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भारत
राजनीति
वशिष्ठ नारायण सिंह: गणित के फॉर्मूले में लिख गए जिंदगी के अनकहे किस्से
गुरुवार को जब पटना मेडिकल कॉलेज व हॉस्पिटल के डॉक्टरों ने वशिष्ठ नारायण सिंह को मृत घोषित किया, तो शायद अस्पताल प्रशासन को इतना भी इल्म नहीं था कि जो अभी-अभी दुनिया को ठोकर मार गया है, वो अपने समय का एक किंवदंती पुरुष था।
उमेश कुमार राय
15 Nov 2019
Narayan Singh
Image courtesy: Google

सन् 1963 के आसपास का कोई वक्त रहा होगा। एक 21 साल का नौजवान पटना साइंस कॉलेज में चर्चा का केंद्र बन गया था, क्यों? क्योंकि वो आउट ऑफ सिलेबस सवाल पूछा करता था। इससे छात्र भी परेशान रहते थे और प्रोफेसर्स भी।

काफी शिकायतें मिलने पर कॉलेज के तत्कालीन प्रिंसिपल डॉ नगेंद्र नाथ ने उसे अपने दफ्तर में तलब किया। नौजवान पहुंचा, तो उसे गणित के कुछ सवाल पकड़ा दिए गए और संग-संग उन्हें सॉल्व करने का फरमान जारी हुआ। सवालों को देख कर नौजवान की आंखें चमक उठीं। उसने हाथोंहाथ न केवल सवालों को हल किया, बल्कि एक-एक सवाल को कई फॉर्मूलों से हल कर दिया। प्रिंसिपल आन्सर शीट देख कर भौचक्का रह गए!

गणित के साथ अटखेलियां करने वाले इस नौजवान के लिए विश्वविद्यालय के नियम में बदलाव किया गया। उसे स्नातक (गणित) के पहले वर्ष की परीक्षा के तुरंत बाद फाइनल इयर की परीक्षा देने की अनुमति दे दी गई। इतना ही नहीं जब वो स्नातक के दूसरे वर्ष में था, तो एमएससी (गणित) के अंतिम वर्ष की परीक्षा दी। और रिजल्ट क्या आया....यूनिवर्सिटी टॉप...गोल्ड मेडल!

गणित के तमाम फॉर्मूलों को मुट्ठी में कैद रखनेवाला ये नौजवान कोई और नहीं वरिष्ठ नारायण सिंह थे जिन्हें उनके चाहनेवाले वशिष्ठ बाबू भी कहा करते थे।  

देश के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद की ‘एग्जामिनी इज बेटर दैन एग्जामिनर’ वाली कहानी लोगों को किसी लोककथा की तरह याद है, लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि इसी कहानी को बाद दशकों बाद वशिष्ठ बाबू भी दोहरा गए।

ये कहना अतिरेकता नहीं होगी कि वे जीते-जी अपनों के बीच बेगाने की तरह रहे और मरने के बाद सिस्टम भी उनसे अजनबी हो गया। गुरुवार को जब पटना मेडिकल कॉलेज व हॉस्पिटल के डॉक्टरों ने उन्हें मृत घोषित किया, तो शायद अस्पताल प्रशासन को इतना भी इल्म नहीं था कि जो अभी-अभी दुनिया को ठोकर मार गया है, वो अपने समय का एक किंवदंती पुरुष था।

उनके पार्थिक शरीर को परिजनों तक पहुंचाने के लिए एम्बुलेंस तक मुहैया नहीं कराया गया। बाद में जब प्रशासन की बेशर्मी मीडिया में बेनकाब हुई, तो आखिरकार उन्हें एम्बुलेंस मिला और उनका निर्जीव शरीर प्रशासन का शुक्रगुजार हुआ!

भोजपुर से बर्कले वाया पटना

प्रो. वशिष्ठ नारायण सिंह का जन्म आजादी से करीब पांच वर्ष पहले दो अप्रैल 1942 में भोजपर के बसंतपुर गांव में हुआ। उनका परिवार आर्थिक तौर पर कमजोर था, लेकिन उनमें पढ़ने का गजब का जुनून था। बुनियादी तालीम उन्होंने भोजपुर में हासिल की। कहते हैं कि पूत के पांव पालने में ही दिखने लगते हैं।

उनकी प्रतिभा की पहचान भी उनके परिजनों ने बचपन में ही कर ली थी। लिहाजा, बेहतर तालीम के लिए उस वक्त पूर्वी भारत के चोटी के स्कूल समझे जानेवाले नेतारहाट रेसिडेंशियल स्कूल (अभी झारखंड में) में भर्ती करा दिया गया।

