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सियासत: डॉ. आंबेडकर के नकली मुरीद!

आम आदमी पार्टी एवं भाजपा दोनों भले ही आंबेडकर की विरासत पर दावा ठोंकने की होड़ में लगे हों, लेकिन असलियत यही है कि उनके वास्तविक विचारों से, उनके मूलगामी योगदानों से वह डरते बहुत हैं, कुल मिला कर उनके लिए डॉ. आंबेडकर का मतलब तस्वीरों या मूर्तियों तक सीमित है, और दोनों अपने लिए ऐसा ‘सूटेबल’ आंबेडकर गढ़ना चाहते हैं, जो उनकी तंगनज़री के अनुकूल हो !
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तस्वीर केवल प्रतीकात्मक प्रयोग के लिए। कार्टून साभार: सतीश आचार्य

आम आदमी पार्टी (आप) के समाज कल्याण मंत्री राजेंद्र पाल गौतम ने अपने पद से ‘स्वेच्छा’ से इस्तीफा दिया है।

दिल्ली में दशहरा के अवसर पर दस हजार लोगों द्वारा किए गए बौद्ध धर्म के स्वीकार के सार्वजनिक कार्यक्रम में उनकी मौजूदगी - जिसमें डॉ. आंबेडकर की 22 प्रतिज्ञाओं के सामूहिक पाठ - से कथित तौर पर भाजपा के आहत होने का मामला इतना तूल पकड़ा जिसकी परिणति उनके इस्तीफे में हुई। इन प्रतिज्ञाओं के पाठ को ही भाजपा ने ‘हिन्दूविरोधी’ कहना शुरू किया और इस मसले को अपने करीबी मीडिया चैनलों तथा गुजरात में पोस्टर्स के जरिए इतना उछाला कि जनाब गौतम ने इस्तीफा देकर पार्टी की असहजता को थोड़ा कम करने की कोशिश की।

अक्सर नाजुक मौकों पर अपनी चुप्पी बनाए रखने वाले ‘आप‘ के सर्वेसर्वा नेता केजरीवाल ने इस मसले पर भी कुछ भी नहीं कहा और न ही आम आदमी पार्टी के किसी अन्य नेता ने अपनी जुबां खोली, आलम ऐसा था कि सबकी घिघ्घी बंध गयी हो। गौरतलब है कि गुजरात के चुनावों में इस बार पहली दफा जोरदार ढंग से उतरने की कवायद मे जुटे केजरीवाल को जनाब गौतम से दूरी दिखाना इतना अनिवार्य लगा कि उन्होंने अपने इस वरिष्ठ मंत्री से फोन से बात तक नही की।

अगर केजरीवाल या आम आदमी पार्टी के अन्य नेतागण चाहते तो निश्चित ही इस मसले पर भाजपा के पाखंड को बेपर्द कर सकते थे; इस मसले पर उसकी मौकापरस्ती को निशाना बना सकते थे। वह कह सकते थे कि अपने आप को आंबेडकर का शिष्य घोषित करने वाले जनाब मोदी और उनके लोग आखिर आंबेडकर को इस तरह अपमानित क्यों कर रहे हैं, उनके विचारों को ही विवादास्पद क्यों बना रहे हैं?

कम से कम इतना तो कह सकते थे यह वे प्रतिज्ञाएं हैं जिन्हें डॉ. आंबेडकर ने खुद अपने अनुयायियों से दोहरायी थी, जब 1956 में उन्होंने नागपुर में अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकारा था। वह इस बात को भी जोड़ सकते थे कि 1956 के उस ऐतिहासिक धर्मांतरण के बाद जब जब भारत में कहीं अधिक संगठित तरीके से तो कहीं अलग थलग लोग बौद्ध धर्म का स्वीकार करते हैं, तो वह इन प्रतिज्ञाओं को दोहराते हैं; इतना ही नहीं हर साल अक्टूबर माह में जब इस धर्मांतरण की याद में नागपुर की इस दीक्षाभूमि पर लाखों लोग जुटते हैं तब सार्वजनिक मंच से इन प्रतिज्ञाओं को दोहराया जाता है। इस दीक्षाभूमि पर खड़े किए स्तंभ पर यह 22 प्रतिज्ञाएं बाकायदा उकेरी गयी हैं और भाजपा के तमाम सूबाई तथा केन्द्र के नेता नागपुर जाकर इस दीक्षा भूमि का दर्शन करने अवश्य जाते हैं और इस स्तंभ को भी नमन करते हैं।

