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80 प्रतिशत से अधिक अभिभावकों का कहना है कि लॉकडाउन के दौरान उनके बच्चों को शिक्षा नहीं मिली : स्टडी

ऑक्सफ़ैम की रिपोर्ट कहती है कि शिक्षा देने के मौजूदा तरीक़ों ने प्रौद्योगिकी पर बहुत अधिक निर्भर कर दिया है, जिससे 80 प्रतिशत से अधिक छात्र पांच महीने पहले स्कूलों के बंद होने के बाद इस व्यावस्था के चलते शिक्षा से दूर हो गए हैं।
ऑक्सफ़ैम की रिपोर्ट

ऑक्सफैम इंडिया द्वारा किए गए एक नए सर्वेक्षण के अनुसार, पांच राज्यों के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के 80 प्रतिशत से अधिक अभिभावकों ने कहा है कि लॉकडाउन के दौरान बच्चों को शिक्षा नहीं मिल सकी है। शिक्षा, शिक्षा प्रदान करने के तरीकों और सरकारी और निजी दोनों स्कूलों में उसके एंटाइटेलमेंट और पहुँच पर महामारी के प्रभाव को समझने के इरादे से, ऑक्सफैम इंडिया ने एक बड़े ही त्वतरित ढंग से इसका मूल्यांकन किया, जिसमें ओडिशा, बिहार झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश के 1,200 माता-पिता और 500 शिक्षकों का सर्वेक्षण करना शामिल है।  

मार्च महीने में सर्वोच्च न्यायालय ने सभी राज्यों को निर्देश दिया था कि महामारी की वजह से हुए लॉकडाउन के चलते स्कूल बंद होने कि स्थिति में भी दोपहर का भोजन (MDM) बच्चों तक पहुँच जाना चाहिए। जिन राज्यों को ऑक्सफैम स्टडी में शामिल किया गया है उनमें ओडिशा, बिहार झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश शामिल हैं, जिन्हौने बच्चों को दोपहर का भोजन मुहैया कराने के आदेश भी जारी किए थे। बावजूद इसके, सर्वेक्षण दिखाता है कि 35 प्रतिशत बच्चों को एमडीएम नहीं मिला। शेष 65 प्रतिशत में से सिर्फ 8 प्रतिशत को पका हुआ भोजन मिला, जबकि 53 प्रतिशत को सूखा राशन ही मयस्सर हुआ तथा 4 प्रतिशत को भोजन के बदले पैसा मिला था। सर्वे किए गए राज्यों में उत्तर प्रदेश की स्थिति सबसे दयनीय थी जहां 92 प्रतिशत बच्चों को किसी भी तरह का दोपहर का भोजन नहीं दिया गया। 

राज्य सरकारों द्वारा टीवी, ऑनलाइन या अन्य तरीकों से शिक्षा को जारी रखने की सभी घोषणाओं के बाद भी 80 प्रतिशत से अधिक अभिभावकों ने कहा कि उनके बच्चों को लॉकडाउन में शिक्षा नहीं मिली है; बिहार में यह संख्या 100 प्रतिशत है। सर्वेक्षण आगे कहता है, इसे दो तरह से परिभाषित किया जा सकता है 1) बच्चों और माता-पिता में शिक्षा के उस साधन के बारे में जागरूकता का न होना जिसके माध्यम से शिक्षा दी जा रही है या 2) उस माध्यम के यंत्र का न होना जिसके माध्यम से शिक्षा दी जा रही है। साक्ष्य दूसरे कारण की तरफ इशारा करते हैं।यह इस बात की तरफ भी इशारा करते हैं कि शिक्षा को अधिकतर ऑनलाइन माध्यम से दिया जा रहा है, इससे 85 प्रतिशत बच्चे इससे बाहर हो गए क्योंकि उनके पास इंटरनेट नहीं है केवल 15 प्रतिशत ग्रामीण बच्चों के पास ही इंटरनेट हैयह संख्या उन वंचित सामाजिक तबकों में तो और भी कम जो दलित,आदिवासी और मुस्लिम तबकों से है। डिजिटल साधन पर शिक्षा का निर्भर होना महिलाओं को शिक्षा के दायरे से बाहर कर देता है क्योंकि भारत में केवल 29 प्रतिशत महिलाएं ही इंटरनेट यूजर्स हैं। 

