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इस वैश्विक महामारी की क़ीमत लोगों को दिवालिया बनाना नहीं हो सकती

कोरोना वायरस और इससे उपजे संकट पर राज्यों को मानवीय क़दम उठाए जाने की सख़्त ज़रूरत है। विजय प्रसाद और मैनुएल बर्टोल्डी इसी विषय पर बात कर रहे हैं।
वैश्विक महामारी

वैश्विक महामारी COVID-19 लगभग दुनिया के हर देश में फैल चुकी है। यह वायरस कई जिंदगियां छीन लेगा। संस्थानों और समुदायों को बाधित करेगा। महामारी अपने पीछे बहुत बड़ा दर्द और तहस-नहस अर्थव्यवस्था छोड़ जाएगी। ''यूनाइटेड नेशंस कॉन्फ़्रेंस ऑन ट्रेड एंड डेवलपमेंट (UNCTAD)'' का अनुमान है कि 2020 के अंत तक वैश्विक आय में एक से दो ट्रिलियन डॉलर तक की कमी आ सकती है। तेल की गिरती कीमतें इसके निर्यातक देशों के लिए स्थिति और भयावह बना देंगी।

वित्त का लुढ़कना

स्टॉक बाज़ार अब एकदम से लुढ़क रहे हैं। केंद्रीय बैंक अपने सभी मौद्रिक संसाधनों का इस्तेमाल कर वित्त बाज़ार को उठाने और अर्थव्यवस्था के ज़्यादा से ज़्यादा क्षेत्रों को बेल ऑउट कराने की कोशिश कर रहे हैं। आमतौर पर स्थिर और अपने बड़े ऊर्जा क्षेत्र से फायदे में रहने वाले नार्वे के केंद्रीय बैंक ने भी दरों में कटौती की है। बैंक ने अर्थव्यवस्था में हस्तक्षेप का वायदा किया है, ताकि अर्थव्यवस्था को पूरी तरह ढहने से रोका जा सके।

फिलहाल कोई ऐसा आसान रास्ता दिखाई नहीं देता, जिससे इस संकट के नतीज़ों का अंदाजा लगाया जा सके। लेकिन अगर हम 2008-09 जैसे पुराने वित्त संकटों को देखें, तो पाएंगे कि इन संकटों का ख़ामियाज़ा कभी अमीरों को नहीं भुगतना पड़ा। दरअसल इसका शिकार वो लोग होते हैं, जिनके पास सत्ता में कम हिस्सेदारी होती है। बहुसंख्यक लोग। यही उस संकट का भार ढोते हैं, जिसकी शुरूआत उन्होंने तो कतई नहीं की। सत्ता और दौलत में अकूत हिस्सेदारी रखने वाले  अमीर लोग ऐसी सत्ता थोपते हैं, जो सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे को तिल-तिल कर तो़ड़ती है और वित्तीय बाज़ारों में अविनिमयन को बढ़ावा देती है।

जब एक सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट आता है, तब यह राज्य बेहतर तरीके से तैयार नहीं होते। इस तैयारी के न होने की वजह से ही वित्त बाज़ार में उथल-पुथल मचती है। जिन्होंने सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे को नष्ट किया और वित्त व्यवस्था में विनिमयन लागू किया, उन्हें ही इस आपदा का भार ढोना चाहिए। लेकिन सत्ता ऐसे काम नहीं करती।

सक्षम राज्य

बेहद अमीर लोगों की एक उपलब्धि राज्य संस्थानों के विचार को अवैधानिक कर देना भी है। पश्चिम में सरकार को विकास विरोधी मानकर, उस पर हमला करना एक आम व्यवहार है। आमतौर पर सेना को छोड़कर वहां सभी सरकारी संस्थानों को सिको़ड़ने की कोशिश की जाती है। कोई भी ऐसा देश जहां तेज-तर्रार सरकार और राज्य ढांचा हो, उसे तानाशाही करार दे दिया जाता है। इस महामारी से निपटने में चीन जैसे देश कामयाब रहे हैं, जहां राज्य संस्थान मजबूत हैं। चीन जैसे देशों को पश्चिम में तानाशाही कहकर ख़ारिज कर दिया जाता है। एक आम धारणा बन चुकी है कि यह सरकारें और उनके संस्थान आमतौर पर कुशल हैं।

