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हमें क्यों 'अशांत' कर गया सुशांत?

ऐसे लाखों नौजवान हैं जो सुशांत में अपने को देखते थे। वे समझ रहे थे कि ईमानदारी और मेहनत से किसी भी ऊंचे मुकाम पर पहुंचा जा सकता है। अब वे जानना चाहते हैं कि समाज ने ऐसे एक मेहनती व होनहार नौजवान को क्यों नहीं बचाया?
सुशांत

अब सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या का मामला इतना उलझ चुका है कि समझ में नहीं आ रहा कि इसका पटाक्षेप कैसे होगा। स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि देश के तमाम महत्वपूर्ण मुद्दे पीछे छूटते जा रहे हैं, यहां तक कि महामारी से हो रही हज़ारों मौतें भी गौण हो गई हैं।

उत्तर बिहार पूरी तरह से बाढ़ की चपेट में है और घर लौटे प्रवासी काम के बिना भुखमरी के कगार पर हैं लेकिन बिहार के मध्यम वर्ग का ध्यान सुशांत सिंह केस पर केंद्रित है। इसमें बिहार पुलिस महाराष्ट्र में क्या-क्या कर रही है। महाराष्ट्र पुलिस क्या कवर-अप कर रही है और दोनों राज्यों की पुलिस में क्या अंतरविरोध चल रहे हैं, आदि।

आखिर सुशांत सिंह राजपूत को लेकर लोग इतने व्याकुल क्यों हैं? क्यों उसके बारे में साधारण लोग रोज पोस्ट डाल रहे हैं? क्यों आज भी सिनेमा जगत में और फिल्म देखने वालों के बीच भी एक अजीब सा सन्नाटा पसरा हुआ है, एक बेचैनी सी है जो शायद सच्चाई की तह तक पहुंचने के बाद ही खत्म होगी?

इसके पीछे जो मुख्य कारण समझ में आता है वह है कि सुशान्त एक साधारण से परिवार से आने वाला होनहार नौजवान था। वह बिहार और देश के नवयुवकों के ऐस्पिरेशन्स का प्रतिनिधित्व करता था। वह इरफान खान जैसा बहुत बड़ा ऐक्टर था ऐसा हम नहीं कहेंगे। पर उसके भीतर भी इरफान जैसी जीवन्तता के साथ सादगी और दुनिया को समझने की जिजीविषा थी।

उदाहरण के लिए उसे भौतिक विज्ञान में, ऐस्ट्रोनाॅमी में, प्रकृति में, स्पोर्ट्स में, आर्गैनिक फार्मिंग में, किताबें पढ़ने में, नृत्य में और बच्चों व महिलाओं के जीवन की बेहतरी में रुचि रखता था। वह इंजीनियरिंग के टाॅपर विद्यार्थियों में से एक था पर रिस्क लेकर इंजीनियरिंग की विधा छोड़कर एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री की ओर बढ़ा था।

लोगों का मानना है कि सुशान्त बहुत ‘डाउन टू अर्थ’ यानी जमीनी सच्चाइयों से जुड़ा रहता था, यद्यपि वह तेज़ी से सफलता के मुकाम तक पहुंच चुका था और ज्यादातर लोग ऐसे मुकाम पर पहुंचकर अपनी दुनिया में कैद हो जाते हैं और बाहरी दुनिया से संपर्क खत्म कर लेते हैं।

सुशान्त के बारे में हम एक बात और जानते हैं कि वह अपने जो सपने साकार कर रहा था उसके बारे में लोगों से अपने अनुभव साझा करना चाहता था ताकि उन्हें इंस्पायर कर सके। इसलिए, ‘एम एस धानी, ऐन अन्टोल्ड स्टोरी’ फिल्म के बाद वह एमएस धोनी के साथ अपने स्कूल गया था जहां उसका भव्य स्वागत हुआ। वह स्विटज़रलैंड जाकर सर्न लैब देखने गया और वहां के वैज्ञानिकों से ऐस्ट्रोफिज़िक्स से जुड़े न जाने कितने ही सवाल पूछता रहा।

ज़ाहिर है, युवा वर्ग के मन में यह सवाल कौंधता रहेगा कि आखिर किस तरह एक 34 साल का उत्साही, मेहनती, होनहार नौजवान जिसके जीवन में किसी बात की कमी नहीं थी और सफलता जिसके कदम चूम रही थी, अचानक अवसाद से गुजरते हुए आत्महत्या तक पहुंच गया? या फिर उसकी निर्मम हत्या हुई।

ऐसा होने पर लगेगा ही कि क्या दिख रहा है, क्या सच है, क्या तैयार किया गया असत्य है और क्या पूरी तरह से झूठ है यह कैसे तय किया जाएगा? इससे युवा वर्ग का आत्मविश्वास बुरी तरह डिगता है, उसके सपने टूटते हैं और उसके पैरों तले ज़मीन खिसकती है। समाज पर उसका विश्वास खत्म होता है। ऐसा किसी भी हालत में होना नहीं चाहिये।

