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विज्ञापनों की बदलती दुनिया और सांप्रदायिकता का चश्मा, आख़िर हम कहां जा रहे हैं?

विकासवादी, प्रगतिशील सोच वाले इन विज्ञापनों से कंपनियों को कितना फायदा या नुकसान होगा पता नहीं, लेकिन इतना जरूर है कि ये समाज में सालों से चली आ रही दकियानुसी परंपराओं और रीति-रिवाजों के साथ-साथ जेंडर स्टीरियोटाइप या लैंगिक रूढ़िवादिता को तोड़ने की कोशिश पूरी कर रहे हैं।
Fab and Ceat

बीते एक दशक में विज्ञापन और उन्हें बनाने की सोच में काफ़ी बदलाव आए हैं। विज्ञापन के जरिए अब कंपनियां अपने सामान की तरफ लोगों को आकर्षित करने के साथ ही समाज में मौजूद तमाम बुराईयों और रूढ़ीवादी परंपराओं को भी चुनौती दे रही हैं। एक ओर महिलाओं के ओब्जेक्टिफ़िकेशन को छोड़कर महिलाओं की पहचान, विकासवादी, प्रगतिशील सोच सामने आ रही है तो वहीं हमारी 'अनेकता में एकता' वाली संस्कृति की पहचान गंगा-जमुनी तहज़ीब को फिर से लोगों के दिलों में जिंदा करने की कोशिश कर रही हैं।

हालांकि विज्ञापनों की दुनिया में इस बदलाव के साथ ही पिछले कुछ सालों में इनके प्रति हमारे समाज में भी कई बदलाव देखने को मिल रहे हैं। अब कोई भी नया ऐड आता नहीं कि उसे कुछ लोग संप्रादायिकता के चश्मे से देखने लग जाते हैं। कंटेंट कितना भी सुंदर क्यों न हो, तथाकथित धर्म के ठोकेदारों की अनायस ही भावनाएं आहत होने लग जाती हैं, फिर हिंदू-मुस्लिम वाला प्रौपागैंडा चलाने वालों की चांदी हो जाती है और अचानक हिंदुत्व के खतरे में होने की बात सामने आने लगती है। फिर क्या ऐसा होते ही कथित हिंदुओं की सामूहिक चेतना जागृत हो जाती है और उस विज्ञापन को, यहां तक की कंपनी को ही बैन करने की मांग उठने लगती है। और आखिरकार कंपनी उस विज्ञापन को वापस ले लेती है या उसे वापस लेने को मजबूर कर दिया जाता है।

विज्ञापनों को लेकर असहिष्णुता

बता दें कि फैब इंडिया जश्ने-रिवाज वाले विज्ञापन के बाद अब आमिर खान के सड़क पर पटाखे न फोड़ने के विज्ञापन पर बवाल हो गया है। CEAT टायर बनाने वाली कंपनी के इस विज्ञापन में आमिर लोगों को सड़कों पर पटाखे नहीं फोड़ने की सलाह दे रहे हैं। इस विज्ञापन को लेकर बीजेपी के सांसद अनंत कुमार हेगड़े ने हिंदुओं में असंतोष का दावा किया है। साथ ही नमाज के दौरान सड़कों को जाम करने और मस्जिदों पर लाउडस्पीकर का मुद्दा भी उठाया है। हेगड़े के अलावा सोशल मीडिया पर भी ये मुद्दा गरम है। कई लोग आमिर को हिंदू-विरोधी बता रहे हैं तो कुछ  उन कंपनियों के बहिष्कार तक की बात कर रहे हैं जिनका विज्ञापन आमिर खान करते हैं।

वैसे ये सिर्फ दो विज्ञापनों की बात नहीं है। पिछले कुछ समय में ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जिन्हें बेवजह धर्म की चादर लपेटकर बवाल बनाया गया है। देश के जाने-माने आभूषण ब्रैंड तनिष्क का 'एकत्वम' हो या मान्यवर मोहे का 'कन्यादान सिर्फ़ लड़कियों का क्यों?’ या फिर 'भीमा जूलरी' की ऐड फ़िल्म 'प्योर एज़ लव' इन सभी विज्ञापनों में एक सुंदर सोच, मिश्रित संस्कृति, हमारी तहज़ीब और भाषा की मिठास को नकारने की कोशिश की गई है। कभी देश के एक समुदाय को टारगेट किया गया तो कभी पितृसत्तात्मक सोच को बार-बार महिलाओं पर थोपने की कोशिश की गई, कभी उर्दू का अपमान हुआ तो कभी ट्रांसजेंडर लोगों का। और इन सब को शह मिली देश की संस्कृति और धर्म के नाम पर, तीज़-त्यौहार और रिवाजों के नाम पर जो शायद अब इंसानियत से भी बड़े हो गए हैं।

हिंदु-मुस्लिम एकता को दिखाते ऐड कैंपेन

बीते साल तनिष्क ने 'एकत्वम' कैंपेन को हटाए जाने के बाद एक वक्तव्य में कहा था कि इस विज्ञापन के पीछे विचार इस चुनौतीपूर्ण समय में विभिन्न क्षेत्र के लोगों, स्थानीय समुदाय और परिवारों को एक साथ लाकर जश्न मनाने के लिए प्रेरित करना था लेकिन इस फ़िल्म का जो मक़सद था उसके विपरीत, अलग और गंभीर प्रतिक्रियाएं आईं। हम जनता की भावनाओं के आहत होने से दुखी हैं और उनकी भावनाओं का आदर करते हुए और अपने कर्मचारी और भागीदारों की भलाई को ध्यान में रखते हुए इस विज्ञापन को वापस ले रहे हैं।

