राजस्थान में राजद्रोह क़ानून को अमल में लाकर कांग्रेस ने इसे ख़त्म करने के अपने वादे के साथ विश्वासघात किया है
बीबीसी के भारत स्थित संवाददाता, सौतिक बिस्वास ने अगस्त 2016 में बताया था कि भारत को अपने राजद्रोह क़ानून से क्यों मुक्त होना चाहिए। उनके लेख की शुरुआती पंक्ति में यह हिदायत थी: “भारत में फ़ेसबुक पोस्ट को लाइक करने, योग गुरु की आलोचना करने, प्रतिद्वंद्वी क्रिकेट टीम की जय-जयकार करने, कार्टून बनाने, विश्वविद्यालय परीक्षा में उत्तेजक प्रश्न पूछने, या जब राष्ट्रगान बजाया जा रहा हो,तो सिनेमा घर में नहीं खड़े होना पर आपके ऊपर राजद्रोह का आरोप लगाया जा सकता है।"
भारतीय दंड संहिता की धारा 124A के तहत लोगों को आरोपी बनाने को लेकर जिन विशिष्ट कारणों की सूची है, और जिन कारणों के आधार पर राजद्रोह का मुकदमा क़ायम किया जाता है और जिसके लिए सज़ा का प्रावधान है, इन कारणों की सूची में पिछले हफ़्ते एक और प्रविष्टि जोड़ दी गयी गयी और वह है- ‘हॉर्स-ट्रेडिंग’ यानी "ख़रीद-फ़रोख़्त"। यह शब्द विधायकों या सांसदों को किसी एक पार्टी से दूसरी पार्टी में लाने के लिए पैसे के लेन-देन के चलन को दिखाता है।
तक़रीबन हमारे लोकतंत्र जितनी ही पुरानी प्रचलति इस हॉर्स ट्रेडिंग को अचानक राजस्थान पुलिस ने राजद्रोह मान लिया है। राजस्थान पुलिस ने 17 फ़रवरी को धारा 124 A (देशद्रोह) और धारा 120 B (साज़िश) के तहत दो प्राथमिकी दर्ज कर की थी। भारतीय जनता पार्टी के प्रतिनिधि, एक राजनीतिक दलाल और कांग्रेस विधायक के बीच बातचीत के कथित ऑडियो टेप के बाद पुलिस ने यह कार्रवाई की थी और यह सोशल मीडिया पर वायरल हो गया था। राजद्रोह क़ानून को लागू करने वाली तीसरी प्राथमिकी 18 फ़रवरी को कथित राजनीतिक दलाल, संजय जैन उर्फ़ संजय बरडिया के ख़िलाफ़ दायर की गयी।
यह भारतीय राजनीति की बेरहमी का एक सुबूत ही है कि कांग्रेस नेता सचिन पायलट, कोविड-19 से बढ़ती मौत और सुस्त पड़ती अर्थव्यवस्था के बीच राजस्थान में मुख्यमंत्री की कुर्सी से अशोक गहलोत को हटाने के लिए भाजपा के साथ गठबंधन करना चाहते हैं।
लेकिन, हॉर्स-ट्रेडिंग को राजद्रोह के रूप में आरोपित करने और राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को मात देने के लिए धारा 124A का एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने के लिए एक ख़ास तरह की सूझ-बूझ की ज़रूरत होती है। मगर, राजस्थान में धारा 124A को जिस तरह लागू किया गया है,वह तो सही मायने में कांग्रेस के सर्वथा पाखंड को ही दर्शाता है।
2019 के लोकसभा चुनावों के क़रीब-क़रीब एक साल पहले कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणा-पत्र में धारा 124A को निरस्त करने का वादा किया था। कांग्रेस नेता और पूर्व गृह मंत्री पी.चिदंबरम ने तब कहा था, '' यह राजद्रोह क़ानून एक औपनिवेशिक युग का क़ानून है। कई जाने-माने लोगों ने कहा है कि इस राजद्रोह क़ानून को बिल्कुल ही ख़त्म होना चाहिए...इसे ख़त्म इसलिए होना चाहिए, क्योंकि यह बाद के क़ानूनों के चलते निरर्थक हो गया है।"