सन् 1957 में उन्होंने वहां से मैट्रिक और 1961 में इंटर पास किया। गणित में स्नातक करने के लिए उन्होंने पटना साइंस कॉलेज में दाखिला ले लिया। ये सत्तर के दशक के मध्य के आसपास की बात है। उस वक्त कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी, बर्कली में पढ़ाने वाले शीर्ष अमरीकी गणितज्ञ जॉन एल केली पटना साइंस कॉलेज में बतौर अतिथि प्रोफेसर पढ़ाने आया करते थे। जॉन ने वशिष्ठ नारायण सिंह की आंखों गणित को लेकर जुनून देखा और बर्कली की कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में उनकी पढ़ाई की व्यवस्था कर दी।

बताते हैं कि प्रो. केली ने अपने खर्च से उनके लिए फ्लाइट के टिकट का इंतजाम किया और कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में उन्हें स्कॉलरशिप भी दिलवा दिया। 1964 में वो बर्कले चली गए और सन् 1969 में वहां से प्रो केली के निर्देशन में गणित में पीएचडी की डिग्री हासिल की।

पीएचडी का उनका शोधपत्र ‘रिप्रोड्यूसिंग कर्नल्स एंड ऑपरेटर्स विद साइक्लिक वेक्टर’ नाम से 1974 में पैसिफिक जर्नल ऑफ मैथमैटिक्स में 18 पेजों में प्रकाशित हुआ। उसी यूनिवर्सिटी में उन्होंने कुछ समय असिस्टेंट प्रोफेसर की हैसियत से पढ़ाया और भारत लौट आए।

मुल्क का मोह

अमरीका जैसा देश लंबे समय से भारत के युवाओं के लिए ड्रीम कंट्री रहा है। लोग अमरीका में बस जाने का ख्वाब देखा करते हैं, लेकिन स्कॉलरशिप पर बर्कली में पढ़ाई कर रहे वशिष्ठ बाबू को अमरीका कभी रास नहीं आया। चार वर्ष गुजरने के बाद ही वह वहां की संस्कृति-सभ्यता से उकता गए थे।

अमरीका की कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में पढ़ते हुए उन्होंने कुछ खत लिखे थे, जिन्हें पढ़ते हुए ये अहसास होता है कि पश्चिमी सभ्यता उन्हें रास नहीं आ रही थी। 31 अक्टूबर 1968 को बर्कली से भेजे गए एक खत में वह लिखते हैं, “भारत के विषय में यहां के अधिकतर लोग कुछ नहीं सोचते। भारत यदि धनी देश और ताकतवर देश होता, तो बहुत सोचते। तब भी कुछ लोग हैं, जो भारत के विषय में बहुत सोचते हैं और अपने देश से सहानुभूति रखते हैं। यहां की आम जनता भारत की जनता से ज्यादा सम्पन्न है और कई दृष्टियों से ज्यादा सुखी है किंतु कुछ ख्याल से कम सुखी हैं।”

वह आगे लिखते हैं, “मैं तो देश अवश्य लौटूंगा, लेकिन कुछ काल बाद। बीच में नेतरहाट स्कूल को कुछ प्रतिभासाली छात्र उत्पन्न करने चाहिए, जो भविष्य के गणितज्ञ और वैज्ञानिक बन सके।”

अपने वादे के मुताबिक वह वतन लौटते भी हैं, लेकिन उनकी वतन वापसी उनके करियर के लिए वाटरलू साबित होती है।

शादी, वतनवापसी और तलाक

कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी से पीएचडी की डिग्री लेने के बाद वह कुछ वर्ष अमरीका में बिताते हैं और अस्सी के दशक के पूर्वार्द्ध में वह बिहार लौटते हैं। यहां आते ही परिवार के लोग उन पर शादी के लिए दबाव बनाना शुरू कर देते हैं। इस दबाव के आगे वह अंततः झुक जाते हैं और सन् 1972 में वह एक डॉक्टर की बेटी से शादी कर लेते हैं।

शादी के बाद पत्नी के साथ वह वापस अमरीका रवाना हो जाते हैं। अमरीका में क्या कुछ होता है, ये अब तक रहस्यों की चादर में लिपटा हुआ है, मगर उनकी पत्नी गौर करती है कि वे सोने से पहले कुछ गोलियां लिया करते हैं। ये दवाई किस मर्ज के लिए थी, किसी को नहीं पता था। वशिष्ठ बाबू ने किसी को बताया भी नहीं, लेकिन बाद में जगजाहिर हुआ कि वो सिजोफ्रेनिया के शिकार हो गए थे। सिजोफ्रेनिया से ग्रस्त व्यक्ति सोचने, महसूस करने और सामान्य व्यवहार करने की शक्ति खो देता है।

