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मौत के आंकड़े बताते हैं किसान आंदोलन बड़े किसानों का नहीं है - अर्थशास्त्री लखविंदर सिंह

मौजूदा किसान आंदोलन के दौरान मारे गए किसानों की आर्थिक स्थिति का विश्लेषण करने वाली रिपोर्ट के लेखक का कहना है कि बीजेपी किसानों को कॉरपोरेट क्षेत्र में दिहाड़ी मज़दूर बनाना चाहती है।
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26 नवंबर 2020 को, किसानों की भारी संख्या भारत की राजधानी में उतर गई थी। जब उन्हे दिल्ली में प्रवेश होने रोक दिया गया तो उन्होंने दिल्ली की तीन सीमाओं पर तंबू गाड़ दिए थे। पिछले साल की कड़ाके की ठंड, इस साल की चिलचिलाती गर्मी और कोविड-19 महामारी के डर पर काबू पाते हुए आंदोलनकारी किसान पूरी तरह से वहीं डटे रहे। सबने एक साथ खाना पकाया और खाया। उन्होंने आंदोलन के दौरान मारे गए किसानों के प्रति शोक व्यक्त किया। उन्होंने केंद्र सरकार द्वारा उन्हे लगातार बेदखल करने की साज़िशों/योजनाओं का मुक़ाबला किया। उनके साथ प्रेरणादायक रूप से महिलाएं जुड़ी रहीं। उन्होंने अपने अहिंसक, या सहनशील प्रतिरोध से सभी को प्रभावित करते हुए पुलिस की लाठियों का बहादुरी से मुकाबला किया। 

मोदी सरकार के शस्त्रागार के दो घातक हथियारों में से एक डराना-धमकाना रहा है और दूसरा प्रदर्शन कर रहे किसानों की छवि खराब करना रहा है। उन्हें खालिस्तानी कहा गया। उनके इस आरोप को किसी ने भी गंभीरता से नहीं लिया। लेकिन, इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि विशेषज्ञों और मीडिया के एक वर्ग ने जोकि मोदी समर्थित हैं ने एक कहानी तैयार की कि किसान आंदोलन मुख्य रूप से, बड़े और समृद्ध किसानों का आंदोलन है।

लखविंदर सिंह और बलदेव सिंह शेरगिल ने मोदी सरकार की इस कहानी को सांख्यिकीय आधार पर गलत साबित कर दिया है। उन्होंने आंदोलन करते हुए मारे गए किसानों का डेटा एकत्र किया है। मानो या न मानो, उन्होंने पाया कि मारे गए किसान सीमांत और छोटे किसान हैं। 

न्यूज़क्लिक ने शेरगिल और लखविंदर सिंह, प्रोफेसर एमेरिटस, अर्थशास्त्र विभाग, खालसा कॉलेज, पटियाला से संपर्क किया और उनके द्वारा किए गए अध्ययन पर चर्चा की। सिंह बताते हैं कि उनका डेटा क्या कहता है कि ग्रामीण भारत में अंतर-वर्गीय गठबंधनों का उदय, और किसान आंदोलन उनके अस्तित्व की लड़ाई क्यों बन गया है।

संयुक्त अध्ययन में आपने और बलदेव सिंह शेरगिल ने, "गेहूं को भूसे से अलग करना: कृषि कानून, किसानों का विरोध और परिणाम", और जारी विरोध आंदोलन के दौरान मारे गए किसानों पर डेटा एक समृद्ध तैयार किया है। आप लोगों ने डेटा कैसे एकत्र किया?

हम 26 नवंबर 2020 को नई दिल्ली के बाहरी इलाके में किसानों के विरोध प्रदर्शन को नजदीकी से देख रहे हैं। करीब एक महीने के बाद, हमने कुछ प्रदर्शनकारियों की मौत पर मीडिया रिपोर्ट पढ़ी। इन रिपोर्टों से, हमने मृतकों के गांवों और उनके नामों को इकट्ठा किया, जहां से वे ताल्लुक रखते थे। हमने उनके टेलीफोन नंबर हासिल किए, उनके परिवारों से बात की, और उनकी उम्र और उनकी जोत के आकार जैसे विवरण एकत्र किए।

किसानों की विभिन्न श्रेणियों में मृत्यु का वितरण क्या था?

