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उत्तराखंड: क्या आप साइंस रिसर्च कॉलेज के लिए 25 हज़ार पेड़ों को कटने देना चाहेंगे ?

“हम दुनियाभर में प्राकृतिक आपदाएं देख रहे हैं। उत्तराखंड में ही एक के बाद एक प्राकृतिक आपदाएं आ रही हैं। अब विकास के नाम पर पेड़ों को काटने का समय खत्म हो गया है। अब पेड़ों के संरक्षण का समय है। हम देहरादून में साइंस रिसर्च कॉलेज का विरोध नहीं कर रहे। हमें दूसरे विकल्पों पर सोचना चाहिए”।
आंचल और उनके साथी 25 हज़ार पेड़ काटने का विरोध कर रहे हैं
आंचल और उनके साथी 25 हज़ार पेड़ काटने का विरोध कर रहे हैं

देहरादून के बालावाला के जंगल से 25 हज़ार पेड़ों को काटकर साइंस रिसर्च कॉलेज बनाने की योजना है। जहां बायोलॉजी, इकोलॉजी, केमेस्ट्री, जलवायु परिवर्तन, धरती पर जीवन, बायोटेक्नोलॉजी समेत धरती, प्रकृति, मनुष्य से जुड़े विषयों पर शोध किया जाएगा।

साइंस रिसर्च कॉलेज के लिए जो जगह चुनी गई है, वहां जीव-जंतुओं-जैव विविधता का अदभुत संसार बसता है। देहरादून के शिवालिक रेंज में मसूरी वन प्रभाग में आने वाला बालावाला क्षेत्र का जंगल हाथियों की मौजूदगी के लिए जाना जाता है। जो आईयूसीएन की इनडेनजर्ड यानी खतरे की जद में आ चुके वन्यजीवों की रेड लिस्ट में शामिल हैं। हाथियों की आबादी में 1930-40 की तुलना में 50% तक गिरावट आ चुकी है। हाथियों के सबसे बड़ी चुनौती प्राकृतिक आवास का छिनना, जंगलों की गुणवत्ता में गिरावट और एक से दूसरे जंगल में आवाजाही बाधित होना है।

हाथियों के साथ यहां तेंदुए, हिरन, सांप, बंदर, जंगली सूअर और सांप जैसे वन्यजीव निवास करते हैं। साल के बड़े-बड़े वृक्षों के साथ लीची, जामुन, पीपल, नीम, खैर, शीशम जैसे पेड़ हैं। चिड़ियों की चहचहाहट दूर से सुनी जा सकती है।

जैव-विविधता समझने के लिए इस जंगल की पगडंडी पर चुपचाप टहलना काफी है। ये जंगल ही जलवायु परिवर्तन के चलते आने वाली आपदाओं से हमें बचा सकते हैं। क्या इन्हें काटकर हम किताबों और शोध के ज़रिये जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों के बारे में समझेंगे?

जंगल के नज़दीक ही सौंग नदी गुज़रती है। देहरादून की रिस्पना, बिंदाल, सुसवा जैसी नदियां दम तोड़ चुकी हैं। रिस्पना और सुसवा नदी को पुनर्जीवित करने के लिए अभियान चलाया जा रहा है। करोड़ों के प्रोजेक्ट में लाखों पौधे लगाए जा रहे हैं। सौंग नदी में अब भी पानी बहता है। इसके बचे रहने के लिए बालावाला का जंगल बचना जरूरी है। ताकि फिर एक पुनर्जीवन अभियान न चलाना पड़े।  

हाथियों को रिहायशी इलाके में जाने से रोकने के लिए सोलर फेन्सिंग बनाई गई है

इस जंगल के ठीक बगल में शिवालिक एलीफ़ेंट रिज़र्व है।  8 नवंबर 2020 को यहां 3 किलोमीटर लंबी सोलर फेंसिंग का उद्घाटन किया गया था। ताकि हाथी बालावाला जंगल से नजदीकी खेतों और रिहाइशी इलाकों में प्रवेश ना करें। ये सोलर फेन्सिंग यहां हाथियों की मौजूदगी का प्रमाण है।

वनभूमि पर उच्च शिक्षा संस्थान बनाने का प्रस्ताव

बालावाला क्षेत्र में रेंजर राकेश नेगी बताते हैं “जुलाई में अपर सचिव वन आनंद वर्धन ने इस वन भूमि का निरीक्षण किया था। हमने उन्हें जगह दिखायी। तकरीबन 25 हज़ार पेड़ इस जगह हैं”।

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च यानी आईआईएसआर स्तर के साइंस रिसर्च कॉलेज के लिए उच्च शिक्षा विभाग ने केंद्र को प्रस्ताव भेजा है। आईआईटी, आईआईएम की तर्ज पर उत्तराखंड को आईआईएसआर स्तर का शैक्षिक संस्थान भी मिल जाए। नाम ज़ाहिर न करने की शर्त पर विभाग में कार्यरत सदस्य बताते हैं “ये अभी शुरुआती स्टेज़ में है। बालावाला में ही जगह देखी गई है। केंद्र को इसका प्रस्ताव भेजा जा चुका है। अभी इस पर सहमति नहीं मिली है”।

