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मैं जेल में हूँ...मेरे झोले में है एक किताब 'हमारा संविधान'

'इतवार की कविता' में पढ़ते हैं मनीषा की एक नई कविता जो उन्होंने इस वक्त CAA-NRC के विरोध में चल रहे देशव्यापी आंदोलन से प्रभावित होकर लिखी है। इसमें आपको वे तमाम छवियां मिलेंगी जो इस समय इस आंदोलन की वजह से जेल में हैं। ये मर्मस्पर्शी कविता हमको सत्ता के दमन, उसकी चालाकियों और आने वाले ख़तरों से भी आगाह करती है।
 Activist Ekta and Ravishekhar
वाराणसी के एक्टिविस्ट एकता और रविशेखर। CAA के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने के आरोप में दोनों को 19 दिसंबर को गिरफ़्तार किया गया, जिसके बाद से वे जेल में हैं। इनके पीछे इनकी 14 माह की बेटी चंपक का बुरा हाल है। फोटो साभार : दैनिक भास्कर

मैं जेल में हूँ…


मैं जेल में हूँ
मेरी दुधमुँही बच्ची दूध के बिना
कमज़ोर पड़ रही है
मैं इस देश के संविधान की रक्षा के लिए
संवैधानिक तरीके से प्रदर्शन कर रही थी
मैं जेल में हूँ

 

मैं जेल में हूँ जहाँ
मेरे साथ मेरी माँ और पिता हैं
मैैं जेल में हूँ क्योंकि मेरे पिता के पास उनके पिता के काग़ज़ात नहीं हैं
माँ का तो ख़ैर कोई घर ही नहीं है

 

मैं जेल में हूँ,
मुझे हर रोज़ एक आदमी खाना देने आता है
ये वही है जिसने चुपके से मुझे मेरा झोला लौटा दिया था
मेरे झोले में है एक शाॅल
मेरे बच्चों के बचपन के दो कपड़े
और एक किताब 'हमारा संविधान '
वो रोज़ मुझे उदास आँखों से देखता है
कहता कुछ नहीं बस खाना देता है
और देख कर चला जाता है

 

किसी ने कहा हमें छोड़ दिया जाएगा
पर कहाँ? नहीं पता

 

खाना देने वाला आज दोबारा आया है
उसने ताला खोल कर हमें निकाला है
साथ ले जा रहा है कहाँ नहीं पता
उसकी आँखें इतनी उदास हैं कि
कुछ भी पूछ पाना मुश्किल है


वह हमें ले जाता है समुद्र के किनारे
बैठा देता है एक नाव में
आँखों से कह देता है विदा
मैं महसूस करती हूँ मेरा झोला मेरे पास नहीं है

 

मैं ज़ोर से उसे आवाज़ देती हूँ
दोस्त! मेरा झोला रह गया
वह भी पहली बार कहता है
अब नहीं दे पाऊँगा

 

नाव चल देती है
कुछ दूर जाने के बाद समंदर से पानी
कम होने लगता है नाव गहराई की ओर चल पड़ती है
लगा जैसे मुक्त हुए इस जीवन से
पर नाव कहीं जाकर पलट जाती है
हम जहाँ खड़े हुए वहाँ हर तरफ़ सलाखें थीं
सीलन थी सर्दी थी
माँ थी जो बहुत घबराती थी, पिता थे जो
जाने कितना बर्दाश्त कर जाते थे
मैने पिता से कहा मैं आप लोगों को यहाँ नहीं देख पाऊँगी

 

वे लोग बड़े शातिर थे जाने कैसे जान लेते थे
लोगों की ख्वाहिशें और ज़रूरतें
वो उन्हें वही दिखा कर देते थे यातना
जैसे भूखे को रोटी दिखा कर यहाँ लाया गया
प्यासे को दिखाया पानी
बेरोज़गार को रोज़गार
बच्चों को मुफ़्त पढ़ाई
बीमार को सस्ती दवाई
गुलाम को रिहाई

 

आज सब हैं यातना गृह में
नहीं हैं अब नागरिक
उनके मुताबिक
यहाँ नहीं है मेरा झोला
जिसमें है संविधान की
किताब
बस बची है लड़ाई
संविधान की झूठी शपथ लेने वालों से
स्वप्न में आते यातनागृह
जगाते हैं डरा कर
आँखें भीगी होती हैं
दिल बहुत भारी
जेल में भी रहेगा
ये संघर्ष जारी ।

 

(मनीषा एक कवि के साथ-साथ एक योग इंन्सट्रक्टर भी हैं)

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