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अमेरिकाना शांति और परमाणु आयुध अस्त्रों का खतरा

परमाणु शक्तियों के बीच युद्ध का मतलब है निश्चित तौर पर सभ्यता का खात्मा। क्या नागरिक इसके खिलाफ पहल करेंगे?
Pax Americana

झलक: इस दशक का अंत अमेरिका ने खुद को परमाणु आयुध अस्त्रों में अपनी अग्रणी भूमिका के रूप में स्थापित करने में किया है। नाभिकीय यद्धों पर नियंत्रण कर सकने वाले सभी समझौतों को तोड़कर ऐसे सैन्य मतों का प्रतिपादन किया है, जहां पर यदि कभी नाभिकीय युद्ध जैसी सम्भावना बने तो वही जीते। इस पर रूसी प्रतिक्रिया भिन्न प्रकार की रही है– वह कम लागत पर नवीनतम हथियारों को विकसित कर रहा है और यह उम्मीद लगाए बैठा है कि एक दिन अमेरिका को जमीनी हकीकत से रूबरू होना पड़ेगा और वह बातचीत के लिए राजी होगा। दुर्भाग्य से इस दुनिया को अभी भी इस पहल का इंतजार है।

इस दशक का अंत सम्पूर्ण मानवता के लिए दो बड़े खतरों के साथ हुआ है: वैश्विक तापमान वृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) के चलते जलवायु तबाही और परमाणु युद्ध से हमारी सभ्यता के नाश का खतरा। अमेरिका ने पेरिस समझौते से खुद को अलग कर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम से कम किये जाने वाले जलवायु परिवर्तन समझौते पर सभी देशों के हस्ताक्षर की महत्ता को कमतर करने में ऐसी भूमिका निभाई जो किसी अपराध की तरह है। इसने परमाणु आयुध अस्त्रों की दौड़ में अपनी अग्रणी भूमिका निभाई है, जिसने सभी परमाणु हथियारों पर नियंत्रण लगाने वाली संधियों को निरस्त करने का काम किया है। जैसी की अपेक्षा थी, इस पर रूसी प्रतिक्रिया सामने आई है। लेकिन ये प्रयास अमेरिका द्वारा अपनाये गए उपायों से खुद की बराबरी करने के जरिये नहीं, बल्कि कुछ ऐसे अनोखे उपाय डिजाइन किये हैं जिनसे परमाणु प्रभुत्व की अमेरिकी कोशिशों को परास्त किया जा सके।

इस तरह के अनोखे जवाबी कार्यवाही से परमाणु हथियारों के खतरे को कम तो नहीं होते, लेकिन इनसे इतना भर सुनिश्चित हो जाता है कि इस प्रकार के परमाणु युद्ध में कोई एकमात्र विजेता तो नहीं ही होने जा रहा है। वे कौन से खतरे हैं जो अमेरिका और रूस के बीच परमाणु हथियारों के युद्ध की वजह बन सकते हैं? 70 और 80 के दशक में अमेरिका और रूस के बीच तीन परमाणु हथियारों पर नियंत्रण को लेकर संधियां हुई थीं, और सभी सन्धियाँ इस समझदारी पर आधारित थीं कि परमाणु युद्ध के जरिये विजेता नहीं बना जा सकता है। हर पक्ष के पास इतनी मात्रा में हथियार मौजूद हैं कि उससे न सिर्फ एक दूसरे को पूरी तरह नष्ट किया जा सकता है, बल्कि पूरे विश्व को नेस्तनाबूद करने के लिए पर्याप्त हथियार मौजूद थे। इस प्रकार की तीन संधियाँ हुईं: एंटी बैलिस्टिक मिसाइल (एबीएम-ABM) ट्रीटी, इंटरमीडिएट-रेंज न्यूक्लियर फोर्सेस ट्रीटी, और अंतिम ट्रीटी स्ट्रेटेजिक आर्म्स लिमिटेशन ट्रीटी पर हुई थी, जो अब स्ट्रेटेजिक आर्म्स रिडक्शन ट्रीटी (एसटीएआरटी-START) के रूप में रूपांतरित हो चुकी है।

