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नीतीश कुमार का समाज सुधार अभियान: सवालों से मुंह चुराने की ओट

राष्ट्रीय स्तर पर बाल विवाह की दर घट रही है लेकिन बिहार के 10 जिलों में बाल विवाह की दर में बढ़ोतरी हुई है। यही नहीं दहेज मृत्यु के मामले में बिहार देश में दूसरे नंबर पर है।
Nitish kumar
तस्वीर नीतीश कुमार के ट्विटर हैंडल से साभार

22 दिसंबर 2021 को चंपारण से मुख्यमंत्री ने अपनी बहु प्रचारित समाज सुधार यात्रा शुरू की। कोविड-19 की तीसरी लहर के कारण यह यात्रा 5 जनवरी '22 को स्थगित कर दी गई। लेकिन, इस बीच जिन जिलों में उनकी सभा हुई वहां जनता में उदासीनता दिखी। महंगाई, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य की बदतर हालत से बेहाल और 19 लाख रोजगार के चुनावी वादे पर नीतीश कुमार की चुप्पी से लोग निराश थे।

16 वर्ष का समय किसी मुख्यमंत्री के लिए कम नहीं होता, लेकिन नीति आयोग की रिपोर्ट दिखा रही है कि बिहार 2021 में देश का सबसे पिछड़ा और गरीब राज्य बना हुआ है। तो क्या मुख्यमंत्री बिहार के इन ज्वलंत सवालों से मुंह चुराने के लिए समाज सुधार अभियान की ओट ले रहे हैं और क्या इन सवालों को हल किए बगैर महिलाओं की स्थिति में कोई बुनियादी परिवर्तन हो सकता है?

जिन 'कुरीतियों' को नीतीश कुमार दूर करना चाहते हैं वे कुरीतियां जिस आर्थिक राजनीतिक बुनियाद पर टिकी हुई हैं उस बुनियाद पर चोट किए बगैर सिर्फ सांस्कृतिक आयोजनों और उपदेशों से उन्हें खत्म किया जा सकता है?

अपनी एक समाज सुधार सभा में नीतीश कुमार ने दावा किया कि बिहार में समाज सुधार की शुरुआत उनके शराबबंदी कानून और अभियान से शुरू हुई। यह अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने वाली बात है। चंपारण में कस्तूरबा गांधी द्वारा शुरू किए गए शिक्षा और समाज सुधार कार्यों को वह शायद नहीं गिनते।

कम्युनिस्टों ने बिहार में महिलाओं की आजादी 'स्त्री मुक्ति' की बात की, जिसने 80-90 के दशक में बिहारी महिलाओं में एक जागृति पैदा की। उस दौर में महिलाओं पर होने वाली घरेलू हिंसा, ताकतवर लोगों और 'मालिकों' द्वारा महिलाओं पर बलात्कार, हिंसा के खिलाफ और वाजिब व बराबर मजदूरी के प्रश्न पर जबरदस्त आंदोलन सामने आए। यहां तक कि बिहार में गरीब ही नहीं मध्यमवर्गीय किसान परिवार की महिलाओं के भी वोट देने के लिए बूथों तक पहुंचने की परिघटना '89 के चुनाव में ही दिखी जब मताधिकार को व्यक्तिगत अधिकार से जोड़कर आईपीएफ ने अभियान चलाया।

इस आंदोलन की उपलब्धियों को स्वीकारने में नीतीश कुमार को परेशानी हो सकती है, लेकिन '74 के आंदोलन से पैदा हुए सामाजिक हलचल से भी वह क्यों इंकार कर रहे हैं? जेपी के संपूर्ण क्रांति के नारे से प्रभावित बड़ी संख्या में नौजवान लड़के-लड़कियों ने उस दौर में जाति-धर्म के बंधन तोड़े। दहेज रहित, बराबरी पर आधारित सहजीवन का अभियान चलाया। उस आंदोलन को नजरअंदाज कर क्या वह खुद को जेपी से भी बड़ा दिखाने की हास्यापद कोशिश तो नहीं कर रहे हैं?

