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भारत को राजमार्ग विस्तार की मानवीय और पारिस्थितिक लागतों का हिसाब लगाना चाहिए

राजमार्ग इलाक़ों को जोड़ते हैं और कनेक्टिविटी को बेहतर बनाते हैं, लेकिन जिस अंधाधुंध तरीके से यह निर्माण कार्य चल रहा है, वह मानवीय, पर्यावरणीय और सामाजिक लागत के हिसाब से इतना ख़तरनाक़ है कि इसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
Highway Expansion
फ़ोटो: साभार: द फ़ाइनेंशियल एक्सप्रेस

राजमार्ग का तेज़ी से विस्तार केंद्र सरकार की प्राथमिकताओं में से एक है, यह इस बात से स्पष्ट है कि हाल के सालों में भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (NHAI) के बजट में बहुत ही तेज़ी से विस्तार हुआ है। 2020-21 में एनएचएआई का वास्तविक ख़र्च 46,062 करोड़ रुपये था। कोविड-19 महामारी के दौरान संसाधनों की गंभीर कमी के बावजूद, अगले साल के बजट अनुमान को महत्वपूर्ण रूप से बढ़ाकर 57,730 करोड़ रुपये कर दिया गया। फिर, सरकार ने 2020-21 में संशोधित अनुमान को बढ़ाकर 65,060 करोड़ रुपये कर दिया।

राजमार्ग आर्थिक विकास और कनेक्टिविटी और परिवहन को बढ़ावा देने के लिहाज़ से अहम हैं, लेकिन, ख़ासकर जिस अंधाधुंध रफ़्तार से यह सब किया जा रहा है, उन्हें बनाने की एक पारिस्थितिक क़ीमत भी है। 2022-23 में, भारत ने एनएचएआई के लिए आवंटन में अब तक की सबसे अहम बढ़ोत्तरी देखी, पिछले केंद्रीय बजट में बजट अनुमान में 100% से ज़्यादा की बढ़ोतरी,यानी 1,34,015 करोड़ रुपये की बढ़ोत्तरी थी। इससे तो यही लगता है कि राजमार्गों का बहुत तेज़ी से विस्तार हो रहा है, जिसका मतलब है कि सरकार को इसकी पारिस्थितिक और सामाजिक लागत को कम करने की कोशिश करनी चाहिए।

मगर, इस तरह की कोशिश के बजाय, राजमार्ग निर्माण के दौरान देश के कई हिस्सों, ख़ासकर हिमालयी क्षेत्र से पर्यावरण को गंभीर नुक़सान की चौंकाने वाली ख़बरें आ रही हैं। जो लोग इस निर्माण प्रक्रिया में नुक़सान उठा रहे हैं, उनके लिए मुआवज़े के लिहाज़ से बहुत कम किया जा रहा है। पहली बात तो यह कि यह पारिस्थितिक लागत कितनी बड़ी है, इसका अंदाज़ा दिसंबर 2020 में एक आरटीआई अनुरोध के सरकारी जवाब से मिलता है।उस जवाब के मुताबिक़, उत्तर प्रदेश में चित्रकूट और इटावा को जोड़ने वाली 297 किलोमीटर लंबी बुंदेलखंड एक्सप्रेसवे परियोजना के लिए 1.89 लाख से ज़्यादा पेड़ काटे गये थे। इस परियोजना की प्रगति आधिकारिक तौर पर लगभग 94% पूरी हो चुकी है। फिर भी काटे गये पेड़ों के आंकड़ों को कम करके आंका जा रहा है, क्योंकि यहां नष्ट हुई झाड़ियों और मिट्टी का हिसाब नहीं दिया गया है। उत्तराखंड में तक़रीबन 900 किलोमीटर लंबी चार धाम परियोजना के लिए पहले तीन चरणों में बड़े और छोटे, दोनों ही तरह के गिराये गये पेड़ों की गिनती की गयी। कुछ लोग इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि इस प्रक्रिया में दो लाख से ज़्यादा पेड़ ताबह किये गये। यह बहुत संभव है कि उत्तरकाशी से गंगोत्री तक की इस परियोजना के शेष बचे 100 किलोमीटर के हिस्से में लगभग इतनी ही संख्या में पेड़ों को ख़तरा हो। यह गंगा नदी के उद्गम के निकट एक बेहद संवेदनशील पर्यवारण से जुड़ा इलाक़ा है।