इन सभी संधियों को म्यूच्यूअली अस्योर्ड डिस्ट्रक्शन डॉक्ट्रिन (एमएडी-MAD) सिद्धांत के रूप में जाना जाता है, पर आधारित थी। इसके अनुसार यदि प्रत्येक पक्ष के पास पहला हमला झेलने के बावजूद दूसरे को नष्ट करने के लिए पर्याप्त परमाणु हथियार होते हैं, तो भी आतंक का संतुलन बना रहेगा, जिससे किसी प्रकार के परमाणु युद्ध की संभावना कम से कम होगी। इन तीन संधियों में से दो संधियों एबीएम (ABM)  संधि और आईएनऍफ़ (INF) संधि  को तो अमेरिका ने औपचारिक तौर पर निरस्त कर दिया है, जबकि तीसरी संधि एसटीएआरटी (START) जिसकी समयावधि 2021 में समाप्त होने जा रही है, का भविष्य अधर में लटका पड़ा है।

इन परमाणु खतरों में बढ़ोत्तरी के लिए भारत और पाकिस्तान आगे आये हैं, और उन्होंने युद्ध पर अपनी बयानबाजी को इस बीच तेज किया है। पहला हमला हमारी ओर से नहीं होगा, इस पोजीशन से भारत ने खुद को दूर कर लिया है। दक्षिण एशिया में यदि इस प्रकार का कोई परमाणु युद्ध छिड़ता है तो परमाणु हमले से उत्पन्न सर्दी सहित इसके वैश्विक दुष्परिणाम होने वाले हैं। अमेरिका के ईरान परमाणु समझौते से पीछे हटने के चलते भी पश्चिम एशिया में परमाणु हथियारों की दौड़ शुरू हो सकती है, जिसके मद्देनजर ईरान के सामने अमेरिका से लड़ने और अपनी रक्षा के रूप में परमाणु हथियार संपन्न होने की तलाश- सेमसन विकल्प- के सिवाय कोई उपाय नहीं बचता। और फिर उसके पीछे पीछे सऊदी अरब भी चल पड़ेगा।

अमेरिकी की यह कार्रवाई एक ख़ास रणनीतिक दृष्टिकोण के तहत उपजी है। उसका दृष्टिकोण है कि जैसे अन्य हथियार हैं उसी तरह परमाणु हथियार भी हैं। हाँ ये कुछ बड़े जरुर हैं, लेकिन ऐसा नहीं कि उन्होंने गुणात्मक रूप से युद्ध को बदल दिया हो,। यदि इस प्रकार का कोई युद्ध होता है तो इससे समूची सभ्यता के खात्मे का खतरा तो नहीं ही जा रहा, यदि हम बच गए तो। जहाँ एमएडी (MAD) संधि वाकई में परमाणु निरस्त्रीकरण की तुलना में पागलपन नजर आता है, वहीँ यह शर्तिया तौर पर परमाणु युद्धों के दृष्टिकोण को प्राथमिकता देने पर जोर देता लगता है।

हमले की पहल को लेकर ट्रम्प प्रशासन के दृष्टिकोण को सार संकलन देखना हो तो इसे इसके 2018 के परमाणु विन्यास समीक्षा में देखा जा सकता है। संक्षेप में, संयुक्त राज्य अमेरिका परमाणु हथियारों और वितरण प्रणाली की एक नई पीढ़ी के निर्माण में लगा है, और बेहतर उपयोग लायक परमाणु हथियारों की तैनाती "अग्रिम" क्षेत्रों में करने जा रहा है, और यह 30 देशों की रक्षा हेतु, गैर-परमाणु हमलों के खिलाफ भी सम्भावित परमाणु हथियारों के "प्रथम उपयोग" के लिए प्रतिबद्ध है, मिसाइलों को लॉन्च करने के लिए सक्रिय अलर्ट पर तैनात रखेगा, हथियार नियंत्रण के मामले चलने वाली वार्ताओं में किसी भी प्रकार की प्रगति की संभावना पर उसे शंकाएं हैं और परमाणु हथियारों को अवैध घोषित किये जाने वाले किसी भी वैश्विक आंदोलन के प्रति वह शत्रुतापूर्ण विचार रखता है।

