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विशेष : मनुविधान से बचाएं संविधान

संविधान बचेगा तो हम बचेंगे। हमारे रोजगार बचेंगे। हमारी मानवीय गरिमा बचेगी। तभी बहुजन और इस देश के आम नागरिक अपने जीवन में आगे बढ़ सकेंगे। संविधान दिवस पर राज वाल्मीकि का विशेष आलेख
संविधान दिवस
फोटो साभार : ट्विटर

हमारे संविधान के अनुसार भारत एक लोकतांत्रिक देश है, गणराज्य है, पंथनिरपेक्ष है, समाजवादी है। जो किसी लिंग, जाति या धर्म के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करता है। पर यह भी सच है कि हमारे देश में ऐसे लोगों की बहुत बड़ी संख्या है जो मनुस्मृति को ही अपना संविधान मानते हैं। और इस बात को भी सब जानते हैं कि मनुस्मृति में स्त्रियों और शूद्रों (दलितों) को गुलाम बनाए रखने का षडयंत्र है जिसका उसमें पूरे विधि-विधान से वर्णन किया गया है। यही कारण है कि बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने 25 दिसम्बर 1927 को मनुस्मृति का दहन किया था। प्रसंगवश बताते चलें कि हाल ही में ‘कौन बनेगा करोड़पति’ (KBC) में प्रस्तुतकर्ता अमिताभ बच्चन ने इससे संबंधित प्रश्न पूछ लिया था जिससे मनुस्मृति को अपना संविधान मानने वाले लोगों में हड़कंप मच गया था। उन मनुवादियों ने अमिताभ बच्चन के खिलाफ FIR तक दर्ज करवा दी थी।

काबिले-गौर है कि राजस्थान के हाईकोर्ट में मनु की मूर्ति होना या उत्तर प्रदेश के एक व्यावसायिक प्रशिक्षण कॉलेज में जाति के आधर पर पेशेवर कोर्स सिखाना किस मानसिकता का परिचायक है। कुछ वर्ष पहले कुछ मनुवादी सोच के युवाओं द्वारा हमारे संविधान की प्रतियां जलाना क्या दर्शाता है।

हाल ही में कर्नाटक के मैसूर में एक नाई मल्लिकार्जुन पर गांव के उच्च कही जाने वाली जाति के लोगों ने इसलिए पचास हजार रुपयों का जुर्माना लगा दिया कि उसने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों के बाल काटे थे। इतना ही नहीं उसके परिवार का सामाजिक बहिष्कार भी कर दिया गया। उत्तर प्रदेश में भी यदि नाई जानता है कि बाल कटवाने वाला व्यक्ति अनुसूचित जाति से है तो उसके बाल नहीं काटता। इस मनुवादी मानसिकता का निहितार्थ यही है कि देश संविधान से नहीं बल्कि मनुविधान  से चले।

हमारा संविधान देश के सभी नागरिकों को समानता का अधिकार  देता है। अस्पृश्यता या छुआछूत का भी अनुच्छेद 17 में उन्मूलन कर दिया गया है। स्त्रियों और पुरूषों को बराबर के अधिकार दिए गए हैं। महिलाएं देश की आधी आबादी हैं उनको संविधान तो बराबरी के अधिकार  देता है। पर यहां की पितृसत्तात्मक व्यवस्था उन्हें बराबरी का हक नहीं देती। उन्हें पुरुषों के बराबरी के अधिकार से वंचित करती है। एक व्यस्क स्त्री को ये अधिकार है कि वह किससे प्रेम करे, किससे विवाह करे। पर आजकल लवजिहाद के नाम पर उनकी इस स्वतंत्रता को भी छीना जा रहा है। उत्तर प्रदेश में इसके खिलाफ अध्यादेश को मंजूरी दे दी गई है। राज्यपाल की मंजूरी के बाद यह लागू हो जायेगा। इसमें जुर्माने के साथ जेल की सजा का भी प्रावधान  है। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश सरकार सामूहिक धर्म  परिवर्तन करने पर भी लोगों को दंडित करेगी। इसके लिए 50, 000 रूपये जुर्माना और 10 साल तक जेल भी हो सकती है। जाहिर है यह संविधान की धर्म निरपेक्ष भावना के प्रतिकूल है। इस तरह संविधान की जगह मनुविधान  लागू किया जा रहा है।

देश की 85 प्रतिशत बहुजन आबादी यानी अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) तथा अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की आज तक आर्थिक संसाधनों  में भागीदारी नहीं हो पाई है और न उनकी संख्या के अनुपात में उन्हें राजनीति में भागीदारी मिली है। न ही सरकारी मशीनरी (ब्यूरोक्रेसी) में उन्हे उनके अनुपात में जगह मिली है। यह स्पष्ट दिखाई देता है। जाति के आधार पर उच्च कही जाने वाली जाति के लोग हालांकि आबादी के प्रतिशत में बहुत कम हैं पर उनका हर जगह कब्जा है। चाहे वह कार्यपालिका हो,  विधायिका हो, न्यायपालिका हो, शासन-प्रशासन हो, मीडिया हो, हर जगह 15 प्रतिशत वालों का कब्जा है।

