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वोट बैंक की पॉलिटिक्स से हल नहीं होगी पराली की समस्या

अगर सरकार वोट बैंक की बजाए जनकल्याण से संचालित होती तो पराली की समस्या से निजात मिल जाता
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फ़ोटो साभार: सोशल मीडिया

पैसे के दम पर चुनाव जीतने वाली मौजूदा दौर की सरकारों के कामकाज को बड़े ध्यान से देखा जाए तो पता चलेगा कि ऐसी सरकारें समाज में किसी तरह की रचनात्मक बदलाव नहीं करती हैं। सारी योजनाएं पैसे और डिजिटल दुनिया तक ही सीमित होती हैं। सबसे गरीब लोगों की जेब में मामूली पैसा पहुंचा देती हैं। जो नरक की जिंदगी जी रहे होते हैं उन्हें अनाज बांट देती है। इसके अलावा सरकार द्वारा लोगों की जिंदगी में कोई भी ऐसा बड़ा रचनात्मक बदलाव नहीं दिखेगा जहां पर लोग एक दूसरे का हाथ पकड़ कर खुद को संभाले और आगे बढ़ते रहें। 

दिल्ली के वायु प्रदूषण की परेशानी के साथ यही सबसे बड़ी समस्या है कि इस परेशानी का हल सबके योगदान के बिना संभव नहीं है। केंद्र से लेकर राज्य सरकार समेत प्रशासन, नागरिक सबके योगदान के बिना दिल्ली के वायु प्रदूषण की परेशानी से छुटकारा पाना नामुमकिन है। इन सभी घटकों को एक दूसरे में पिरोकर आगे बढ़ाने का काम सरकारों को करना होता है। लेकिन मौजूदा दौर में भाजपा की केंद्र सरकार की प्रकृति में ऐसा कुछ भी नहीं है कि वह इस तरह की किसी परेशानी का हल निकाल पाए।

चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया जस्टिस रमन्ना ने कहा कि कार्यपालिका को एक तरह की अदालत के पीछे छिपने की आदत लग गई है। अपने आदेश सुनाने से पहले वह अदालत का इंतजार करती है। वह चाहती है कि अदालत गाड़ी रुकवाने से लेकर आग से बचाने और पानी छिड़काव करने तक का काम करें।

जस्टिस सूर्यकांत ने कहा कि दिल्ली के पांच सितारा और सात सितारा होटलों में बैठ कर पराली की परेशानी के लिए केवल किसानों को दोष नहीं दिया जा सकता। उन्हें दोष देना बिल्कुल गलत है। सारी जिम्मेदारी केवल किसानों पर नहीं थोपी जा सकती है। किसानों की दुर्दशा समझना जरूरी है।

जब सरकार की तरफ से अगुआई कर रहे सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि 21 नवंबर के बाद वायु प्रदूषण की स्थिति ठीक हो जाएगी तो जस्टिस सूर्यकांत ने पलटकर कहा कि आप यह कह रहे हैं कि 21 नवंबर के बाद प्रकृति हमें बचा लेगी। 

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि दिल्ली में पूरी तरह से लॉकडाउन लगाना चाहिए या नहीं? इसके बारे में 21 नवंबर के बाद विचार किया जाएगा। लेकिन सरकार 365 दिन क्या करती है? कारखानों और उद्योग धंधों से निकलने वाले प्रदूषण को संभालने के लिए 365 दिन में क्या किया जाता है? आखिरकार 365 दिन जो प्रदूषण का कारण बनते हैं उनकी रोकथाम करने के लिए सरकार ने क्या काम किया है? पराली तो महज सीजनल समस्या है।

