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मानवता को बचाने में वैज्ञानिकों की प्रयोगशालाओं के बाहर भी एक राजनीतिक भूमिका है

लोगों के हालात जैसे भी हों, क्या एक वैज्ञानिक दुनिया भर में सामाजिक लक्ष्य के अपने आविष्कारों की नियति चुनने के लिए अपनी स्वतंत्रता का इस्तेमाल कर सकता है?
वैज्ञानिकों

वैज्ञानिक खोज या आविष्कार जरूरी हैं, लेकिन पर्याप्त नहीं हैं, क्योंकि नागरिकों के व्यापक वैज्ञानिक स्वभाव को तैयार करने और खोज या आविष्कारों के सार्वभौमिक वितरण को आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त वित्त नहीं मिल पाता है इसलिए वांछित सामाजिक लक्ष्यों को हासिल करना नामुमकिन लगता है। उदाहरण के लिए, कोविड-19 वैक्सीन को रिकॉर्ड समय में विकसित कर लिया गया जिसने सब में महामारी को नियंत्रित करने, मृत्यु दर में कमी लाने और सामाजिक-आर्थिक स्थिरता को बहाल करने की आशा पैदा कर दी। हालांकि कोविड-19 वैक्सीन को समय पर विकसित कर निर्विवाद रूप से वैज्ञानिक प्रयास को पूरा किया है, लेकिन टीके की कमी – वह भी जनता के एक बड़े हिस्से के लिए दयनीय स्थिति को दर्शाता है – जिन देशों में बहुसंख्यक आबादी और वैक्सीन की सस्ती पहुंच होगी वहाँ इस वैज्ञानिक सफलता के सामाजिक मूल्य को हासिल करने के लिए बेहतर हालत होना जरूरी हैं। 

वैज्ञानिक आविष्कारों का दर्शन अधूरा रहेगा जब तक अज्ञानता को समाप्त करने में इसके  सामाजिक सिद्धान्त का सीतेमाल नहीं किया जाता है, ताकि रोके जा सकने वाले कष्टों को दूर किया जा सके, न्याय को बढ़ावा देना और अंतत एक ऐसे समाज के निर्माण में योगदान देना जिसमें सामाजिक मूल्यों का विस्तार हो जहां लोग ऐसा जीवन जी सके जो बिना अभावों के जीवन जीने का रास्ता हो। विज्ञान का उद्देश्य सिर्फ नए आविष्कार करना नहीं हो सकता; यह समाज के भीतर स्वतंत्रता को बढ़ावा देना भी सुनिश्चित करता है। इसलिए केवल प्रयोगशाला के भीतर सीमित वैज्ञानिक खोजों का उत्सव सामाजिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के मामले में अपर्याप्त होगा, जिसके लिए वैज्ञानिक समुदाय को सामाजिक संवेदनशीलता और राजनीतिक जिम्मेदारी के साथ प्रयोगशाला से बाहर कदम रखना होगा। 1950 के दशक में विज्ञान और विश्व मामलों पर पगवाश सम्मेलन हुआ था, जिसका उद्देश्य मानवता को परमाणु हथियारों के खतरों से बचाना था, इतिहास का एक आदर्श उदाहरण है जहां वैज्ञानिकों ने परमाणु क्षेत्र में विशेष ज्ञान का अधिकार होने के नाते अपनी सामाजिक-राजनीतिक जिम्मेदारी का निर्वहन किया था।

