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स्वास्थ्य अधिकारों की सुरक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट के प्रयासों का विश्लेषण

कोविड-19 कोरोनावायरस के बोझिल तनाव ने भारतीय स्वास्थ्य सेवा प्रणाली में व्याप्त अक्षमता को सामने लाने का काम किया है। लेखक ने नागरिकों के स्वास्थ्य के अधिकार की सुरक्षा के लिए राज्य के कर्तव्यों और उसके पीछे के न्यायशास्त्र के बारे में जानकारी प्रस्तुत की है।
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कोविड-19 कोरोनावायरस के बोझिल तनाव ने भारतीय स्वास्थ्य सेवा प्रणाली में व्याप्त अक्षमता को सतह पर लाने का काम किया है इस चुनौती से निपटने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने पहलकदमी लेकर सरकारी अस्पतालों में पीड़ित मरीजों के बारे में मीडिया में आ रही रिपोर्टों पर स्वतः संज्ञान लेने का फ़ैसला लिया है इस सन्दर्भ में लेखक ने नागरिकों के स्वास्थ्य के अधिकार की सुरक्षा के लिए राज्य के कर्तव्यों और उसके पीछे के न्यायशास्त्र के बारे में जानकारी प्रस्तुत की है।

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11 जून के दिन सुप्रीम कोर्ट ने देश भर के सभी अस्पतालों में स्वास्थ्य सेवाओं की बदतर हालात के बारे में स्वतः संज्ञान लेने का फैसला लिया। विशेषतौर पर इसकी ओर से दिल्ली सरकार द्वारा अपने निवासियों को उचित स्वास्थ्य सेवा मुहैया न करा पाने पर ध्यान केन्द्रित किया गया। कोर्ट ने उन खबरों के आधार पर स्वतः संज्ञान लेने का फैसला किया जिसमें दर्शाया गया था कि किस प्रकार से दिल्ली सरकार द्वारा अस्पतालों में भर्ती कोविड-19 के मरीजों के स्वास्थ्य के अधिकारों की लगातार अनदेखी की जा रही थी। 

12 जून और 19 जून 2020 के अपने दो विस्तृत आदेशों में सुप्रीम कोर्ट की तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने इस बात को दोहराया कि स्वास्थ्य के अधिकार को सुनिश्चित करना राज्य का दायित्व है। न्यायालय ने कोविड-19 की टेस्टिंग में हाल के दिनों में आई कमी को भी चिह्नित किया और इस बारे में आवश्यक निर्देश दिए हैं कि राज्य को अपनी टेस्टिंग की संख्या में तेजी से इजाफा सुनिश्चित करने के उपायों को अपनाना चाहिये। कोर्ट ने सरकारी अस्पतालों में सीसीटीवी कैमरे लगाने के भी आदेश दिए हैं और दिल्ली में अस्पतालों की स्थिति का जायजा लेने के लिए एक कमेटी का गठन भी कर दिया है।

कई रिपोर्टों में इस बात के संकेत मिल रहे थे कि निकट भविष्य में कोरोनावायरस के मामलों में नया उछाल देखने को मिल सकता है। इसे देखते हुए न्यायपालिका की इस पहल को सभी देशवासियों के स्वास्थ्य अधिकारों की सुरक्षा के अंतिम प्रयास के तौर पर देखा जा सकता है। इसके साथ ही इसे उसकी विलम्बित प्रतिक्रिया से बचने के तौर पर भी देखा जा सकता है, जिसके लिए न्यायपालिका की हाल के दिनों में आलोचना भी देखी गई थी। हालात को देखते हुए कोर्ट को एक बेहद-जरूरी कार्यकर्ता वाले दृष्टिकोण को अपनाने की आवश्यकता पड़ी, जिसे कि उसकी ओर से बंधुआ मुक्ति मोर्चा केसविशाखा निर्णय और राकेश चंद्र नारायण केस मामले जैसे फैसलों में भी समय-समय पर लेते देखा गया है। इसने सुप्रीम कोर्ट को मौलिक अधिकारों पर संवैधानिक बहसों में परिकल्पित मौजूदा स्वास्थ्य सेवाओं के न्यायशास्त्र के विकास का भी मौका दिया है। हालांकि अदालत ने इस मौके पर किसी एक्टिविस्ट की दृष्टि से काम लिया है, लेकिन यह अपने इतिहास में लिए गए कुछ ऐतिहासिक न्यायिक मिसालों से कुछ नसीहतें लेने चूका भी है।

राकेश चन्द्र नारायण बनाम बिहार राज्य केस की समीक्षा

स्वास्थ्य अधिकार के संबंध में न्यायशास्त्र में यदि दृष्टान्तों को तलाशें तो इसके लिए 1988 तक पीछे जा सकते हैं। राकेश चंद्र नारायण  वाले मामले में सुप्रीम कोर्ट का कहना था कि सरकार का यह दायित्व है कि वह प्रत्येक नागरिक को चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराये जाने को सुनिश्चित करे। इसे उन पहले उदाहरणों में से एक कहा जा सकता है जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने न्यायोचित मौलिक अधिकारों के साथ राजकीय नीति के गैर-न्यायोचित निर्देशात्मक सिद्धांतों को विलीन कर दिया था। यह मामला रांची के एक मानसिक रोगी अस्पताल की शोचनीय स्थिति पर विचाराधीन था और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत एक लिखित पत्र याचिका के तौर पर इसे दायर किया गया था।