वह इस जानकारी को भी साझा कर सकते थे कि डॉ. आंबेडकर की संकलित रचनाओं में बाकायदा यह 22 प्रतिज्ञाएँ छपी हैं। केंद्र में तथा कई राज्यों में भाजपा के सत्तासीन होने के बाद इन संकलित रचनाओं के बारे में या इनमें शामिल इन प्रतिज्ञाओ के बारे मे कभी भी भाजपा की तरफ से सवाल भी नहीं उठाया गया है। इन संकलित रचनाओं के आउट आफ प्रिंट होने के बावजूद इनके पुनर्मुद्रण का काम फिलवक्त़ रुका है, लेकिन शुरुआती दौर में खुद भाजपा ने भी इनका पुनर्मुद्रण कराया था, तब भी उनकी तरफ से इन प्रतिज्ञाओं को शामिल करने को लेकर एक बार भी आपत्ति दर्ज नही की गयी थी।

लेकिन उन्होंने अपनी जुबां बिल्कुल नहीं खोली, इस बात पर भी नहीं कि उनकी पार्टी का एक वरिष्ठ नेता ‘स्वेच्छा’ से इस्तीफा दे रहा है तो उसकी सांत्वना में कुछ कहें।

वैसे सियासत में ऐसे मौके बहुत कम आते हैं जब एक दूसरे के खिलाफ खड़ी दिखती पार्टियां एक ही प्रसंग में बेपर्दा हो जाती हैं। डॉ. आंबेडकर की प्रतिज्ञाओं का प्रसंग ऐसा ही वह प्रसंग बना है।

प्रतिज्ञाओं के बहाने जहां भाजपा द्वारा डॉ. आंबेडकर के असली विचारों को बेहद शर्मनाक ढंग से विवादास्पद बनाने की सचेतन कोशिश की गयी थी, जिसमें मौकापरस्ती का उनका तत्व भी दिख रहा था और इस बहाने ‘आप’ के जिस नेता को निशाना बना रहे थे, उनकी समूची पार्टी इस मसले पर मौन थी जो इस मसले पर उनकी समझौतापरस्ती को बेपर्द कर रहा था।

आंबेडकर के सच्चे वारिस होने के दोनों पार्टियों के ऐलान और वास्तविक हक़ीक़त के बीच के अंतराल को स्पष्ट कर रहा था।

अभी समाज कल्याण मंत्री राजेंद्र पाल गौतम का मामला सुर्खियों में ही था तब उनसे फोन तक न करने वाले जनाब केजरीवाल ने गुजरात की सभाओं में इस बात की पूरी कोशिश की यह प्रदर्शित किया जाए कि वह कम ‘सच्चे हिन्दू’ नहीं हैं, गोया वह इस बात की सफाई देना चाह रहे होें कि उपरोक्त विवाद से उनका कोई लेना देना नहीं है। उन्होंने यह ऐलान किया कि जिस तरह कंस के पापों खतम करने के लिए कृष्ण का जन्म हुआ था, उनका जन्म इसी तर्ज पर हुआ है और अगर गुजरात के आगामी चुनावों में आम आदमी पार्टी (आप) सत्ता हासिल करती है तो वह गुजरात के लोगों को अयोध्या के राममंदिर के दर्शन मुफ्त करवाएगी।