जहां इन साधनों से शिक्षा ‘दी’ जा रही है, वह अधिकतर व्हाट्सएप (75 प्रतिशत) के माध्यम से दी जा रही है और फोन के माध्यम से अध्यापक द्वारा 38 प्रतिशत छात्रों को शिक्षा दी जा रही है। निजी स्कूललों में भी शिक्षा ‘प्रदान’ करने का कुछ यही तरीका है, और वे भी व्हाट्सएप पर अधिक निर्भर हैं। स्पष्ट रूप से, ये सूचना प्रसार का माध्यम हैं और इन्हें किसी भी तरह से ‘शिक्षा देने' के रूप में नहीं देखा जा सकता है। यात्रा और आने-जाने में बाधाएं, विशेष रूप से महामारी के शुरुआती दिनों के दौरान शिक्षा को ऑनलाइन मुहैया कराने के प्रमुख कारणों में से एक है।

सर्वेक्षण के अनुसार, व्हाट्सएप के उपयोग के साथ शैक्षणिक मुद्दों के अलावा, शिक्षा तक पहुँच भी एक मुद्दा है- सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले 75 प्रतिशत से अधिक बच्चों के माता-पिता ने उनके डिजिटल न होने सहित शिक्षा को हासिल करने में बच्चों को समर्थन देने में चुनौतियों पेश आने की सूचना दी है। इंटरनेट कनेक्शन, इंटरनेट डेटा की खरीद न कर पाने, और इंटरनेट की गति अनुकूल नहीं होना भी कारण हैं। 

सरकारी स्कूलों के मामले में एक चौंका देने वाली संख्या यानि 84 प्रतिशत शिक्षकों ने इंटरनेट से संबंधित मुद्दों और उसके माध्यम से शिक्षा देने में चुनौतियों का सामना किया (सिग्नल मुद्दों और डेटा खर्च आदि)। पाँच शिक्षकों में से करीब दो के पास शिक्षा को डिजिटल तरीके से प्रदान करने में जरूरी उपकरणों का अभाव है; विशेष रूप से यूपी और छत्तीसगढ़ में स्थिति गंभीर है, जहां क्रमशः 80 प्रतिशत और 67 प्रतिशत शिक्षकों के पास ऑनलाइन शिक्षा मुहैया कराने के लिए अपेक्षित उपकरणों का अभाव है। चुनौतियां सीधे तौर पर शिक्षक तैयारियों की कमी से जुड़ी हैं- 20 प्रतिशत से कम शिक्षकों ने डिजिटल रूप से शिक्षा देने पर उन्मुखीकरण प्राप्त करने की सूचना दी हैं जबकि बिहार और झारखंड में यह आंकड़ा 5 प्रतिशत से भी कम था।

इस अध्ययन में सरकारी स्कूलों के लंबे समय तक बंद होने का बच्चों पर पड़े प्रभाव पर प्रकाश डाला गया है। एक तिहाई छात्र मिड-डे मील से वंचित रहे हैं जबकि 80 प्रतिशत से अधिक बच्चों को पाठ्यपुस्तकें नहीं मिली हैं। शिक्षा देने के वर्तमान तरीकों ने प्रौद्योगिकी पर बहुत अधिक निर्भर बना दिया है, जिससे 80 प्रतिशत से अधिक छात्र प्रभावित हुए हैं, जो पांच महीने पहले स्कूलों को बंद करने से शिक्षा से पूरी तरह से वंचित रह गए हैं। यह शिक्षक तैयारियों की कमी और डिजिटल तरीके से शिक्षा देने की राज्य सरकारों की क्षमता/समर्थन की पूर्ण कमी पर भी प्रकाश डालता है।'

सर्वे कहता है, ''जैसे-जैसे स्कूलों को फिर से खोलने की नीति पर चर्चा हो रही है, यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि 40 प्रतिशत से अधिक स्कूलों को क्वारंटाइन/राशन वितरण केंद्रों के रूप में इस्तेमाल किया गया था या किया जा रहा है और 43 प्रतिशत शिक्षकों का मानना है कि उनके स्कूल में सफाई (WASH)की सुविधाएं पर्याप्त नहीं हैं ताकि सुरक्षित, स्वच्छ प्रथाओं को बढ़ावा दिया जा सके। इस प्रकार, यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि स्कूलों को पूरी तरह से संक्रामण की किसी भी संभावना से बचने के लिए सेनीटाईज़ किया जाए और फिर से खोलने से पहले स्कूलों में पर्याप्त सफाई/धुलाई की सुविधाएं स्थापित की जाएं।

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