तब से चिदंबरम धारा 124A के ख़िलाफ़ लगातार बोलते रहे हैं। मिसाल के तौर पर, जब दिल्ली सरकार ने फ़रवरी में युवा नेता, कन्हैया कुमार और नौ अन्य लोगों के ख़िलाफ़ देशद्रोह के एक मामले में मुकदमा चलाने के लिए हरी झंडी दे दी थी, तो चिदंबरम ने ट्वीट किया था, " राजद्रोह क़ानून की अपनी समझ के मामले में दिल्ली सरकार भी केंद्र सरकार से किसी भी तरह कम नहीं है। कन्हैया कुमार के ख़िलाफ़ मुकदमा चलाने के लिए दी गयी मंज़ूरी को मैं पूरी तरह नामंज़ूर करता हूं। ”
उसी महीने चिदंबरम ने नागरिकता संशोधन विधेयक का विरोध करने वालों के ख़िलाफ़ राजद्रोह के आरोप दायर किये जाने के त्रिपुरा सरकार के फ़ैसले पर भी आपत्ति जतायी थी। चिदंबरम ने तब ट्वीट किया था, "त्रिपुरा में अगर आप नागरिकता संशोधन विधेयक के ख़िलाफ़ बोलते हैं, तो आप पर राजद्रोह का आरोप लगाया जायेगा।"
ज़ाहिर है कि कांग्रेस 124A को ख़त्म करने के अपने वादे को तब इसलिए पूरा नहीं कर सकती थी, क्योंकि भाजपा ने 2019 के लोकसभा चुनावों में प्रचंड जीत हासिल की थी। फिर भी यह अपनी राज्य सरकारों को राजद्रोह क़ानून लागू करने से मना करने के निर्देश देकर अपने उदार और लोकतांत्रिक इरादे का प्रदर्शन कर सकता थी। लेकिन, इसके बजाय पार्टी ने राजद्रोह के मायने और दायरे, दोनों बढ़ा दिये हैं।
महात्मा गांधी और बाल गंगाधर तिलक सहित राष्ट्रीय संघर्ष के नेताओं के ख़िलाफ़ ब्रिटिश सरकार द्वारा इसका इस्तेमाल, आज़ादी के बाद इस पर चली बहस और इसे ख़त्म किये जाने की अदालती लड़ाइयां,और बोलने की आज़ादी पर इसके पड़ने वाले असर को लेकर धारा 124 A पर अबतक बहुत कुछ लिखा जा चुका है। नरेंद्र मोदी सरकार की आलोचनाओं और उसकी नीतियों का विरोध करने वालों के ख़िलाफ़ इसके ज़रिये प्रहार किये जाने की प्रवृत्ति को देखते हुए पिछले छह वर्षों में धारा 124A पर बहस ख़ास तौर पर तेज़ हो गयी है।
यह धारा एक निर्णायक मोड़ पर इसलिए है, क्योंकि कांग्रेस सरकार ने हॉर्स-ट्रेडिंग का हल निकालने का ज़रिया इसी क़ानून को बनाया है और इसलिए भ्रष्टाचार को भी राजद्रोह जैसा अपराध माना गया है। पीपुल्स यूनियन फ़ॉर सिविल लिबर्टीज़ के राजस्थान चैप्टर की अध्यक्ष, कविता श्रीवास्तव ने प्रेस को दिये अपने बयान में कहा है, “भारत में पहली बार राजस्थान का मामला विधायकों के ख़िलाफ़ इरादन इसके दुरुपयोग करने को दिखाता है। हालांकि अगर हम केदार नाथ सिंह बनाम बिहार राज्य में भी क़ानून की व्याख्या को देखें, जिसमें (राजद्रोह) क़ानून की वैधता को बऱकरार रखते हुए कहा गया है कि इसे तभी लागू किया जा सकता है,जब असंतोष का नतीजा समाज में हिंसा भड़काने के रूप में सामने आता है, जो कि यह मामला यहां नहीं है।”
इस पर महज़ अटकलें ही लगायी जा सकती हैं कि गहलोत सरकार ने इसके दायरे में हॉर्स-ट्रेडिंग और भ्रष्टाचार को शामिल करने के लिए धारा 124 A की व्याख्या आख़िर किस तरह से की है। धारा 124A कहती है, "जो कोई भी या तो बोले गये या लिखित शब्दों, या संकेतों, या दर्शाए गये दृश्यों, या अन्यथा भारत की क़ानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा फैलाने या अवज्ञा करने का प्रयास करता है, या भड़काने या उत्तेजित करने की कोशिश करता है, तो आजीवन कारावास के साथ दंडित किया जायेगा, जिसमें जुर्माना को भी जोड़ा जा सकता है, या जुर्माना भी हो सकता है। ”