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इस समूचे विवाद में अपने मंत्रिपद से इस्तीफा देने वाले राजेन्द्रपाल गौतम - जिन्होंने आंबेडकर की इन बाईस प्रतिज्ञाओं की आज भी अहमियत पर, प्रासंगिकता पर जोर दिया - की छवि अधिक निखर कर सामने आयी जिन्होंने न केवल पदलोलुपता नहीं दिखायी, आप के नेतृत्व के इस घोषित ढूलमूल रवैये पर भी कुछ नहीं कह बल्कि पत्राकारो के सामने भाजपा तथा मोदी के आंबेडकर प्रेम की असलियत उजागर कर दी।

उन्होंने भाजपा को निशाना बनाते हुए साफ कहा कि ‘हमारी बेटियोे पर सामूहिक बलात्कार होता है, उन्हे फांसी पर लटकाया जाता है और मारा जाता है, तब वह खामोश रहते हैं; इतना ही नहीं जब मदिर प्रवेश पर, मूंछ रखने पर और पानी का घड़ा छूने पर हमारे लोग मारे जाते हैं, तब भी वे चुप्पी ओढ़े रहते हैं; इसकी वजह यही है कि यह लोग न केवल बाबासाहब आंबेडकर से बल्कि दलितों, आदिवासियो, अल्पसख्यको और हाशिये पर पड़े लोगों से नफरत करते हैं।’

वैसे ‘आप’ का नेतृत्व कुछ भी कहे डॉ. आंबेडकर के वास्तविक विचारों की हिफाजत करने को लेकर पार्टी द्वारा दिखाए गए ढुलमुलपन का मसला पंजाब में ही नहीं बल्कि देश के अन्य स्थानों पर मुददा बनता दिख रहा है। सुनाई दे रहा है कि पंजाब के अम्बेडकरी संगठन ‘आप’ द्वारा किए गए आंबेडकर के इस अपमान के खिलाफ संघर्ष का बिगुल फूंक रहे हैं, उन्होंने यह भी कहा है कि डॉ. आंबेडकर और शहीदे आज़म भगतसिंह की तस्वीर लगाने से कोई उनका वास्तविक अनुयायी नहीं बनता।

अगर आप उनके विचारों की हिफाजत नहीं कर सकते तो तस्वीरें लगाना पाखंड है और आप एक तरह से इस बात को साबित कर रहे हैं कि आप एक नकली मुरीद हैं। यह कयास भी लगाए जा रहे हैं कि ‘आप’ द्वारा डॉ. आंबेडकर के इस अपमान को लेकर बरती चुप्पी की कीमत उन्हें बाकी राज्यो में भी चुकानी पड़ेगी।

रेखांकित करने वाली बात है कि डॉ. आंबेडकर की प्रतिज्ञाओ के बहाने आप ने बरती समझौता परस्ती ही वह एकमात्र प्रसंग नहीं हैं, जहां वह आंबेडकर के प्रति अपने वास्तविक प्रेम या सम्मान की असलियत को सामने लाते दिखे हैं।

हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि ‘आप’ के आंबेडकर प्रेम के पाखंड की असलियत एक अलग वजह से भी हाल ही में बेपर्दा हुई, जब बीते दिनों भाजपा के सांसद एवं यूपी के विधायक पर भरी सभा में नफरती बयान देने के आरेाप लगे, बताया गया कि दिल्ली की सीमा पर आयोजित इस सभा में भाजपा के सांसद प्रवेश वर्मा - जो दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा के बेटे हैं - तथा लोनी से भाजपा विधायक नंदकिशोर गुज्जर ने न केवल खास समुदाय के आर्थिक बहिष्कार का आह्वान किया बल्कि उनके खिलाफ हिंसा की भी बात की। घटना के तीन दिन बाद तक आप की तरफ से इन नफरती बयानों की भर्त्सना करते हुए न कोई बयान जारी किया गया और ही पुलिस एवं प्रशासन से मांग की गयी कि नफरत के ऐसे सौदागरों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाए।