शराबबंदी, बाल विवाह और दहेज प्रथा ये तीन प्रश्न अपनी हर सभा में नीतीश जी ने उठाई। शराबबंदी पर उनका दोहरा चरित्र और भी साफ तब हुआ जब मुजफ्फरपुर में उनके सभा मंच पर भाजपा कोटे के मंत्री रामसूरत राय न केवल उपस्थित रहे बल्कि सभा को संबोधित भी किया। ये वही व्यक्ति हैं जिनके स्कूल से विधानसभा चुनाव के दरमियान सैकड़ों लीटर शराब बरामद होने और एफआईआर होने के बावजूद उनके खिलाफ कोई कार्रवाई अब तक नहीं हुई है! यही नहीं, नशामुक्ति की तमाम बातों के बीच विगत कुछ वर्षों में नशीली दवाइयों का कारोबार बिहार में तेजी से फैला है और इसके जाल में बिहार के किशोर बच्चे और नौजवान तेजी से जकड़े जा रहे हैं। बहरहाल, यहां बाल विवाह और दहेज पर मुख्यमंत्री के रवैये की चर्चा तक खुद को सीमित करती हूं।

बाल विवाह (18 वर्ष से कम उम्र में विवाह) किसी भी सभ्य समाज के लिए स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। हमारा समाज इससे जितनी जल्दी मुक्त हो उतना बेहतर होगा। लेकिन अपने अनुभव से हम जानते हैं कि शहरी मध्यम वर्गीय परिवारों में अब बाल विवाह नहीं दिखता। इन परिवारों में लड़कियां पढ़ना चाहती है। यहां स्कूल-कॉलेज की सुविधा है और माता पिता के पास पैसा भी है इसलिए वह बेटियों को पढ़ने का मौका देते हैं। मतलब बाल विवाह रोकने में बाल विवाह विरोधी कानून से ज्यादा योगदान लोगों की जीवन स्थितियों में परिवर्तन का है। अर्थात गरीबी और शिक्षा तक पहुंच का अभाव बाल विवाह का एक कारण है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार 2005, 2006 में बाल विवाह 45% था। 2009 में 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए अनिवार्य शिक्षा कानून पास हुआ और केंद्रीय स्तर पर बच्चों के स्कूल तक पहुंच पर जोर बढ़ा और बाल विवाह की दर 2015-16 में घटकर 26.8% हो गई। 2020 में यह 23.3% हो गई। अब इन आंकड़ों से बिहार के आंकड़ों का मिलान कीजिए। बाल विवाह का जब राष्ट्रीय औसत 26.8% था तब बिहार में बाल विवाह की दर 42.5% थी और जब राष्ट्रीय औसत 23.3% हुआ तब बिहार में यह 40.8% था।

बिहार में भी बाल विवाह की दर घटी लेकिन इसकी गति बहुत धीमी थी क्योंकि यहां स्कूल-कालेजों तक लड़कियों की पहुंच में भी धीमा विकास हुआ। 2021 में जब भारत का साक्षरता दर 77% हुआ तब बिहार सबसे नीचे 61.8% पर है। केरल में 92.7% महिलाएं साक्षर हैं और बिहार में 53.33% हैं। 18 वर्ष से कम उम्र में विवाह ग्रामीण क्षेत्रों और खास तौर पर गरीब परिवारों में ज्यादा होता है।

आंकड़े दिखाते हैं कि बाल विवाह के 75% मामले आबादी के सबसे गरीब परिवारों में होता है, यहां सयानी होती लड़कियों के लिए जीवन में आगे बढ़ने का मौका नहीं होता। माता-पिता जब दोनों मजदूरी पर जाते हैं तो रसोई और छोटे भाई-बहनों को संभालने का काम उनके जिम्मे रहता है, कुछ वर्षों में यह जरूरत भी खत्म हो जाती है और माता-पिता सयानी होती बेटियों के भार से मुक्त होने के लिए उसका विवाह कर देते हैं।

आंकड़े दिखाते हैं कि 5 वर्ष से कम उम्र के सबसे अधिक कुपोषित बच्चे बिहार में हैं और 5 से 14 वर्ष आयु वर्ग में दूसरे स्थान पर। इस आयुवर्ग में 42.9% बच्चे कुपोषित हैं। स्वभाविक है कि जहां भोजन का अभाव इस कदर है वहां लड़कियों को 'बैठा कर खिलाना' माता-पिता नहीं चाहेंगे।

राष्ट्रीय औसत की तुलना में बिहार में बाल विवाह में गिरावट की रफ्तार बहुत धीमी है लेकिन उससे भी गंभीर चेतावनी की बात है कि बिहार में अब उल्टी प्रक्रिया शुरू हो गई है। बिहार के 10 जिलों में बाल विवाह का चलन बढ़ गया है। ये जिले हैं-भागलपुर, बांका, पूर्णिया, सहरसा, अररिया, कटिहार, किशनगंज, लखीसराय, पूर्वी चंपारण, और दरभंगा (हिंदुस्तान 14 दिसंबर की रिपोर्ट)। भागलपुर में बाल विवाह के दर में डेढ़ गुना बढ़ोतरी हुई है- 29.60% से बढ़कर 42.4%।