सिजोफ्रेनिया की चर्चा होती है, तो अमरीका के महान गणितज्ञ जॉन नाश का खयाल आता है। लेकिन, जॉन सिजोफ्रेनिया से उबर गए थे। उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला और उनकी जिंदगी पर ‘ए ब्यूटीफुल माइंड’ नाम की फिल्म भी बनी।

मगर, वशिष्ठ बाबू इस बीमारी से ऊबर नहीं पाए। कुछ कहानियां यों भी थीं कि अमरीका में काम करते हुए कुछ ऐसे वाकये हो गए, जिनने उनके जेहन पर गहरा असर डाला और वह इस बीमारी की जद में आ गए। वे तुरंत गुस्सा हो जाते, फिर भूलने लगते। हालांकि, शुरुआती ट्रीटमेंट में उन्होंने इस पर काफी हद तक काबू पा लिया था।

बहरहाल, पत्नी के साथ वह अमरीका में महज दो साल ही गुजार सके। सन् 1974 में वे पत्नी को लेकर बिहार लौट गए। यहां उन्होंने महज दो सालों में ही तीन नौकरियां बदल लीं। कहा जाता है कि नौकरियों के दौरान दफ्तरों आंतरिक राजनीति से वे खासा परेशान थे। ये परेशानियां उनके जेहन पर गहरा असर डालने लगीं, नतीजतन सिजोफ्रेनिया ने दोबारा उन्हें जकड़ लिया। उनकी हालत दिनोंदिन बदतरी की ओर जा रही थी। पत्नी ने उन नाजुक मौकों पर उन्हें संभालने की जगह उनसे अलग होना चुना और तलाक दे दिया।

वशिष्ठ बाबू के परिजनों के अनुसार, इससे उनकी बीमारी और बढ़ गई। जब उनका व्यवहार नाकाबिल-ए-बर्दाश्त होने लगा, तो 1980 में उन्हें कांके के मानसिक रोगियों के अस्पताल में भर्ती करा दिया गया। वहां उनका इलाज डॉ दिनकर मिंज कर रहे थे।

4 साल गुमशुदा रहे, फटेहाल बरामद हुए

नरेंद्र भगत नेतारहाट स्कूल में वशिष्ठ नारायण सिंह से एक साल सीनियर थे। उन्होंने वर्ष 2013 में अपने ब्लॉग पर वशिष्ट बाबू के बारे में विस्तार से लिखा है।

वह लिखते हैं, “डॉ मिंज से मुलाकात में उन्होंने मुझे विस्तार से इस रोग के इलाज के बारे में बताया था। उन्होंने कहा था कि हर मरीज को स्पेशल केयर की जरूरत होती है और अधिकांश मरीज इस रोग से मुक्ति पाकर सामान्य जीवन जीने लगते हैं। लेकिन, वशिष्ठ नारायण के मामले में दुःखद ये रहा कि उनके परिवारिक सदस्यों ने शुरुआती स्टेज में दवा-दारू देना जारी नहीं रखा। ये गफलत ही ब्लंडर साबित हुआ। इसके चलते मरीज के इस बीमारी से उबरने की संभावनाओं के सभी दरवाजे बंद हो गए। जब उन्हें कांके में लाया गया था, तो उन्हें बीमारी से रिकवर करना चुनौती थी।”

डॉ मिंज की बात काफी हद सही है, क्योंकि कांके में 10 साल तक इलाज होने के बाद भी उनमें अपेक्षित सुधार नहीं हो सका था। वर्ष 1989 में पिता के निधन पर अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए उन्हें पैरोल पर अस्पताल से छुट्टी दी गई थी। अंतिम संस्कार में शामिल होने के बाद वह रहस्यमयी तरीके से लापता हो गए थे।

करीब चार साल तक वह गुमशुदा थे। सन् 1993 में उन्हें सारण के डोरीगंज गांव से बेतरतीब हालत में बरामद किया गया। चार साल तक वह कहां रहे, किन हालातों में रहे, किसी को नहीं मालूम। जब बरामद किए गए थे, तो उनके बाल और दाढ़ी बेतरतीबी से बढ़े हुए थे और कपड़े गंदे थे। बरामदगी के वक्त की उनकी तस्वीर आज भी बेचैन कर देती है।

बिजनेस स्टैंडर्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक, बरामदगी के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने उन्हें इलाज के लिए बेंगलुरु भेजा था और उनके परिवार के सदस्यों को सरकारी नौकरी भी दी। वर्ष 2002 में जब केंद्र में एनडीए की सरकार बनी, तो भाजपा के टिकट पर सांसद बने अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा ने ह्यूमन बीहेवियर एंड अलाइड साइंस (आईएचबीएएस), दिल्ली में उनके इलाज का इंतजाम कराया। करीब सात साल तक वहां उनका इलाज हुआ।