सुप्रीम कोर्ट में टीवी डिबेट का भी प्रसंग उठा। तुषार मेहता ने कहा कि उनके द्वारा पेश किए गए पराली से होने वाले वायु प्रदूषण के आंकड़ों को तोड़ मरोड़ कर टीवी मीडिया में पेश किया जा रहा है। इस पर चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया ने टीवी डिबेट के बारे में ऐसी बात कही जो मौजूदा दौर में हर टीवी डिबेट पर लागू होती है। तुषार मेहता की टीवी डिबेट का जिक्र छोड़ कर उनकी सफाई देने के ढंग पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि "अगर आप कुछ मुद्दों का इस्तेमाल करना चाहते हैं, चाहते हैं कि हम टिप्पणी करें और फिर इसे विवादास्पद बनाएं तो केवल आरोप-प्रत्यारोप ही चलता रहेगा. बाकी चीज़ों से कहीं ज्यादा टीवी में होने वाला डिबेट प्रदूषण फैला रहा है. हर किसी का अपना एजेंडा है और वे कुछ नहीं समझते हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बात परसेंटेज की नहीं है। बात इसकी नहीं है कि वायु प्रदूषण के लिए पराली का जलना 5% जिम्मेदार है या 10%।  महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकार ने पराली जलाने से रोकने के लिए क्या कदम उठाया है? किसानों को कैसा प्रोत्साहन दिया है कि पराली वायु प्रदूषण की रोकथाम का कारण ना बने? हम केवल किसानों को दंड नहीं दे सकते हैं। किसानों के पास पैसा नहीं है। सरकारों को उन्हें मनाने की कोशिश करनी चाहिए। क्या सरकार कभी यह भी कहने के लिए तैयार हो पाएगी कि दिवाली के वक्त 10 से 15 दिन तक चले पटाखों की वजह से हवाएं जहर बन जाती हैं?

दिल्ली सरकार की तरफ से कहा गया कि वायु प्रदूषण को रोकने के दिल्ली सरकार ने तकरीबन 90% वह सारे प्रबंधन किए हैं, जो दिल्ली सरकार से करने के लिए कहा गया। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि दिल्ली की सड़कों से उठने वाली धूल को रोकने के लिए जिन मशीनों की जरूरत होती है वह तो दिल्ली के पास महज 69 की संख्या में उपलब्ध है? इस पर ढंग का जवाब देने की बजाय दिल्ली सरकार इधर उधर का बहाना बनाने लगी। इस तरह हरियाणा ने भी कहा कि वायु प्रदूषण को रोकने के लिए 90% वह उपाय अपनाए हैं जिसे उसे अपनाने के लिए कहा गया था। पंजाब की तरफ से कहा गया कि उसने पंजाब के खेतों में हजारों लोगों की टीम भेजी हैं जो किसानों को समझाएं कि पराली क्यों नहीं जलाना चाहिए? सबकी तरफ से टालमटोल होता रहा। 

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हर साल अक्टूबर-नवंबर के महीने में इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट में हर साल सुनवाई होती है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों का कोई असर नहीं होता है। सब जस का तस रह जाता है। सुप्रीम कोर्ट का समय बर्बाद होता है। इस मुद्दे पर अगली सुनवाई 24 नवंबर को होनी है।

सरकार की तरफ से पेश की गई सारी दलीलों का क्या मतलब है? सुप्रीम कोर्ट की तकलीफ भरी टिप्पणी का क्या मतलब है? वायु प्रदूषण की समस्या जहर बनती जा रही है। लेकिन सरकार इसका हल नहीं कर पा रही है। सरकार इसलिए हल नहीं कर पा रही है क्योंकि वायु प्रदूषण चुनावी मुद्दा नहीं है। वायु प्रदूषण के आधार पर वोट कम नहीं होते हैं। इसलिए वायु प्रदूषण की परेशानी जस की तस बनी हुई है। या यह कह लीजिए कि पहले से भी गंभीर हो चुकी है। 

