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भारत के श्रम ‘सुधार’ कुछ पूंजीवादी देशों से भी बदतर हैं

"सुधार" के बहाने भारत में श्रमिकों की सुरक्षा के उपायों को ध्वस्त किया जा रहा है।
labour reforms
Image courtesy: The Financial Express

निश्चित रूप से यह एक अच्छी बात है कि महानगर मीडिया ने एक बार फिर क़ानून और बुनियादी स्वतंत्रता के शासन के खोए रास्ते को मुदा बना लिया है। लेकिन वही मीडिया श्रम अधिकारों के ध्वस्त होने के बढ़ते ख़तरे की तरफ़ पूरी तरह बेफ़िक्र लग रहा है, वे अधिकार जिन्हें तीन शताब्दियों के लंबे संघर्षों के ज़रीये और अकल्पनीय बलिदानों के माध्यम से जीता गया था।

यहां तक कि भारत में, श्रम इतिहास का वृतांत बेदर्द छंटनी, कारावास, और यहां तक कि पुलिस की गोलीबारी से श्रमिकों और उनके नेताओं की मौत से भरा हुआ है। इसलिए जब संपन्न और अच्छे पदों पर बैठे लोग नैतिकता की ऊंचाई को चूमते हुए कहते हैं कि मज़दूरों को देश के हालत के अनुरूप अपने व्यवहार को समायोजित करने की कोशिश करनी चाहिए, तो उनका यह नैतिकता भरा उपदेश केवल घोर पाखंड लगता है।

इन दिनों आईएमएफ़-वर्ल्ड बैंक की जोड़ी ने "आर्थिक सुधार" को के नाम पर "संरचनात्मक समायोजन" को  एक लापरवाह भारतीय नेतृत्व पर थोपा हुआ है। यह मन को मोह लेने वाला शब्द, देश की आर्थिक संप्रभुता और लोगों के कल्याण के लिए बने कठोर सुरक्षा क़ानूनों को धता बताकर पूंजी के वैश्विक आकाओं द्वारा लगाए गए समायोजन की कठोर प्रकृति को धुंधला करने के लिए लाया गया है।

निवेश और प्रबंधन के नियमों में ढील दी जा रही है और कॉरपोरेट फ़र्मों को उन नियमों को तब तक उल्लंघन करने की अनुमति दी गई है जब तक कि वे पैसा न कमा ले, और यही नहीं बल्कि पैसे को केवल माल के वास्तविक उत्पादन के साथ ही सीमित कर दिया गया है। बैंकों से सार्वजनिक बचत को उड़ा लेना सिर्फ़ एक संकेत है कि कॉर्पोरेट्स ने "व्यापार करने में आसानी" के नाम पर कितनी अनियंत्रित लूट मचाई है।

आवश्यक वस्तुएं अब विश्व बाज़ार की दया पर निर्भर है, जिसके चलते ग़रीबों को अपने करोड़ों घरों के लिए "संतुलित बजट" तैयार करना असंभव सा लगता है।

लोगों के अधिकारों के ताबूत में श्रम क़ानून "सुधार" आख़िरी कील का काम करेगा। सरकार संसद के भीतर विभिन्न बिलों के माध्यम से इस तरह के "सुधार" को मूर्त रूप देना चाहती है, क्योंकि संसद में अब करोड़पतियों की भरमार है और संसद के भीतर अब मज़दूर आंदोलन के नेताओं या उनके विचार-विमर्श की  कोई असरदार उपस्थिति नहीं है। एचवी कामथ, मधु दंडवते, एके गोपालन और हरकिशन सिंह सुरजीत जैसे लोग अब निर्वाचित नहीं होते हैं, और बचे हुए संघर्षपूर्ण अवशेष सिर्फ़ उदासीनता के साथ सुनते हैं।

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी यह स्थिति बिल्कुल धूमिल लग रही है। जिनेवा में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) का गठन रूसी क्रांति के दो साल बाद हुआ था, शायद बढ़ते क्रांतिकारी श्रम आंदोलन और उसके प्रभाव के रूप में ऐसा हुआ था। इसे अपनी वैधता स्थापित करने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ी और राज्य और श्रम दोनों और पूंजी के साथ-साथ दुनिया भर में श्रम क़ानून का मार्गदर्शन करने तथा कुछ अंतर्राष्ट्रीय श्रम मानक (आईएलएस) स्थापित करने में क़रीब क़रीब कामयाब रहा था। हालांकि ये अनिवार्य नहीं था लेकिन फिर भी वे नैतिक प्रभाव बनाते थे और कामकाजी लोगों के लिए सुरक्षा और कल्याण सुनिश्चित करने में मददगार थे। 