क्या आंबेडकर को सम्मानित करने का मतलब संविधान द्वारा अपने देश में कायम कानून के राज की बात नहीं करना है, अगर सामाजिक-धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ अगर अत्याचार का माहौल बनने लगे तो क्या इसका प्रतिवाद नहीं करना है।

वैसे अल्पसंख्यकों के प्रति आप पार्टी का एकांगी रूख तब भी स्पष्ट हुआ था जब जहांगीरपुरी में अल्पसंख्यकों को हिंसा का निशाना बनाया गया था, तब उसने रोहिंग्या का मसला उठा कर एक तरह से इस मसले को वैधता देने की कोशिश की थी।

वर्ष 2020 में उत्तर पूर्वी दिल्ली में हुए दंगों के वक्त़ भी यही रूख प्रगट हुआ था, जब दिल्ली राज्य के चुनावों में बम्पर बहुमत से जीती इस पार्टी ने इन सांप्रदायिक दंगों को अंजाम देने वालों के बारे मे चुप्पी बरती थी।

न ही पुलिस पर इसके लिए दबाव बनाने की कोशिश की थी कि वह दंगाइयों पर सख्त कार्रवाई करे।

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निश्चित ही इस समूचे प्रसंग में मोदी एवं उनके अनुयायियों द्वारा आए दिन आंबेडकर की की जाने वाली प्रशस्ति के भी पोल खुलते दिखे हैं।

याद रहे कि जनाब नरेन्द्र दामोदरदास मोदी - जो हिन्दोस्तां के वजीरे आज़म हैं - वह हालिया वर्षों में इस बात को बताना नहीं भूलते कि वह आंबेडकर के शिष्य हैं, डॉ. आंबेडकर जिस संविधान की मसविदा समिति के चेअरमैन थे तथा उनकी अगुआई में संविधान की रचना हुई, उस संविधान को मोदी ने ‘पवित्रा किताब’ घोषित किया था। यह बात भी कम महत्वपूर्ण नहीं है कि मोदी के प्रधानमंत्री पद पर आसीन होने के बाद के इस कालखंड में एक तरह से धार्मिक एवं सामाजिक अल्पसंख्यकों पर होने वाले अत्याचारों में उछाल आया है।

अगर हम हाल के वर्षों के घटनाक्रम को पलटें तो हम यह भी पाते हैं कि धर्मांतरण के बहाने डॉ. आंबेडकर की प्रतिज्ञाओं को विवादास्पद बनाने वाली भाजपा की तरफ से ऐसी ही कोशिश पहले भी चली है।

गौर किया जा सकता है कि वर्ष 2015 में गुजरात में सत्तासीन तत्कालीन आनंदीबेन पटेल सरकार ने अपने द्वारा ही लिखवायी गयी डॉ. आंबेडकर की जीवनी को न केवल वापस लिया था बल्कि सरकारी स्कूलों में बांटने के लिए प्रकाशित उनकी लाखों प्रतियों को लुगदी बना कर नष्ट किया। वजह थी लेखक ने डॉ. आंबेडकर की उन बाईस प्रतिज्ञाओं को किताब में शामिल किया जिन्हें वर्ष 1956 में बौद्ध धर्म स्वीकारते वक्त सभी ने स्वीकारा था। जैसे कि स्पष्ट हैं कि यह प्रतिज्ञाएं हिन्दु विश्वासों और आचारों की जड़ों पर जबरदस्त प्रहार करती हैं। जैसा कि स्पष्ट है कि यह प्रतिज्ञाएं नव बौद्धों से यह कह रही थी कि वह अंधश्रद्धा, खर्चीले और अर्थहीन रस्मों से अपने आप को मुक्त कर लें। इसने आम जनता के दरिद्रीकरण को बढ़ावा ही दिया था और वर्चस्वशाली जातियों को सम्रद्ध बनाया था। ये प्रतिज्ञाएं नव बौद्धों से यह अपील कर रही थी कि वे हिन्दू ईश्वर पर विश्वास न रखें और उनकी पूजा न करे।

