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महामारी के छह माह बीत जाने के बाद भी विज्ञान इस गुत्थी को सुलझाने में प्रयासरत है

भले ही रोग की गंभीरता के पीछे कोई आनुवांशिक संबंध नजर न आ रहे हों, किन्तु इसके मूल स्रोत के तौर पर यदि मध्यवर्ती प्रजाति की भागीदारी देखने को मिल रही है तो बीमारी के चलते बनने वाले एंटीबॉडी और म्युटेशन की प्रकृति जैसे कुछ प्रश्न हैं जो अभी भी अनुत्तरित हैं।
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चित्र मात्र प्रतिनिधित्व हेतु। सौजन्य: इंडिया बायोसाइंस

कोरोनावायरस महामारी की गिरफ्त में बुरी तरह से फँसे हुए विश्व को अब छह महीने से अधिक का समय गुजर चुका है। धरती के कई हिस्सों में रोज-ब-रोज मामले बढ़ते ही जा रहे हैं। इस बीच छह महीने बीत चुके हैं और 1 करोड़ से अधिक मामलों और 5 लाख से अधिक मौतों के साथ यह महामारी आज सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिहाज से दुनियाभर में एक सदी के अपने सबसे बुरे दौर में है।

लेकिन इस महामारी के कारण ही दुनिया भर में अनुसंधान को लेकर पहल भी शुरू हो चुकी हैं, जो कि इस बीमारी और SARS-CoV-2 को, जिसकी वायरस की वजह से यह उत्पन्न हुई है, इन दोनों को समझने के लिए अभूतपूर्व रफ़्तार से आगे बढ़ी है। इसके कई पहलू उजागर हो चुके हैं, जिसमें चीन में पाए जाने वाले जीनोमिक अनुक्रमों से इसे आरंभ कर जिस प्रकार से यह वायरस इंसान की कोशिकाओं में प्रविष्ठ करता है और इसे हाईजैक कर लेता है, से लेकर दुनियाभर के विभिन्न हिस्सों में इसको लेकर चल रहे विशाल दवा परीक्षणों में इसे देख सकते हैं।
हालांकि हर नई खोज अपने साथ सवालों के एक अगले सेट के साथ उभरकर सामने आते जा रहे हैं, जिनके उत्तर खोजे जाने शेष हैं।

इस रोग को लेकर लोगों के बीच में प्रतिक्रिया को लेकर विविधता

कोविड-19 की एक विशेषता यह रही कि लोगों पर इसकी प्रतिक्रिया अलग-अलग देखने को मिली है- जहाँ कुछ लोगों में इसके कोई स्पष्ट लक्षण देखने को नहीं मिलेंगे, वहीँ कुछ में हल्के लक्षण देखने को मिल सकते हैं, जबकि कुछ लोग ऐसे भी दिख सकते हैं जो वैसे तो स्वस्थ होते हैं, लेकिन उनमें निमोनिया के गंभीर लक्षण विकसित हो सकते हैं जो जानलेवा साबित हो सकते हैं।

क्या आनुवंशिक भिन्नता की इसमें कोई भूमिका हो सकती है? या क्या यह एक खास किस्म का वायरल दबाव है जो क्षेत्र विशेष पर विशेष प्रभाव में कारगर है? निश्चित तौर पर वायरल का दबाव विभिन्न क्षेत्रों के लोगों के बीच अलग-अलग प्रतिक्रियाओं को देखने में आ रहा है। लेकिन आनुवांशिकी इस कोविड-19 के मामले में कैसा रोल निभा रही है यह अभी भी सभी लोगों के लिए शोध का विषय बनी हुई है।

इस रोग के आनुवंशिक लिंक के सम्बंध में पहली बार कोई ठोस सबूत पिछले महीने ही मिल पाए हैं। कई शोधकर्ताओं की एक अंतरराष्ट्रीय टीम ने इस बात का खुलासा किया है कि जिन लोगों में गंभीर श्वसन प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है, उनमें इस बात की संभावना है कि वे इन दो जीन वेरिएंट में से एक को धारण किये हो सकते हैं। इटली और स्पेन के 4,000 लोगों पर बड़े पैमाने पर संचालित यह अध्ययन मेड्रिक्सिव में उपलब्ध है।

