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मोदी सरकार के 'न्यू इंडिया' में 10 हज़ार से ज्यादा छात्रों ने की आत्महत्या!

न्यू इंडिया में छात्र आत्महत्या के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। ताजा एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार देश में साल 2018 में हर 24 घंटे में 28 स्टूडेंट्स ने खुदकुशी की है।
student's suicide
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नमस्कार! न्यू इंडिया में आपका स्वागत है। आज बात देश के भविष्य यानी छात्रों की। छात्र जो लगातार सुर्खियों में बने हुए हैं। कभी प्रदर्शन कर रहे हैं, तो कभी पुलिस की लाठियां खा रहे हैं और अब गुंडों की हिंसा का शिकार भी हो रहे हैं। केंद्र की मोदी सरकार जिस न्यू इंडिया में सबका साथ, सबका विकास की बात करती है उसी न्यू इंडिया में छात्र आत्महत्या के आंकड़े चौंकाने वाले हैं। ताजा एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार देश में साल 2018 में हर 24 घंटे में 28 स्टूडेंट्स खुदकुशी कर रहे हैं।

गुरुवार, 9 जनवरी को गृह मंत्रालय के तहत आने वाले राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट ‘क्राइम इन इंडिया-2018’ और 'एक्सीडेंटल डेथ एंड सुसाइड रिपोर्ट' जारी हुई। इस रिपोर्ट के अनुसार साल 2018 में 10,000 से ज्यादा छात्रों ने आत्महत्या की जो पिछले 10 सालों में सबसे अधिक है। हालांकि इस रिपोर्ट में आत्महत्याओं के कारणों का साफ खुलासा नहीं किया गया लेकिन ये आंकड़े देश की मौजूदा शिक्षा व्यवस्था की दयनीय हालत दर्शाने के लिए काफी हैं।

केंद्र में मोदी सरकार साल 2014 में आई और तभी इंडिया को 'न्यू इंडिया' बनाने की शुरुआत हुई। लेकिन साल 2016 में हैदराबाद सेंटर्ल यूनिवर्सिटी में शोध छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या ने तमाम सरकारी तंत्र को सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया। इस आत्महत्या ने सड़क से संसद तक एक नई बहस छेड़ दी। देशभर के छात्र सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतर आए, प्रदर्शन हुए और रोहित की हत्या को संस्थानिक हत्या करार दिया गया।

छात्र आत्महत्याओं के संबंध में साल 2016 में एक ऑनलाइन काउंसलिंग सेवा 'यॉर दोस्त' ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि करियर की पसंद जबरन थोपने, मानसिक अवसाद और फेल होने के डर से जुड़ा सामाजिक कलंक अक्सर छात्रों को आत्मघाती बनने के लिए उकसाता है। रिपोर्ट में कहा गया कि परीक्षा में नाकामी इसकी मुख्य वजह है। इसके अलावा उच्च-शिक्षा के मामले में आर्थिक समस्या, बेहतर रिजल्ट के बावजूद प्लेसमेंट नहीं मिलना और विभिन्न क्षेत्रों में लगातार घटती नौकरियां भी छात्रों की आत्महत्या की प्रमुख वजह के तौर पर सामने आईं।

बता दें कि एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार साल 2014 में 8,068 छात्रों ने आत्महत्या की तो वहीं 2015 में 8,934 छात्रों ने अपनी जान दे दी। साल 2016 में 9,474 छात्रों की खुदखुशी रिपोर्ट हुई तो वहीं साल 2017 में ये आंकड़ा 4.5 प्रतिशत बढ़कर 9,505 पहुंच गया। 2018 में ये आंकड़ा और भयावह हो गया और 10 हजार पार कर गया। इन आंकड़ों को सरकार भले तवज्जों न दे लेकिन इतना तो तय है कि देश के शिक्षण संस्थानों में सब कुछ चंगा नहीं है।

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(स्त्रोत - एनसीआरबी 2018 रिपोर्ट) - एनसीआरबी 2018 रिपोर्ट)

इस मामले पर पेशे से मनोचिकित्सक मनिला ने न्यूज़क्लिक से बातचीत में कहा, 'आजकल छात्र मानसिक तौर पर ज्यादा परेशान हैं। पहले अच्छे नंबर लाने का टेंशन फिर अच्छे कॉलेज में एडमीशन का टेंशन, उसके बाद नौकरी और तमाम परेशानियां उन्हें घेरे रखती हैं। ड्रग्स, डिप्रेशन, पारिवारिक परेशानियों और रिलेशनशिप्स के चलते भी छात्र ये कदम उठा रहे हैं। इस समय सभी शिक्षण संस्थानों में छात्रों और अभिभावकों की काउंसिलिंग की सबसे ज्यादा ज़रूरत है, लेकिन हमारे यहां इस विषय पर कोई ध्यान ही नहीं दे रहा।'