और इस तरह सरकार ने यह साफ किया कि वह आंबेडकर का सम्मान करती है मगर अपनी शर्तों पर।

इस मामले में पड़ोसी सूबा महाराष्ट्र का अनुभव आंखें खोलनेवाला है।

याद रहे वर्ष 2016 डॉ. आंबेडकर के 125 वे जन्मदिन के जशन का साल था और सरकार की तरफ से बाकायदा योजना बनी कि न केवल मुल्क में बल्कि बाहरी देशों में भी इस धूमधाम से मनाया जाए। सूबा महाराष्ट्र की सरकार ने भी योजना बनायी कि वह दादर, मुंबई मेें डॉ. आंबेडकर का विशाल स्मारक बनाएगी तथा जिसके लिए 500 करोड़ रुपयों का इन्तज़ाम भी किया गया, उसी तरह दादर के इंदु मिल में भी आंबेडकर की याद में स्मारक बनाने की योजना बनी। यही वह साल था जब महाराष्ट सरकार ने खुद डा आंबेडकर द्वारा निर्मित आंबेडकर भवन को नष्ट कर दिया ताकि 17 मंजिल वाले एक व्यावसायिक संकुल के लिए जगह मिल सके। /25 जून 2016/ इस तबाही को शनिवार सुबह अंजाम दिया गया। आफिस फर्निचर, प्रिंटिंग प्रेस और किताबों का दुर्लभ संग्रह सभी जमीन में समा गया। वे किताबें जो दफन नहीं हो सकीं उन्हें पानी के बौछारों से नष्ट किया गया।

हम लोगों ने यह लापरवाही भरा रूख डॉ. आंबेडकर के मूल दस्तावेजों, फोटोग्राफों और अन्य स्रोतों की देखरेख में पाया। जब मुंबई में मेट्रो रेल का निर्माण हो रहा था जब सरकार ने आदेश दिया कि 24 घंटों के अन्दर इस सामग्री को यहां से स्थानांतरित किया जाए, जहां इन चीजों को रखने का उचित इंतजाम भी नहीं था। जानकारों के मुताबिक ‘इसी बेरुखी के चलते कई सारे दुर्लभ दस्तावेज नष्ट भी हुए होंगे।’

आखिर वास्तविक आंबेडकर के बारे में इस बेरूखी भरे व्यवहार की जड़ें कहां हैं?

क्या यह इसी वजह से है क्योंकि चालीस के दशक में ही डॉ. आंबेडकर ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिन्दू महासभा जैसे संगठनों को ‘‘प्रतिक्रियावादी संगठन’’ कहते हुए खारिज किया था। वर्ष 1942 में डॉ. आंबेडकर ने जिस शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की स्थापना की थी उसके घोषणा पत्र में साफ लिखा गया था:

'शेडयूल्ड कास्ट फेडरेशन हिन्दू महासभा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे प्रतिक्रियावादी संगठनों के साथ कोई गठबन्धन नहीं करेगा।'

अपने ऐतिहासिक ग्रंथ ‘पाकिस्तान आर पार्टीशन आफ इंडिया’ में भी उन्होंने ‘हिन्दू राज’ के हिमायतियों की तरफ से किए जा रहे दावे और संभावित बहुसंख्यकवादी रूझानों पर अपनी चिन्ता प्रगट की थी:

अगर हिन्दू राज हक़ीकत बनता है तो निस्सन्देह वह इस मुल्क के लिए सबसे बड़ी तबाही का सबब होगा। हिन्दू जो भी दावा करें, हिन्दू धर्म स्वतंत्राता, समानता और बंधुता के लिए एक ख़तरा है और इस वजह से जनतंत्रा के साथ उसका मेल नहीं हो सकता। हिन्दू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।’’
(– Ambedkar, Pakistan or Partition of India, p. 358)