सिर्फ सोशल मीडिया ही बचा है जहां दलित आदिवासी, अन्य पिछड़ावर्ग व अल्पसंख्यक अपनी बात कह सकते हैं। उस पर भी अंकुश लगाने की बात की जा रही है।

राजनीतिक लोकतंत्र बनाम सामाजिक व आर्थिक लोकतंत्र 

संविधान की प्रस्तावना, जिसे संविधान की आत्मा भी कहा जाता है, में कहा गया है कि-‘‘हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक, गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म  और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता, प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए, दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ई. एतददवारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।’’

इसमें शब्दों का चयन बहुत ही सोच-समझकर किया गया है। पहले सामाजिक न्याय की बात कही गई है फिर आर्थिक और राजनीतिक न्याय की। यानी जब समाज से गैर-बराबरी समाप्त हो जाएगी। ऊंच-नीच की भावना समाप्त हो जाएगी। धर्म , लिंग या जाति के आधार  पर भेदभाव समाप्त हो जाएगा और लोगों को आर्थिक न्याय मिलेगा। यानी आर्थिक संसाधनों  में समान भागीदारी मिलेगी। पर संविधान लागू होने के 70 साल बाद, आज भी हकीकत यह है कि हमारे देश के प्राकृतिक और आर्थिक संसाधनों पर कुछ वर्चस्वशाली जाति के लोगों का कब्जा है। बाबा साहेब जानते थे कि सिर्फ राजनीतिक अधिकार मिलने से सामाजिक न्याय नहीं मिलेगा और जब तक सामाजिक न्याय नहीं मिलेगा तब तक आर्थिक न्याय भी नहीं मिलेगा। इसलिए बाबा साहेब ने संविधान सभा में बोलते हुए कहा था -‘‘26 जनवरी 1950 से हम एक अंतर्विरोध जीवन में प्रवेश करने जा रहे हैं। राजनीति में हमारे पास समानता होगी, जबकि सामाजिक और आर्थिक जीवन में हम असमानता से ग्रस्त होंगे।

राजनीति में हम ‘एक व्यक्ति एक वोट’ और ‘एक वोट एक मूल्य’ वाले सिद्धांत  को मान्यता दे चुके होंगे। सामाजिक और आर्थिक जीवन में तथा अपने सामाजिक ढांचे का अनुसरण करते हुए हम ‘एक व्यक्ति एक मूल्य’ वाले सिद्धांत का निषेध् कर रहे होंगे। ऐसा अंतर्विरोध भरा जीवन हम कब तक जीते रहेंगे? सामाजिक-आर्थिक जीवन में समानता का निषेध कब तक करते रहेंगे? अगर हम ज्यादा दिनों तक इसे नकारते रहे तो इसका कुल नतीजा यह होगा कि हमारा राजनैतिक जनतंत्र  ही खतरे में पड़ जाएगा। इस अंतर्विरोध को हम जितनी जल्दी खत्म कर सकें उतना अच्छा, वरना असमानता के शिकार लोग राजनीतिक लोकतंत्र के ढांचे को उड़ा देंगे, जिसे इस सभा ने इतनी मुश्किल से खड़ा किया है।’’ संविधान सभा में ही आगे उन्होंने यह भी कहा था -‘‘हमें सिर्फ राजनीतिक लोकतंत्र  से सतुंष्ट नहीं होना चाहिए। हमें अपने राजनीतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र भी बनाना चाहिए। राजनीतिक लोकतंत्र तब तक स्थायी नहीं हो सकता, जब तक इसकी बुनियाद में सामाजिक लोकतंत्र न हो। सामाजिक लोकतंत्र का अर्थ क्या है? इसका अर्थ है एक ऐसी जीवन शैली, जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को जीवन का मूलसिद्धांत  मानती हो। इसकी शुरूआत इस तथ्य को मान्यता देकर ही की जा सकती है कि भारतीय समाज में दो चीजें सिरे से अनुपस्थित हैं। इनमें एक हैं - समानता। सामाजिक धरातल पर भारत एक ऐसा समाज है जो श्रेणीबद्ध असमानता पर आधरित है। और आर्थिक धरातल पर हमारे समाज की हकीकत यह है कि इसमें एक तरफ कुछ लोगों के पास अकूत संपदा है, दूसरी ओर बहुतेरे लोग निपट भुखमरी में जी रहे हैं।’’ बाबा साहेब की संविधान सभा में कही गई बातें आज भी प्रासंगिक हैं।