दरअसल ये विज्ञापन अलग-अलग समुदाय के शादीशुदा जोड़े से जुड़ा था और इसमें एक मुस्लिम परिवार में हिंदू बहू की गोद भराई की रस्म को दिखाया गया था। इसे तथाकथित धर्म के ठेकेदारों और बीजेपी के नेताओंं ने लव जिहाद को फ़ैलाने वाला करार दे दिया था।

पितृसत्ता को चुनौती देते ऐड कैंपेन

इसी तरह आलिया भट्ट के मान्यवर मोहे के विज्ञापन को हिंदुओं की भावनाओं के विरुद्ध बता दिया गया था। इस विज्ञापन में दुल्हन की भूमिका में नज़र आ रहीं आलिया मंडप में बैठी हैं और रीति-रिवाजों और परंपराओं की बेड़ियों में जकड़ दी गई लड़की के ज़हन में आने वाले सवाल को उठा रही हैं। वो सिर्फ लड़कियों के कन्यागान की जगह कन्या मान का नया आइडिया दे रही हैं, जो जाहिर है हमारे पितृसत्तात्मक समाज के उसूलों के खिलाफ है।

जब केरल की ज्वेलरी कंपनी 'भीमा जूलरी' ने अपनी ऐड फ़िल्म में एक ट्रांस गर्ल को उसके परिवार में जो स्वीकार्यता और प्यार मिला है, उसे बताने की कोशिश की, उसे एक हिंदू दुल्लन के रूप में प्रस्तुत किया तो कुछ लोगों को ये बात हज़म नहीं हुई। लोग यहां भी संस्कृति और रूढ़ीवादी परंपराओं की दुहाई देने लगे।

त्यौहार में भाषा की मिठास घोलते ऐड कैंपेन

फैब इंडिया के कैम्पेन का नाम उर्दू टर्म जश्न-ए-रिवाज से बदलकर झिलमिल सी दीवाली कर दिया गया। क्यों? क्योंकि कुछ अतिवादियों को ये एक हिंदू त्योहार का इब्राहिमीकरण लगा। उन्हें अपने हिंदू धर्म और परिधान दोनों पर खतरा महसूस होने लगा। पूरे विज्ञापन में एक भी मॉडल ने बिंदी नहीं लगाई थी तो जाहिर है पिदरशाही लोगों के लिए बिंदी के बिना हिंदू लुक पूरा नहीं होता है। इसलिए ये विज्ञापन एंटी हिंदू और मुस्लिम समर्थक भी कहा जाने लगा। इसके साथ ही फैब इंडिया के साथ-साथ दूसरे ऐसे ब्रांड्स पर भी निशाना साधा जाने लगा जिनके विज्ञापनों में मॉडल्स ने बिंदी नहीं लगाई थी।

खैर, दीवाली को चाहें जश्न ए रिवाज लिखें, दीपों का त्योहार लिखें या फेस्टिवल ऑफ लाइट्स लिखें, इसके मायने वही रहेंगे जो आजतक रहे हैं। भाषा बदलने से त्योहार का मतलब नहीं बदल जाता। उससे जुड़ी परंपराएं, मान्यताएं या महत्व नहीं बदल जाते। और एक जरूरी बात हिंदू परिधान कोई परिधान नहीं होता। हां, इंडियन और वेस्टर्न कैटेगिरी जरूर मिल जाती है लेकिन किसी परिधान का नाम हिंदू साड़ी, या मुसलमान सलवार-कमीज़ नहीं होता। हमारे यहां परिधान उस खास जगह की पहचान होते हैं जहां वो बनते हैं। जैसे बनारस की बनारसी साड़िया, कांजीवरम, भागलपुरी या लहरिया। ये सिर्फ एक विज्ञापन की बात नहीं है ये उन सभी चीज़ों पर पर धर्म की लकीर खींचने की कोशिश हो रही है जो अब तक सभी के लिए साझा थे और जिनका सांप्रदायिकता से कोई वास्ता नहीं था।

महिलाओं की पसंद को धर्म से जोड़ना कितना जायज़ है?

आखिरी बात बिंदी की। बिंदी हिंदू औरतों की पहचान नहीं है, ये पितृसत्ता की देन है। जहां औरत को एक सजी-धजी दुल्हन के तौर पर पेश किया जाता है। औरतों को पैट्रनाइज़ करना, उन्हें कपड़ों पर ज्ञान देना किसी भी धर्म के लिए गर्व की बात नहीं हो सकती। बिंदी या किसी भी चीज़ का आपके धर्म में महत्व हो सकता है, पर इसका ये मतलब कतई नहीं कि आप इसे लोगों पर थोपने लगें। हमारे देश में लोगों को अपनी पसंद और कम्फर्ट के हिसाब से पहनने-ओढ़ने और मेकअप करने की आज़ादी है। अगर बिंदी किसी को पसंद है तो वो कोई लगा लगा सकता है, फिर हिंदू हो या मुसलमान। ये सिर्फ हिंदू होने का ठप्पा नहीं है।

बहरहाल, इन विज्ञापनों ने निश्चित ही एक अच्छे समाज की तस्वीर पेश करने की कोशिश की है, जो शायद कुछ लोगों को रास नहीं आ रही। ऐसे विज्ञापनों से इन कंपनियों को कितना फायदा या नुकसान होगा पता नहीं, लेकिन इतना जरूर है कि ये समाज में सालों से चली आ रही दकियानूसी परंपराओं और रीति-रिवाजों के साथ-साथ जेंडर स्टीरियोटाइप या लैंगिक रूढ़िवादिता को तोड़ने की कोशिश पूरी कर रहे हैं।

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