धारा 124 A के वाक्यांशों से पता चलता है कि यह मुख्य रूप से खुलकर बोलने के इस्तेमाल के खिलाफ निर्दिष्ट है। हालांकि, "अन्यथा" शब्द, सरकार के प्रति "घृणा या अवज्ञा या असंतोष" का कारण बनने वाली किसी भी चीज़ को शामिल करने के लिहाज से इसके दायरे को विस्तृत कर देता है। लगता है कि इसी "अन्यथा" शब्द में निहित अस्पष्टता ने ही राज्य सरकार के गिराये जाने को लेकर इस्तेमाल किये गये कथित हॉर्स-ट्रेडिंग के लिए राजस्थान पुलिस को राजद्रोह का मुकदमा क़ायम करने के लिए प्रेरित किया होगा।
राजस्थान में सरकार गिराये जाने के इस खेल ने लोगों में न तो गहलोत के प्रति घृणा पैदा करने के लिए प्रेरित किया और जैसा कि श्रीवास्तव कहती हैं कि यह न ही हिंसा का कारण बना है। इससे भी बुरी बात यह है कि राजस्थान पुलिस ने सरकार और राज्य, दोनों को एक मान लिया है। इस बात को वक़ील नंदिता राव ने अच्छी तरह रखते हुए एक साक्षात्कार में कहती हैं, “सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 124 A की अपनी व्याख्या में स्पष्ट रूप से कहा है कि ऐसा राज्य के ख़िलाफ़ होना है, सरकार के ख़िलाफ़ नहीं…। जब मैं भारत के संवैधानिक राज्य की आलोचना करना शुरू कर देती हूं, तब मैं राजद्रोह के आरोप को दावत देती हूं और यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय साफ़ तौर पर कहता है,ऐसा तभी होगा,जब हिंसा के लिए सीधे-सीधे उकसाया जाए।"
इस लिहाज से ग़लत या सही किसी भी तरीक़े से किसी सरकार को गिराये जाने के प्रयास को "भारत के संवैधानिक राज्य" को चुनौती देने के तौर पर नहीं माना जा सकता है। यही वजह है कि श्रीवास्तव ने अपनी प्रेस विज्ञप्ति में कहा है कि सरकार को भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम, 1988 के तहत इस हॉर्स-ट्रेडिंग के "कथित कृत्यों" की जांच करानी चाहिए थी, जिसे बाद में कांग्रेस विधायक भंवरलाल शर्मा, संजय जैन और उस व्यक्ति के ख़िलाफ़ मामला दर्ज किया जाना था, जिसकी पहचान केंद्रीय मंत्री के तौर पर की जा रही है।
कुछ लोगों को तो लगता है कि भ्रष्टाचार के साथ राजद्रोह की तरह ही पेश आया जाये। ऐसे लोगों का सबसे बड़े अगुआ अरविंद केजरीवाल हैं, जिन्होंने 2011 में सोचा था कि भारतीय अर्थव्यवस्था को अस्थिर करने के लिए अपराध को राजद्रोह के मुकदमा चलने के लिए पर्याप्त क्यों नहीं माना जाना चाहिए। टाइम्स ऑफ़ इंडिया की वेबसाइट के लिए एक ब्लॉग में केजरीवाल ने लिखा था, “(नीरा) राडिया टेप में दिखाया गया है कि कितने पत्रकारों, कई व्यापारियों और कई राजनेताओं ने भारत में आर्थिक स्थिरता को ख़तरे में डालने की साज़िश रची थी; कैसे उन्होंने भारत सरकार के मंत्रिमंडल के मंत्रियों की ख़रीद-फ़रोख़्त शुरू करके भारत के संविधान को ही ख़तरे में डाल दिया था ? लेकिन,इसके बावजूद ब्रिटिश क़ानून, जिनके तहत हम काम-काज को अंजाम देते हैं, इसे राजद्रोह नहीं मानते।”