पलायन और बाढ़ की तबाही झेलने वाले ये जिले बिहार के पिछड़े और गरीब जिले हैं। इनमें से अधिकांश जिलों से महिलाओं की ट्रैफिकिंग भी ज्यादा होती है। वैसे तो पूरे बिहार में अश्लील वीडियो बनाने के व्यापार के लिए लड़कियों को ब्लैकमेल, बलात्कार की घटनाएं बढ़ी हैं। यद्यपि ट्रैफिकिंग का कोई व्यवस्थित आंकड़ा नहीं मिलता लेकिन रिपोर्ट बताते हैं कि बिहार में ट्रैफिकिंग की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं।

विगत कुछ महीनों के भीतर 277 मानव तस्करों को गिरफ्तार किया गया है। तस्करों के चंगुल से 121 महिलाओं को आजाद कराया गया जिसमें 58 बालिग और 53 नाबालिग लड़कियां हैं (हिं. 12 जनवरी 22)। अगर इतने मामले रिपोर्ट हुए हैं तो वास्तविक तस्वीर कितनी भयावह है, हम कल्पना ही कर सकते हैं।

शिक्षा का साधन नहीं, भोजन का अभाव और सयानी होती बेटियों की सुरक्षा की चिंता ये तीन कारण बिहार में बाल विवाह के बने रहने के महत्वपूर्ण कारण हैं जिस पर नीतीश जी चुप हैं! इसलिए हम लोगों ने मांग उठाई है कि-

अनिवार्य शिक्षा अधिकार को 14 वर्ष की उम्र सीमा से बढ़ाकर 18 वर्ष किया जाए। लड़कियों के लिए केजी से पीजी तक की शिक्षा मुफ्त की जाए और पोषण व रोजगार का इंतजाम हो।

अब थोड़ी चर्चा नीतीश कुमार के दहेज विरोधी अभियान पर।

भारत में दहेज विरोधी कानून 1961 में बना, जिसमें दहेज लेना और देना दोनों अपराध घोषित किया गया। '80 के दशक में जब स्टोव फटने और रसोई में साड़ी के पल्लू में आग लगने से मृत्यु की घटनाएं अखबारों की सुर्खियां बनने लगी थीं, उस दौर में दहेज उत्पीड़न और हत्या के खिलाफ महिला संगठनों ने बड़े आंदोलन चलाए जिसके बाद '83 में दहेज कानून में संशोधन किया गया। आत्महत्या और हिंसा संबंधी आईपीसी की धाराओं में भी संशोधन किया गया। 498A जोड़ी गई। 2005 में घरेलू हिंसा के खिलाफ कानून बना। हालांकि मोदी शासनकाल में 498A में संशोधन किया गया, यह कहते हुए कि महिलाएं इसका दुरूपयोग कर रही हैं, ससुराल वालों को फंसाने के लिए झूठे मुकदमे कर रही हैं।

पिछले 60 वर्ष से जारी इस कवायद के बावजूद दहेज प्रथा की समस्या देश में बनी हुई है। बिहार इसमें भी आगे है!

एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार 2020 में दहेज मृत्यु के मामले में 1046 मामलों के साथ बिहार देश में दूसरे स्थान पर है।

दहेज प्रथा हिन्दुस्तान के पितृसतात्मक समाज की एक बहुत ही जटिल और क्रूर समस्या और रिवाज है लेकिन इस गंभीर समस्या को भी मुख्यमंत्री हल्के ढंग से ले रहे हैं। अपनी सभाओं में वह घोषणा कर रहे हैं कि वह दहेज वाली शादियों में नहीं जाएंगे। वह अधिकारियों और आम लोगों से भी ऐसा ही करने की अपील कर रहे हैं। सुधार सभाओं में जीविका की महिलाओं से दहेज विरोधी गीत गवाए जा रहे हैं। बिहार के महिला विकास निगम को निर्देश दिया गया है जिसके आधार पर निगम अभियान चलाएगा कि लोग शादी के निमंत्रण पत्र पर घोषित करें कि शादी में दहेज का लेन-देन नहीं हुआ है। सांस्कृतिक अभियानों के महत्व को स्वीकारते हुए भी कहना चाहती हूं कि सरकार के इन प्रयासों में नया कुछ भी नहीं है। '80-'90 के दशक में ऐसे ढेरों प्रयास हुए हैं। लेकिन, इन प्रयासों के बावजूद दहेज प्रथा खत्म नहीं हुई। अगर समय के साथ दहेज सम्मान और स्टेटस सिंबल बनता गया है तो इसके बुनियादी कारणों पर आज बात करना जरूरी है।

