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मूर्तिकारों का मनोभाव

त्योहार का मौसम नज़दीक आ रहा है, लेकिन मूर्ति बनाने वालों को अपने निर्माण के लिए बाज़ार खोजने में दिक़्क़त हो रही है। न्यूज़क्लिक यहाँ एक फ़ोटो निबंध पेश कर रहा है।
मूर्तिकारों

आखिरकार उसने मेरी आंखे बना ही दीं। मैंने धीरे-धीरे उन्हें खोला, लेकिन मै जानता हूं कि कोरोना महामारी के चलते, पिछले साल की तुलना में सब बदल चुका है। एक वर्कशॉप के युवा मूर्तिकार ने अभी-अभी मुझे रंगना शुरू किया था। मुझे यह देखकर अच्छा नहीं लगा कि उसने अपने चेहरे पर मॉस्क नहीं लगाया था। 

इसके बाद मैंने अपने आसपास देखा और असहज माहौल को महसूस किया। मैंने वहां दो किस्म के लोगों को पाया, एक वो जो महामारी को बहुत गंभीरता से ले रहे हैं, दूसरे वो जो इनसे ठीक उलटा व्यवहार कर रहे हैं।

वर्कशॉप में कुछ ही मूर्तिकार काम कर रहे थे, क्योंकि इस साल बहुत ज़्यादा काम नहीं था। बचे हुए जो लोग काम कर रहे हैं, वह भी एक-दूसरे से दूरी बनाकर चल रहे हैं। हर चीज काफ़ी शांत और उदास लगती है। ना तो रेडियो है, ना ही पुराने गाने चल रहे हैं, ना लोगों में गप्प हो रही है। ना कोई सिगरेट पीने के लिए अब छोटा ब्रेक ले रहा है और ना ही शाम के वक़्त हल्के-फुल्के नाश्ते वाली पार्टियां हो रही हैं। 

मैं मुसीबतों को दूर करने वाला गणेश हूं, यह देखकर मेरा दिल भारी हुआ जाता है कि जो दूसरा व्यक्ति मेरी मूर्ति बनाता है, मुझे लगता है कि अब उसका मुझमें विश्वास नहीं रहा है।

मैं जगदीश पाल को देख रहा हूं, जो 1973 से मूर्ति बना रही इस "विश्वकर्मा शिल्पालय" के मालिक हैं। उनके ज़्यादातर मूर्तिकार कोलकाता से हैं। वह हर साल अपने स्थायी और नए ग्राहकों के लिए मूर्ति बनाते हैं, लेकिन इस साल कहानी कुछ और है।

नए ग्राहकों की छोड़िए, जो स्थायी ग्राहक थे, वे भी इस साल अपनी मूर्तियां नहीं ले रहे हैं। सरकार और नागरिक, कोरोना महामारी के चलते बहुत ज़्यादा सावधानी बरत रहे हैं, हालांकि इस बीमारी के बारे में जागरुकता की अब भी काफी कमी है।

मूर्तिकारों का यह दुख कोई रहस्य नहीं है, लेकिन महामारी से इसमें काफ़ी इज़ाफा हो गया है। यहां-वहां बहुत सारी मूर्तियां पड़ी हुई हैं, जो बाज़ार में जारी संकट की कहानी बयां करती हैं। जगदीश निराश होकर अपने एक साथी कर्मी से अपना दुख बयां कर रहा है, वह कहता है, "अपने बच्चे को इस धंधे में नहीं आने देने का मेरा फ़ैसला बिलकुल सही रहा। अगर वह भी मेरी तरह मूर्तिकार बन जाता, तो उसका हश्र भी मेरे जैसा ही होता। अब जब वह MBA कर रहा है, तो मैं निश्चित होकर यह कह सकता हूं कि वह जीवन में बेहतर करेगा और अपने परिवार को बुनियादी जरूरतों के लिए संघर्ष नहीं करने देगा।" फिलहाल मुझे इस भयावह सच्चाई को मानना ही होगा। कुछ दूसरे पेशेवरों की तरह मूर्तिकारों को भी कम पैसा मिलता रहा है और अब इस महामारी ने स्थिति को और भी गंभीर बना दिया है। 

मूर्तिकार इस बात से अच्छी तरह परिचित हैं कि कोरोना महामारी के प्रसार को रोकने के लिए सोशल डिस्टेंसिंग और स्वच्छता बेहद जरूरी है। लेकिन मैं उन्हें माचिस की डिब्बी की तरह के रूम में रहते देखता हूं, जिसमें किसी को भी घुटन महसूस होने लगे। एक सुबह मैंने उन सभी को एक ही सार्वजनिक शौचालय का इस्तेमाल करते देखा, वे सभी एक ही जगह पर दाढ़ी बना रहे थे और नहा रहे थे।

एक दूसरे दिन मैंने देखा कि वह अपना काम खत्म कर, अपने अस्थायी बंकरों में आराम कर रहे थे। ज़्यादातर वक़्त यह लोग अपने चेहरों में पर मास्क नहीं पहनते। उनके मास्क या तो नीचे होते हैं या फिर उनके कान से लटके होते हैं। 

मुझे ऐसा लगता है कि मास्क में काम करते वक़्त इन लोगों को असहज महसूस होता है। इसलिए वे उसे नीचे रखते हैं। यह देखना बेहद दुखदायी है कि जो थोड़ा सा पैसा यह मूर्तिकार कमाते हैं, उसमें वे ना तो खुद के लिए बेहतर जीवन का वहन कर पाते हैं और ना ही अपने काम करने के लिए बेहतर स्थितियां बना पाते हैं। यह लोग अपने घर भी पैसा नहीं भेज पाते हैं।

यह तो बस मेरी मूर्ति बनाने वालों की कहानी है। यह तो बस शुरुआत है, गणेश पूजा के बाद दुर्गा पूजा, लक्ष्मी पूजा और काली पूजा होती है। मुझे डर है कि इन लोगों का हश्र भी मेरे जैसा ही होगा। लेकिन मूर्तिकारों की आकांक्षा भरी नज़रों से अपनी मूर्तियां बनाते देखने से हमें भी आशा महसूस होती है। मैं उम्मीद करता हूं कि लोग हममें अपना विश्वास नहीं टूटने देंगें, भले ही इस महामारी के साल में हमारी मूर्तियां ना बिक रही हों।

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इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें। 
 

The Pathos of the Makers

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