यह मानने के पर्याप्त कारण मौजूद हैं कि भले ही हिन्दुत्ववादी जमातों ने डॉ. आंबेडकर को अपना आयकन/नायक घोषित किया हो और आए दिन उनका स्तुतिगान करते रहते हों, मगर बुनियादी तौर पर डॉ. आंबेडकर के बारे में उनका वही आकलन है, जो उनके एक चिन्तक/विचारक ने अपनी कुछ सौ पन्नों की किताब ‘वरशिपिंग फाॅल्स गाॅडस’ में पेश किया था। नब्बे के दशक के मध्य में आयी इस किताब में डा आंबेडकर के खिलफ बहुत सारी अनर्गल बातें कही गयी थीं। ध्यान रहे कि इतने अर्से के बावजूद अभी भी संघ परिवार की तरफ से इस किताब को लेकर कोई आत्मालोचना या मुआफी भी नहीं मांगी गयी है।

कुछ साल पहले की बात है, पूरे मुल्क में महाड क्रांति - जैसा कि उसे दलित विमर्श में कहा जाता है - कि नब्बेवीं सालगिरह मनायी जा रही थी - 19-20 मार्च 1927 को महाड के चवदार तालाब पर डॉ. आंबेडकर की अगुआई में सत्याग्रह हुआ था - तब हम सभी एक विचलित करनेवाले नज़ारे से रूबरू थे और ऐसा प्रतीत हो रहा था कि हम वहीं कदमताल कर रहे हैं, कहीं आगे नहीं बढ़े हैं। मिसाल के तौर पर देश की राजधानी के नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर प्रायोगिक तौर पर बिलबोर्ड लगाए गए थे, जिन्हें बाद में देश के अन्य रेलवे स्टेशनों पर लगाया जाना था और जिसे स्वच्छ भारत अभियान के हिस्से के तौर पर पेश किया गया था। इन बिलबोर्डस पर डॉ. आंबेडकर को स्वच्छता के आयकन अर्थात प्रतीक के तौर पर प्रस्तुत किया गया था, जिसमें आंबेडकर सद्रश्य एक व्यक्ति को कतार में खड़े लोगों की अगुआई में दिखाया गया था जो कूडेदान में कूडा डाल रहा है और बोर्ड पर लिखा है कि ‘आप के अन्दर के बाबासाहब को आप जागरूक करें। गंदगी के खिलाफ इस महान अभियान में अपना योगदान दें।’ अम्बेडकरी संगठनों एवं रैडिकल दलित कार्यकर्ताओं की पहल की तारीफ करनी पड़ेगी जिन्होंने सैकड़ों लोगों के साथ आंबेडकर के इस अपमान का विरोध किया और ‘जातिवादी आग्रहों’ को प्रदर्शित करनेवाले इन बिलबोर्डस को हटाने के लिए भारतीय रेल को मजबूर किया, मगर यह समूचा प्रसंग तमाम सवालों को छोड़ गया।

आखिर इस बिलबोर्ड के संदेश के जरिए क्या सम्प्रेषित की जाने की कोशिश हो रही थी ?

यही न कि देश के नीतिनिर्धारकों के लिए तथा उनके मातहत काम करनेवालों के लिए डॉ. आंबेडकर की अहमियत आज भी उत्पीड़ित जातियों के उन सदस्यों से अलग नहीं है जिन्हें वर्णव्यवस्था ने धर्म की मुहर लगा कर अस्वच्छ पेशों तक सीमित कर दिया है, जिनसे मुक्ति का हुंकार महाड सत्याग्रह था ! क्या यह एक तिरछी कोशिश थी ताकि वर्चस्वशाली जातियों में व्याप्त इस समझदारी को पुष्ट किया जाए कि इस मुल्क में समता के लिए चली लड़ाई में डॉ. आंबेडकर के योगदान की या नवस्वाधीन भारत का संविधान बनाने में दिए उनकेे योगदान की उन्हें कोई कदर नहीं है ?

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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