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डूबती अर्थव्यवस्था ने बाल श्रम को बढ़ावा दिया

बाल श्रम से देश की राजधानी भी अछूती नहीं है। ग़रीब राज्यों के बच्चे अधिक असुरक्षित हैं।
child labour

हाल ही में सामने आए मामलों से यह स्पष्ट होता है कि बाल श्रम जल्द समाप्त होने वाला नहीं है। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में बाल श्रमिकों की संख्या लगभग 10.1 मिलियन थी लेकिन एक्टिविस्ट का कहना है कि संख्या अब बहुत ज़्यादा है। इसका कारण भारत में बेरोज़गारी की खतरनाक दर है जो ग़रीबी से त्रस्त माता-पिता को युवा लड़के और लड़कियों को बाल श्रम में धकेलने के लिए मजबूर कर रही है।

एनजीओ से मिली गुप्त सूचना के आधार पर हाल में पुलिस छापे मारे गए जो इस प्रवृत्ति की गवाही देते हैं जो पिछले पांच वर्षों में बढ़े है। राजधानी के बीचोबीच अनाज मंडी में लगी आग में सात बाल श्रमिकों की ज़िंदा जल कर मौत हो गई।

कहा जाता है कि अन्य सात गंभीर रूप से झुलस गए। पुलिस ने इमारत के अंदर लगभग 20 नाबालिगों को फंसा पाया। कुछ श्रमिक ने लंच-बॉक्स के लिए कवर की सिलाई की थी और रेक्सिन काटे थे जिससे बैग और जैकेट बनाए जाते थे। कथित तौर पर उन्हें इस काम के लिए प्रति माह 2,000 रुपये मिलते थे।

इनमें से ज़्यादातर बाल श्रमिक बिहार, उत्तर प्रदेश और झारखंड के थे लेकिन वे अकेले नहीं थे। कारखानों में काम करने के लिए राजस्थान, ओडिशा, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल और उत्तर-पूर्व के बच्चों की भी तस्करी हो रही है।

30 दिसंबर 2019 को राजस्थान पुलिस और आसरा विकास संस्थान के एक्टिविस्ट के साथ गुजरात पुलिस ने सूरत के कपड़ा उद्योग से 138 बाल श्रमिकों को छुड़ाया। इन बाल श्रमिकों में से एक केवल की उम्र सात साल थी और हर महीने क़रीब 2,000 रुपये कमा पाते थे। 18 दिसंबर को आठ बच्चे जिनमें से चार लड़कियां थीं उनको दिल्ली पुलिस ने शकूरपुर बस्ती में स्थिति एक प्लेसमेंट एजेंसी से छुड़ाया था।

छत्तीसगढ़ पुलिस ने पिछले दिसंबर में इसी तरह की कार्रवाई करते हुए तस्करों से 70 बच्चों को छुड़ाया था जब उन्हें अहमदाबाद की एक फैक्ट्री में काम के लिए ले जाया जा रहा था। पिछले कुछ हफ्तों में उदयपुर में एक आभूषण उद्योग से 27, चेन्नई में एक आभूषण उद्योग से 61, दिल्ली के वजीरपुर औद्योगिक क्षेत्र में एक बर्तन कारखाने से 45 और नोएडा में एक कारखाने से 19 बच्चों को छुड़ाया गया है।

सभी बच्चों ने शिकायत की कि उन्हें 1,500-2,000 रुपये देकर दिन में 12 से 15 घंटे काम लिया जाता था। कई बच्चों ने कहा कि उन्हें पैसा नहीं दिया जा रहा था। और कई अन्य क्षेत्रों से गंभीर मामले सामने आ रहे हैं।

बचपन बचाओ आंदोलन (बीबीए) के संस्थापक-अध्यक्ष कैलाश सत्यार्थी ने स्थिति की भयावह तस्वीर पेश की। भारत में हर आठ मिनट में एक बच्चा ग़ायब हो जाता है, वे कहते हैं और 21 बच्चे सिर्फ दिल्ली में हर दिन ग़ायब हो जाते हैं। इनमें से आधे को तस्करी के लिए अपहरण कर लिया जाता है और फिर कभी नहीं मिलते हैं। मानव तस्करी को 150 बिलियन डॉलर का लाभ कमाने वाला उद्योग कहा जाता है।