नवंबर 2019 की जुलाई में मुंबई के नायर अस्पताल में मेडिकल की छात्रा पायल तड़वी की आत्महत्या की खबर सामने आई। मामले में क्राइम ब्रांच की ओर से दाखिल 1200 पन्नों की चार्जशीट में रैगिंग और मानसिक उत्पीड़न की बात कही गई। हालांकि पायल तड़वी की मां ने जातीय उत्पीड़न को आत्महत्या की वजह बताया था।

इसके बाद नवंबर में आईआईटी मद्रास की छात्रा फातिमा लतीफ ने पंखे से लटकर खुदकुशी कर ली। इस मामले में मृतक छात्रा के पिता अब्दुल लतीफ ने संस्थान के एक असिस्टेंट प्रोफेसर पर फातिमा लतीफ के उत्पीड़न का आरोप लगाया। इस आत्महत्या ने समस्थानों में महिला सुरक्षा को लेकर कई अहम सवाल खड़े कर दिए।

विशेषज्ञों में इस बात पर आम राय है कि उम्मीदों का भारी दबाव छात्रों के लिए एक गंभीर समस्या बन कर उभरा है। लेकिन मौजूदा समय में शिक्षण संस्थानों के हालात भी बहुत हद तक आत्महत्या के लिए जिम्मेदार हैं।

लगभग एक दशक से छात्रों की ऑनलाइन काउंसलिंग कर रहीं अन्नया श्रीवास्तव ने न्यूज़क्लिक को बताया, ‘कठिन प्रवेश परीक्षा, संस्थानों में कम सीटें, अलगाव, उपेक्षा, पक्षपात और नौकरी के अवसरों में आती गिरावट बड़े तनाव के कारण हैं। साथ ही बाजार की डांवाडोल हालत, प्लेसमेंट के लिए कंपनियों की शर्ते, घर परिवार और समाज की उम्मीदे छात्रों के लिए मानसिक और शारीरिक दबाव का वातावरण बना देते हैं। आज के दौर में शिक्षण संस्थानों में गरीब, दलित और अल्पसंख्यक वर्गों के छात्रों के प्रति दुर्भावना खत्म करना भी महत्त्वपूर्ण है। इसके चलते छात्रों को उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है।'

समाजशास्त्री प्रशांत राय इस संबंध में कहते हैं, 'आंकड़ों से यह साफ नहीं है कि किस स्तर के छात्र ज्यादा मानसिक अवसाद से गुजर रहे हैं। लेकिन जब उन्हें अच्छे कॉलेज में एडमिशन नहीं मिलता, डिग्री के बाद नौकरी नहीं मिलती तो जाहिर है तनाव तो होता ही है। इसके अलावा छात्रों पर घरवालों का भी भारी दबाव रहता है। जब छात्रों को आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ता है, कई बार प्रशासन की प्रताड़ना भी झेलनी पड़ती है तब वो अंदर टूट जाते हैं। समाजिक-आर्थिक भेदभाव भी बहुत मानसिक दबाव बनाते हैं। जिस तरह के मौजूदा हालात हैं वो बहुत गंभीर है, हमें सोचने की ज़रूरत है।'

गौरतलब है कि फीस वृद्धी और होस्टल मैन्युल में बदलाव को लेकर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र लगभग बीते दो महीनों से आंदोलनरत हैं लेकिन अभी तक सरकार और प्रशासन उनकी समस्या का समाधान नहीं कर पाया है। एक ओर फीस बढ़ाने को लेकर सरकार के अपने तर्क हैं तो वहीं छात्रों का कहना है कि गरीब और वंचित वर्ग के छात्रों से सरकार शिक्षा का अधिकार छीनना चाहती है। इस पूरे विवाद को लेकर पिछले दिनों जो भी कुछ हुआ जाहिर है वो अपने आप में शिक्षण संस्थानों में व्यवस्था की पोल खोलता है।

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(स्त्रोत - एनसीआरबी 2018 रिपोर्ट) - एनसीआरबी 2018 रिपोर्ट)

छात्रों के आत्महत्या के पीछे सभी एक्सपर्ट शिक्षा की स्थिति के अलावा बेरोज़गारी को भी ज़िम्मेदार ठहरा रहे हैं। ये दोनों मुद्दे एक दूसरे से पूरी तरह जुड़े हैं। तो आपको बता दें कि एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक 2018 में बेरोज़गारी के आंकड़े भी काफी बढ़े हैं। रिपोर्ट के मुताबिक साल2018में किसानों से ज्यादा बेरोज़गार युवाओं ने आत्महत्या की है। रिपोर्ट बताती है कि साल2018 में 12,936लोगों ने बेरोजगारी से तंग आकर आत्महत्या की।

[डेटा विश्लेषण और ग्राफिक्स साभार: पीयूष शर्मा ]

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