उदाहरण के लिए, एक श्रम मानक में यह निर्धारित किया गया था कि किसी भी मज़दूर को तब तक काम से नहीं निकाला जा सकता जब तक कि उसके विरुद्ध उचित आधार मौजूद न हो फिर भी उसे अपने साथ हुए अन्याय के ख़िलाफ़ अपील करने हक़ होगा। श्रम सुधार अब पूंजी के वर्चस्व को स्थापित करने और ऐसी बाधाओं को समाप्त करने के लिए डिज़ाइन किया जा रहा है।

आईएलओ अब रिसर्जेंट ग्लोबल (साम्राज्यवादी) पूंजी के प्रभाव में है, लेकिन रियायत पर रियायत करने के बाद भी इसे अभी तक पूरी तरह से दबाया नहीं जा सका है। लेकिन भारतीय शासक जो इन दबावपूर्ण "सुधार" को लागू करने के लिए उत्सुक हैं उन्हे आईएलओ ने नहीं बल्कि आईएमएफ़ और विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) जैसे वैश्विक पूंजी के संगठनों ने ऐसा करने को कहा है, जिनके बोर्डों में कोई श्रम प्रतिनिधि ही नहीं हैं।

उनका उद्देश्य आज "श्रम-क़ानून को लचीलापन" बनाना है, जो इस तथ्य पर निर्भर करता है कि यह लचीलापन केवल पूंजी के लाभ के लिए होना चाहिए। पवित्र नियम यह कहता है कि ट्रेड यूनियन के रूप में मान्यता प्राप्त करने के लिए, किसी भी उद्यम में श्रमिकों की यूनियन के लिए 75 प्रतिशत सदस्य होने चाहिए।

आखिर इसका क्या मतलब है? मज़दूरों के हित में सामूहिक सौदेबाजी करने के लिए मज़दूरों को संगठित होने का संवैधानिक अधिकार है। और मज़दूरों के हितों का प्रतिनिधित्व करने के मामले में ट्रेड यूनियनों की मान्यता को आधी सदी के संघर्ष और बलिदान के बाद जीता गया था। इसलिए यदि सदस्यता 66 प्रतिशत है, जैसा कि मामला था, या 50 प्रतिशत है तब भी यह श्रमिकों के अधिकारों के लिए एक बातचीत एजेंसी के रूप में अधिकार हासिल करने में कैसे विफल रह सकती है? और यह कैसे मायने रखता है जब कोई संगठन किसी फर्म में 66 प्रतिशत या 75 प्रतिशत सदस्यता का दावा नहीं कर सकता है, जब तक कि कई संगठन एक साथ उस संख्या तक नहीं पहुंच जाते हैं?

इन जल्लादों के सामने अगला आइटम रोज़गार की सुरक्षा है। पूंजीवादी यूटोपिया में, जहां पूंजीपति और मज़दूर दोनों को समान अधिकार प्राप्त हैं, प्रत्येक के पास अनुबंध को समाप्त करने की शक्ति है यदि उनमें से कोई भी सोचता है कि अनुबंध की शर्तें पूरी नहीं हुई हैं। लेकिन वास्तविक दुनिया में, पूंजीपति के लालच और क्रूरता के ख़िलाफ़ श्रमिकों के लिए एकमात्र गारंटी उनके रोज़गार की औपचारिक मान्यता है। चूँकि लाभ के लालच से सराबोर पूँजीपति लागतों में कटौती करता है और मज़दूरों को काम से निकालना पसंद करता है, इसलिए लाभ की दर बनाए रखना यह श्रमिकों के लिए एक बुरे ख़्वाब जैसा है।

इसलिए रोज़गार की सुरक्षा मज़दूरों की लगातार चलने वाली मांग है। यदि अल्पकालिक रोज़गार है, तो इसमें समय की एक उचित लंबाई होनी चाहिए और अगले काम मिलने तक खाली वक़्त में ख़र्च उठाने के लिए उसे उचित मज़दूरी मिलनी चाहिए। स्थायी नौकरियां आदर्श हैं, लेकिन एक प्रतिस्पर्धी माहौल में एक निजी उद्यम में, इसकी गारंटी नहीं दी जा सकती है। इसलिए ऊपर उल्लिखित शर्तें है।