सरकार ने राष्ट्रीय बाल श्रम परियोजना या एनसीएलपी के माध्यम से बाल श्रम से निपटने के लिए विचार किया है जो बाल श्रमिकों की पहचान और पुनर्वास का काम करता है। 2017-18 में यह लगभग 50,000 बाल श्रमिकों को मुक्त कराने में कामयाब हुआ।

मिर्जापुर में काम कर रहे सेंटर फॉर रूरल एजुकेशन एंड डेवलपमेंट एक्शन या क्रेडा ने पिछले तीन दशकों में कई हजार बच्चों को मुक्त कराने और उनके पुनर्वास में मदद की है। कुछ छात्र स्कूल और कॉलेज गए और कुछ बच्चों ने अपने पैतृक गांव के क़रीब ही काम पाया।

आत्माराम उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर के कालीन उद्योग में 12 साल की उम्र में बंधुआ मज़दूर बन गए। उन्होंने प्रशिक्षु के रूप में काम किया और उन्हें करघा का काम करना सिखाया गया।

वे कहते हैं, "मेरे मलिक ने मुझे प्रति दिन 2 रुपये का भुगतान किया।" तीन साल बाद क्रेडा के स्वयंसेवकों ने उन्हें मुक्त कराया, उन्हें स्कूल भेजा और आज वे एमजी-नरेगा नामक कार्यक्रम के अधिकार के लिए तकनीकी सहायता प्रदान करते है और प्रति माह 11,000 रुपये कमाते है। वे कहते है, "कालीन बुनाई से बचना मेरे लिए सबसे अच्छी बात थी।"

मिर्जापुर के आहुगी कला गांव के राज नारायण को जब तक मुक्त नहीं कराया गया तब तक वे बंधुआ मज़दूर थे और उन्हें एक विशेष स्कूल भेजा गया और फिर एक नियमित स्कूल में भेजा गया। स्नातक स्तर की पढ़ाई के बाद उन्होंने एक शिक्षक प्रशिक्षण प्रमाणपत्र प्राप्त किया और शिक्षा मित्र बन गए जिससे उन्हें मासिक 6,000 रुपये मिलते हैं।

वे कहते हैं, “मैं उन निराशाजनक दिनों में नहीं जीता हूं। मेरा जीवन बदल चुका है।" अब नारायण शादीशुदा हैं और उनके चार बच्चे हैं जिन्हें उन्होंने अच्छी तरह से शिक्षित करने की ठानी है। बिंदेश्वरी दस साल के थे जब उन्हें एक कालीन कारखाने से मुक्त कराने का दूसरा मौका मिला। वे कहते हैं, "सभी बाधाओं के विपरीत, मैंने कॉलेज से स्नातक किया और अब 6000 रुपये के वेतन पर ग्राम रोज़गार सेवक के रूप में काम करते हैं।"

बचाई गई कई लड़कियों ने भी अपने लिए एक नई ज़िंदगी बनाया है। पूर्वी उत्तर प्रदेश के बीकना गांव की रजिया अंसारी जब चार साल की थी तो अपने पिता को खो दिया था और उनकी मां ने भी अपनी आंखों की रोशनी खो दी थी। आठ साल की उम्र में उन्हें कारपेट के व्यापार में लगा दिया गया और 3 रुपये प्रतिदिन की कमाई होती थी। एक बाल श्रमिक टीम ने उन्हें इस व्यापार से मुक्त कराया।

क्रेडा के संस्थापक शमशाद खान कहते हैं, “रजिया उसी विशेष स्कूल में पढ़ाती है जहां उन्होंने एक औपचारिक स्कूल में इंटरमीडिएट पूरा करने से पहले तीन साल बिताए थे। उन्होंने समाजशास्त्र में एमए की पढ़ाई के दौरान वहां काम किया। वह अन्य बच्चों विशेषकर अपने ज़िले की लड़कियों के लिए एक आदर्श हैं।”