वैज्ञानिक समुदाय खोजों और आविष्कारों पर वैज्ञानिक जानकारी की आधिकारिक शक्ति रखता है। मुद्दा यह है कि क्या वैज्ञानिक अपनी प्रयोगशाला से परे ज्ञान के अपने अधिकार का लाभ उठा सकते हैं? लोगों के हालात जैसे भी हों, क्या एक वैज्ञानिक को दुनिया भर में सामाजिक लक्ष्य के लिए अपने नवाचारों/आविष्कारों की नियति चुनने के लिए अपनी स्वतंत्रता का इस्तेमाल कर सकता है? सबसे मौलिक बात ये है कि, क्या वैज्ञानिक समुदाय बाजार की ताकतों के हुक्म पर सार्वभौमिक सिद्धांतों की बली दे सकता है? दुर्भाग्यपूर्ण सच्चाई यह है कि वैज्ञानिक समुदायों को खुद के अनुसंधान क्षेत्र का चुनाव करने, अपने बौद्धिक श्रम पर नियंत्रण करने और आर्थिक और राजनीतिक निर्णय लेने का  लाभ उठाने की अधिक स्वतंत्रता नहीं है।

यह पहली बार नहीं है कि हम महत्वपूर्ण जीवनरक्षक वैज्ञानिक आविष्कारों के बारे में ऐसी दुविधा देख रहे हैं जो उनके मानवीय, सामाजिक और सार्वभौमिक लक्ष्यों तक नहीं पहुंचती हैं। पेटेंटेड जीवनरक्षक दवाएं और प्रौद्योगिकियां हैं जो गरीब, जरूरतमंद लोगों के लिए उपलब्ध नहीं हैं। इंसुलिन के आविष्कार के मामले पर भी विचार करें; इसके खोजकर्ताओं (बैंटिंग और बेस्ट) द्वारा पेटेंट नहीं किए जाने के बावजूद, यह अत्यधिक महंगी बिकती है, और इस प्रकार, मधुमेह रोग गरीब परिवारों के लिए विनाशकारी है। इसलिए, कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि कोविड-19 वैक्सीन के समय पर आविष्कार के बाद भी, इस तरह का मूल्यवान वैज्ञानिक योगदान समाज के एक महत्वपूर्ण तबके, विशेषकर गरीब घरों और अविकसित देशों के लोगों की खरीद की ताक़त से बाहर हो सकता हैं।

विज्ञान के बाजारीकरण ने सामाजिक लक्ष्यों और सार्वभौमिक मूल्यों को वैज्ञानिक प्रयासों से व्यवस्थित रूप से अलग कर दिया है। नवउदारवादी राजनीतिक अर्थव्यवस्था ने मानवीय मूल्यों में उनके योगदान पर वाणिज्यिक पेटेंट के आंकड़ों के माध्यम से अनुक्रमित वैज्ञानिक खोज के लक्ष्य को विकृत कर दिया है। कॉर्पोरेट मुनाफे को बनाए रखना और पेटेंट के माध्यम से एकाधिकार शक्ति का निर्माण प्रमुख और अपरिहार्य प्राथमिकताएं हैं जिनके लिए वैज्ञानिकों को वैज्ञानिक छात्रवृत्ति और सामाजिक निर्णयों पर अधिक विकल्प न होने की बिना पर एक तरह से अधीन कर लिया गया है। कोई गलती न हो, इसमें पीड़ितों को दोष देना नहीं है, बल्कि हमारे समय की दुर्भाग्यपूर्ण वास्तविकता को स्वीकार करना है। इसके बावजूद, एक अराजनीतिक और  कभी-कभी राजनीति-विरोधी वैज्ञानिक समुदाय लोकतंत्र के प्रति छल है और इस तरह वे अपनी प्राथमिकताओं और सामाजिक मूल्यों के प्रति हानिकारक बन जाते है।