यह विशेष रूप से भारत का मामला है जहां 90 प्रतिशत नौकरियां तथाकथित "अनौपचारिक" क्षेत्र में हैं। आईएलओ के आंकड़ों के अनुसार, भारत में केवल 3.80 प्रतिशत कार्यबल सार्वजनिक क्षेत्र में काम करता हैं। लेकिन यह देश के संगठित श्रम का कुल 69 प्रतिशत है। तुलना के लिए, ब्रिटेन में 16.5 प्रतिशत श्रम सार्वजनिक क्षेत्र में है, फ्रांस में 28प्रतिशत, कनाडा में 22.4प्रतिशत, जर्मनी में 15.3प्रतिशत, डेनमार्क में 32.9 प्रतिशत, और नॉर्वे में 35.6 प्रतिशत है। तो निश्चित रूप से सार्वजनिक क्षेत्र में अधिक रोज़गार के लिए जगह है, जबकि सरकार सार्वजनिक क्षेत्र को ख़त्म करने पर तुली हुई है।

जर्मनी में, इस वर्ष लागू होने वाले उनके रोज़गार और श्रम क़ानून के अनुसार, सभी रोज़गार एक अनुबंध के तहत हस्ताक्षरित होना अनिवार्य है, और यहां तक कि एक अहस्ताक्षरित अनुबंध को भी अदालतों के द्वारा बरकरार रखा जा सकता है। अनुबंध में तारीख, काम की अवधि, छुट्टियाँ, काम के घंटे, काम की स्थिति, वेतन, स्वीकृत छुट्टी और बीमार होने के संबंध नें भुगतान की शर्तों का उल्लेख होना चाहिए। श्रमिकों द्वारा यूनियनों के गठन का अधिकार एक संवैधानिक अधिकार है। सामूहिक सौदेबाजी विफल होने पर ट्रेड यूनियनों को हड़ताल का अधिकार दिया जाता है। नियमित कर्मचारियों के मुक़ाबले अनुबंध के तहत काम करने वाले श्रमिक के साथ भेदभावपूर्ण व्यवाहर ग़ैर-क़ानूनी है।

यहां तक कि जब कभी भी एक फर्म का स्वामित्व बदलता है, तब भी रोज़गार की शर्तें अपरिवर्तित रहेंगी। यदि कोई फ़र्म 500 से अधिक श्रमिकों को नियुक्त करती है, तो प्रबंधन बोर्ड में श्रमिकों का एक तिहाई प्रतिनिधित्व होता है। यदि 2000 से अधिक है तो बोर्ड में  प्रतिनिधित्व आधा होगा।

प्रगतिशील श्रम क़ानूनों का ऐसा उदाहरण हमारे सामने एक पूंजीवादी देश से है। तो क्यों हमारे देश को ऐसे मानकों से पीछे हटने के लिए मजबूर होना चाहिए?

जून 1998 में अपनाए गए एक प्रस्ताव में आईएलओ ने यह शर्त रखी थी कि अनुबंधित श्रम को औपचारिक रूप से मान्यता प्राप्त श्रम से अलग आधार पर नहीं माना जा सकता है। उन्हें नियमित श्रमिकों के समान सामूहिक सौदेबाजी का अधिकार होना चाहिए। उनके वेतन को संरक्षित करने के साथ-साथ उचित काम का समय और वैधानिक सामाजिक सुरक्षा लाभ भी होना चाहिए। हमारे देश का प्रस्तावित "श्रम-क़ानून में मौजूद लचीलापन" इन सभी प्रावधानों को दूर करना चाहता है।

आईएलओ की कन्वेंशन नंबर 158 ने बहुत ही आवश्यक सुरक्षा की सिफ़ारिश की है। यह सुनिश्चित करता है कि किसी भी श्रमिक को यूनियन में शामिल होने या नौकरी के घंटों के बाहर यूनियन के लिए काम करने  या श्रम क़ानूनों के उल्लंघन के लिए नियोक्ता के ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज करने के लिए उसे ख़ारिज नहीं किया जा सकता है। केवल एकमुश्त कदाचार के आधार पर, जिसको परिभाषित किया जाना चाहिए, नियोक्ता को  कर्मचारी की सेवा समाप्त करने की अनुमति है।

इस तरह के सुरक्षा उपायों को हमारे देश में "सुधार" के बहाने नष्ट किया जा रहा है!

लेखक समाजशास्त्रीय टीकाकार होने के साथ-साथ साहित्यिक आलोचक भी हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Labour ‘Reform’ in India: Worse Than Some Capitalist Nations

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