हमने पाया कि जो लोग किसान आंदोलन के दौरान मारे गए थे, उनके पास तीन एकड़ से भी कम जमीन थी और जोत थी। भारत में, छोटे किसानों को उन लोगों के रूप में परिभाषित किया जाता है जिनके पास 2.47 एकड़ और 4.97 एकड़ के बीच की जमीन है। मरने वालों में बड़े पैमाने पर छोटे किसान शामिल हैं। हालाँकि, जब हमने उन लोगों को भी शामिल किया जो ठेके पर ली गई भूमि पर खेती कर रहे थे, तो मृतकों की जोत का औसत आकार तीन एकड़ से भी कम हो गया था।

इसका मतलब यह होगा कि मरने वालों में कई सीमांत किसान थे, जिन्हें 2.47 एकड़ से कम जमीन के मालिक के रूप में परिभाषित किया गया है।

हां। हमने दिसंबर 2020 और अगस्त 2021 के बीच 460 मौतों की गिनती की है। इन मौतों में से 80 प्रतिशत सीमांत किसान थे। शेष 20 प्रतिशत छोटे किसान थे। [मृत्यु का आंकड़ा अब 600 से अधिक है।] मुझे यह बताना जरूरी है कि अगस्त 2021 तक किसी भी महिला किसान के मरने की सूचना नहीं मिली थी। हालाँकि, तब से, दस महिला किसानों की भी मृत्यु हो चुकी है।

क्या आपका अध्ययन मोदी सरकार और कुछ विशेषज्ञों के इस दावे को झूठा साबित नहीं करता है कि किसान आंदोलन बड़े किसानों द्वारा संचालित है, जिनके हितों को तीन नए कृषि कानूनों से खतरा बताया जा रहा है?

यह याद रखना चाहिए कि हमने केवल उन लोगों को ट्रैक किया है जो विरोध में भाग लेने के दौरान मारे गए थे। हमने उन विभिन्न श्रेणियों के किसानों को ट्रैक नहीं किया है जो विरोध में भाग ले रहे थे और भाग ले रहे हैं। 

हालांकि, यह निष्कर्ष निकालना सही होगा कि चूंकि केवल सीमांत और छोटे किसान ही मृतकों का गठन करते हैं, इसलिए वे पर्याप्त संख्या में विरोध का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। विरोध में उनके प्रतिनिधित्व के सटीक अनुपात का पता लगाने के लिए, आपको नमूना सर्वेक्षण करने की आवश्यकता है, जो हमने नहीं किया है।

मुर्दा झूठ नहीं बोलते हैं। चूंकि अगस्त 2021 तक केवल सीमांत और छोटे किसानों की मृत्यु हुई है, इसलिए हमारा अध्ययन मोदी सरकार और विशेषज्ञों के दावों को झूठा साबित करता है।

मुझे लगता है कि मोदी सरकार कहेगी कि छोटे और सीमांत किसान विरोध में भाग ले रहे हैं और मर रहे हैं क्योंकि बड़े किसानों की झूठी कहानी बरगलाकर उन्हें धोखा दे रहे हैं। 

ऐसा कहने वाले ग्रामीण गरीबों पर बहुत कृपा कर रहे हैं। यह ऐसा है जैसे वे समझ नहीं पा रहे हैं कि उनके हितों के लिए क्या हानिकारक है। निस्संदेह, किसान यूनियनों ने उन्हें शिक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लेकिन आंदोलन की एक परिभाषित विशेषता यह है कि इसने न केवल सीमांत और छोटे किसानों को, बल्कि उनके बच्चों और पत्नियों (महिलाओं) और भूमिहीन मजदूरों को भी अपनी तरफ आकर्षित किया है। इन समूहों ने यह पता लगा लिया है कि तीन कानूनों से कॉरपोरेट्स कृषि क्षेत्र में प्रवेश करेंगे।

उन्होंने वर्षों से कृषि को यंत्रीकृत होते देखा है। कृषि का कॉर्पोरेट अधिग्रहण मशीनीकरण को और भी तेज करेगा। उनमें से अधिकांश के लिए नौकरी के अवसर कम हो जाएंगे या गायब भी हो जाएंगे। सीमांत और छोटे किसानों को डर है कि अनुबंध कृषि प्रणाली के माध्यम से कॉर्पोरेट सम्राट उनकी भूमि पर कब्जा कर लेंगे और उनका व्यवसाय छीन लिया जाएगा। उनकी मुसीबतें और बढ़ गई हैं क्योंकि वे पिछले कुछ वर्षों में भारी कर्जदार हो गए हैं। इसलिए पूरा गांव समुदाय विरोध में शामिल हो रहा है।

क्या यह संकट भूमिहीन, सीमांत और छोटे किसानों को शहरी भारत में रोजगार न मिलने का परिणाम भी नहीं है?

