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कलरिज़्म के विरोध में उठी है सशक्त आवाज़

क्या हम समझते पाते हैं कि किसी खास रंग को लेकर हमारी पसंद के पीछे कौन से कारक काम करते हैं? गोरेपन की पसंद या गोरेपन के लिए बायस एक दिन में नहीं पैदा हुआ है। जिसे हम ‘कलरिज़्म’ (Colorism) कहते हैं वह एक किस्म का भेदभाव है जिसके तहत गोरी त्वचा वाले लोगों को सांवले या काली त्वचा वालों से हर मामले में बेहतर माना जाता है और अधिक तवज्जो दिया जाता है।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : asiaexpertsforum

त्वचा के रंग को सौंदर्य का मापदंड नहीं बनाया जा सकता- यह बहस अब काफी समय तक चलने वाली है, ऐसा लगता है। हाल ही में तापसी पन्नु ने जयपुर में आयोजित एक कार्यक्रम का बहिष्कार कर दिया क्योंकि आयोजक एक फेयरनेस (गोरेपन) के क्रीम के निर्माता थे। तापसी को ‘सिनेमा में महिलाएं और उनकी बदलती भूमिका’ विषय पर बोलने के लिए आमंत्रित किया गया था। तापसी ने कहा कि कार्यक्रम में उपस्थित न हो पाने का उन्हें अफ़सोस जरूर है, पर वह व्यक्तिगत रूप से किसी भी प्रकार के भेदभाव की विरोधी हैं। तापसी ने आगे कहा, ‘‘हमें यह साफ समझ लेना होगा कि कोई भी बॉडी साइज़ या रंग आदर्श नहीं है और कोई भी हर समय परफेक्ट नहीं दिख सकता। बल्कि, लोग सौंदर्य की एक काल्पनिक व आदर्श अवधारणा के पीछे भागते रहते हैं। लोगों को अपनी त्वचा को लेकर संतुष्ट रहना चाहिये पर मीडिया उनपर दबाव डालती है कि वे अपने अलावा सबकुछ दिखें। मैं अपनी देह और त्वचा का सम्मान करती हूं।’’

यह बहस 2020 में ही शुरू नहीं हुई, बल्कि 2009 में एक हिमायती संस्था ‘विमेन ऑफ वर्थ’ ने ‘‘डार्क इज़ ब्यूटिफुल’’ अभियान चलाया था। इस अभियान में फिल्म जगत की जानी-मानी हस्ती, नन्दिता दास ने 2013 में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। संस्था की संस्थापिका कविता इमैनुएल ने जब देखा कि सभी सौंदर्य प्रतियोगिताओं में गोरी लड़कियों को वरीयता दी जा रही है तो वह बोलीं, ‘‘मुझे आश्चर्य नहीं हो रहा कि चयन गोरी लड़कियों का ही हो रहा है क्योंकि हम ऐसे देश में प्रतियोगिता कर रहे हैं जहां किसी लड़की को उसके बाह्य रूप और त्वचा के रंग के आधार पर परखा जाता है। यह एक विकृति है जिसकी जड़ें बहुत गहरी हैं।’’

कविता का मानना है कि ढेर सारे ऐसे मंच महिलाओं के लिए उपलब्ध होने चाहिये जहां उन्हें उनकी काबिलियत, और उनके भीतर छिपी असीम संभावनाओं व उनकी उपलब्धियों के आधार पर जांचा जाए न कि उसे सुन्दरता के किसी बने-बनाए फॉरमैट में फिट किया जाए।’’

हम याद करें कि मिस वर्ल्ड और मिस यूनिवर्स प्रतियोगिताओं के लिए जिन महिलाओं को फेमिना मिस इंडिया टाइट्ल के प्रतियोगियों में से चुना जाता वे हमेशा गोरी त्वचा वाली होतीं। इसकी लगातार आलोचना होती रही। पर इन बातों और बहसों को एक पूरा दशक हो गया, फिर भी गोरेपन को लेकर हमारे देश में जो सनक है, वह जाती नहीं। हम सोचने पर मजबूर हैं कि आखिर, केवल भारत में फेयर ऐण्ड लवली क्रीम की सालाना कमाई 4100 करोड़ रुपये कैसे है? सभी फेयरनेस कॉस्मेटिक्स को ले लें तो इनकी कमाई सालाना 270 अरब रुपये हैं। फेस केयर श्रेणी में फेयर ऐण्ड लवली का हिस्सा 40 प्रतिशत है। तब, क्या हिंदुस्तान यूनिलीवर जैसी कम्पनियां इतने बड़े मुनाफे को कुछ महिला संगठनों के अभियान के चलते हाथ से जाने देंगी? और, क्या खूबसूरती के नए मापदंडों को आम लोग स्वीकार करेंगे?