इस बीच ''मितव्ययता वाली नीतियां (Austerity policies)'' अपनाने वाली पश्चिमी दुनिया इस महामारी के संकट से निपटने में नाकामयाब रही है। उनके ज़्यादातर देश स्वास्थ्य और शिक्षा के बड़े हिस्से का निजीकरण कर चुके हैं। इसके लिए उन्होंने अहम सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्थानों को बंद किया या उन अस्पतालों की आपात क्षमताओं को कम किया था। इस बीच दवाईयां निजी फायदे का फॉर्मूला बन गईं। मितव्ययी स्वास्थ्य ढांचे की नाकामयाबी अब सबके सामने आ चुकी है। अब इस तर्क में कोई दम नहीं है कि स्वास्थ्य सेवाओं में निजीकरण का मॉ़डल सार्वजनिक ढांचे से बेहतर है। 

एक समाजवादी योजना

दुनिया में इस महामारी को समझने और आगे के रास्ते पर बढ़ने की योजना बनाने के लिए विमर्श चल रहा है। इंटरनेशनल पीपल्स असेंबली और ''ट्राईकांटिनेंटल: इंस्टीट्यूट फॉर सोशल रिसर्च'' ने ''वैश्विक महामारी के परिदृश्य में लोगों पर ध्यान देने की जरूरत'' नाम से 16 बिंदुओं वाली एक योजना बनाई है। यह योजना दुनिया के सभी महाद्वीपों के राजनीतिक आंदोलनों से बातचीत के बाद बनाई गई है। यह एक जीवंत दस्तावेज़ है, जो विमर्श-बातचीत को आगे बढ़ाता है, ताकि हम वह रास्ता जान सकें, जिस पर हमें भविष्य में आगे बढ़ना है। नीचे लिखे बिंदुओं को पढ़िए:

1) लोगों के वेतन का नुकसान किए बिना सभी तरह के काम बंद किए जाएं। सिर्फ़ जरूरी स्वास्थ्य और सामग्री उत्पादित करने वाले और खाद्यान्न उत्पादन, उनका वितरण करने वाले लोगों के काम जारी रहने चाहिए। राज्य को क्वारंटाइन में रहने वाले लोगों के वेतन का प्रबंध करना चाहिए।

2) स्वास्थ्य, खाद्यान्न आपूर्ति और सार्वजनिक सुऱक्षा को प्रबंधित ढंग से हर हाल में बरकरार रखा जाना चाहिए। आपात खाद्यान्न भंडारों से गरीब़ों को अनाज मुहैया कराने के लिए तुरंत निकासी की जानी चाहिए।

3) सभी स्कूलों को बंद किया जाए।

4) सभी अस्पतालों और स्वास्थ्य केंद्रों का सामाजीकरण कर दिया जाए, ताकि संकट के वक़्त यह केंद्र मुनाफ़े के लिए काम न करें। यह स्वास्थ्य केंद्र सरकार के स्वास्थ्य कैंपेन के अंतर्गत होने चाहिए।

5) फॉर्मास्यूटिकल कंपनियों का तुरंत राष्ट्रीयकरण किया जाए। इन कंपनियों का एक अंतरराष्ट्रीय सहयोग संगठन बनाकर, उन्हें वैक्सीन ढूढ़ने और आसानी से टेस्ट किए जाने वाली किट बनाने के काम पर लगाया जाए। स्वास्थ्य क्षेत्र में बौद्धिक संपदा का खात्मा किया जाए।

6) सभी लोगों की तुरंत टेस्टिंग की जाए। इस महामारी से पहली पंक्ति में जूझ रहे स्वास्थ्यकर्मियों को तुरंत टेस्ट और मदद मुहैया कराई जाए।

7) संकट से निपटने में इस्तेमाल होने वाले साधनों (टेस्टिंग किट्स, मास्क, रेस्पिरेटर्स) के उत्पादन को तेज किया जाए।