सुप्रीम कोर्ट ने रांची के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (सीजेएमको मामले की जांच के आदेश दे दिए थे। सीजेएम द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट के नतीजों ने अस्पताल में मामलों की खेदजनक स्थिति को उजागर करके रख दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने अपनी टिप्पणी में कहा था कि इतने विशालकाय संस्था को नहीं चला सकते, जब तक कि इसमें कोई प्रशासनिक बदलाव नहीं किया जाते हैं। इसके अलावा कोर्ट ने इस बात का भी उल्लेख किया था कि मानसिक अस्पताल की दशा में सुधार लाने के लिए जिस योजना को कोर्ट में पेश किया गया था, वह आधी-अधूरी थी। इसके साथ ही कोर्ट का मानना था कि इस योजना में मौजूदा व्यवस्था की खामियों को दुरुस्त करने की कोशिशें नहीं की गईं थीं। एक अभूतपूर्व कदम के तौर पर कोर्ट की ओर से एक प्रबंधन समिति का गठन कर दिया गया था और अस्पताल के कामकाज और प्रबंधन के बारे में दिशानिर्देश जारी कर दिए गए थे।

यहाँ पर भी सुप्रीम कोर्ट ने एक एक्टिविस्ट के बतौर काम करने की कोशिश की है। कोर्ट ने अपने 19.06.2020 के आदेश में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय को एक कमेटी के गठन का निर्देश दिया था। यह कमेटी अस्पतालों के निरीक्षण का काम सम्भालेगी और समय-समय पर इनका औचक निरीक्षण भी करेगी। इस कमेटी में दिल्ली में मौजूद केंद्रीय सरकारी अस्पतालों के वरिष्ठ डॉक्टरअन्य जीएनसीटीडी अस्पतालों के डॉक्टरएम्स के डॉक्टर और मंत्रालय के अधिकारियों को सदस्यों के तौर पर नियुक्त किया जाएगा।

इस प्रकार की कमेटियों के साथ एक समस्या यह रहती है कि आने वाली तारीखों पर सुप्रीम कोर्ट के समक्ष पेश की जाने वाली रिपोर्टों के पक्षपातपूर्ण होने की संभावना बनी रहती है, और शायद भरोसे के लायक भी नहीं रहती। ऐसा इसलिए है क्योंकि राज्य को अपने कार्यों पर रिपोर्ट करने की शक्ति मिली हुई है। इसकी बजाय कोर्ट को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को नियुक्ति करना चाहिए था। सीजेएम किसी भी मामले की जाँच के लिए कार्यकारी या विधायिका के प्रति जवाबदेह नहीं रहता। इस प्रकार के प्राधिकरण के होने से वे जमीनी हकीकत की विस्तृत और निष्पक्ष रिपोर्ट देने में सक्षम रहेंगे।

राज्य के साथ अविश्वास: एक स्वतंत्र जाँच की ज़रूरत

हाल के दिनों में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने 25 मई के दिन कहा था कि दिल्ली में स्थिति "नियंत्रण में है" और राज्य सरकार "कोरोनोवायरस मरीजों की संख्या में संभावित उछाल के प्रति पूरी तरह से तैयार" है। लेकिन दिल्ली की जो मौजूदा स्थिति आज नजर आ रही है वह राज्य सरकार के दावों के ठीक उलट है। सुप्रीम कोर्ट के समक्ष पेश की गई प्रत्येक जानकारी को पहले गहन जाँच की प्रक्रिया के बीच से गुजरने देना चाहिए। इसको लेकर एक स्वतंत्र जाँच की भी आवश्यकता है क्योंकि पिछले दिनों राज्य सरकार और केंद्र सरकार के द्वारा गैर हकीकी बयानों के चलते हाल ही में एक अविश्वास की स्थिति उत्पन्न हो गई है।

दिलचस्प बात यह है कि राकेश चंद्र नारायण के फैसले के दौरान भी सुप्रीम कोर्ट ने अविश्वास के स्वर के साथ राज्य के मुख्य सचिव की रिपोर्ट का विश्लेषण किया था। अदालत ने अपनी टिप्पणी में कहा था:

 “मुख्य सचिव के दौरे के दौरान अस्पताल के प्रशासनिक अधिकारी किसी भी सूरत में नहीं चाहेंगे कि वे अपने स्वयं की कमियों का बखान करें, ऐसा उनके खुद के हित में नहीं है। इसलिए यदि वे कुल मिलाकर स्थिति से संतुष्ट हैं, और यदि इस बात की तस्दीक करते हैं कि उनके दौरे के समय उन्हें एक भी मरीज ऐसा नहीं मिला जिसे अपर्याप्त भोजन या दवा दी जा रही हो, तो इसे स्थिति का सटीक मूल्यांकन नहीं कह सकते हैं।"