एक जीन का (वैरिएंट) प्रकार, जैसा कि जीनोम के क्षेत्र के अध्ययन में देखने को मिला है कि यह रक्त के प्रकार को- एबीओ रक्त समूह को निर्धारित करता है। इसी प्रकार दूसरे जीन का वैरिएंट वह हो सकता है जो प्रोटीन की एन्कोडिंग करने में सक्षम हो सकता है। यह जीन रिसेप्टर के साथ एकदूसरे पर प्रभाव डाल सकने में सक्षम हो सकता है, जिसे SARS-CoV-2 मानव कोशिका में प्रवेश पाने के लिए उपयोग में लाता है। या यह उनमें से एक हो सकता है जो रोगज़नक़ प्रतिक्रिया से जुड़े प्रतिरक्षा प्रोटीन को एन्कोड करने में सक्षम हों।

शोधकर्ताओं की यह टीम उस वैश्विक महासंघ का हिस्सा है जो कोविड-19 के मेजबान आनुवांशिक पहल के रूप में जानी जाने वाली इस बीमारी के लिए आनुवंशिक संबंधों का पता लगाने में जुटी हुई है।

हालांकि जीन के ये वेरिएंट, इस रोग पर प्रतिक्रिया में मामूली हिस्से के तौर पर ही हैं। वहीँ जीन म्यूटेशन, जिसकी भूमिका इस मामले में कहीं अधिक व्यापक है, की खोज के लिए रॉकफेलर यूनिवर्सिटी की इम्यूनोलॉजिस्ट जीन लोरेंट कैसानोवा और उनकी टीम पूरे तौर पर स्वस्थ लोगों के जीनोम की तलाश में है। ये वे लोग होने चाहिए जो 50 साल से कम उम्र के हों और जिनमें कोरोनावायरस के गंभीर लक्षण देखने को मिले हों।

एक और कोशिश डेकोड जेनेटिक्स के मुख्य कार्यकारी अधिकारी कारी स्टेफंसन द्वारा की गई थी। उनकी टीम मानव जीन के वैरिएंट की तलाश में थी और कोविड-19 के प्रति भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाओं के बीच के अंतर की खोज में मशगुल रही है। लेकिन आइसलैंड में ऐसे मामले कम होने के चलते इस टीम के जरिये महत्वपूर्ण परिणामों तक पहुँच पाने में एक प्रमुख बाधा बनी हुई है। यह टीम रेकजाविक में स्थित है।

इम्युनिटी की प्रकृति और यह कितने समय तक कायम रह सकती है

किसी भी प्रकार के रोगजनक हमलों के प्रति, जिनका हम अनुभव करते हैं, को लेकर हमारे शरीर का इम्यून सिस्टम एंटीबॉडी विकसित कर सकता है। एक ख़ास एंटीजन की तुलना में ये एंटीबॉडी उस रोगज़नक़ द्वारा हमले से लड़ने में मदद पहुंचाते हैं।

जहां तक SARS-CoV-2 के खिलाफ इम्युनिटी की प्रकृति की खोज का संबंध है तो इसमें मुख्य तौर पर उन तटस्थ एंटीबॉडीज को खोजने की ओर कोशिश की गई है जो वायरल प्रोटीन से सीधे तौर पर सम्बद्ध हैं और इस प्रकार संक्रमण को रोकते हैं। यह पाया गया है कि संक्रमण के बाद कुछ हफ्तों तक स्थिरता लाने वाले एंटीबॉडीज उच्च अवस्था में बने रहते हैं, लेकिन बाद में वे घटने शुरू हो जाते हैं। लेकिन गंभीर संक्रमण की स्थिति में एंटीबॉडी शरीर में काफी समय तक बने रह सकते हैं। पहले वाले सार्स के मामले (SARS) संक्रमण के समय में भी ऐसी ही स्थिति थी। कुछ गंभीर तौर पर संक्रमित मरीजों में संक्रमण के 12 साल के बाद भी एंटीबॉडी सक्रिय थे, जबकि जिनमें संक्रमण कम था, उनमें कुछ वर्षों में ही एंटीबॉडी समाप्त हो चुकी थी।

शोधकर्ताओं के बीच अभी भी दूसरे संक्रमण को रोक पाने या कम लक्षण वालों के लिए आवश्यक एंटीबॉडी की सही मात्रा के बारे में पर्याप्त जानकारी हासिल नहीं हो सकी है।
SARS-CoV-2 के खिलाफ इम्युनिटी को निश्चित तौर पर एंटीबॉडी से परे जाकर देखने की जरूरत है। अध्ययनों से पता चला है कि इम्यून सिस्टम के एक महत्वपूर्ण अंग के तौर पर टी कोशिकाएं इम्युनिटी प्रदान करने में सहायक सिद्ध हो सकती हैं।

और बेहतर तस्वीर के निकलकर आने की संभावना तब जाकर सामने आएगी जब इम्यून प्रतिक्रियाओं के विभिन्न पहलुओं को एक साथ रखकर देखा जा सकेगा, कि इम्युनिटी इन प्रतिक्रियाओं को दे पाने में कितनी टिकाऊ हो सकती है।

म्यूटेशन (रुपान्तरण) कितना चिंताजनक है?