विशेषज्ञों की मानें तो दिल्ली की हवा को जहर बनाने में ढेर सारे कारण जिम्मेदार होते हैं। लेकिन अक्टूबर-नवंबर महीने में पंजाब और हरियाणा के इलाके से पराली के जलने से हवाओं का मिजाज बहुत अधिक बदल जाता है। इस बार के सफर (SAFAR) के आंकड़े बता रहे हैं कि अक्टूबर 24 तक दिल्ली की हवाओं में पीएम 2.5 का कंसंट्रेशन तकरीबन 2 प्रतिशत था। नवंबर 7 को इसका कंसंट्रेशन बढ़कर 48 फ़ीसदी हो गया। अक्टूबर-नवंबर में उत्तर पश्चिम की तरफ से धीमी गति से हवाएं पूरब की तरफ चलती हैं। वातावरण का तापमान कम होता है। इसलिए पराली के जलने की वजह से जो प्रदूषक तत्व बाहर निकलते हैं वह पंजाब से लेकर दिल्ली तक परेशानी का कारण बन जाते हैं। इससे बचना इतना आसान नहीं कि आधार संख्या के जरिए लोगों की पहचान की गई और उनके खाते में पैसा डाल दिया गया। अपनी जिम्मेदारी से पिंड छूटा लिया गया।।

इसे भी देखें: मनरेगा रोकेगा पराली से होने वाला प्रदूषण?

इसके लिए सबका साथ आना जरूरी है। दिल्ली सरकार से लेकर केंद्र सरकार पंजाब सरकार से लेकर हरियाणा सरकार और नागरिक समाज सबका एक साथ मिलकर काम करना जरूरी है। केंद्र सरकार को यह समझना पड़ेगा कि धान की कटनी के बाद किसान अपनी मर्जी से खेतों में पराली नहीं छोड़ता है। यह मशीनों की दिक्कत है कि खेतों में धान की कटाई के बाद भी धान के जड़ का डंठल रह जाता है। अगर 10-15 दिन के भीतर किसान ने उसे हटाया नहीं तो वह रबी की फसल लगाने से चूक जाएगा। ऐसे में मामूली आमदनी पर जीने वाले किसानों के जेब में जब तक पैसा नहीं रहेगा तब तक वैसे कदम नहीं उठाएंगे जो पराली के निपटान से जुड़ा हो। जब पैसा रहेगा तभी किसान मजदूर लगाकर पराली को हटाएंगे। नहीं तो अंत में उन्हें पराली जलाना ही पड़ेगा। 

ऐसे ही कई छोर पर ढेर सारे उपाय हैं जिनकी मदद से पराली जलाने की परेशानी से पिंड छुड़ाया जा सकता है। कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा कहते हैं कि मशीनें ऐसी बननी चाहिए कि वह बड़े बड़े डंठल ना छोड़े। अब तक यह परेशानी पूंजीपति वर्ग की होती तो रात-दिन एक करके इसे हल कर लिया गया होता। वरिष्ठ पत्रकार औनिंद्यो चक्रवर्ती कहते हैं कि मनरेगा के मजदूरों को काम नहीं मिल रहा है उनको पराली वाले खेतों में लगाया जा सकता है। उन्हें काम भी मिल जाएगा, पैसा भी मिल जाएगा और पराली की परेशानी भी खत्म होगी। 

सरकारों के साथ पंजाब और हरियाणा के किसानों को समझना पड़ेगा कि उन्हें पराली से निजात पाना क्यों जरूरी है? पंजाब और हरियाणा के किसानों को ढंग से समझाने के लिए पंजाब हरियाणा दिल्ली और केंद्र सरकार को प्रतियोगी राजनीति करने की बजाय साझे वाली राजनीति करनी पड़ेगी। यह सारे काम दिखने में तो बहुत आसान हैं। अगर भली नीयत से कदम उठाया जाए तो इसे पूरा भी किया जा सकता है। लेकिन मौजूदा दौर की राजनीति में इसी बात की सबसे बड़ी कमी है कि उसके पास भली नियत नहीं है। भली नीयत उसके दिल दिमाग से गायब है। उसे केवल सत्ता चाहिए। वोट चाहिए। इसके बदले उसे रचनात्मक काम करना ना आता है ना वह करना चाहती है। अगर ऐसा ना हुआ तो वायु प्रदूषण क्या भारत की कोई भी बड़ी परेशानी ठीक नहीं होगी।

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