यह किसी भी विकासशील समाज के लिए बुरा लक्षण है। पर पूंजीवादी दुनिया में यह एक कटु सत्य है। सुशांत ही नहीं, भारत में हर लाख लोगों में 11 लोग आत्महत्या करते हैं। 2014-18 में 46,554 छात्रों ने खुदकुशी की और 15 प्रतिशत लोग मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं हैं। पर बाॅलीवुड में स्थिति भयावह है क्योंकि सफलता के मुकाम पर पहुंचकर भी ज़िंदगी सुरक्षित नहीं है।

बहुतों का तर्क है कि यह एक व्यक्ति की कहानी है, इसके पीछे क्यों पड़ा जाए यह कि बाॅलीवुड की यह पुरानी कहानी है लोग मीना कुमारी से शुरू करके परवीन बाॅबी तक की जिन्दगी के ‘गड़े मुर्दे’ उखाड़ने में लग गए हैं और कई चैनेल रोज़ इस मामले से जुड़ी एक खबर लेकर उसका पोस्ट माॅर्टम कर अपना टीआरपी बढ़ा रहे हैं। पर ऐसे भी लाखों नौजवान हैं जो सुशांत में अपने को देखते थे और समझ रहे थे कि ईमानदारी और मेहनत से किसी भी ऊंचे मुकाम पर पहुंचा जा सकता है।

वे जानना चाहते हैं कि समाज ने ऐसे एक मेहनती व होनहार नौजवान को क्यों नहीं बचाया और कौन सी नापाक ताकतें (बाॅलीवुड के डर्टी गैंग) हैं जो उसे इस क्रूर तरीके से हमसे छीन ले गईं? जो बहस चली है उसमें बहुत से सवाल हैं जिनके उत्तर जरूर तलाशे जाने चाहिये क्योंकि यद्यपि भाईभतीजावाद, आउटसाइडर-इनसाइडर की बात और दबंगई हर पेशे और हर उद्योग में चलती है, जातिवाद भी चलता है, पर फिल्म जगत में इसे चरम रूप में देखा जा सकता है।

एक घृणित संस्कृति है, जिसे सत्ता-समर्थित भी कहा जा सकता है। फिल्म ‘विकी डोनर’ के मशहूर ऐक्टर आयुश्मान खुराना अपनी किताब क्रैकिंग द कोड में बताते हैं कि जिन कारणों से फिल्में बनती हैं वे बहुत ही अजीब हैं। वे अन्य एक्टरों के बारे में यह भी कहते हैं कि ‘हम इतना ही कर सकते हैं कि बिना किसी के मामले में हस्तक्षेप किये सह-अस्तित्व में रहें। हम आशा और प्रर्थना करें कि हमें सबसे अच्छे आफर मिलें, बस इतना ही। बाकी किसको क्या मिलेगा और कितना, यह हमारे हाथों में नहीं है।’

सुशांत अशान्त था क्योंकि वह मेनस्ट्रीम हिंदी सिनेमा में बहुत कुछ करना चाहता था। पर क्या उसकी यह महत्वाकांक्षा गलत थी? पुराने समय के कुछ बहुत ही उम्दा एक्टरों को कमर्शियल सिनेमा में प्रवेश करने में सफलता नहीं मिली। वे पैरलल सिनेमा या छोटी बजट वाली फिल्मों में अपनी जगह बनाए और उसी में उनकी सिने-यात्रा चली।

इनमें नसीर, अमोल पालेकर, ओम पुरी, रघुवीर यादव, स्मिता पाटिल, शाबाना, सुप्रिया पाठक जैसे कई ऐक्टर थे। पर आज स्थिति एकदम अलग है-बड़े प्रोडक्शन हाउस जब करोड़ों डाॅलर में खेल रहे हैं, सफलता का मतलब बन गया है उनके साथ जुड़े रहना; वरना वे पूरी कोशिश करेंगे कि आपको बाहर फेंक देंगे। इसके लिए शाम-दाम-दंड भेद हर कुछ इस्तेमाल किया जाएगा। धमकियों से लेकर मज़ाक का पात्र बनाना, अलगाव में डाल देना और फिल्मों की खराब रिव्यू लिखवाना तथा आपसी गुटबंदी करके बाहर कर देना या हत्या तक करवाना।

तो क्या हम मानें कि 2011 में एक विकिलीक्स केबल में जो बात सामने लाई गई थी-कि ‘भारत की करोड़ों की फिल्म इंडस्ट्री और अंडरवर्ल्ड के बीच गहरा संबंध है; कि यह उद्योग गैंगस्टरों और राजनेताओं से भी फंड लेता है, जो अवैध काले धन को सफेद में बदलते हैं। जबसे भारत सरकार ने फिल्म उद्योग को वैध ठहरा दिया है तबसे बाॅलीवुड और व्यापक मनोरंजन उद्योग का काॅरपोरेटाईज़ेशन हो गया है।’वह सच है?