सरकारी संस्थानों का निजीकरण

दलितों, आदिवासियों, अन्य पिछड़ा वर्गों और अल्पसंख्यकों को आरक्षण के आधर पर सरकारी नौकरियां मिल जाती थीं। वह भी अब सरकार छीनने जा रही है। सरकार सरकारी संस्थानों के निजीकरण में लगी है। एयरपोर्ट, रेलवे, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं सभी का निजीकरण किया जा रहा है। हवाई अड्डों पर तो अडानी के बोर्ड भी नजर आने लगे हैं। देश के संसाधनों  को बेचा जा रहा हैं। निजीकरण के नाम पर लूट हो रही हे। देश से सरकारी रोजगार के अवसर समाप्त किए जा रहे हैं।

आम आदमी जिस रेलवे से अपनी कमाई वाले स्थान से अपने जन्मस्थान तक रेलवे से सफर करता था, निजी हाथों में आने से उनका किराया महंगा हो जाएगा। दूसरी ओर निजीक्षेत्र  में आरक्षण अलग ही मुद्दा है। इसके लिए बहुजन वर्षों से संघर्ष कर रहे हैं पर अभी तक सफलता नहीं मिली। कोई भी निजी कंपनी अपने क्षेत्र में आरक्षण लागू करना नहीं चाहती। शिक्षा का भी निजीकरण किया जा रहा है। मेडिकल कॉलेज को निजी हाथों में सौंपा जा रहा है। इस कारण मेडिकल कॉलेज की फीस पचास लाख रुपये तक की जा रही है। जाहिर है ऐसे में गरीब बहुजन अपने बच्चों को इतनी महंगी शिक्षा नहीं दिलवा पाएगा। और परिणाम यह होगा कि आज दलित आदिवासी, पिछड़े वर्ग, अल्पसंख्यक वर्ग से कुछ लोग प्रोफेसर, डॉक्टर, इंजीनियर, आईएएस, आईपीएस और आईआरएस बन रहे थे, वे नहीं बन पाएंगे। सरकारी अस्पतालों का निजीकरण होने से इलाज महंगा हो जाएगा और आम लोगों स्वास्थ्य सेवा चिकित्सा से वंचित रह जाएंगे। ऐसे में धीरे-धीरे संविधान खत्म हो जाएगा और मनुविधान  लागू हो जाएगा।

बहुत ज़रूरी है संविधान को बचाए रखना

संविधान के प्रति निष्ठा रखना बहुत जरूरी है। पर आज के दौर में सरकार द्वारा सब जगह भगवाकरण किया जा रहा है। हालत यह है कि संविधान की किताब पर भी रामायण और महाभारत तथा हिंदू देवी-देवताओं के चित्र उकेरे जा रहे हैं। संविधान के अनुसार हमारा देश कल्याणकारी राज्य है। पर आज इसकी मूलभावना को आहिस्ता-आहिस्ता समाप्त किया जा रहा है। देश के प्रगतिशील सामाजिक कार्यकर्ताओं को देशद्रोह का इल्जाम लगाकर जेल में डाला जा रहा है। आरक्षण समाप्त किया जा रहा है। आरक्षण का प्रावधान  दलित आदिवासी अन्य पिछड़़े वर्ग के प्रतिनिधत्व के लिए किया गया था पर अब उसे आर्थिक स्थिति से जोड़कर 10 प्रतिशत सवर्णों को भी दे दिया गया। यदि आरक्षण खत्म हो गया तो दलित, आदिवासी, बहुजन अल्पसंख्यक फिर पीछे चले जाएंगे। आज सामाजिक न्याय की बहुजनों की उम्मीद भी खत्म हो रही है। देश का सर्वोच्च न्यायालय से भी क्या उम्मीद की जाए। वह भी आजकल भाजपा सरकार का संवाहक बन गया है। हर जगह भगवा रंग चढ़ रहा है।

ऐसे में मनुविधान को रोकना जरूरी है। संविधान को बचाने के लिए जनजागृति जरूरी है। चेतना जरूरी है। क्योंकि संविधान बचेगा तभी बहुजन और इस देश के आम नागरिक अपने जीवन में आगे बढ़ सकेंगे। यदि मनुविधान लागू हुआ तो हम फिर पीछे ढकेल दिए जाएंगे। इसलिए हर राज्य में, हर प्रदेश में, हर जिले में, हर गांव व शहर में संविधान को बचाने के लिए आवाज उठनी चाहिए। क्योकि संविधान बचेगा तो हम बचेंगे। हमारे रोजगार बचेंगे। हमारी मानवीय गरिमा बचेगी। 

(लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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