द ग्रेट इंडियन डिजास्टर : लोग परेशान और सरकार ख़ुश
हाल ही में जारी किए गए आंकड़ों से पता चलता है कि अर्थव्यवस्था के दो प्रमुख घटक 'सरकार के अपने खर्च' और 'लोगों के खर्च' की हालत बदतर हैं। वास्तव में, इनमें धीमी गति से वृद्धि यह दर्शाती है कि आर्थिक मंदी अभी घातक बनी हुई है। हर कोई यह जानता है, किसी भी उद्योगपति या उसके कर्मचारी या छोटे व्यापारी और सड़क पर किसी भी व्यक्ति से पूछें तो आपको एक ही बात बताई जाएगी कि सब कुछ धीमा हो गया है।
लेकिन, इसे सामने लाना आवश्यक है क्योंकि आर्थिक व्यवस्था से जुड़े अधिकारी और अन्य लोग यह सुझाव देने की कोशिश कर रहे हैं कि मंदी का बुरा दौर खत्म हो चुका है जिसका मतलब है कि यह जल्द ही दूर होने वाली है। इतना तेजी से नही!
नीचे दिए गए चार्ट में सरकार का खुद का आंकड़ा जो दिखाता है उस पर एक नज़र डालें। जनवरी-मार्च 2019 में सरकारी खर्च 14% से ज़्यादा की उचित दर से बढ़ रहा था। यहां से अक्टूबर-दिसंबर 2019 में यह 11.8% तक नीचे चला गया है। अगर सरकार खुद अपना पैसा खर्च नहीं करने जा रही है तो देश को मंदी से बाहर निकलने की उम्मीद कैसे है?
लेकिन वित्त मंत्रालय के दिग्गज जो हमारे प्रधानमंत्री द्वारा निर्देशित हैं उन्हें ऐसा लगता है कि सिस्टम में लिक्विडिटी भरना और कॉर्पोरेटों के करों में कटौती करना ही एक समाधान है। ये उपाय स्पष्ट रूप से विफल हो रहे हैं- हालांकि ये उनके लाभ मार्जिन को बढ़ाने में बड़े उद्योगपतियों की मदद करते हैं।
अब ऊपर दिए गए चार्ट में लाल रेखा को देखें। यह निजी खपत व्यय को दर्शाता है जिसका मतलब है भारत के लोगों और अन्य निजी संस्थाओं द्वारा किया गया कुल खर्च। जुलाई-सितंबर 2019 में इसकी वृद्धि दर लगभग 9% से घटकर 2019 की अक्टूबर-दिसंबर तिमाही में सिर्फ 6% रह गई है।
उपभोग व्यय में गिरावट का मतलब है कि परिवार कम खर्च कर रहे हैं क्योंकि वे अपने बुनियादी ज़रुरतों को पूरा करने के लिए संघर्ष करते हैं। ये परेशानी बेरोज़गारी के चलते और बढ़ गई है, जिसे इस वर्ष फरवरी में सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी द्वारा 8% बतया गया था जिससे निपटने के लिए कोई संकेत नहीं थे।
इसलिए कहा जा सकता है कि ताबूत में आखिरी कील हरे रंग की लाइन में दिखाया गया है जो सकल नियत पूंजी निर्माण (जीएफसीएफ) के लिए विकास दर को प्रस्तुत करता है, जो कि औद्योगिक नियोक्ताओं द्वारा अचल संपत्तियों (जैसे उद्योग और मशीनरी या भूमि) में निवेश है।
नकारात्मक क्षेत्र में फैली विकास दर में भारी और नाटकीय गिरावट का मतलब है कि उद्योगपति किसी भी नई उत्पादक क्षमता के निर्माण में निवेश नहीं कर रहे हैं। वास्तव में, वे ऐसा करने से भाग रहे हैं। इसलिए, अब या निकट भविष्य में कोई नए रोज़गार निर्माण की संभावना नहीं है।
अर्थव्यवस्था को सुस्ती से बाहर निकालने के लिए निजी उद्यम और बाज़ार पर मोदी सरकार के भरोसा करने का यह आखिरी प्रयास पूरी तरह भ्रामक चरित्र को दिखाता है। कॉर्पोरेट टैक्स कटौती और रियल एस्टेट के लिए विशेष फंड जैसी भारी रियायतों के बावजूद कुछ भी नहीं सुधर पा रहा है। दावा किए जाने पर भी अर्थव्यवस्था या रोज़गार की मदद के लिए श्रम कानून के बदलाव ने भी कुछ नहीं किया है। वास्तव में, वे नियोक्ताओं को इस संकट में श्रमिकों से छुटकारा पाने और उनके मुनाफे की रक्षा करने में मदद कर रहे हैं।
अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर इस तरह की व्यापक विफलता को भी अद्भुत सावधानी से देखा जाना चाहिए क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके सहयोगियों ने देश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेंडे को लागू करने के लिए विभाजनकारी नागरिकता कानूनों को लाकर और ऐसे कानूनों का नाम पर या जनसंख्या या नागरिक रजिस्टर के विनाशकारी प्रस्तावों के नाम पर सांप्रदायिक हिंसा को भड़काने की कोशिश की है। एकमात्र उद्देश्य जो वे फिलहाल पूरा कर रहे हैं वह है डूबती अर्थव्यवस्था से लोगों का ध्यान भटकाना। लेकिन ऐसा कब तक?
अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।
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