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आवश्यक सेवाओं में कार्यरत श्रमिकों के लिए सुरक्षा की गारंटी करे सरकार

जब डॉक्टर और नर्स से लेकर साफ़- सफाई से जुड़े कामों में लगे लोगों  के पास नहीं होंगे कोरोना वायरस से बचने के जरूरी सुरक्षा उपकरण तो कैसे लड़ी जाएगी कोरोना की लड़ाई ?
Hospital
फाइल फोटो

लाॅकडाउन के 2 सप्ताह बीत चुके हैं। अब सवाल उठ रहा है कि इसे पहले कि भांति जारी रखा जाए या बीच-बीच में छोटे ब्रेक देकर चलाया जाए। सरकार दुविधा में पड़ी है क्योंकि कोविड-19 संक्रमण और मृत्यु के curve flatten होने के लक्षण नहीं दिखा रहे। पिछले लेख में हमने स्वास्थ्य विशेषज्ञों की राय प्रस्तुत की थी, जिनका मानना है कि इस किस्म के लाॅकडाउन से अब कोई लाभ नहीं बल्कि भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। इसलिए लक्षित नज़रिये, आक्रामक परीक्षण और सामाजिक सुरक्षा की बात कही गई।

अब इस लाॅकडाउन के चलते आवश्यक सेवाओं को छोड़कर सभी कामकाज ठप्प हो गए हैं। इन सेवाओं को जारी रखने वाले कर्मचारी काम करने से मना नहीं कर सकते, इसलिए उन्हें महामारी की स्थितियों में भी काम करना पड़ेगा; वे कानून से बंधे हुए हैं। पर सरकार उनकी सुरक्षा की गारंटी करने के लिए केवल नैतिक रूप से नहीं, बल्कि कानूनी और संवैधानिक तौर पर भी बाध्य है। सबसे पहले आते हैं स्वास्थ्यकर्मी-चिकित्सक, नर्सें, वार्डबाॅय, सफाईकर्मी, फार्मेसिस्ट आदि; ये लोग कोविड के विरुद्ध जंग की अग्रिम पंक्ति में खड़े हैं।

इनके बारे में खबरें आ रही हैं कि ये लोग संक्रमित हो रहे हैं, जैसे वोकहार्ट, मुम्बई में। इन्हें मकानों से निकाला जा रहा है। लखनऊ और बांदा में नर्सों को मास्क व ग्लव्स मांगने के लिए काम से निकाला गया और तन्ख्वाह आधी कर दी गई। ग्रामीण इलाकों में स्क्रीनिंग कर रही हज़ारों आशा कर्मियों को भी सुरक्षा के सामान  नहीं दिए गए। दूसरी high-risk category है सफाईकर्मियों की, जो अस्पतालों, घरों और सड़कों से कूड़ा एकत्र करते हैं और सीवरों, नालों व शौचालयों की सफाई करते हैं। इन्हें 3-layered protective gear मिलना चाहिये। फिर आते हैं केमिस्ट की दुकानों पर काम करने वाले, सब्ज़ी-फल व किराने के विक्रेता, यातायात सेवाओं में कार्यरत लोग, बैंक कर्मी आदि। इसके अलावा बिजली और टेलिफोन विभागों के लाइनमैन व अन्य maintenance workers भी काम पर लगे हैं। मानसिक रोगियों के केंद्रों, वृद्धों और बच्चों के आश्रमों, juvenile homes, हाॅस्टलों और पीजी में काम करने और रहने वाले, जो लाॅकडाउन की वजह से फंसे हैं, भी high-risk category में आते हैं।