यह कोई रक्षात्मक दृष्टि नहीं, वरन आगे बढकर आक्रमण करने वाली क्षमताओं को और सुद्रढ़ करने वाली आक्रामक दृष्टि के साथ हर हाल में अजेय परमाणु युद्ध हासिल करने वाली सोच का नमूना है। 11 जून  2019 को अमेरिका के ज्वाइंट चीफ़ ऑफ स्टाफ द्वारा तैयार किए गए परमाणु परिचालनों के शीर्षक वाले दस्तावेज़ के हिस्से के तौर पर भी इस विजन को शामिल किया गया है। इसे पहले प्रकाशित किया गया था लेकिन फिर बेहद तत्परता से अमेरिकी सरकार की वेबसाइटों से इसे हटा लिया गया था, और अब इसे सिर्फ फेडरेशन ऑफ अमेरिकन साइंटिस्ट की वेबसाइट पर देखा जा सकता है।

पहले-पहल धावा बोलने की क्षमताओं को विकसित करने की पहल को हमें जूनियर बुश के शासन काल के दौरान 2002 में एबीएम संधि (ABM) से अमेरिका के पीछे हटने के साथ जोड़कर देखना होगा। इसके साथ ही अमेरिका और अन्य नाटो (NATO) नेतृत्व द्वारा दिए गए दिए गए स्पष्ट आश्वासनों के विपरीत जाकर नाटो (NATO) सेनाओं का पच्चीस-साल का रूस की सीमाओं तक मार्च करने में भी इसे देखा जा सकता है। जहाँ खुद से पीछे हटने के चलते परमाणु आतंक के संतुलन में कोई परिवर्तन नहीं हो जाता, इस तथ्य के बावजूद इरादे स्पष्ट थे: उस दौरान रूस की हालत नाजुक बनी हुई थी, और वह दौड़ से बाहर था, और येल्तसिन के शासन काल में रूस वास्तविक अर्थों में एक टोकरी में रखे जाने लायक हो चुका था। ऐसी परिस्थिति अमेरिका के लिए एक बार फिर से खुद को परमाणु प्रभुत्व वाले देश के रूप में स्थापित करने का आमन्त्रण दे रही थी। यह एक 1945-49 के युग में वापस जाने वाली बात थी, जब अमेरिका एकमात्र परमाणु शक्ति संपन्न देश हुआ करता था।

प्रतिउत्तर में रूसी प्रतिक्रिया को स्पष्ट रूप से पुतिन की ओर से 1 मार्च 2018 को रूसी संघ के फेडरल असेंबली में दिए गए उनके संबोधन में देखा जा सकता है। इसमें पुतिन ने एक  ऐसे मिसाइल शील्ड को पराजित करने के लिए डिज़ाइन किए गए हथियारों की एक नई श्रृंखला तैयार करने की घोषणा की थी, जो परमाणु आतंक के संतुलन को बहाल साबित करने वाले सिद्ध होते हैं। हालिया परिवर्तनशीलता में दक्ष हाइपरसोनिक ग्लाइडर अवांगार्ड के परीक्षण पुतिन के नवीनतम हथियारों के हिस्से में से है जिसे रूस ने मिसाइल हमलों को परास्त करने के लिए विकसित किया है। यह पहले के विकसित किये गए हाइपरसोनिक ग्लाइडर किंजल की अगली पीढ़ी है, जिसे उन्होंने अपने 2018 के भाषण में "पहले से ही परीक्षण किया हुआ और संचालन के योग्य" ठहराया था।

इसके अलावा दो अन्य मिसाइल विकसित किये गए हैं जिनमें से एक एसएआरएमएटी (SARMAT) जो एक नया आईसीबीएम (ICBM) है, जो किसी भी दिशा से हमला करने में सक्षम है, और इस प्रकार उत्तरी दिशा से आने वाले किसी भी विरोधी मिसाइल बैटरियों को हरा सकने में सक्षम है जो अमेरिका के पास पहले से हैं। इसके अलावा एक ड्रोन पनडुब्बी भी है जिसकी क्षमता विमान वाहक और नौसैनिक बंदरगाह को तबाह करने की है। पुतिन ने एक और मिसाइल, परमाणु ऊर्जा संचालित क्रूज मिसाइल की घोषणा की थी, जिसके बारे में अंदेशा है कि उसमें कुछ गड़बड़ी पाई गई। ऐसा जान पड़ता है कि परीक्षण के दौरान उसमें विस्फोट हो गया। बाकी सभी परीक्षण या तो हो चुके हैं या उनका परीक्षण चालू है।