पटना की सड़कों पर सरकारी विज्ञापन दिख रहा है 'बहू नहीं बेटी घर लाएं'। मतलब बहू और बेटी में फर्क नहीं किया जाना चाहिए -अच्छी बात है। लेकिन, बेटी हो या बहू क्या हमारा समाज दोनों में से किसी के भी इंसानी दर्जे के अधिकार को स्वीकारता है? क्या बेटियों को उसका लोकतांत्रिक अधिकार दिया जाता है? दहेज लड़की का पिता देता है और लड़के का पिता लेता है। इसमें लड़की को क्या मिलता है? यह सच है कि गरीब परिवारों के लिए दहेज प्रथा जानलेवा है क्योंकि उनके पास कोई संचित संपत्ति नहीं होती। बेटी की शादी के लिए अपनी जरूरतों में कटौती करना, कर्ज लेना और फिर कर्ज के जाल में फंसते चले जाना कई गरीब परिवारों की मजबूरी होती है। (ऐसे कई परिवारों में आजकल शादी की उम्र में पहुंची लड़की को कोई नौकरी करने की इजाजत इसलिए दी जाती है कि वह दहेज की रकम जुटाने में मददगार हो) लेकिन जिन मध्यमवर्गीय या धनी परिवारों के पास संपत्ति है वहां जमीन या अन्य अचल संपत्तियां बेटों के लिए सुरक्षित रखी जाती हैं। आकलन कर देख लिया जाए कि बेटों के लिए बचाई गई संपत्ति और बेटियों को दिया गया दहेज दोनों में से कौन ज्यादा है तो दहेज प्रथा के जिंदा रहने का कारण स्पष्ट हो जाएगा।

अगर लड़कियों को पिता की संपत्ति में बराबर का अधिकार दिलाने की अनिवार्यता के लिए सहज कानूनी व्यवस्था और सामाजिक माहौल बनाया जाए तो माता-पिता बेटी के लिए दहेज जुटाने के बजाए उसे भी बेटों की तरह शिक्षित और आत्मनिर्भर बनाने पर ध्यान देने लगेंगे। यद्यपि सांस्कृतिक बदलाव रातों-रात नहीं होते, इसलिए पढ़ी-लिखी आत्मनिर्भर बेटी को संपत्ति में हिस्सा देने के बावजूद दहेज का लेनदेन कुछ वर्षों तक जारी रह सकता है। लेकिन, यह दहेज देने की बाध्यता के रूप में नहीं बल्कि शानोशौकत के दिखावे के रूप में ही रहेगा।

दहेज प्रथा पर सबसे अधिक चोट तब पड़ती है जब लड़कियां अपनी मर्जी से शादी करती हैं या अंतरजातीय अंतरधार्मिक प्रेम विवाह होते हैं। बेटी का संपत्ति अधिकार या अपनी मर्जी से शादी का अधिकार ये दोनों ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें छूने का मतलब है बिहार के पितृसत्तात्मक और सामंती व्यवस्था में तूफान खड़ा करना जिसका माद्दा नीतीश कुमार में नहीं है। बिहारी समाज में किसी लड़की के अपने इन अधिकारों के प्रयोग की कोशिश मात्र से बेटियों के लाड़-दुलार की तमाम बातें हवा हो जाती हैं और उसके अपने पिता-भाई दुश्मन की तरह व्यवहार करने लगते हैं।

आजादी के बाद के कुछ वर्षों तक आजादी आंदोलन के आदर्शों और मूल्यों की अवहेलना सरकारों के लिए आसान नहीं था और उस दौर में अंतर्जातीय या धर्म का बंधन तोड़ कर शादी करने वालों को सरकारें प्रोत्साहित करती थीं। आज हिंदुत्ववादी ताकतें इन्हें हर जगह प्रताड़ित करने का अवसर ढूंढती रहती हैं और सरकार इन्हीं के कन्ट्रोल में है। सरकारी संरक्षण में सामंतवादी, हिंदुत्ववादी ताकतों के बढ़ते वर्चस्व से टकरा कर अगर लड़कियों के संविधान प्रदत अधिकारों के लिए नीतीश कुमार प्रगतिशील मूल्यों के पक्ष में खड़े होते तो कुछ बात बनती।