हिन्दुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड कम्पनी, जो सौंदर्य प्रसाधनों की प्रमुख निर्माता है, ने अपने एक उत्पाद ‘फेयर ऐण्ड लवली’ के नाम को बदलकर ‘ग्लो ऐण्ड लवली’ रखने की सार्वजनिक घोषणा कर दी। जब अमेरिका में जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या के बाद हैशटैग ब्लैकलाइव्ज़मैटर नाम से विश्वव्यापी अभियान चला और रंगभेद के विरुद्ध बढ़ी चेतना की वजह से महिला संगठनों और व्यक्तियों ने फेयरनेस क्रीम्ज़ का विरोध करना आरंभ किया तभी यह संभव हो सका। अब कम्पनी अपने को अधिक इंक्लूसिव, यानी समावेशी बनाने की बात कर रही है। इससे पहले जॉनसन ऐण्ड जॉनसन, इमामी और लॉ’रियल ने भी अपने फेयरनेस प्रॉडक्ट्स वापस लिए थे। अब देखना यह है कि विरोध के बढ़ते स्वर के मद्देनज़र यह क्या एक अभियान का रूप लेता है, और क्या ऐसे में लोगों की मानसिकता में कोई परिवर्तन आता है?

फिर सवाल उठता है कि घोड़ा पहले आता है या गाड़ी, यानी गोरेपन के पीछे सनक की वजह से बाज़ार में फेयरनेस क्रीम आए हैं या कि इन प्रसाधनों ने लोगों के मन में गोरेपन का फितूर पैदा कर दिया है? और, क्या गोरेपन को लेकर ऑबसेशन हमारे देश की जाति-व्यवस्था से जुड़ा हुआ सवाल नहीं है? फिल्मकार शेखर कपूर ने प्रश्न किया है कि क्या ‘ग्लो ऐण्ड लवली’ क्रीम के डिब्बे पर एक सांवली या काली महिला की तस्वीर होगी? यदि नहीं, तो बात जहां-के-तहां रहेगी। लेखक प्रीतिश नन्दी ने भी कहा है कि प्रॉडक्ट का नाम बदल देने से लोगों की मानसिकता नहीं बदलेगी। यहां तक कि देखा गया है कि दक्षिण भारत में भी सांवले पुरुष हीरो के साथ गोरी महिलाओं को ही रोल दिये जाते हैं। तमिल फिल्मों को देखें तो उनमें राज्य की महिला अदाकाराओं को न के बराबर लिया जाता है। बल्कि राज्य से बाहर की गोरी महिला अदाकाराओं को ही रोल मिलते हैं, जैसे खुश्बू, तमन्ना, काजल अग्रवाल, हंसिका और तापसी पन्नू। उत्तर भारत में भी महिला अदाकाराएं गोरी ही पसंद की जाती है।

यद्यपि नंदिता दास, बिपाशा बसु, कंगना रनावत और ऋचा चड्ढा जैसी बॉलीवुड की कुछ सांवली अदाकाराओं ने हिंदुस्तान यूनिलीवर कम्पनी के निर्णय का स्वागत किया है और आशा जताई है कि इस पहल से सोच बदलने की दिशा में हम एक कदम आगे बढ़ेंगे, ऐक्टर अभय देओल ने इसे एक छोटा सा कदम बताया और यह भी कहा कि जिन लोगों ने विश्व व्यापी आंदोलन ब्लैक लाइव्ज़ मैटर के बाद हमारे देश में एक सांस्कृतिक परिवर्तन के लिए आवाज़ बुलंद की, यह उन्हीं की जीत है। अभय को आश्चर्य होता है कि फिल्म जगत की बड़े नाम, जैसे दीपिका पादुकोण, शाहरुख खान, प्रीति ज़िंटा, सोनम कपूर, कटरीना कैफ, शाहिद कपूर, जॉन अब्राहम और यामी गौतम ने समय-समय पर फेयरनेस यानी गोरापन बढ़ाने वाले उत्पादों का विज्ञापन किया है, और उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं है कि वे समाज को क्या संदेश दे रहे हैं।

क्या हम समझते पाते हैं कि किसी खास रंग को लेकर हमारी पसंद के पीछे कौन से कारक काम करते हैं? गोरेपन की पसंद या गोरेपन के लिए बायस एक दिन में नहीं पैदा हुआ है। जिसे हम ‘कलरिज़्म’ कहते हैं वह एक किस्म का भेदभाव है जिसके तहत गोरी त्वचा वाले लोगों को सांवले या काली त्वचा वालों से हर मामले में बेहतर माना जाता है और अधिक तवज्जो दिया जाता है। कलरिज़्म और रेसिज़्म या नस्लवाद एक ही बात नहीं है, पर रंगभेद और नस्लवाद भी कलरिज़्म का उपयोग करते है, इसलिए इसके विरुद्ध सांस्कृतिक आंदोलन जरूरी है। गोरी त्वचा को सौंदर्य से जोड़ना एक सामाजिक निर्माण या सोशल कन्स्ट्रक्ट है जिसकी सांस्कृतिक जड़ें गहरी हैं। और उसकी वजह से खासकर महिलाओं को बहुत किस्म के भेदभावपूर्ण व्यवहार का सामना करना पड़ता है। मसलन रोज़गार के क्षेत्र में गोरेपन को वरीयता मिलती है।