म्यूटेशन का होना वायरस में आम बात है। जैसे-जैसे वे संक्रमित करते जाते हैं, उनका म्युटेशन का क्रम जारी रहता है। महामारी विज्ञानियों द्वारा जैसे-जैसे वायरस के वैश्विक प्रसार का पता लगाया जा रहा है, वैसे-वैसे SARS-CoV-2 वायरस के रूपांतरण की ट्रैकिंग संभव हो पा रही है। लेकिन इन म्युटेशन के बारे में अध्ययन वैज्ञानिकों के लिए भी काफी महत्वपूर्ण हैं। हालाँकि उनकी रूचि इस मामले में भिन्न हो सकती है, क्योंकि उनके लिए इस बात का अध्ययन आवश्यक है कि क्या कुछ म्युटेशन अधिक घातक स्वरुप लिए हो सकते हैं, जबकि अन्य कम विषैले होते हैं।

हाल ही में सेल प्रकाशन में कहा गया है कि वायरस का एक नया नमूना देखने में आया है, जोकि अब दुनियाभर में छाया हुआ है। जहाँ एक ओर इस नए प्रकार के नमूने की प्रकृति पहले से ज्यादा संक्रामक होने की है, वहीँ यह पहले से कम घातक है। यह नया तत्व एक म्यूटेशन में आये एक बिंदु की वजह से है, जो कि यूरोप में फरवरी के आसपास में देखी जाने वाली स्पाइक प्रोटीन में एक एकल परिवर्तन की वजह से संभव हो सका है।

वैक्सीन के निर्माण के लिए भी म्यूटेशन का होना महत्वपूर्ण हैं। वैक्सीन के लिए आवश्यक है कि वह जेनेरिक हो, जिसका अर्थ यह है कि विभिन्न खिंचावों के प्रति इसकी प्रभावोत्पकता दिखनी चाहिए। लेकिन म्युटेशन किस प्रकार से इस बीमारी के विस्तार और इसकी घातकता को प्रभावित कर रहे हैं यह अभी भी सवालों के घेरे में है, जबकि इसे सूचीबद्ध करने के व्यापक प्रयास जारी हैं।

वैक्सीन की प्रभावोत्पकता के बारे में क्या विचार हैं?

सारी दुनिया जिस बेहद महत्वपूर्ण अविष्कार के इन्तजार में है, वह कोविड-19 के खिलाफ एक वैक्सीन को लेकर आशान्वित है। महामारी से निजात पाने का शायद यह सबसे प्रभावी तरीका है। वर्तमान में, वैक्सीन निर्माण में लगभग 200 उम्मीदवार हैं, जिन्हें विकसित किया जा रहा है और इनमें से करीब 20 ऐसे हैं जो क्लिनिकल ट्रायल के विभिन्न चरणों में हैं।

लेकिन पहली बार व्यापक पैमाने पर इसकी प्रभावोत्पादकता को परखने के लिए किये जाने वाले परीक्षण अभी शुरू नहीं हो सके हैं। इन अध्ययनों से उन लोगों के बीच में संक्रमण की दर का आकलन किया जा सकेगा जिन्हें प्लेसबो की तुलना में वैक्सीन प्राप्त हुई है।

लेकिन पशुओं के बीच किये गये परीक्षण के परिणामों से कुछ संकेत पहले ही सामने आ चुके हैं। जब ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी ने अपने वैक्सीन का परिक्षण अफ़्रीकी लंगूरों पर किया तो इसमें पता चला है कि यह जानवर में गंभीर फेफड़ों के संक्रमण या निमोनिया के विकास को रोक सकने में सक्षम है, लेकिन नाक जैसे अन्य हिस्सों में संक्रमण को रोक पाने में सक्षम नहीं हो सका है। जिन बंदरों में टीकाकरण किया गया था और जो टीकाकरण से अछूते थे, उन दोनों में नाक में वायरस के लक्षण समान रूप से दिखे। इस प्रकार के नतीजों से यह सवाल भी खड़ा हो रहा है कि भले ही यह वैक्सीन गंभीर बीमारी से रोकथाम में कारगर हो, लेकिन क्या यह वायरस के प्रसार को रोक पाने में सक्षम हो सकेगा।

इंसानों पर किये गए कुछ परीक्षण के आंकड़े दर्शाते हैं कि मानव शरीर ऐसे निष्प्रभावी बना सकने वाले एंटीबॉडी के उत्पादन में सक्षम है, जो वायरस को सीधे तौर पर संक्रमित करने से रोक सकते हैं। लेकिन यह देखना होगा कि कितने समय में ये एंटीबॉडी शरीर में उपलब्ध हो सकते हैं।

