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निगरानी, डाटा साम्राज्यवाद और इंसान से बाद की दुनिया में परिवर्तन

वैश्विक और आभासी दुनिया में, डाटा साम्राज्यवाद की एक नई व्यवस्था आकार ले रही है।
Surveillance, Data Imperialism

आज लोग डाटा के उत्पादनकर्ता, उपभोक्ता और उपयोगकर्ता हैं। इससे किसी वस्तु की तरह डाटा से व्यवहार को लेकर कानून और तकनीकी अध्ययन में चिंताएं बढ़ गई हैं। यह चिंताएं, डाटा पर मालिकाना हक वाली कंपनियों द्वारा राज्य की तरह व्यवहार करने से ज़्यादा बढ़ी हैं। लेखक यहां इस बात पर विमर्श करेगा कि कैसे डाटा के क्षेत्र में काम करने वाली औद्योगिक कंपनियां और राज्य नागरिकों को ''विषय" से ''वस्तु'' की तरह बदल रहे हैं और इस पूरी प्रक्रिया में कानून की क्या भूमिका है।

इस वैश्विक और आभासी दुनिया में, डाटा साम्राज्यवाद की एक नई दुनिया आकार ले रही है।

श्रीकृष्णा आयोग ने बताया था कि यूरोपीय संघ में डाटा प्रवाह के नाम पर कंपनियों के हितों को आगे रखा जाता है, जबकि जिन नागरिकों का यह डाटा है, उन्हें दोयम दर्जा दिया जाता है। इसलिए संबंधित शख्स को वहां 'डाटा सब्जेक्ट या विषय' कहा जाता है। जबकि श्रीकृष्णा आयोग ने इसके लिए 'डाटा प्रिंसपल' नाम दिया था। डाटा प्रिंसपल का अर्थ आभासी नागरिक के बराबर था।

दुनिया की एक तिहाई आबादी फेसबुक पर है। कंपनी के पास करीब़ 2.6 बिलियन आभासी आबादी है। खुद के सुप्रीम कोर्ट चलाने वाली  इस तरह की कंपनियां किसी संप्रभु राज्य की तरह व्यवहार करती हैं।

इसमें कोई साजिश जैसी अवधारणा नहीं बची है कि हम सभी अब एक 'डीप स्टेट' का हिस्सा हैं। यह एक चरमपंथी राज्य होता है, जहां एक-दूसरे से जुड़े राष्ट्र-राज्यों पर साम्राज्यवाद थोपा जाता है। एक साम्राज्यवादी ताकत, जिसे मौलिक अधिकारों की कोई परवाह नहीं होती, वह केवल डाटा के कुलीनतंत्र द्वारा संचालित होती है। यह एक ''कॉरपोरेशन स्टेट'' होता है। हमें कभी-कभार ही ऐसा मौका मिलता है, जब हम इसकी सेवाएं लेने से इंकार कर सकते हैं। जैसा सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ''केवल बहुत ज़्यादा वचनबद्ध या एकांतवासी ही बिना फोन, बिना बैंक अकाउंट और बिना मेल के रह सकते हैं।'' इसलिए यह सवाल उठता है कि क्या हम अब आभासी नागरिक हैं?

''एक कॉरपोरेशन स्टेट। हमें कभी-कभार ही ऐसा मौका मिलता है, जब हम इसकी सेवाएं लेने से इंकार कर सकते हैं।''

दिलचस्प है कि ''डाटा सब्जेक्ट'' से ''डाटा प्रिंसपल'' कर देने से, मात्र शब्दावलियों के बदलाव से, किसी एजेंसी या व्यक्ति को डाटा पर नियंत्रण नहीं मिल जाएगा। पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन बिल, 2019 के सेक्शन 35 में दी गई छूट मौजूदा दौर को खूब बयां करती है।  

डाटा प्रोटेक्शन बिल, 2019 के तहत निगरानी/सर्विलांस

हम एक ऐसे वक़्त में कदम बढ़ा रहे हैं, जब हर किसी की निगरानी रखी जा रही है। सिर्फ़ अपराधियों की निगरानी नहीं होगी, बल्कि हमारे भीतर के अपराधी की भी निगरानी होगी। बिल के सेक्शन 2(20) के मुताबिक, निगरानी या सर्विलांस के डर से भाषण, आवागमन या दूसरी क्रियाओं पर लगाए गए प्रतिबंध नुकसानदेह होंगे। सेक्शन 2(28) के मुताबिक़, ''महत्वपूर्ण नुकसान'' का मतलब है कि ऐसा नुकसान जिससे बहुत ज्यादा बुरा प्रभाव पड़े। 