डा. मुरलीधरन वेंकटेश्वर, जिन्होंने मुम्बई में व्यवसायिक सुरक्षा व स्वास्थ्य के मुद्दे पर काफी काम किया है और अब चेन्नई के एक प्राइवेट अस्पताल में सर्जन हैं कहते हैं कि ‘‘मालिक PPE तो क्या, मास्क तक नहीं दे रहे हैं, जो देना अनिवार्य है; यह सरकारी व निजी अस्पतालों की स्थिति है।’’ उनका कहना है,‘‘मास्क केवल हमें नहीं, समुदाय को भी संक्रमित व्यक्ति से बचाता है। मास्क के लिए ऐसी अफरा - तफरी मच गई है कि लोगों ने दूना-तिगुना दाम देकर दुकानों से हर किस्म के मास्क खरीद लिए, यहां तक कि सर्जिकल मास्क भी, जिन्हें पहनना आम लोगों के लिए ज़रूरी नहीं है। इसकी वजह से दुकानदार जमाखोरी में लग गए और मास्क का अभाव पैदा हो गया।

नतीजा है कि कई जगहों पर चिकित्सकों को ऑपरेशन के लिए भी सर्जिकल मास्क नहीं मिल पा रहे। इसका एक अहम कारण है सार्वजनिक स्वास्थ्य के बारे में लोगों की अज्ञानता। मसलन एन-95 मास्क के लिए बैंक कर्मी और टेलिकाम सेवकों की होड़ मच गई। एन-95 रेस्पिरेटर एक ऐसा सुरक्षा उपकरण है जो चेहरे से सटा हुआ रहता है और हवा में तैर रहे वायरस से बचाता है। अस्पतालों के संक्रमित माहौल में इसकी सख़्त जरूरत होती है क्योंकि चैबीस घंटे मरीजों के बीच काम करना है। पर बैंक कर्मी के लिए इसकी आवश्यकता नहीं है। इस मास्क को मरीज देखने के बाद बाद फेंक देना होता है। इन्हें दिन भर लगाना या दोबारा लगाना अनुचित है। क्या इसका पालन हो रहा है?’’

श्री इलंगो सुब्रमणियम  एक टेलिकाम अधिकारी हैं, बताते हैं कि कुछ ऐसे काम होते हैं जहां social-distancing असंभव है, क्योंकि ये काम अकेले नहीं किये जा सकते। ‘‘maintenance work चाहे वह बिजली के क्षेत्र में हो या टेलिकाम में अकेले नहीं होता; एक पूरी टीम जाती है। इन्हें तो मास्क नहीं दिये जा रहे। इसी तरह चेन्नई मेट्रो जल सेवा ट्रकों पर पानी लेकर आवासीय क्वाटरों में पहुंचा रही है। ये पंप से पानी को टैंकों में, यहां तक कि सैकड़ों लोगों द्वारा लाए गए पीपों और घड़ों में भी भर रही है। इनके पास न ग्ल्वस हैं न मास्क। यदि एक कर्मचारी संक्रमित हो तो न जाने कितने हज़ारों लोगों या कितनी काॅलोनियां तक संक्रमित हो जाएंगी। हमने सरकार को कह दिया है कि वे हमारे एक दिन का वेतन काटकर प्रधान मंत्री के रिलीफ फंड में डाल दें। मैंने स्वयं 3000 रु दिये हैं पर मुझे 300 रु का एक मास्क तक नहीं मिला। PPE को शासकों ने क्या समझ लिया? व्यक्ति द्वारा पहनने के लिए नहीं, बल्कि व्यक्ति द्वारा personal income से खरीदे जाने के लिए।’’

श्रमिक नेता गीता रामकृष्णन कहती हैं, ‘‘Labour Code Bill on Occupational Health and Safety संसद में लम्बित है, और अब तो कोविड की वजह से सत्र टल गया है। हमने कई सारी आपत्तियां दर्ज की थीं और सरकार ने हमारी अनसुनी कर दी। पर विडम्बना यह है कि कोविड के व्यापक संक्रमण ने इस विधेयक को एक रद्दी कागज़ के टुकड़े में बदल डाला है, क्योंकि उसमें महामारी की स्थिति में आवश्यक सेवा देने वालों की बात ही नहीं की गई है। इस्तेमाल किये हुए मास्कों की तरह इस विधेयक को भी आग लगाना चाहिये!’’