8) वैश्विक वित्तीय बाज़ारों को बंद कर दिया जाए।

9) सरकारों को दिवालिया होने से बचाने के लिए तुरंत वित्त को इकट्ठा किया जाए। 

10) सभी गैर-औद्योगिक उधारों को रद्द किया जाए।

11) सभी तरह के किराये और गिरवी रखी देनदारियों को ख़त्म किया जाए। साथ ही आवास खाली करने की प्रक्रिया को बंद किया जाए। इसके लिए आवास को एक मूलभूत अधिकार बनाए जाने के प्रावधान किए जाएं। राज्य द्वारा एक बेहतर आवास की गारंटी नागरिकों को दी जानी चाहिए।

12) पानी, बिजली और इंटरनेट जैसी सुविधाओं को मानवाधिकार के तहत उपलब्ध कराया जाए और सरकार इनकी देनदारियों को ख़त्म करे। जहां यह सुविधाएं नहीं हैं, वहां तुरंत प्रभाव से इनको पहुंचाया जाए। हम इन सुविधाओं को तुरंत देने की मांग करते हैं।

13) क्यूबा, ईरान और वेनेजुएला जैसे देशों को प्रभावित करने वाले एकपक्षीय, आपराधिक उपबंध और आर्थिक प्रतिबंध ख़त्म किए जाएं। इनके चलते इन देशों को जरूरी स्वास्थ्य सामग्री आयात करने में दिक्कतों का सामना करना पड़ाता है।

14) बेहतर और स्वस्थ्य अनाज उत्पादन करने के लिए किसानों को सहायता दी जाए, जिससे इसे सरकार को सीधे वितरण के लिए दिया जा सके।

15) अंतरराष्ट्रीय मुद्रा के तौर पर डॉलर का खात्मा किया जाए। संयुक्त राष्ट्रसंघ को आपात अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन बुलाकर एक नई साझा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा का ऐलान करना चाहिए।

16) हर देश में हर नागरिक के लिए एक न्यूनतम आय की घोषणा की जाए। इससे उन परिवारों को राज्य की मदद मिलेगी, जिनके पास फिलहाल काम नहीं है या वे बेहद भयावह स्थितियों में काम कर रहे हैं या फिर संबंधित परिवार स्वरोजगार में संलग्न हैं। मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था लाखों लोगों को औपचारिक नौकरियों से वंचित कर देती है। राज्य को अपनी आबादी को रोज़गार और सम्मानजनक जीवन देना चाहिए। ''यूनिवर्सल बेसिक इनकम'' में लगने वाले पैसे की रक्षा बजट से भरपाई की जा सकती है। ख़ासकर हथियारों और गोला-बारूद पर खर्च होने वाले पैसे से।

इस संकट ने व्यवस्था को बुरे तरीके से हिला दिया है। इसमें कोई शक की बात नहीं है। मितव्ययता की नीतियों की असफलता का नतीज़ा है कि अस्पतालों का राष्ट्रीयकरण या बेरोज़गारों को जरूरी आय के लिए प्रावधानों जैसे विचार अब एजेंडे पर आ गए हैं। जबकि कुछ महीने पहले इन विचारों पर कोई सोचता भी नहीं था। हम आशा करते हैं कि ढांचागत पुनर्निर्माण के लिए यह बातचीत एक लोकप्रिय वैश्विक आंदोलन में बदल जाए। कोरोना वायरस महामारी के दौर में बेदर्द पूंजीवादी व्यवस्था में आगे रहने के बजाए समाजवाद के बारे में कल्पना करना आसान है।

विजय प्रसाद एक भारतीय इतिहासकार, पत्रकार और संपादक हैं। वह Globetrotter के राइटिंग फेलो और मुख्य संवाददाता हैं। ग्लोबट्रोटर, इंडीपेंडेंट मीडिया इंस्टीट्यूट का एक प्रोजेक्ट है। वह LeftWord Books के मुख्य संपादक और ट्राईकांटिनेंटल: इंस्टीट्यूट फॉर सोशल रिसर्च के निदेशक हैं।

मैनुएल बर्टोल्डी, Front Patria Grande (अर्जेंटीना) और Alba Movimientos के नेता हैं। वह इंटरनेशनल पीपल्स असेंबली के कोऑर्डिनेटर भी हैं। 

यह आर्टिकल Globetrotter ने प्रकाशित किया है।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

The Cost of This Pandemic Must Not Bankrupt the People

नोट : अगर आप भी इस आलेख को प्रकाशित करना चाहते हैं, तो आपका स्वागत है। बस अंत में एक छोटा सा साभार देना न भूलें। 

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