लेकिन इस तरह के बदलाव की कहानियां केवल मुट्ठी भर बच्चों का प्रतिनिधित्व करती हैं। अधिकांश कभी ऐसे उद्योगों से नहीं निकाले जाते हैं जो बाल श्रम को काम पर रखते हैं। बीबीए के प्रवक्ता सम्पूर्ण बेहुरा का मानना है कि सरकार के पास बाल श्रम से निपटने में इच्छाशक्ति का अभाव है और इस तरह से राजधानी केंद्र बना हुआ है जहां तस्करी करने वाले बच्चे सभी प्रकार की विनिर्माण इकाइयों में फंसे हुए हैं।

बीबीए द्वारा राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में किए गए लगभग सभी छापेमारी में यह पाया गया कि बच्चे खतरनाक परिस्थितियों में काम कर रहे थे। खासकर वे वैसी जगह काम कर रहे थे जहां आग से बचने के लिए बाहर जाने का उचित रास्ता नहीं था। बेहुरा कहते हैं, "ये कारखाने पुलिस, श्रम विभाग और नागरिक अधिकारियों की निगरानी में संचालित होते हैं जो इस प्रथा पर लगाम लगाने का कोई प्रयास नहीं करते हैं।"

बीबीए ने एनसीआर में 187 क्षेत्रों की पहचान की है जहां अवैध कारखाने चल रहे हैं लेकिन उनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की गई है।

सुजाता मडहोक ने कहा कि राजधानी में ट्रैफिक लाइट पर छोटी वस्तुएं बेचने वाले बच्चों की भारी संख्या श्रम विभाग की उदासीनता को बताती है। वे कहती हैं, “ट्रैफिक लाइटों पर वायु प्रदूषण सबसे खराब स्तर पर होता है जहां ये बच्चे सुबह से रात तक काम करते हैं। न तो पुलिस और न ही श्रम निरीक्षकों ने इसे रोकने की कोशिश की है।”

बेहुरा का कहना है कि "मौजूदा एनसीएलपी जिला आयुक्त की अध्यक्षता में श्रम विभाग, पुलिस और अन्य प्रशासनिक वर्गों के बीच समन्वय पर पर्याप्त ध्यान नहीं देता है। अधिकांश जिले बाल संरक्षण इकाइयों को स्थापित करने में विफल रहे हैं जो छोटे बच्चों के कल्याण की देखरेख करने के लिए हैं। दिल्ली उच्च न्यायालय ने प्रत्येक जिले में एक टास्क फोर्स स्थापित करने का आदेश दिया है लेकिन इस कार्य के लिए सभी ग्राम बाल संरक्षण अधिकारियों को पहले नियुक्त करने और संवेदनशील बनाने की आवश्यकता है। साथ ही, जिला के निचले स्तर पर पहले से ही बोझ से लदे अधिकारियों पर बाल तस्करी को नियंत्रित करने का अतिरिक्त प्रभार दिया जाता है। उन्हें इस बात की जानकारी नहीं है कि समस्या कितनी गंभीर है।"

अधिकारी समस्या के अन्य समाधानों से भी अनभिज्ञ हैं, हालांकि उन्हें समय-समय पर आगे बढ़ाया जाता है। इसका परिणाम यह है कि भारत के लगभग हर इलाके में तस्करी बेरोकटोक जारी है जबकि उनके माता-पिता कम वेतन वाले काम और बेरोज़गारी से जूझ रहे हैं।

आमतौर पर, ग़रीबी से त्रस्त माता-पिता बच्चों को बिचौलिए से 4,000 रुपये में बेच देते हैं जबकि कभी-कभी इससे कम भी बेच देते हैं। लड़कियों को 10,000 रुपये से 20,000 रुपये में बेच कर सेक्स व्यापार के लिए तस्करी कर लाया जाता है। खान के अनुसार, बढ़ती गरीबी के कारण बाल श्रम के अधिक मामले अब सामने आ रहे हैं। फिर भी बिचौलियों की सजा कम है, जबकि मुकदमा लंबे समय तक चलती है।

भारत में 25 साल से कम उम्र के 600 मिलियन लोग हैं और 14 साल से कम के लगभग 480 मिलियन युवा हैं। 2021 की जनगणना के बाद ही इसका सटीक अंदाजा लगाया जा सकता है कि वे कितने सुरक्षित हैं।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। ये लेखक के निजी विचार है।)

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

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