हाल के वर्षों में जब लड़कियां शिक्षित और आत्मनिर्भर हो रही हैं और अपनी मर्जी का जीवन जीना चाहती हैं, तब वे ससुराल ही नहीं कई बार अपने पिता के घर में भी वही अत्याचार झेलती हैं। यहां मैं ऐपवा के पास आए कुछ मामलों की चर्चा करना चाहती हूं। कुछ वर्षों पहले ऐपवा से मदद के लिए एक लड़की आई। लड़की के पिता की मृत्यु हो गई थी। इस पढ़ी-लिखी और आत्मनिर्भर लड़की के भाइयों की कोशिश थी कि जल्दी व कम खर्च में बहन की शादी कर दी जाए ताकि पैतृक संपत्ति पूरी तरह भाइयों के कब्जे में आ सके। जबकि लड़की का कहना था कि संपत्ति में मेरा हिस्सा दे दो, उसके जरिए योग्य लड़के के लिए दहेज जुटा लूंगी। एक अन्य केस में एक लड़की चित्रकला और मूर्तिकला को अपना पेशा बनाना चाहती थी। वह अपने पैतृक घर और जमीन में अपना हिस्सा लेना चाहती थी ताकि अपना वर्कशॉप खोल सके। उसके पिता जीवित थे लेकिन वह अपने बेटों के पक्ष में थे और बेटे चाहते थे कि बहन को पैतृक संपत्ति से बेदखल किया जाए। इस लड़की को बेदखल करने के लिए भाइयों और भाभी द्वारा मारपीट, भाभी के भाइयों द्वारा कई बार मारपीट की गई। लड़की थाना, कोर्ट की लड़ाई लड़ती रही। उसे मेडिकल सहायता से लेकर उसकी जमानत लेने तक में ऐपवा के साथी लगे रहे। अंततः जमीन और घर पर उस लड़की ने अपना कब्जा ले लिया। इस तरह के अनेक मामलों में हाल के दिनों में हम लोगों ने देखा है कि पिता के घर में अपने अधिकार की मांग करती लड़कियां सामने आ रही हैं। जबकि, पहले ऐसे मामले अधिक आते थे, (अभी भी आते हैं) जब ससुराल में उत्पीड़न झेलती या घर से निकाल दी गई लड़कियां अपने पिता या भाई के जरिए ऐपवा से संपर्क करती थीं। ऐसी लड़कियों के पिता या परिजनों की चिंता यह होती कि बेटी किसी तरह ससुराल में बसा दी जाए। कोई बहुत दयालु पिता होते तो कहते 'जब तक हम हैं तब तक शादी शुदा बेटी की देखभाल कर लेंगे, लेकिन हमारे बाद भाई भाभी पर निर्भर रहेगी और वे न जाने कैसा व्यवहार करें'। अगर ससुराल से निकाली गई और पीड़ित महिला के बच्चे होते तब और भी जोर रहता है कि ससुराल वाले उसे किसी तरह स्वीकार कर लें और अच्छा व्यवहार करें। ऐसे पिता कभी सोच ही नहीं पाते कि जो संपत्ति वे बेटों के लिए छोड़ रहे हैं उसमें उनकी बेटी का भी हक है!

हिंदू महिलाओं के मानवीय अधिकार डॉक्टर अंबेडकर के लिए इतने महत्वपूर्ण थे कि हिंदू कोड बिल बनाने और संविधान में महिलाओं की बराबरी के अधिकार की गारंटी के लिए उन्होंने अथक मेहनत की। उनकी प्रतिबद्धता ऐसी थी कि रूढ़िवादियों के दबाव में आकर इस कोड को विखंडित करने के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के फैसले से क्षुब्ध होकर उन्होंने केंद्रीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया और एक हमारे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं जो उन्ही हिंदुत्ववादी ताकतों के साथ गलबहियां डाले हुए हैं। ये जिस मंच से समाज सुधार पर भाषण देते हैं, उसी मंच से बिहार के डीजीपी माता-पिता को हिदायत देते हैं कि स्कूल कॉलेज जाती लड़कियों पर नजर रखें और उन्हें प्रेम विवाह से रोकें। कहावत है कि ठठाकर हंसना और गाल फुलाना दोनों एक साथ नहीं हो सकता। इसलिए नीतीश कुमार पितृसत्ता को बचाए रखकर महिला समस्याओं का समाधान नहीं कर सकते। ऐसा लगता है कि समाज सुधार एक आवरण है जिसकी आड़ में वे बिहार के बेसिक सवालों से बचना और भाजपा के साथ बंधी अपनी कुर्सी को बचाना चाहते हैं।

(लेखिका अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला एसोसियशन (ऐपवा) की राष्ट्रीय महासचिव हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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