पुतिन के 2018 के भाषण पर हथियारों की नई खेप को विकसित कर पाने में असमर्थता की बात कहकर अमेरिकी मीडिया ने पुतिन का मखौल उड़ाया। इसके पीछे अंतर्निहित समझ यह थी कि इस नए युग में जहां अमेरिकाना शांति का दबदबा बना रहने वाला है, वहीँ अमेरिकी रणनीति के तहत परमाणु प्रभुत्व के कायम रहने को अब कोई चुनौती नहीं मिलने जा रही है। और पुतिन की ओर से समकक्ष खड़े होने का दावा करना वह महज एक बददिमाग नेता के शेखी बघारने से अधिक कुछ नहीं। और एक बात, यह कोई ट्रम्पीय विजन का मामला नहीं है, बल्कि ओबामा ने भी रूस को एक क्षेत्रीय शक्ति के रूप में सीमित कर तिरस्कारपूर्ण भाव से उसे खारिज कर दिया था, जिससे अमेरिका की सुरक्षा को लेकर कोई खतरा नहीं है। परमाणु युद्धों में खुद की अपराजेय स्थिति को लेकर ट्रम्पीय विजन सिर्फ एक अहंकारपूर्ण और एक आत्ममुग्ध नेता के रूप में कोई गलती से हो जाने वाली भूल नहीं है, बल्कि अमेरिका के द्विदलीय नेतृत्व की विश्वदृष्टि के काफी नजदीक का मामला है।

यह मुद्दा नोट किये जाने लायक है कि अमेरिका द्वारा अपने परमाणु हथियार प्रणालियों के जखीरे को खड़ा किये जाने के प्रतिउत्तर में रूस ने वो सब काम नहीं किये हैं। इसने उसी प्रकार के सुरक्षा ढालों को निर्मित करने के अमेरिकी मार्ग का अनुसरण करने का प्रयास नहीं किया है, जिसमें अमेरिका निवेश करता जा रहा है। इसके बजाय, उसने अपनी आक्रामक क्षमता को बढ़ाते हुए विषम प्रतिक्रिया के सिद्धांत का पालन किया है। रूस की मान्यता है कि परमाणु युद्ध अजेय नहीं हैं, और समझदारी इस बात में नहीं है कि प्रतिद्वंदिता को बनाए रखने के लिए उन्हीं प्रणालियों को विकसित किया जाये जो "दुश्मन" के पास पहले से मौजूद हैं।

इसके लिए इतना ही करना काफी है कि उन प्रणालियों को विकसित किया जाये, जिससे परमाणु युद्धों से कोई युद्ध जीतने की हालत में न हो। इसके लिए रूस का लक्ष्य उन नए हथियारों के विकास तक सीमित है जो मिसाइल हमलों को नाकाम कर सकें। रूस इतने सारे सिस्टम क्यों विकसित कर रहा है के बारे में जोशुआ पोल्लैक का कहना है, "शायद इतना सबकुछ इसलिये निर्मित किया जा रहा है, ताकि अमेरिका को बीएमडी उद्यम (BMD) की निरर्थकता से अवगत कराया जा सके, और वाशिंगटन को कहीं अधिक सहयोगात्मक रुख की लकीर के लिए प्रेरित करता है।"

पुतिन ने नए हथियारों पर अपने भाषण का अंत अमेरिका से इस निवेदन के साथ किया था कि वह धरती पर आ जाये और अपने वैश्विक परमाणु प्रभुत्व के मूर्खतापूर्ण कदम से बाज आये। इसके बजाय, अमेरिका की प्रतिक्रिया आगे बढ़कर उन नई मिसाइलों के परीक्षण करने की रही है, जो पहले आईएनऍफ़ (INF) संधि के तहत प्रतिबंधित करार दी गई थीं।