उदारीकरण के बाद, कृषक समुदाय में एक विभेदीकरण हुआ है। पिछले 30 वर्षों में, कुछ अन्य व्यवसायों में स्थानांतरित हो गए हैं और उनमें ऊपर की ओर गतिशीलता देखी गई है। वे बहुत अधिक संख्या में कृषकों की तुलना में कम हैं, जिन्होंने अपनी आय में गिरावट देखी है। उनकी शैक्षिक उपलब्धि कमजोर है। उन्हें अब सेना, पुलिस या अन्य सरकारी सेवाओं में नौकरी नहीं मिल सकती है [मुख्य रूप से क्योंकि शिक्षित लोग अब नौकरियों के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं।] इसके अलावा, सरकारी नौकरियों की संख्या भी कम हो गई है।

क्या यह कहना सही होगा कि कृषि संकट के तीन पहलू हैं: घटती आय और नीचे की ओर गतिशीलता, ऋणग्रस्तता और शहरी क्षेत्र में नौकरी खोजने में असमर्थता?

हां। हमने पंजाब और हरियाणा के गांवों से कस्बों और शहरों में जाने वाले प्रवासियों पर एक बड़े डेटा सेट के साथ काफी बड़ा अध्ययन किया है। हमने पाया कि प्रवासियों की गांवों की तुलना में शहरों में अधिक आय अर्जित करने की संभावना बहुत कम है। वास्तव में, वे काफी कम आमदनी कमा पाते हैं। उन्होंने ऊपर की ओर गतिशीलता नहीं देखी यानि तरक्की नहीं की है। यह प्रवासी मजदूरों के सामने आने वाले बड़े संकट की व्याख्या करता है, जो 2020 के लॉकडाउन के दौरान देखा गया एक तथ्य है। इस अध्ययन को जल्द ही एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया जाएगा।

गांवों में वे लोग कौन हैं जिन्होंने ऊपर की ओर गतिशीलता या तरक्की देखी है?

वे वे लोग हैं जिन्होंने तकनीकी और चिकित्सा शिक्षा प्राप्त की है। जोत के आकार और शिक्षा के बीच एक संबंध है। किसी व्यक्ति के पास जितनी बड़ी जोत होती है, उसके बच्चों की उच्च स्तर की शिक्षा पाने की संभावना भी उतनी ही अधिक होती है - और ऊर्ध्वगामी गतिशीलता बन जाती है। यह बात उतनी ही सच है।

क्या यह सच है कि बड़े किसान या उनके बच्चे, कुछ अपवादों को छोड़कर, पहले से ही अन्य व्यवसायों में स्थानांतरित हो गए हैं और विरोध में भाग लेने के लिए उनके भीतर प्रोत्साहन बहुत कम है?

हां बिल्कुल। वैसे भी, वे इतनी बड़ी संख्या में नहीं हैं कि उनकी भागीदारी से किसान आंदोलन बड़े पैमाने का बन सकता। 

विरोध में सीमांत और छोटे किसानों की भागीदारी को देखते हुए, क्या हम कह सकते हैं कि कृषि वर्गों के बीच मतभेद कम हो गए हैं?

हां, उदारीकरण के बाद के दौर में अमीर और अमीर हो गए हैं। और गरीब गरीब हो गया है। मध्यम किसान, जिसमें पांच से 10 एकड़ के बीच की जमीन शामिल है, गरीब होता जा रहा है, कम से कम उनकी जमीन के बंटने के कारण भी ऐसा हुआ है। वे भी पिछले 30 वर्षों में भारी कर्जदार हो गए हैं।

व्यापार की शर्तें [या ग्रामीण और शहरी भारत के बीच वस्तुओं और सेवाओं का आदान-प्रदान] कृषि के खिलाफ हो गई हैं। वाई॰के॰ अलघ ने अपनी 2018 की किताब, इकोनॉमिक पॉलिसी इन ए लिबरलाइजिंग इकोनॉमी में गणना की है कि 1991 के बाद से, कृषि से लाभ की दर में 14 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से गिरावट आई है।

यही कारण है कि ग्रामीण पदानुक्रम के मध्य और निचले पायदान के लोगों के बीच का अंतर कम हो रहा है, साथ ही सीमांत और छोटे किसान और भूमिहीन मजदूर के बीच का अंतर भी कम हो रहा है।

दूसरे शब्दों में, विविध कृषि वर्ग समान होते जा रहे हैं, इसलिए नहीं कि वे अमीर हो रहे हैं बल्कि बढ़ती गरीबी/दरिद्रता के कारण ऐसा हो रहा है।