केजरीवाल ने इस बात को लेकर भी हैरानी जतायी थी कि तत्कालीन प्रधानमंत्री,मनमोहन सिंह,जिन्होने भ्रष्टाचार के उन आरोपियों के ख़िलाफ़ निष्क्रियता दिखायी थी,वे भी राजद्रोह के पात्र थे। केजरीवाल का कहना था, “मौजूदा क़ानून के तहत यह राजद्रोह ही ऐसी भ्रष्ट और अन्यायपूर्ण सरकारों के ख़िलाफ़ असंतोष का कारण है। उन्होंने कहा था कि कोई भी ख़ुद को भारतीय कैसे कह सकता है और इस तरह के चलन के प्रति 'लगाव' कैसे रख रखता है।
इस लेखक को केजरीवाल के उस ब्लॉग पर कांग्रेस की प्रतिक्रिया नहीं मिल पायी। दरअस्ल, इस तरह के प्रस्ताव के सिलसिले में केजरीवाल का विरोध किया जाना चाहिए था, क्योंकि इसके नेता अक्सर बिना सबूतों के आरोप लगाते रहते थे और केजरीवाल और इंडिया अगेंस्ट करप्शन मूवमेंट के लोग भाजपा के इशारे पर मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार को अस्थिर करने के लिए काम कर रहे थे।
लेकिन, इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि कांग्रेस ने राजस्थान में केजरीवाल के उस बेहद आपत्तिजनक सुझाव को लागू कर दिया है। बहुत सारे लोग सोच रहे होंगे कि 124A को ख़त्म करने का उस पार्टी का वादा वाम-उदारवादियों के वोटों को हासिल करने का महज़ एक छलावा था, जिस पार्टी के कई लोगों के ख़िलाफ़ मोदी सरकार ने उन्हें चुप कराने के लिए कई राजद्रोह के मामले दायर किये हुए हैं।
राजस्थान में चतुराई भरी यह क़ानूनी व्याख्या बताती है कि कांग्रेस का इरादा लोकतत्र विरोधी इस क़ानूनों के खिलाफ बोलने, मगर फिर भी समर्थन करने, बल्कि इसका इस्तेमाल करने तक से गुरेज नहीं करने के दोहरे नज़रिये के साथ बने रहने का है। मिसाल के तौर पर, जब अगस्त 2019 में मोदी सरकार ने पहले से भी अधिक सख़्त बनाने के लिए ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम को संशोधित करने का फैसला किया था, तो कांग्रेस ने राज्यसभा में इसके पक्ष में मतदान किया था, जबकि राज्यसभा में मोदी सरकार के पास बहुमत की कमी थी।
तब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के नेता ईलमाराम ही थे,जिन्होंने कहा था, "कांग्रेस ने लोकतंत्र को पीछे छोड़ दिया है...इसने राज्यसभा में इस बेहद सख़्त यूएपीए विधेयक के पक्ष में मतदान करके भारत के लोगों के साथ धोखा किया है।" उनकी इस धारणा को राजस्थान में कांग्रेस सरकार द्वारा अपनी ही तरह से असहमति को रोकने के लिए धारा 124A का हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने से मज़बूती मिली है। इस तरह का पाखंड कांग्रेस के लिए वैचारिक रूप से भाजपा से ख़ुद को अलग दिखाने का आदर्श तरीक़ा नहीं हो सकता है।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं विचार व्यक्तिगत हैं।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें-
By Invoking Sedition Law in Rajasthan, Congress has Betrayed its Promise to Abolish it
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