पेड़ों की कटाई के साथ-साथ पहाड़ियों को काटने के लिए अवैज्ञानिक साधनों का इस्तेमाल कर निर्माण ख़र्च बचाने की प्रवृत्ति से गंभीर नुक़सान हुआ है। एक बड़ा अपराध विस्फोटकों का बहुत ज़्यादा इस्तेमाल है। इससे भूस्खलन को लेकर संवेदनशील स्थलों और राजमार्ग के ख़तरे वाले इलाक़ो की बढ़ती संख्या और बढ़ जाती है। हमारे योजना बनाने वाले इस बात को भूल जाते हैं कि किसी परियोजना की लागत में समय और ईंधन की बचत के लिहाज़ से होने वाले लाभ भी शामिल होते हैं। अगर कोई राजमार्ग परियोजना यातायात अवरोधों, देरी और दुर्घटनाओं की आवृत्ति को बढ़ा देती है, तो समय के साथ विस्तार और सड़क चौड़ीकरण का मक़सद ही विफल हो जाता है।

ये समस्यायें ख़राब योजना से शुरू होती हैं और समुदायों से परामर्श किये बिना इन परियोजनाओं को मंज़ूरी दे दी जाती है। इसका नतीजा यह होता है कि बड़े पैमाने पर सड़क चौड़ीकरण पहाड़ी क्षेत्रों में इसकी सहनशीलता की सीमा को पार कर जाता है। एक और गंभीर चूक निर्माण के दौरान पैदा होने वाले मलबे के निपटान की व्यवस्था करने में असमर्थता है। यह कीचड़ नदियों में अपना रास्ता तलाश लेता है और पानी के प्रवाह और नदी के जीवों को नुक़सान पहुंचा देता है और बाढ़ के ख़तरे को भी बढ़ा देता है।

जम्मू और कश्मीर में उधमपुर से बनिहाल तक जाने वाले राजमार्ग को चौड़ा करने की परियोजना ने जल स्रोतों, ख़ासकर जम्मू क्षेत्र में तवी नदी को तबाह कर दिया है। रामबन में लोगों ने सांस लेने में गंभीर समस्या की शिकायत की है, जहां मलबा जमा है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) ने एक रिटायर वरिष्ठ न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक निगरानी समिति का गठन किया था, जिसने अक्टूबर 2021 में कहा था कि एनएचएआई को इस नुक़सान की भरपाई करनी चाहिए और प्रदूषण फैलाने वाले को भुगतान करने के सिद्धांत के हिसाब से 129 करोड़ रुपये दिये जाने चाहिए। उस समय एनजीटी ने एनएचएआई को परियोजनाओं को लागू करते समय पर्यावरण से जुड़े नुक़सान को रोकने और निगरानी करने की अपनी क्षमता को मज़बूत करने का निर्देश दिया था।

यह भी एक हक़ीक़त है कि भारत में कोई भी एजेंसी बड़ी निर्माण परियोजनाओं के दौरान हुए नुक़सान की गणना नहीं करती है। जम्मू-श्रीनगर राजमार्ग को चौड़ा (चार लेन) करने वाली परियोजना के हिस्से के तौर पर चल रहे सुरंग निर्माण परियोजना के स्थल पर 21 मई को रामबन में भूस्खलन हुआ था। सुरंग के मुहाने पर खुदाई कर रहे दस मज़दूरों की मौत हो गयी थी। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक़, इस सुरंग का मुहाना और आसपास के इलाक़े यात्रियों के लिए भी 'मौत की फांस' बन गये हैं, क्योंकि यह लगातार भूस्खलन और पत्थर गिरने से प्रभावित है।

हम यह भूल जाते हैं कि राजमार्गों के निर्माण की लागत में वे पथ-कर भी शामिल हैं, जो परियोजना के पूरा होने के बाद लोगों को चुकाने होंगे। हाल ही में गुड़गांव के सोहना के स्थानीय निवासियों ने 19 किलोमीटर के भूमि-खंड वाले आंशिक रूप से खुली एलिवेटेड रोड पर एक टोल प्लाज़ा स्थापित करने का विरोध किया था। उन्होंने कहा था कि वे स्थानीय लोगों को मासिक रियायती पास के साथ एनएचएआई की ओर से दी गयी अस्थायी राहत के विरोध में स्थायी रूप से टोल टैक्स से छूट चाहते हैं। यहां रह रहे लोगों का कहना है कि गुड़गांव में न सिर्फ़ एक, बल्कि चार टोल प्लाज़ा के होने से उनकी आवाजाही प्रतिबंधित है, जिनमें बहुत कम निकास हैं।