यह भी देखा गया है कि बाॅलीवुड के कई जानी-मानी हस्तियों पर कातिलाना हमले हुए या जान मारने की धमकियां दी गई हैं, जिसकी वजह से उन्हें पुलिस सुरक्षा लेनी पड़ी है। तब प्रश्न उठता है कि जिस काले धन पर बाॅलीवुड का अस्तित्व टिका हुआ है और एक्टरों के टैलेंट को मांजने वाली कंपनियां चल रही हैं, वह सुशांत सिंह जैसे सैकड़ों ईमानदार एक्टरों को कैसे छूट देंगे कि वे उसके प्यादों को प्रतिस्पर्धा दे?

काले धन से उपजी संस्कृति कैसे पाक साफ हो सकती है? आखिर अंडरवर्ल्ड के काले धन का इन्वेस्टमेंट ऐसे प्रोड्यूसर, डायरेक्टर, एक्टर, सिंगर, कोरिओग्राफर और संगीतकारों की जमात खड़ा करना है, जो अंडरवर्ल्ड के काले धंधों को वैधता प्रदान करें।

बड़ी-बड़ी कम्पनियां या प्रोडक्शन हाउस हैं, जैसे यशराज फिल्म्स (सालाना राजस्व 111.5 मिलियन डाॅलर), नाडियाडवाला ग्रैंडसन एन्टरटेनमेंट प्राइवेट लिमिटेड(8.6 मिलियन डाॅलर), विशेष फिल्म्स (3.4 मिलियन डाॅलर), धर्मा प्रोडक्शन्स(2.7 मिलियन डाॅलर), भंसाली प्रोडक्शन्स, बालाजी मोशन पिक्चर्स, आदि जिनका अवैध धन से चोली-दामन का रिश्ता है, यह छिपी बात नहीं है। पर आज नई पीढ़ी के होनहार निर्देशक, संगीतकार, गायक व ऐक्टर जब अपनी मेहनत के बल पर नए वैकल्पिक रास्ते तलाश रहे हैं, नई संवेदनाओं को अपनी फिल्मों में व्यक्त कर रहे हैं तो उनके कैरियर को खत्म करने का प्रयास चल रहा है।

और यह सब ‘डर्टी गैंग्स’ कर रहे हैं। तो अच्छा है कि बाॅलीवुड का सारा कीचड़ बाहर आ गया है। इसलिए सुशांत की असामान्य मृत्यु के बाद से बाॅलीवुड में हलचल मची है; एक ‘मी टू’ सा आन्दोलन चल पड़ा है; इस बार यौन उत्पीड़न पर नहीं पर ‘बालीवुड बुलींग’ को लेकर; शेखर सुमन, अध्ययन सुमन, कंगना रनावत, स्वरा भास्कर, विवेक ओबेराॅय से लेकर अरिजीत, सोनू निगम, ए आर रहमान, सोनू सूद, विवेक ओबेराॅय, साहिल वैद सभी बोल रहे हैं।

करन जौहर और आलिया भी बुरी तरह ट्रोल किये गए हैं। आज एक सांस्कृतिक रेनेसां की दस्तक सुनाई पड़ रही है, जो बाॅलीवुड से शुरू हुई है, पर यहां रुकेगी नहीं। शायद यही कारण है कि फिल्म दिल बेचारा को 9 करोड़ 50 लाख लोगों ने देखा और बहुत लोग देखकर इतने भावुक हुए कि अपने आंसुओं को रोक न पाए। पहले दिन ही फिल्म की कमाई 2000 करोड़ तक पहुंच गई, जबकि फिल्म बहुत खास नहीं थी।

विडम्बना है कि इस फिल्म में सुशान्त मैनी का किरदार निभा रहा है जो कैंसर से पीड़ित है पर किज्ज़ी नाम की एक कैंसर पीड़ित लड़की से प्रेम करता है और उसे एक पत्र लिखकर जीने का तरीका सिखाता है।

वह कहता है, ‘जनम कब लेना है और मरना कब है हम डिसाइड नहीं कर सकते, पर कैसे जीना है वो हम डिसाइड कर सकते हैं’। यह तो सच है कि कैसे जीना है, सुशान्त ने दुनिया को सिखाया था, पर क्यों, कैसे और कब मरना है, इसपर सुशान्त ने एक बहुत बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। वह छिछोरे के बालक जैसा हारा हुआ व्यक्ति नहीं था; उसने एमएस धोनी और काय पो चे में अपना हुनर साबित कर दिखाया था।

पर उसकी हार यह थी कि उसका बाॅलीवुड के ग्लैमर से पूर्णतया मोहभंग नहीं हुआ था, उससे पहले वह दुनिया को अल्विदा कह गया। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि सुशान्त ने आत्महत्या की या उसे मारा गया था। यह भी पता नहीं कि रिया चक्रवर्ती की क्या भूमिका रही और दिशा की मौत का केस से क्या वास्ता है। जो हो, खतरनाक ‘डर्टी गैंग’ पर बात खत्म नहीं होगी। हम आशा करते हैं कि सच्चाई सामने आएगी और कला जगत का कुछ शुद्धिकरण होगा!  

(कुमुदिनी पति एक महिला एक्टिविस्ट हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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