उदाहरण के लिए, लोगों को पकड़ने और उनके आपराधिक रिकॉर्ड को इकट्ठा करने के लिए ''ऑटोमेटेड फेशियल रिकॉग्निशन सिस्टम (AFRS)'' का इस्तेमाल नागरिकों को ''अहम नुकसान'' पहुंचा सकता है। बिल के मुताबिक़, फेशियल रिकॉग्निशन, जिसके द्वारा संबंधित व्यक्ति को बेहद ''अहम नुकसान'' पहुंचाया जा सकता है, उसके लिए संबंधित व्यक्ति की अनुमति बहुत जरूरी है।

''इसका मतलब यह होगा कि किसी व्यक्ति को कैमरे, ड्रोन या सीसीटीवी से बिना उसकी अनुमति के डिजिटली रिकॉर्ड किया जा सकता है।''

लेकिन सेक्शन 12 (b) संसद या राज्य विधानसभा को ऐसा कानून पारित करने के लिए सक्षम बनाता है, जिसके ज़रिए किसी व्यक्ति के संवेदनशील डाटा के इस्तेमाल या इकट्ठा करने के लिए उसकी अनुमति लेने की जरूरत नहीं होगी। इसका दोहरा असर होगा। पहले उनके निजता के अधिकार को भंग किया जाएगा, उसके बाद उसकी वाक् स्वतंत्रता, आवागमन और निगरानी के विरोध करने के अधिकारों को कई तरीकों से भंग किया जाएगा।

इसका मतलब यह होगा कि किसी व्यक्ति को हाथ में कैमरे, ड्रोन या सीसीटीवी से बिना उसकी अनुमति के डिजिटली रिकॉर्ड किया जा सकता है। उनके भाषण को रोका जा सकता है, उन्हें जेल में बंद किया जा सकता है और उन्हें निगरानी वाले कदमों के खिलाफ़ एकजुट होने से भी रोका जा सकता है। यब सब उस कानून की बदौलत है, जिसके ज़रिए फेशियल रिकॉग्निशन जैसी निगरानी वाली तकनीकों को मान्यता दी जा रही है।

यहां यह देखना दिलचस्प है कि विधेयक ''तार्किक'' निगरानी को नहीं रोकता, क्योंकि ''नुकसान'' को भी ''अतार्किक निगरानी'' के तौर पर परिभाषित किया गया है। बल्कि सेक्शन 14(2)(a) के अंतर्गत ''गैरकानूनी गतिविधियों की रोकथाम और पहचान'' के नाम पर ''वैधानिक निगरानी'' की अनुमति दी गई है। इसलिए जब तक किसी निगरानी को विधानसभा या फिर कोर्ट द्वारा 'तार्किक' बताया जाएगा, तब तक नुकसान की संभावना निगरानी का खात्मा नहीं कर सकती।

''कानून मुश्किल से किसी 'विषय' का 'वस्तुकरण' नियंत्रित ही कर सकता है। साथ में 'राज्य के व्यक्तिकरण' को भी नियंत्रित कर सकता है।'' 

सेक्शन 2(20)(x) के मुताबिक़, 'सर्विलांस या निगरानी' को संबंधित व्यक्ति द्वारा तार्किक तौर पर स्वीकार होना चाहिए। आधार मामले में शामिल एक जज के मुताबिक़, 'फेशियल रिकॉग्निशन निजता के अधिकार का उल्लंघन नहीं करता, इसलिए तार्किक तौर पर सही है।' 

जस्टिस अशोक भूषण के मुताबिक़, फेशियल रिकॉग्निशन पर ''निजता की तार्किक उम्मीद'' का पैमाना जरूरी है। इसलिए इस तकनीक को पुट्टास्वामी मामले में दिए गए त्रिस्तरीय जांच से गुजरना होगा। 

जस्टिस डी वाय चंद्रचूड़ के मुताबिक़, एक तार्किक उम्मीद, 'व्यक्तिगत निजता के अधिकार' और 'सामुदायिक जनव्यवस्था के अधिकार'' के बीच में झूलती है। इसलिए राज्य जनव्यवस्था के नाम पर अपने विषयों की निगरानी कर सकता है, इसलिए राज्य को विधेयक में अपने-आप को छूट देना भी जरूरी नहीं है।

इसलिए कानून मुश्किल से किसी विषय का वस्तुकरण बस नियंत्रित ही कर सकता है। साथ में राज्य के व्यक्तिकरण को भी नियंत्रित कर सकता है। 