पर्यावरण को होने वाले नुक़सान, आर्थिक कठिनाइयों और सामाजिक लागतों का सामना कर रहे इन लोगों के लिए यह कोई नयी बात नहीं है, लेकिन राजमार्ग-निर्माण कार्य में जितने ज़्यादा पैसे डाले जायेंगे, हालात तब तक बिगड़ते ही रहेंगे, जब तक कि कोई सुधार नहीं हो जाता। 2019 में 1,328 किलोमीटर लंबा दिल्ली-मुंबई एक्सप्रेसवे संरक्षित क्षेत्रों से होकर गुज़रा था। बताया गया था कि इस परियोजना में लगे इंजीनियर "पूरी पहाड़ियों को विस्फोट उड़ा रहे थे और उन्हें समतल कर रहे थे" और इन चौड़े राजमार्गों के लिए परत बिछाने को लेकर उसी मिट्टी का फिर से इस्तेमाल कर रहे थे।

लोगों को इस बात का एहसास तक नहीं है कि पारिस्थितिक नुक़सान जितना ही ज़्यादा होगा, सामाजिक लागत उतनी ही अधिक होगी। हिमाचल प्रदेश में चौड़े परवाणू-सोलन राजमार्ग के पास रहने वाले लोगों के साथ इस लेखक की बातचीत से पता चला कि भारी निर्माण कार्य के दौरान कई लोगों ने अपने घरों या घरों के हिस्सों, रास्तों और खेतों को खो दिया था। जहां चौड़ीकरण के दौरान अधिग्रहित भूमि के लिए मुआवज़ा आम तौर पर हासिल हो जाता है,वहीं अप्रत्यक्ष नुक़सान अक्सर लंबे समय तक अनसुलझा रह जाता है या इसके लिए कभी मुआवज़ा ही नहीं दिया जाता है। सड़कों के लिए जगह बनाने के सिलसिले में सड़क किनारे लगी दुकानों को हटा दिया जाता है, और उन्हें आमतौर पर अतिक्रमण की श्रेणी में रख दिया जाता है, जिससे नुक़सान उठाने वाले मुआवज़े के हक़दार नहीं रह जाते हैं। पर्यटन और तीर्थयात्रा से जुड़ी मामूली आजीविका वाले लोग कहीं ज़्यादा बुरी तरह प्रभावित होते हैं। कुछ ने तो समितियां बना ली हैं और इंसाफ़ की मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं।

एक्सप्रेसवे के साथ लगने वाले तेलंगाना एक गांव की उस दुखद कहानी को ज़रा याद कीजिए, जिसमें सड़क पार करने की कोशिश में कई पुरुष निवासियों की मौत हो गयी थी। ऐसी समस्यायें पूरे देश में मौजूद हैं और ये इसलिए पैदा होती हैं, क्योंकि सहायक सड़कों और बाईपास की लागत ज़्यादा होती है। ऐसे गांव और क़स्बे हमेशा होते हैं, जहां सहायक मार्ग, निकास या उपमार्ग नहीं होते, और इनमें से हर एक स्थिति का अपना एक जटिल प्रभाव होता है। इसलिए, हमें राजमार्ग विकास के सामाजिक और पर्यावरण से जुड़े प्रभावों का हिसाब लगाना चाहिए और फिर उन्हें कम करने के उपायों की आवश्यकता है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) के एक हालिया फ़ैसले में कहा गया है कि इस तरह के नुक़सान की भरपाई के लिए और ज़्यादा वित्तीय संसाधन आवंटित किये जाने चाहिए, और इस फ़ैसले का स्वागत किया जाना चाहिए। उन एहतियाती प्रणालियों को रखना और भी अहम हो जाता है, जो कि नुक़सान पहुंचाने से सबसे पहले बचाती हैं। राजमार्ग निर्माण को पिछली ग़लतियों से सीखना चाहिए। इस प्रक्रिया के लिए निष्पक्ष पूर्व-परियोजना मूल्यांकन और सामुदायिक परामर्श अहम हैं। इस सिलसिले में स्थानीय समुदाय का सदुपयोग करना और परिस्थितियों को समझना भी ज़रूरी है।

लेखक ‘कैंपेन टू सेव अर्थ नाउ’ के मानद संयोजक हैं। उनकी किताबों में हालिया किताब- प्लेनेट इन पेरिल एंड मैन ओवर मशीन शामिल हैं। इनके व्यक्त विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

India Must Account for Human and Ecological Costs of Highway Expansion

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