कार्यकाल या रोज़गार की असुरक्षा, वैज्ञानिक के काम के प्रकाशित होने या उसके नष्ट होने का दबाव, लंबे समय तक काम करना,  अपेक्षाकृत कम वेतन मिलना, कार्य-जीवन में संतुलन और असंतुलन और कार्यस्थल में भेदभाव के कारण वैज्ञानिक शोधकर्ताओं के मानसिक स्वास्थ्य के मामलों में रिकॉर्ड वृद्धि हुई है – इसलिए कि उनसे जुड़े सारे निर्णय प्रयोगशाला के बाहर लिए जाते हैं जबकि उन्हे वैज्ञानिक संस्कृति के मानदंडों के रूप में स्वीकार कर लिया जाता है। यह इस महान पेशे के इर्द-गिर्द वैज्ञानिक खोज और उसके प्रति जुनून के उद्देश्य को परिभाषित करने में वैज्ञानिक समुदाय की भारी विफलता को प्रतिबिंबित करता है। ऐसी समस्याओं का सावधानीपूर्वक विश्लेषण हमें उसकी जड़ तक ले जाएगा जो और कुछ ओर नहीं बल्कि लोगों से लाभ कमाने का स्पष्ट लक्ष्य है और जो बाजार संचालित राजनीतिक व्यवस्था की ताक़त कहलाती है।

विज्ञान सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तनों से अछूता नहीं रह सकता है, न ही वह बाजार की सनक और हुक्म के तहत अपने सार्वभौमिक मूल्यों का त्याग कर सकता है। वैज्ञानिक अनुसंधान में बजटीय कटौती, नव-उदारवादी राजनीतिक व्यवस्था के आश्चर्यजनक परिणाम हैं, जिसके तहत सरकारें वित्तीय मितव्ययिता की आड़ में उनका बचाव करती हैं। कितनी सरकारों ने वैज्ञानिक समुदायों के साथ परामर्श किया, कि विज्ञान मानवता के लिए है या लाभ के लिए? भेदभावपूर्ण आप्रवासन कानूनों के साथ बढ़ता संरक्षणवाद आज का राजनीतिक खासियत हैं, और इसलिए वे वैज्ञानिक अनुसंधान और इसके सार्वभौमिक प्रसार को प्रभावित कर रहे हैं।

इस प्रकार, क्या वैज्ञानिक समुदाय अपनी खोजों से लोगों को वंचित होने के अपराध से मुक्त कर सकता है, यह देखते हुए कि "वैज्ञानिक विचार और इसकी रचना मानव जाति की सामान्य और साझा विरासत है?" और यदि वैज्ञानिक समुदाय अपनी आवाज़ बुलंद करता है और बाजार के नेतृत्व वाली चिकित्सा, तकनीक और सामाजिक अभावों के खिलाफ खड़े होते हैं तो क्या यह विज्ञान को नुकसान पहुंचाएगा? इसके अलावा, क्या वैज्ञानिक अपनी स्वतंत्रता के मामले में राजनीतिक न होने का जोखिम उठा सकते हैं? ऐसे सवालों का सबसे अच्छा जवाब कुछ और नहीं बल्कि अल्बर्ट आइंस्टीन हो सकते हैं। आइंस्टीन ने "समाजवाद क्यों" पर एक निबंध लिखा था और बाद में रसेल के साथ मिलकर एक घोषणापत्र लिखा था? आइंस्टीन ने उन मामलों पर एक स्टैंड क्यों लिया जो प्रकृति में अत्यधिक राजनीतिक थे? और यह भी कि एंथोनी फौकी क्यों अमेरिका के सर्वोच्च राजनीतिक दफ्तर के खिलाफ खड़े हुए जो विज्ञान विरोधी प्रचार कर रहा था। एंथोनी फौकी का खड़ा होना निश्चित रूप से वैज्ञानिक द्वारा किए जा सकने वाले उल्लेखनीय और प्रभावी हस्तक्षेप का एक बेहतर उदाहरण है। यदि राजनीतिक व्यवस्था विज्ञान के उद्देश्य को निर्धारित कर रही है, तो वैज्ञानिक समुदाय को राजनीतिक व्यवस्था के उद्देश्य को परिभाषित करना चाहिए।

जमील बरकत स्वीडन के गोथेनबर्ग विश्वविद्यालय के बायोमेडिसिन संस्थान में पोस्टडॉक्टरल फ़ेलो हैं। अमित साधुख़ान टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज़, हैदराबाद, भारत में अर्थशास्त्र के सहायक प्रोफ़ेसर हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।

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