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विज्ञापन की महिमा: अगर विज्ञापन न होते तो हमें विकास दिखाई ही न देता

...और विकास भी इतना अधिक हुआ कि वह भी लोगों को दिखाई नहीं पड़ा, विज्ञापनों से ही दिखाना पड़ा। लोगों को तो नारियल फोड़ने से फूटने वाली सड़कें दिखाई दीं पर सरकार ने विज्ञापनों में हवाई जहाज उतारती सड़कें ही दिखाईं।
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लोगों को चिंता है कि मुद्दों पर चर्चा नहीं होती है, चुनाव हैं, फिर भी मुद्दों पर बात नहीं होती है। वैसे तो बहुत सारे लोग गैर मुद्दों को ही मुद्दा बनाने पर खुश हैं पर कुछ मेरे जैसे लोग इससे परेशान भी हैं। उनकी चिंता है कि बेरोज़गारी पर बात नहीं होती है, महंगाई पर बात नहीं होती है, गरीबी-भुखमरी पर बात नहीं होती है, कोविड से जो इतने सारे लोग मर गए, उन पर बात नहीं होती है।

लेकिन हम जैसे लोगों की बात पूरी तरह से गलत है। देखा नहीं था, चुनावों से पहले, चुनावों की घोषणा से ठीक पहले तक, चुनाव संहिता लागू होने से ठीक पहले तक अखबारों में कितने बड़े बड़े विज्ञापन आते थे। बड़े बड़े होर्डिंग्स लगे थे सड़कों पर कि किस तरह से राज्य की सरकारों ने क्या क्या किया है, और कितना कुछ किया है, अपने राज्य की जनता के लिए।

आप उत्तर प्रदेश की बात ही लो। चुनावों से महीनों पहले से ही बेरोजगारों की बात होने लगी थी। यूपी के सरकार जी को अखबारों में बड़े बड़े इश्तहारों को छपवा, जगह जगह बड़े बड़े होर्डिंग लगवा यह बताना पडा़ कि उसने कोई चार साल में कोई चार लाख लोगों को रोजगार दिया है। उन इश्तहारों में, उन होर्डिंग्स में यूपी के सरकार जी यानी छोटे सरकार जी और देश के बडे़ सरकार जी, दोनों की बड़ी बड़ी तस्वीरें होती थीं। इतने सारे लोगों को नौकरियां दे दी गईं थीं और लोगों को कहीं दिख ही नहीं रहीं थीं। न उनके घर रिश्तेदारी में किसी को नौकरी मिली थी और न पास पड़ोस में किसी को। अतः लोगों को यकीन ही नहीं हो रहा था कि सरकार ने इतनी सारी नौकरियां दे दी हैं। इसीलिए सरकार को लोगों को बताने के लिए, यकीन दिलाने के लिए इश्तहारों की मदद लेनी पड़ी। होर्डिंग्स लगाने पड़े। क्या आप अब भी कहेंगे कि सरकार को रोजगार की कोई चिंता नहीं है? भाजपा के लिए बेरोज़गारी कोई विषय ही नहीं है?

बाइस तेइस करोड़ वाली जनसंख्या वाले प्रदेश में हर वर्ष औसतन अस्सी नब्बे हजार लोगों को रोजगार देना कितना बड़ा काम है। इसीलिए इस काम को ऐसे प्रचारित किया जा रहा था कि जैसे डबल सरकार जी की सरकार ने कोई डबल तीर मार दिया हो। लेकिन भई, इससे ज्यादा लोग तो पांच वर्षों में रिटायर ही हो गये होंगे। नई नौकरियां छोड़ो, सेवा निवृत्त हुए लोगों की पोस्ट भर डालते तो भी चार लाख से अधिक लोग नौकरी पर लग जाते। क्या करें, चुनाव हैं, प्रचार करना है। जब काम नहीं किया है तो प्रचार तो करना ही पड़ेगा।

और विकास भी इतना अधिक हुआ कि वह भी लोगों को दिखाई नहीं पड़ा, विज्ञापनों से ही दिखाना पड़ा। लोगों को तो नारियल फोड़ने से फूटने वाली सड़कें दिखाई दीं पर सरकार ने विज्ञापनों में हवाई जहाज उतारती सड़कें ही दिखाईं। और विज्ञापन भी ऐसे कि कलकत्ता वाला फ्लाईओवर उत्तर प्रदेश में बन जाये। चलो, वह तो देश की ही बात है। लेकिन बीजिंग वाला हवाई अड्डा भी जेवर उत्तर प्रदेश में उतारना पड़ा। विकास के विज्ञापनों में वसुधैव कुटुंबकम् के ऐसे ही अनेकों उदाहरण मिले। पर हमारा वसुधैव कुटुंबकम् ऐसा है कि अमरीका वाली सड़क और चीन वाली फैक्ट्री तो हमारी है, पर यहीं, हमारे यहां, इसी देश में, उत्तर प्रदेश में ही रहने वाले करीब साढ़े चार करोड़ मुसलमान हमारे नहीं हैं। उनके लिए तो हमारे पास जेल है, कुड़की है, बुलडोजर है और धर्म संसद में जनसंहार है।