मानवीयता और विषय का डाटाकरण

सर्विलांस के बहुत ज़्यादा जटिल संस्थानों और तरीकों के चलते, हमारे पास निगरानी के तरीकों का बड़ा एकत्रीकरण हो गया है। इस कॉरपोरेशन स्टेट के पास हमारे बारे में बहुत सारी जानकारी है। यह जानकारी तब पहुंचती है, जब डाटा का व्यवसायीकरण होता है। इस तरह का ''निगरानीयुक्त एकत्रीकरण'' डाटा दोहराव का निर्माण का करते हैं, जो हमारे व्यक्तित्व का ''डिजिटल जुड़वा'' बनाते हैं। यह हमारा आभासी प्रतिबिंब होता है, जो हमारे डाटा प्वाइंट्स को जोड़कर और हमारे व्यवहार से डाटा निकालकर बनाया जाता है।

यह डाटा जुड़वां हमारे फॉलोवर्स, लाइक्स से अनुमानित होते हैं, इस तरह हमारी डिजिटल छवि बनाते हैं। इस क्रम में आपकी कई डिजिटल छवियां हो सकती हैं। फेसबुक पर एक डिजिटल शख्सियत, ट्विटर पर दूसरी, यूट्यूब पर तीसरी।  लेकिन निकट भविष्य में इन सभी छवियों को एक कर आपकी एक अकेली छवि बनाई जा सकती है। इस तरह हम ''डाटा विषय'' से ''डाटा वस्तु'' बन जाएंगे।

''हमारा डाटा में परिवर्तित होना''

इसके तहत हमें ग्राहक माना जाता है और हमारी ग्राहक प्रोफाइल तैयार की जाती है। इस तरह हमारे सामाजिक संबंध, डाटा संबंधों में बदल जाते हैं। हम डाटा के रूप में उत्पादन करते हैं, हम डाटा में व्यापार करते हैं, मतलब हर चीज डाटा के विनियमन में शामिल होती है। इस तरह हम खुद एक डाटा बन जाते हैं।

जो लोग वापस पहले की दुनिया में आना चाहेंगे, उनके लिए बहुत देर हो चुकी होगी। हम इन सेवाओं का इस्तेमाल तबसे कर रहे हैं, जब हम इनके गलत प्रभावों के बारे में नहीं जानते थे। लेकिन विमर्श के लिए ही सही, क्या हम वापस जा सकते हैं? क्या किसी के पास वास्तव में ''अपने आप को भुला देने का अधिकार'' है? जब लोग वस्तु बन जाएंगे, तो उनके डिजिटल कदमों को साफ़ करने से उन्हें ही भुला दिया जाएगा। यह उनके हित में नहीं होगा।

अगर कोई अब भी अपने डिजिटल कदमों को साफ़ करने की मंशा रखता है, तो सबसे बेहतर स्थिति यही होगी कि उसे अपने डाटा का स्वामित्व प्राप्त हो। इस डाटा का स्वामित्व किसके पास है, कॉरपोरेशन स्टेट या फिर एकल व्यक्ति?

एक जवाब जिसे कई लोगों ने दोहराया है, वह यह है कि डाटा का मालिक कोई नहीं हो सकता। इस समस्या को एक सवाल के ज़रिए समझा जा सकता है। क्या आप माध्यम को तत्व से अलग कर सकते हैं? मतलब तत्व (डाटा) तो आपका है, पर माध्यम उनका है। यह हां या ना, सही या गलत, 0 या 1 का सवाल नहीं है। दरअसल यह दोनों ही अस्तित्व में हैं। कोई एक, दूसरे से आगे नहीं है।

इस तरह विषय, वस्तु में बदल जाता है। कॉरपोरेशन स्टेट इस अपरिहार्य प्रक्रिया के लिए सुविधाएं प्रदान करता है। जहां 'डाटा प्रिंसपल' मॉडल का विचार नया है, जिसमें 'नागरिक केंद्रित' व्यवस्था की वकालत है, पर यह अब प्रासंगिक नहीं है और सिर्फ किसी सपनों की दुनिया में अस्तित्व रखता है, जहां इतिहास अलग तरह से मोड़ा गया है, जिसमें हम सभी पर डाटा कुलीनता का प्रभाव नहीं पड़ता। औपनिवेशिक भावना स्वायत्ता को नकारती है। वह चाहती है कि उस पर कुलीनता शासन करे। वह चाहती है कि उसकी निगरानी हो, लेकिन आराम से। जैसे एस्पोसितो ने कहा, धीरे-धीरे एक व्यक्ति से वस्तु में बदल जाइए, इस तरह आप वक़्त के साथ रह पाएंगे।(लेखक RGNUL पंजाब के कानून के अंतिम वर्ष के छात्र हैं। यह उनके निजी विचार हैं)

इस आलेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Surveillance, Data Imperialism and Transition to a Post Human World

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