वर्ष 2009 में वह भोजपुर अपने गांव लौट आए और अपने भाई के साथ रहने लगे, लेकिन उनके व्यवहार से नहीं लगता था कि वह पूरी तरह ठीक हो गए थे। उनके परिचित बताते हैं कि वो लोगों को कई बार पहचान नहीं पाते थे। कभी-कभी ऐसा कुछ बोलने लगते थे, जिसका कोई ओर-छोर नहीं रहता था।

सरकार की उदासीनता

भोजपुर में कुछ वक्त गुजारने के बाद वह पटना में अपने भाई के साथ रहने लगे, लेकिन मुफलिसी और सरकारी उदासीनता उनके साथ जो नत्थी हुई, तो फिर नहीं छूटी। पटना के एक फ्लैट में वह गुमनाम जिंदगी बिता रहे थे। न कोई उनकी सुननेवाला था, न दर्द बांटनेवाला। सरकार तो खैर शुरू से ही उदासीन थी।

नरेंद्र भगत अपने ब्लॉग में डॉ मिंज के साथ बातचीत का हवाला देते हुए ये भी लिखते हैं कि कांके अस्पताल का बिल भी सरकार ने नहीं चुकाया था।

तत्कालीन सांसद रंजीता रंजन की सिफारिश पर वर्ष 2013 में उन्हें बीएन मंडल यूनिवर्सिटी में पढ़ाने का भी प्रस्ताव आया था, लेकिन ये प्रस्ताव कागजों में कहीं दब कर रह गया। बाद में जब खोजबीन की गई, तो यूनिवर्सिटी प्रबंधन की तरफ से बताया गया कि वहां गणित का कोई कोर्स ही नहीं चलता है।

इस बीच, उनकी उम्र ढलती जा रही थी और सिजोफ्रेनिया के अलावा दूसरी बीमारियां भी उन्हें जकड़ रही थीं। लेकिन, न तो नीतीश कुमार ने उनकी खैर-खबर ली और न ही केंद्र में नई बनी नरेंद्र मोदी सरकार ने। इसी साल अक्टूबर में जब उनकी तबीयत खराब हो गई थी, तो बिहार की नीतीश सरकार उन्हें इलाज के लिए पीएमसीएच से बेहतर अस्पताल तक नहीं ढूंढ सकी थी। ये जानते हुए कि उनकी उम्र अब ढलान पर है, उन्हें किसी सामान्य मरीज की तरह ही पीएमसीएच में भर्ती कराया गया । कई दिनों तक भर्ती रहने के बाद उन्हें वापस घर भेज दिया था।

क्या लिखते रहते थे...

लोग बताते हैं कि उन्हें अपनी तस्वीरें खिंचवाने का बहुत शौक था। कोई पत्रकार उनके पास जाता, तो वे खूब तस्वीरें खिंचवाते थे। अलग-अलग पोज में।

हाल के वर्षों में गणित के इस जादूगर से मिलने वाले लोग ये भी कहते हैं कि वह अक्सर पेंसिल या कलम से कुछ लिखते रहते थे। कभी अखबार पर लिख देते, तो कभी दीवार पर। कभी हथेली पर ही लिखने लगते थे। मगर क्या लिखते थे? क्या वे गणित के फॉर्मूले लिखते थे? शायद, हां! या ये भी हो सकता है कि गणित को ओढ़ने-बिछाने वाले इस औघड़ ने गणित के फॉर्मूले में ही अपनी जिंदगी के उन तमाम किस्सों को दर्ज कर दिया होगा, जो लोग पूछ नहीं पाए, जान नहीं पाए।

भोजपुर से नेतारहाट, नेतारहाट से पटना, पटना से बर्कले, संघर्ष, प्रेम-शादी, तलाक, नौकरी, बीमारी और गुमशुदगी के बीच कितने सारे सिरे हैं, जो टूटे हुए हैं। उनकी जिंदगी की कहानियां टुकड़ों में हैं। दीवारों, दरवाजों और कागजों में लिखे फॉर्मूलों की मदद से उन सिरों को जोड़ कर एक मुकम्मल कहानी बन सकती है।

उन फॉर्मूलों को डिकोट करने के लिए एक ‘ब्यूटिफुल माइंड’ की जरूरत है, जो उनकी ही तरह औघड़ भी हो। लेकिन, उन जैसा औघड़ सदियों में पैदा होता है। क्या हम सदियों तक वशिष्ठ बाबू की मिल्कियत को सहेज कर रख पाएंगे?   

Mathematician Vasistha Narayan Singh
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