं, अब तो देश की जनता की खून-पसीने की कमाई से खडी की गई और मुनाफा कमा रही तमाम बडी सरकारी कंपनियां देश के बडे औद्योगिक घरानों को औने-पौने दामों में सौंपी जा रही हैं। सार्वजनिक क्षेत्र में सर्वाधिक रोजगार देने वाली भारतीय रेल का भी तेजी से निजीकरण शुरू हो चुका है। राष्ट्रीयकृत बैंकों की संख्याएं कम की जा चुकी हैं और जो अभी अस्तित्व में हैं उन्हें भी निजी हाथों में सौंपे जाने का खतरा बना हुआ है।

बेशक हम इस बात पर गर्व कर सकते है कि आज़ाद भारत का पहला बजट 193 करोड़ रुपए का था और अब हमारा 2020-21 का बजट करीब 30,42,230 करोड रुपए का है। यह एक देश के तौर पर हमारी असाधारण उपलब्धि है। इसी प्रकार और भी कई उपलब्धियों की गुलाबी और चमचमाती तस्वीरें हम दिखा सकते है। मसलन, 1947 में देश की औसत आयु 32 वर्ष थी, अब यह 68 वर्ष हो गई है। उस समय जन्म लेने वाले 1000 शिशुओं में से 137 तत्काल मर जाते थे। आज केवल 53 मरते हैं। उस समय साक्षरता दर करीब 18 फीसदी थी जो आज 68 फीसदी से ज्यादा है। परमाणु और अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में भी कई कामयाबियां हमारे खाते में दर्ज हैं। ऐसे और भी अनेक क्षेत्र हैं, जिनके आधार पर दुनिया भारतीय आज़ादी के अभी तक के सफर की सराहना करती है। एक समय दुनिया के जो देश भारत को दीन-हीन मानते थे, वे ही इसे भविष्य की महाशक्ति मानकर इसके साथ संबंध बनाने में गर्व महसूस करते है।

यह सब फौरी तौर पर तो हमारी आज़ादी की सफलता का प्रमाण है। लेकिन जब हम इस प्रश्न पर विचार करते हैं कि आज़ाद भारत का हमारा लक्ष्य क्या था तो फिर सतह की इस चमचमाहट के पीछे गहरा स्याह अंधेरा नजर आता है। भयावह भ्रष्टाचार, भूख से मरते लोग, पानी को तरसते खेत, काम की तलाश करते करोडों हाथ, देश के विभिन्न इलाकों में सामाजिक और जातीय टकराव के चलते गृहयुद्ध जैसे बनते हालात, बेकाबू कानून-व्यवस्था और बढते अपराध, चुनावी धांधली, विभिन्न राज्यों में आए दिन निर्वाचित जनप्रतिधियों की खरीद-फरोख्त के जरिए जनादेश का अपहरण, निर्वाचन आयोग का सत्ता के इशारे पर काम करना, न्यायपालिका के जनविरोधी फैसले और सत्ता की पैरोकारी, सत्ता से असहमति का निर्ममतापूर्वक दमन आदि बातें हमारी आज़ादी को मुंह चिढाती हैं।

सवाल है कि क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि हम एक असफल राष्ट्र बनने की दिशा में बढ़ रहे हैं? समस्या और भी कई सारी हैं जो हमें इस सवाल पर सोचने पर मजबूर करती हैं। दरअसल, भारत की वास्तविक आज़ादी बडे शहरों तक और उसमें भी सिर्फ उन खाए-अघाए तबकों तक सिमट कर रह गई है जिनके पास कोई राष्ट्रीय परिदृश्य नहीं है। इसीलिए शहरों का गांवों से नाता टूट गया है। सरकार को किसानों की चिंता हरित क्रांति तक ही थी, ताकि अन्न के मामले में देश आत्मनिर्भर हो जाए। वह लक्ष्य हासिल करने के बाद गांवों और किसानों को उनकी किस्मत के हवाले कर दिया गया। यही वजह है कि पिछले दो दशक में छह लाख से भी ज्यादा किसानों के आत्महत्या कर लेने पर भी हमारा शासक वर्ग जरा भी विचलित नहीं हुआ। शासक वर्ग की यही निष्ठुरता पिछले दिनों कोरोना महामारी के चलते महानगरों और बडे शहरों से गांवों की ओर पलायन करने वाले मजदूरों के प्रति भी दिखी। यह स्थिति बताती है कि हमारा व्यवस्था तंत्र गांवों को और गरीब किसानों को विकास की धारा में शामिल करने में पूरी तरह विफल रहा है।