कुछ काम तो ऐसे हैं, जहां त्वचा के रंग का विशेष महत्व हो जाता है, जैसे फिल्म जगत में, विज्ञापन के क्षेत्र में, रिसेप्शनिस्ट या पब्लिक रिलेशन्स के काम में, मॉडलिंग, नृत्य अथवा मनोरंजन उद्योग में आदि। बिपाशा बसु कहती हैं कि उनको बचपन से ‘डस्की गर्ल’ यानी सांवली लड़की की उपाधि मिल गई थी और यही उनकी पहचान बन गई है। स्मिता पाटिल को भी सांवली महिला के रूप में तभी प्रस्तुत किया जाता था जब वह ग्रामीण औरत या झुग्गियों में रहने वाली महिला का किरदार निभाती थीं पर जब भी उन्हें मध्यम वर्गीय महिला का रोल दिया जाता, उनको गोरा बनाने के लिए ढेर सारे प्रसाधनों का इस्तेमाल कराया जाता। इसी बात की पुष्टी नंदिता दास ने भी की है। गोरी महिला अदाकाराओं को अपने रोल के लिए पैसा भी अधिक दिया जाता है।

पर विश्व में कई शोध हुए हैं, जिनसे पता चलता है कि काली या सांवली त्वचा के अलावा उसके साथ जुड़ी कई और शारीरिक विशेषताएं हैं जिनके आधार पर नस्लवाद का विचार चलता है। भारत में भी यह विचार जातिवाद और नस्लवाद का आधार बनता रहा है। दक्षिण भारतीय लोगों, आदिवासियों व दलितों को ऐतिहासिक रूप से आर्यों से अलग और निम्न माना जाता है। उनके घुंगराले बाल, उनकी मोटी और बड़ी नाक और काला रंग उनके लिए अभिशाप बन जाते हैं। उत्तरपूर्व के लोगों को उनकी पतली आखों और चपटी नाक की वजह से चिह्नित कर हिंसा का शिकार बनाया गया और उनके खान-पान व सामुदायिक रहन-सहन को लेकर दूसरों द्वारा आपत्ति दर्ज की जाती रही।

अफ्रीकी लोगों को ड्रग्स की बिक्री, चोरी और वेश्यावृत्ति से जोड़कर देखा जाता है और आज भी उनको ‘हब्शी’  कहकर पुकारा/अपमानित किया जाता है। ओन्टारियो, कनाडा में रहने वाली एक नाइजीरियन महिला ने कहा कि दुकानों में भी उन्हें शक की नज़र से देखा जाता है, मानो वे कोई सामान उठाने आई हों। इस सोच को बदलना आसान नहीं है, और ब्यूटी इंडस्ट्री इसी पर पनपती है- बाल सीधे कराना, कॉस्मेटिक सर्जरी करना, त्वचा को ब्लीच करना और होंठों के आकार को बदलना, आदि। पर भारत में अभियान की शुरुआत ‘कलरिज़्म’ के विरोध से हुई है, यह स्वागतयोग्य बात है।

जिस तरह अमेरिका में फ्लॉयड की हत्या के बाद श्वेत लोगों के एक बड़े हिस्से ने रंगभेद विरोधी आन्दोलन का समर्थन किया, शायद अब हमारे देश में भी जातिवादी रंगभेद के विरुद्ध नई पीढ़ी के लोग सजग हों। कम से कम बॉलीवुड में एक वैचारिक मंथन दिखाई पड़ा है और बहुत सारे सेलिब्रिटीज़ भी आज आवाज़ बुलंद कर रहे हैं। बॉडी साइज़ और त्वचा के रंग को लेकर भेदभाव तब खत्म होगा जब इन प्रश्नों पर स्वस्थ बहस चलेगी और फेयरनेस प्रॉडक्ट्स या बार्बी डॉल फिगर के विज्ञापनों को समर्थक नहीं मिलेंगे। अब जब रणवीर कपूर, कंगना रनावत, अनुष्का शर्मा, साई पल्लवी, कोएल कोकेलिन, स्वरा भास्कर, रणदीप हुडा और (दिवंगत) सुशांत सिंह राजपूत ने करोड़ों के विज्ञापनों के ऑफर ठुकरा दिये हैं, इस बहस को काफी बल मिला है।    

(कुमुदिनी पति एक महिला एक्टिविस्ट हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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