हां। लेकिन दरिद्रता केवल कृषि से घटती आय के कारण नहीं है। उदारीकरण के बाद के युग में, लोगों को स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा पर अधिक खर्च करने से भी ऐसा हो रहा है, जो 1991 से पहले काफी हद तक मुफ्त थे और आज की तुलना में कहीं बेहतर गुणवत्ता वाले थे। दरअसल, स्वास्थ्य और शिक्षा के निजीकरण ने जीवन यापन की लागत को बढ़ा दिया है। ग्रामीण भारत में किसी भी परिवार में बीमारी के कारण उस पर भारी कर्ज हो जाता है।

क्या कृषि वर्गों के बीच घटते अंतर से एक नए वर्ग का निर्माण हो रहा है, जिसके बारे में आपका अध्ययन कहता है?

हां। दरअसल, मौजूदा विरोध अंतर-वर्गीय गठबंधनों की गवाही देता है। मध्यम, छोटे, सीमांत किसान और भूमिहीन एक साथ आ रहे हैं। किसी व्यक्ति के पास जमीन है या नहीं, यह बनाए गए ग्रामीण गठबंधन के लिए बहुत कम मायने रखता है। किसानों और भूमिहीनों की यूनियन दोनों विरोध आंदोलन में भाग ले रहे हैं।

पंजाब के सीमांत और छोटे किसानों को लगता है कि अगर तीन कानून लागू होते हैं [वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के कारण लंबित हैं], तो उन्हें भी, बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के लोगों की तरह, अपने गांवों को छोड़कर नौकरी ढूंढनी होगी या तो उनके राज्यों के शहरों में या इससे भी बदतर, राज्य के बाहर के शहरों में। 

याद रखें, बिहार के कई प्रवासी मजदूर किसान हैं, लेकिन उन्हें दूसरे राज्यों के शहरों में जाकर अपनी आय को पूरा करना पड़ता है। वे पंजाब में खेतों पर दिहाड़ी मजदूर के रूप में भी काम करते हैं। दरिद्रता और विस्थापन का यह डर पंजाब के उन भूमिहीनों के लिए और भी तीव्र है, जिनकी आर्थिक की शक्ति नगण्य है। जो उन्हें बहुत अधिक असुरक्षित महसूस कराती है।

अगर ऐसा है तो बिहार में तीन कृषि कानूनों का विरोध क्यों नहीं हो रहा है?

यहां मुद्दा यह है कि आप लोगों को कैसे शिक्षित करते हैं? चल रहे विरोध में सीमांत और छोटे किसानों की समस्याओं को हर दिन विरोध करने वाले किसानों के मंचों से उठाया जाता है, खासकर ऋणग्रस्तता के मुद्दे को। किसान नेताओं ने मांग की है कि कर्ज माफ किया जाए। यह विरोध किसान नेताओं द्वारा पिछले पांच वर्षों में लोगों को जुटाकर राज्य को उनके सामने आने वाले संकट को हल करने के लिए कार्रवाई करने के लिए मजबूर करने का परिणाम है। नेता अब किसानों से कह रहे हैं कि ठेका खेती की धारा उन्हें उनकी जमीन से बेदखल कर देगी। इसलिए आंदोलन के लिए खड़े हुए हैं। विरोध हमेशा वृद्धिशील होता है और यह इस बात पर निर्भर करता है कि प्रदर्शनकारी कितने शिक्षित हैं। 

क्या इस उभरते अंतर-वर्गीय गठबंधन ने 2017 में अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (AIKSCC) के गठन का रास्ता साफ किया, जिसमें 200 यूनियन शामिल थी?

हां। लेकिन ऐसा दो अन्य प्रक्रियाओं के कारण भी है। इससे पहले किसान यूनियन अपनी मांगों को लेकर पंजाब सरकार से संपर्क कर रहे थे। क्योंकि केवल राज्य सरकार ही उनकी समस्याओं का समाधान कर सकती थी। लेकिन अब, जब वे राज्य सरकार से संपर्क करते हैं, तो उन्हें बताया जाता है कि केंद्र सरकार ही है जो नीतियां और कानून बना रही है, जैसा कि निश्चित रूप से तीन कृषि कानूनों के मामले में हुआ है, भले ही कृषि राज्य का विषय है। एआईकेएससीसी, वास्तव में इसलिए उभरा क्योंकि किसान नई दिल्ली द्वारा बनाई जा रही नीतियों के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर अपना संघर्ष छेड़ना चाहते हैं।

दूसरा, आर्थिक नीतियों पर राजनीतिक दलों के बीच भी आम सहमति है, और भारत की अर्थव्यवस्था में कॉर्पोरेट क्षेत्र को एक महत्वपूर्ण भूमिका सौंपना चाहते है। किसान नेता यह समझ चुके हैं कि हालांकि राजनीतिक दल उनके हितों के प्रति सहानुभूति व्यक्त करते हैं, लेकिन वे शायद ही कभी सत्ता में पार्टी पर दबाव बना पाते हैं। किसान यूनियनों ने अपने विरोध को बढ़ाने के लिए एआईकेएससीसी का गठन किया है, जिसके लिए उन्हें विभिन्न राज्यों में फैले अपने संसाधनों को इकट्ठा करना होगा।

क्या अंतर-वर्गीय गठबंधन जाति विभाजन को पाट रहा है?