हालांकि इस कमी को दूर करने के लिए ढाई दशक पहले पंचायती राज प्रणाली लागू की गई, मगर ग्रामीण इलाकों में निवेश नही बढ़ने से पंचायतें भी गांवों को कितना खुशहाल बना सकती है? इन्ही सब कारणों के चलते के चलते हमारे संविधान की मंशा के अनुरूप गांव स्वावलंबन की ओर अग्रसर होने की बजाय अति परावलंबी और दुर्दशा के शिकार होते गए। गांव के लोगों को सामान्य जीवनयापन के लिए भी शहरों का रुख करना पड़ रहा है। खेती की जमीन पर सीमेंट के जंगल उग रहे हैं, जिसकी वजह से गांवों का क्षेत्रफल कितनी तेजी से सिकुड़ रहा है, इसका प्रमाण 2011 की जनगणना है। इसमें पहली बार गांवों की तुलना में शहरों की आबादी बढने की गति अब तक की जनगणनाओं में सबसे ज्यादा है। शहरों की आबादी 2001 के 27.81 फीसदी से बढकर 2011 की जनगणना के मुताबिक 31.16 फीसदी हो गई जबकि गांवों की आबादी 72.19 फीसदी से घटकर 68.84 फीसदी हो गई। 2021 में जो जनगणना होगी उसमें तो यह अंतर और भी ज्यादा बढकर सामने आना तय है। इस प्रकार गांवों की कब्रगाह पर विस्तार ले रहे शहरीकरण की प्रवृत्ति हमारे संविधान की मूल भावना के एकदम विपरीत है। हमारा संविधान कही भी देहाती आबादी को खत्म करने की बात नहीं करता, पर विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के इशारे पर बनने वाली हमारी आर्थिक नीतियां वही भूमिका निभा रही है और इसी से गण और तंत्र के बीच की खाई लगातार गहरी होती जा रही है।

कुछ महीनों पहले केंद्र सरकार ने जो विवादास्पद नागरिकता संशोधन कानून संसद से पारित कराया है और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर तैयार करने का जो इरादा जताया है, उससे विभिन्न तबकों में भय और आक्रोश है। पूरे देश में एक नए किस्म के तनाव और डर का माहौल बना हुआ है। जम्मू-कश्मीर को मुख्यधारा में शामिल करने के नाम पर उसको संविधान प्रदत्त विशेष दर्जा खत्म कर उसे पिछले एक साल से खुली जेल में तब्दील कर दिया गया है।

दरअसल, भारत की आज़ादी और भारतीय गणतंत्र की मुकम्मल कामयाबी की एक मात्र शर्त यही है कि जी-जान से अखिल भारतीयता की कद्र करने वाले क्षेत्रों और तबकों की अस्मिताओं और संवेदनाओं की कद्र की जाए। आखिर जो तबके हर तरह से वंचित होने के बाद भी शेषनाग की तरह भारत को अपनी पीठ पर टिकाए हुए है, उनकी स्वैच्छिक भागीदारी के बगैर क्या हमारी आज़ादी मुकम्मल हो सकती है और क्या हमारा गणतंत्र मजबूत हो सकता है? जो समाज स्थायी तौर पर विभाजित, निराश और नाराज हो, वह कैसे एक सफल राष्ट्र बन सकता है?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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