उत्तर प्रदेश में सरकार ने स्वास्थ्य के फ्रंट पर तो इतना काम किया है कि लोगों को दिखा ही नहीं। और जो लोगों को वास्तव में दिखा वह विज्ञापनों में नहीं दिखाई दिया। कोविड काल में लोगों ने गंगा मैया में तैरते शव देखे। पर वे शव विज्ञापनों में कहीं नहीं दिखाई दिए। विज्ञापनों में यह छिपाया गया कि गंगा में शव प्रवाहित करने से कई लाभ हैं जो पूरे विश्व में मात्र उत्तर प्रदेश के सरकार जी ने ही अपने प्रदेश की बहुसंख्यक जनता को उपलब्ध कराये हैं। पहला तो गंगा मैया में शव प्रवाहित करने से अंतिम संस्कार का खर्च बचता है और यह बचत कोरोना काल की मुफलिसी में उत्तर प्रदेश सरकार का अपने प्रदेश की जनता को बहुत ही नायाब तोहफा था। दूसरा लाभ यह कि दिवंगत आत्मा सीधे स्वर्ग को प्रयाण करती है भले ही उसका नश्वर शरीर बिहार पहुंचे या बंगाल। या फिर बहते बहते बंगाल की खाड़ी में पहुंच जाये और अंतरराष्ट्रीय बन जाए। 

जिस समय उत्तर प्रदेश की सरकार राज्य की जनता को गंगा नदी में शव प्रवाहित करने की सुविधा प्रदान कर रही थी उसी समय विदेशी अखबारों में करोड़ों अरबों खर्च कर कोविड मैनेजमेंट को लेकर उत्तर प्रदेश के सरकार जी के फोटो वाले विज्ञापन दिए जा रहे थे। न्यूयॉर्क टाइम्स में पैसे खर्च कर छपवाया जा रहा था कि भाई जी, कोविड मेनेजमेंट हो तो ऐसा हो। देश में तो विज्ञापन छपवाने का साहस जुट नहीं पा रहा थे,तो विदेश में ही छपवाये जा रहे थे। क्या बात है! प्रदेश में लोग मर रहे हों पर विदेशों में वाह वाही के विज्ञापन छपाये जा रहे हों। 

विज्ञापन तो धन्यवाद देने के भी छपवाये जा रहे थे। पूरे देश में धन्यवाद मोदी जी के होर्डिंग्स लगे थे। हर सड़क पर, हर चौराहे पर और हर पेट्रोल पंप पर धन्यवाद मोदी जी के होर्डिंग्स लगे थे। लोग बीमार पड़ रहे थे, मर रहे थे, बेरोजगार हो रहे थे और मोदी जी का धन्यवाद भी कर रहे थे। बढ़ी कीमतों में पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस खरीद अपनी अपनी वैक्सीन का इंतजाम अपने आप कर रहे थे और पेट्रोल पंपों पर ही मुंह चिढ़ाती होर्डिंग्स लगा धन्यवाद मोदी जी का कर रहे थे।

विज्ञापनों की यही महिमा होती है कि सच को दबाया जाये और झूठ को फैलाया जाये। और उन पर खर्च भी बहुत किया जाता है। एक सांसद ने लोकसभा में बताया कि बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ कार्यक्रम के कुल बजट का अट्ठावन प्रतिशत विज्ञापन पर खर्च किया गया। यही है विज्ञापन की महिमा। यही महिमा है कि 'विमल' या 'रजनीगंधा' पान मसाले के बिना जिंदगी निरर्थक बताई जाए। बताया जाता है कि 'संतूर' साबुन से त्वचा में कौमार्य बरकरार रहेगा और सुन्दर गोरी त्वचा के लिए 'फेयर और लवली' जरुरी है। झूठ का आवरण फैला जितना जिंदगी में इनकी जरूरत बनाई गई है उतनी ही जरूरत विज्ञापनों द्वारा देश को मोदी योगी सरकार की बताई जा रही है।

विज्ञापनों की महिमा अपरंपार होती है। सरकार जी, सरकार के ही पैसे से विज्ञापन दे अखबारों को खरीद लेते हैं, टीवी के मीडिया को खरीद लेते हैं। आप को खरीद लेते हैं। आपकी सोच और वोट को खरीद लेते हैं। और आपको पता भी नहीं चलता है। विज्ञापन, इश्तहार, पोस्टर, होर्डिंग्स व्यवसायियों को नोट दिलवाते हैं और सरकार जी को वोट। फर्क बस इतना है कि व्यवसायी अपने लिए पैसा खुद खर्च करता है और सरकार जी के लिए सरकार पैसा खर्च करती है।

(‘तिरछी नज़र’ एक व्यंग्य स्तंभ है। लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)

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