इसी तरह का अविश्वास सुप्रीम कोर्ट के दिनांक 19.06.2020 वाले आदेश में भी देखा जा सकता है। न्यायालय के विचार में:

“……… इस पूरे हलफनामे मेंइस आम बयान के अलावा, कि सारे क़दमों को उठाया जा रहा हैलेकिन हलफनामे में ऐसा कोई मेकेनिज्म नजर नहीं आता जिसमें अस्पतालों के कामकाज की उचित देखरेख और उसमें सुधार के उपायों को लेकर कोई स्पष्ट संकेत मिलते हों। हलफनामे में कोर्ट को यह जताने की कोशिश की गई है कि दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के सरकारी अस्पतालों का काम-काज पूरी तरह से दुरुस्त है, और दिल्ली सरकार की ओर से सभी आवश्यक कदम उठाए जा रहे हैं। ऐसे में जब सरकार अपने अस्पतालों और मरीजों की तीमारदारी में कोई कमी या गड़बड़ियों को जानने की कोशिश ही नहीं करती हैतो उससे उपचारात्मक क़दमों को लेने और सुधार लाने की गुंजाइश नहीं की जा सकती।

इसलिए यह उचित होगा कि खंडपीठ इन तथ्यों पर अपनी नजर बनाए रखे, और कमेटी से निष्पक्ष रिपोर्ट और नवीनतम अपडेट ले।

विधि-निर्माण सम्बंधी शून्यता से उबरने की चुनौती

ऐसा लगता है कि दिल्ली में स्वास्थ्य के अधिकार की हिफाजत के लिए कोई राजकीय कानून नहीं है। ऐसी स्थिति में यह सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार के दायरे में है कि वह अधिकारों की परिधि को व्याख्यायित करे। यह राज्य को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के माध्यम से व्याख्यायित स्वास्थ्य के अधिकार के बारे में सुप्रीम कोर्ट की व्याख्या को समझने में मदद करेगा। स्वतः संज्ञान वाले मामले में अदालत दो पहलुओं से निपट रही थी। पहला आर्थिक पहलू है, जहाँ अदालत को कोविड--19 की टेस्टिंग में लागत के प्रश्न से दो चार होना पड़ा। दूसरा प्रशासनिक पहलू है जिसमें कोर्ट ने मरीजों की देखभालअस्पताल प्रबंधन और बुनियादी ढांचे के संबंध में दिशानिर्देशों के कार्यान्वयन में हुई विफलता का विश्लेषण किया।

दिलचस्प बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने राज्य की विफलता को न सिर्फ बजटीय परिपेक्ष्य से समझने की कोशिश की है बल्कि प्रशासनिक दृष्टिकोण से भी इसका मुआयना किया है। कोर्ट ने इस बात को भी सुनिश्चित किया है कि राज्य द्वारा गठित कमेटी, जिसमें डॉक्टर भी शामिल हैं को कोविड-19 प्रभावित मरीजों की देखभाल के संबंध में आवश्यक दिशा-निर्देश जारी करने का अधिकार हो। इस कमेटी को निर्देश जारी करने के अधिकार देकर कोर्ट ने एक नई प्रशासनिक ईकाई इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर बना डाली है ताकि मौजूदा व्यवस्था में जो कमियाँ रह जा रही हैं, उनको भरा जा सके।

हालाँकि इससे भी अधिक किया जा सकता है। दो आदेशों के अवलोकन (12 जून और 19 जून) से पता चलता है कि कुल मिलाकर अदालत ने हलफनामों के माध्यम से राज्य द्वारा पेश की गई सिफारिशों को सीधे तौर पर स्वीकार करने का ही काम किया है। आने वाले दिनों में न्यायपालिका को चाहिए कि वह इस तथ्य पर निगाह बनाए रखे कि राज्य द्वारा जो सिफारिशें पेश की गईं थीं, वे कारगर हैं या उन्हें आधे-अधूरे तौर पर लागू किया जा रहा है। इसके माध्यम से कोर्ट दिल्ली में कोविड-19 के मरीजों के स्वास्थ्य के अधिकार की गारंटी के व्यापक उल्लंघन से प्रभावी ढंग से निपटते हुए स्वास्थ्य के अधिकार की गारन्टी को सुनिश्चित कर सकती है। क्योंकि इसका अस्तित्व वैसे तो अतीत में कागजों पर बना हुआ था लेकिन वास्तविकता में यह आपने उद्येश्यों में विफल रही थी।

 (लेखक दिल्ली उच्च न्यायालय में विधि क्षेत्र में शोधकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

सौजन्य: द लीफलेट

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Analysing Supreme Court’s Attempt To Safeguard Right To Health

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