डा. अरविन्दन सिवकुमार चेन्नई के एक प्रमुख मनोरोग चिकित्सक हैं। इन्होंने मनोरोगियों के आश्रयों के लिए कुछ सुझााव दिये। उनका मानना है कि ‘‘सरकार को मानसिक रोगियों के पुनर्वास केंद्रों, बाल-आश्रयों, वृद्धाश्रमों में विशेषज्ञों की टीमें भेजनी चाहिये, खासकर निजी केंद्रों में, जहां मनमानी चलती है। ज्यादातर सदस्यों में co-morbidity पाई जाएगी, जो या तो दवाओं के कारण या अन्य कारणों से होगी। निजी केंद्रों में तो स्थितियां भयावह है-एक हाॅल या डोरमेट्री  में 40-50 लोगों को भर दिया जाता है।  यहां social distancing बेमानी हो जाता है। बहुत से निजी अस्पताल लाॅकडाउन के कारण बंद हैं, तो सरकार उन्हें अस्थाई रूप से अपने हाथ में लेकर उनमें सही ढंग से क्वारंटाइन स्थितियों में इन लोगों के रहने की व्यवस्था कर सकती है।’’

इनके अनुसार कोरोना के बाद की स्थितियों और भी भयानक हो सकती हैं, क्योंकि कितनों की नौकरियां जाएंगी, कितनों के प्रियजन व परिजन कोविड से मरेंगे और कितनों को भारी घाटे सहने होंगे। अभी से आत्महत्या की घटनाएं सामने आने लगी हैं। कई इलाकों में, जहां अधिक प्रभाव पड़ा है, 40-50 प्रतिशत लोग अवसादग्रस्त हो सकते हैं; इन्हें विशेष सेवा और councelling की जरूरत पड़ेगी।

 इन्होंने कहा,‘‘सफाई कर्मियों को वही सुरक्षा उपकरण दिये जाने चाहिये जो असपतालों का कुड़ा फेंकने वालों का होता है।इसी तरह से नर्सों और पैरामेडिक्स के लिए महज मास्क नाकाफी है, क्योंकि उन्हें हज़ारों लागों की स्क्रीनिंग करनी पड़ती है। Isolation wards में चिकित्सक अधिक एहतियाद बरत सकते हैं, पर बाकी स्टाफ क्या करे? बार-बार लगातार कोविड-19 संक्रमित मरीजों के साथ संपर्क के कारण एक मेडिकल स्थिति पैदा होती है, जिसे cytokine storm कहा जाता है; इसमें फेफड़े में जलन व सूजन आती है। क्योंकि प्रतिरोधक कोषिकाएं और कंपाउंड अधिक पैदा होने लगते हैं। यह स्वास्थ्य कर्मियों के लिए जानलेवा साबित हो सकता है। इन्हें डब्लूएचओ द्वारा दिये गए निर्देशों के अनुकूल PPEमिलने चाहिये, पर भारत में ऐसा नहीं हो रहा है।’’

उनके अनुसार, शराबी लोग भी high-risk वाली श्रेणी में आते हैं। शराब पर उत्पाद शुल्क सबसे अधिक है और सरकार को सबसे अधिक राजस्व इसी से मिलता है, फिर भी इसका छोटा सा अंश इन लोगों के पुनर्वास पर खर्च नहीं किया जाता। ‘‘शराब न मिलने पर इन्हें withdrawal symptoms से जूझना पड़ता है। इसलिए इन्हें चिकित्सकों की निगरानी में ही शराब छुड़वाया जाना चाहिये। पर तमिल नाडू में सभी शराब की दुकाने बंद हैं। अगर इन शराब पीने वालों को एकदम से medically permitted dose से भी वंचित रखा जाएगा, उनकी मौत हो सकती है या वे आत्महत्या कर सकते हैं। केरल में ऐसे अनेकों केस सामने आए हैं। सही तरीके से पुनर्वास किया जाए तो 40-50 प्रतिशत ऐसे मौत रोके जा सकते हैं।’’ सरकार को लाॅकडाउन को समझदारी और संजीदगी से लागू करना होगा, अंधाधुंन्ध तरीके से नहीं। यह सरकार का कर्तव्य है।

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