नए एसटीएआरटी (START) वार्ता के मद्देनजर अमेरिका ने साफ़ कहा है कि वह इस वार्ता में तभी शामिल होगा  यदि चीन को भी इसमें शामिल किया जाये। यहां तक कि अमेरिकी हथियार नियंत्रण विशेषज्ञ भी इस चीनी समावेशन की मांग को लेकर आश्चर्य में हैं। आज की तारीख में संयुक्त राज्य अमेरिका और रूस में से हर एक के के पास कुल मिलाकर 6,000 से अधिक परमाणु हथियार हैं, जबकि चीन के पास यह संख्या 300 के आस-पास है। इसलिए ऐसी कोई भी चर्चा जिसमें चीन को घुसेड़ा जाता है, वह केवल उसकी स्वैच्छिक सीमा को बढाने के ही काम आयेगी, उसे किसी भी प्रकार से कम करने में मदद नहीं करेगी! इसलिए ट्रम्प प्रशासन की यह इच्छा कि सिर्फ चीन को एक नए एसटीएआरटी (START) वार्ता में घसीटा जाए, यह बताता है कि या तो वह इस बारे में अनभिज्ञ है, या यह सिर्फ उसके खुद को महत्वपूर्ण दिखाने के लिए कर रहा है।

सिर्फ आँकड़ों के लिहाज से बताते चलें कि फ़्रांस के पास भी 300 परमाणु हथियार हैं, और इसके अलावा ब्रिटेन के पास 250 और भारत और पाकिस्तान के पास 200 के आसपास हैं। इजरायल के पास लगभग 100 और डेमोक्रेटिक पीपल्स रिपब्लिक ऑफ कोरिया में लगभग 20 हैं।अमेरिकी मीडिया और इसके विशेषज्ञों ने हथियार नियंत्रण के मुद्दे पर अमेरिकी और रूसी सरकारों के दावों की जांच करते समय राष्ट्र हित के चश्मे से ही देखने की कोशिश की है। चाहे वे ट्रम्प को पसंद न करते हों,  लेकिन जब बात विदेशी मामलों से जुड़ी हो, तो यह राष्ट्रीय अनिवार्यता बन जाती है कि वे शीर्ष नेत्रत्व के पीछे पीछे चलने लगें, चाहे उन्होंने एक दूसरे की नाक ही क्यों न पकड़ रखी हो। यदि कहीं से कोई आलोचना की आवाजें भी आती हैं, तो उनमें से अधिकांश मौन हैं। उनके लिए सारा दोष रूस का ही है, जब तक कि अन्यथा साबित न हो। इराक युद्ध के लिए सद्दाम के सम्पूर्ण विनाश के हथियार(WMDs), वियतनाम युद्ध के लिए टोंकिन की खाड़ी के महा घोटालों के बावजूद अमेरिका दूध का धुला नजर आता है।

सोवियत संघ के पतन के बाद से ही अमेरिका एक अमेरिकाना शांति के अपने विश्व युद्ध-2 उपरान्त के अमेरिकी दृष्टिकोण पर वापस पहुँच रहा है। यह उसके परमाणु सिद्धांत के साथ गुंथा हुआ है जिसमें उसकी रणनीतिक दृष्टि में युद्ध के सभी नाटकों को उसके द्वारा नियंत्रित करने की भूमिका और क्षेत्रीय नाटकों में अपनी प्रतियोगिता को "सुधारवादी शक्तियों" के रूप में परिभाषित करने में रही है। अमेरिका और उसके नेताओं को यह बात समझ में नहीं आती पहले के युग में दुनिया इतने महत्व की नहीं थी।

आज कोई भी युद्ध होता है, चाहे वह परमाणु युद्ध हो, के अपने वैश्विक दुष्परिणाम होने अपरिहार्य हैं। परमाणु संपन्न ताकतों के बीच होने वाले युद्ध का अंजाम संभवतः मानवता को समाप्त कर देने वाला होगा, और मानव सभ्यता का विनाश तो सुनिश्चित है। अमेरिका के परमाणु कार्यक्रमों की राह पर रूसी प्रतिक्रिया विषम रही है–वह नवीनतम हथियारों को कम लागत पर विकसित करता जा रहा है- इस उम्मीद के साथ कि एक दिन अमेरिका जमीनी हकीकत से वाकिफ होगा और बातचीत से मुद्दों को हल करने की पहल करेगा। पृथ्वी को अभी भी इसका इन्तजार है। क्या वैश्विक नागरिक और राष्ट्र समुदाय अब इस मुद्दे पर हस्तक्षेप करेंगे?

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

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