वायरस की उत्पत्ति

भारी साजिश के सिद्धांतों के बावजूद वैज्ञानिक अब जाकर इस बात पर एकमत हैं कि SARS-CoV-2 की उत्पत्ति चमगादड़ से हुई है, विशेष तौर पर घोड़े की नाल के आकार वाले चमगादड़ से हुई थी। चीन में चमगादड़ों के 1,200 कोरोनावायरसों पर किए गए एक अध्ययन से भी यही अनुमान लगा है कि युनान में मौजूद घोड़े की नाल वाले चमगादड़ों इसके मूल में हैं, जहां से इस नए कोरोनावायरस की शुरुआत हुई थी।

हालाँकि हो सकता है कि म्यांमार, लाओस और वियतनाम जैसे पड़ोसी देशों में पाए जाने वाले इस घोड़े की नाल वाले चमगादड़ों इस वायरस के उत्पन्न होने की सम्भावना को भी इस अध्ययन में खारिज नहीं किया गया है।

आनुवंशिक विश्लेषण ने इस यह भी सुझाया है कि यह वायरस किसी मध्यवर्ती प्रजाति के माध्यम से भी चमगादड़ों से मनुष्यों में संक्रमित हो गया हो, और इस मामले में सबसे अधिक संभावना पैंगोलिन को लेकर बनी हुई है। ऐसे अध्ययन भी हैं जो दर्शाते हैं कि नवीनतम कोरोनावायरस में जो लक्षण हैं वैसी 925 जीमोनिक समानताएं मलायन पैंगोलिन में पाई गई हैं। इन अध्ययनों से पता चलता है कि किसी पैंगोलिन ने SARS-CoV-2 के पूर्वज की मेजबानी की हो।

जहाँ इस बात की पुष्टि हो चुकी है कि वायरस की उत्पत्ति चमगादड़ों से हुई है, वहीँ अभी भी इस बात की गुंजाइश बनी हुई है, भले ही यह ना के बराबर हो कि मध्यवर्ती प्रजातियों की भागीदारी इसमें है।

क्या हवा के जरिये भी वायरस का प्रसार संभव है:

डब्ल्यूएचओ और विश्व चिकित्सा समुदाय को लिखे एक हालिया पत्र में 32 देशों के 239 वैज्ञानिकों ने इस बात पर विचार करने का आग्रह किया है कि हवा के जरिये भी वायरस का संक्रमण संभव है।

पत्र में लिखा है- 'हम मेडिकल समुदाय और सभी जिम्मेदार राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय निकायों से कोविड-19 के हवा में प्रसार की क्षमता को मान्यता दिए जाने को लेकर अनुरोध करते हैं। इस बात की संभावना काफी अधिक है कि मध्यम दूरी (कई मीटर, या कमरे के पैमाने पर) से कम दूरी पर सूक्ष्म श्वसन की बूंदें (सूक्ष्म बूंदों) से वायरस के संपर्क में आने की संभावना काफी अधिक बनी हुई है। और हम हवा में इसके प्रसारण के मार्ग को कम करने के लिए निवारक उपायों के उपयोग की वकालत करते हैं।

हस्ताक्षरकर्ताओं और अन्य वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययन ने बिना किसी संदेह के इस बात को साबित किया है कि साँस छोड़ने, बात करने और खांसने के दौरान भले ही छोटी मात्रा में जो उपर हवा में वायरस सूक्ष्म बूंदों में बने रहते हैं। यह किसी भी संक्रमित व्यक्ति से 1 से 2 मीटर से अधिक दूरी पर बने रहने के बावजूद सामने वाले को संक्रमित कर सकता है। उदाहरण के लिए किसी घर के भीतर वायु वेगों पर, एक 5 माइक्रोन की छोटी बूंद, दस मीटर की दूरी को तय कर सकती है, जो एक विशिष्ट कमरे के पैमाने से देखें तो काफी अधिक है, जबकि 1.5 मीटर की ऊँचाई से यह सतह पर बैठ रही हो।'

डब्ल्यूएचओ में कोविड-19 महामारी पर टेक्निकल लीड की भूमिका में मौजूद मारिया वैन केरखोव के अनुसार, डब्ल्यूएचओ ने SARS-CoV-2 के हवा के जरिये प्रसारण और एयरोसोल प्रसारण की संभावना पर भी गौर किया है।

मूल आलेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Six Months of Pandemic: What Science Still Strives to Solve

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