हां। जैसे, पंजाब ने वैसे भी छुआछूत और विभिन्न जाति श्रेणियों के बीच के अंतर और भेदभाव को कम किया है। उदारीकरण ने ग्रामीण भारत के हर वर्ग की समस्याओं को बढ़ा दिया है। लोगों को राजनीतिक कार्रवाई को करने के लिए केवल जाती-भेद की अनदेखी करके और इसलिए जातिगत मतभेदों को दूर करके ही लामबंद किया जा सकता है। आंदोलन ने समाज और कृषि संस्कृति के साम्यवादी विचार को बढ़ावा दिया है, जो सिद्धांत के रूप में एक समग्र सिद्धांत है।

मृतकों के परिवारों की देखभाल कौन कर रहा है?

पंजाब सरकार ने मृतकों के परिवारों को 5 लाख को रुपये देने की योजना बनाई है। जब भी विरोध आंदोलन में किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है, तो किसान यूनियन उपायुक्त के कार्यालय में जाते हैं और मृतक के परिवार के सदस्य के लिए मौद्रिक मुआवजे और नौकरी की मांग करते हैं। किसान यूनियन इस पर काम कर रही हैं। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी भी मृतक के परिवार को एक लाख रुपये दे रहे है। इस मदद को स्थानीय गुरुद्वारों के माध्यम से तुरंत उस स्थान पर पहुंचाया जाता है जहां मृतक रहता था। ऐसे गैर सरकारी संगठन भी हैं जो सर्वेक्षण कर रहे हैं और कमाने वाले से वंचित हो रहे परिवारों की सहायता कर रहे हैं।

किसान यूनियन चंदा इकट्ठा कर रहे हैं। मुझे नहीं लगता कि ग्रामीण पंजाब में ऐसा कोई घर है जिसने पैसे का योगदान नहीं किया है, चाहे वह 1 या 10 रुपये ही क्यों न हो। इससे भूमिहीनों सहित ग्रामीण समुदाय को विरोध आंदोलन में भाग लेने में मदद मिली है।

आपका अध्ययन यह भी बताता है कि किसान अपना राजनीतिक दबदबा खो रहे हैं। यह कैसे हो रहा है?

तीन कानूनों को लागू करने के पीछे का उद्देश्य चुनावी राजनीति और नीति-निर्माण में किसानों की भूमिका को कम करना है। किसान समुदाय ने पूरे दिल से भाजपा का समर्थन नहीं किया है। ऐसा इसलिए है क्योंकि कृषक समुदाय काफी हद तक एक किस्म के कम्यून का सदस्य है और धर्म के बारे में उसका विचार भाजपा से मेल नहीं खाता है।

भाजपा कृषि समुदाय को भी कंगाल बनाना चाहती है ताकि उसके सदस्य कृषि छोड़ दूसरे व्यवसायों में चले जाएं, यानी कॉर्पोरेट क्षेत्र में दैनिक वेतन भोगी बन जाएँ। किसान आंदोलन ने शासन के इस पहलू को स्पष्ट रूप से सामने लाया है। याद रखें, पहली बार किसी विरोध आंदोलन ने अंबानी और अदानी के खिलाफ इतनी जोरदार और लगातार बात की है। 

क्या किसान आंदोलन का असर आगामी पंजाब विधानसभा चुनाव पर पड़ेगा?

हाँ निश्चित रूप से। अकाली दल किसानों की पारंपरिक पार्टी रही है। लेकिन आज उन्हें चुनाव जीतने का भरोसा नहीं है. उनका [अतीत] भाजपा को समर्थन उनके लिए एक बड़ा रोड़ा है।

आप भविष्य को कैसे देखते हैं?

किसान आंदोलन पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आगे फैल रहा है। ग्रामीण भारत का आक्रोश बढ़ता जा रहा है। इस कारण से, मुझे लगता है कि राजनीतिक वर्ग को झुकना होगा।

(ऐजाज़ अशराफ़ एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

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