वहीं, मुख्य वन्यजीव प्रतिपालक जेएस सुहाग इस मुद्दे पर कुछ भी कहने से बचते हैं और प्रभागीय वन अधिकारी से प्रतिक्रिया लेने को कहते हैं।

मसूरी वन प्रभाग की डीएफओ कहकशां नसीम व्हाट्सएप संदेश के जवाब में बताती हैं कि उच्च शिक्षा विभाग ने इसकी डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट अभी नहीं दाखिल की है।

अपर सचिव वन आनंद वर्धन से इस पर प्रतिक्रिया लेने की लगातार कोशिश की गई। 48 घंटों तक उन्होंने अपना फ़ोन नहीं उठाया। न ही मैसेज का जवाब दिया।

बालावाला जंगल बचाना है!

देहरादून में पर्यावरण कार्यकर्ता डॉ. आंचल शर्मा ने ऑनलाइन पेटिशन दाखिल करने वाली संस्था चेंज डॉट ऑर्ग पर बालावाला के जंगल बचाने के लिए याचिका दाखिल की है। ताकि बालावाला के जंगल को कटने से बचाया जा सके और लोगों का ध्यान इस मुद्दे पर खींचा जा सके। 25 जुलाई  की रात को दाखिल पेटिशन पर 6 दिन में, 2 अगस्त तक 19,545 हज़ार से अधिक लोग हस्ताक्षर कर चुके हैं।

आंचल कहती हैं कि जैव-विविधता से भरपूर इस जंगल को हमें हर हाल में बचाना होगा। वह साइंस सिटी के लिए कुछ और विकल्पों के बारे में बात करती हैं। जैसे:

- संस्थान के लिए आम लोगों से ज़मीन खरीदें या
- ग्राम पंचायत की भूमि या फिर नगर निगम की भूमि का उपयोग करें
-उत्तराखंड में 102 ग्रेजुएशन और पोस्ट ग्रेजुएशन कॉलेज पहले से ही मौजूद हैं, इनमें से किसी को भी आईआईएसआर का दर्जा दिया जा सकता है। या फिर साइंस रिसर्च कॉलेज के तौर पर विकसित किया जा सकता है। 

आंचल कहती हैं “देहरादून की हरियाली तेज़ी से कम होती जा रही है। हम राज्य के पुराने जंगल दांव पर नहीं लगा सकते। हाथियों की संख्या पहले ही कम हो रही है। हम उनसे उनका घर नहीं छीन सकते”। 

वर्ष 2017 में नैनीताल हाईकोर्ट ने नदियों-जंगल को जीवित प्राणी का दर्जा दिया था। जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी थी।

अब पेड़ों के संरक्षण का समय है

आंचल और कुछ अन्य युवा जंगल को बचाने की मुहिम के तहत रविवार को बालावाला पहुंचे। द अर्थ एंड क्लाइमेट इनिशिएटिव नाम से पर्यावरणीय मुद्दों पर बात करने वाली अंकु शर्मा कहती हैं “हम दुनियाभर में प्राकृतिक आपदाएं देख रहे हैं। उत्तराखंड में ही एक के बाद एक प्राकृतिक आपदाएं आ रही हैं। अब विकास के नाम पर पेड़ों को काटने का समय खत्म हो गया है। अब पेड़ों के संरक्षण का समय है। हम देहरादून में साइंस रिसर्च कॉलेज का विरोध नहीं कर रहे। हमें दूसरे विकल्पों पर सोचना चाहिए”। अंकु बताती हैं कि ट्विटर पर #अब पेड़ नहीं कटेंगे  हैशटैग से अभियान भी शुरू किया गया है”।

हरेला में पौधे लगाते हैं, विकास के नाम पर हज़ारों पेड़ काटते हैं !

बालावाला जंगल देखने आए स्थानीय पत्रकार अमित गोदियाल भी इस मुद्दे पर अपनी नाराजगी जताते हैं। वह कहते हैं “कॉलेज खोलने के लिए 25 हज़ार पेड़ काटने जा रहे हैं। हम हर साल हरेला पर्व मनाते हैं और लाखों पौधे लगाते हैं। उन पौधों की कोई निगरानी नहीं होती। वे पौधे कहां उगते हैं, हमें नहीं पता। दूसरी तरफ आप हरे-भरे जंगल को उजाड़ने की बात कर रहे हैं”।

सेंटर फॉर अर्बन एंड रीजनल एक्सलेंस और यूएसएआईडी की ओर से कराये जा रहे सिटी वाटर बैलेंस प्लान अध्ययन के मुताबिक देहरादून में वर्ष 1995 से 2015 के बीच 600% कंक्रीट का कवर बढ़ा है। जिसके चलते पानी के स्रोत सूख गए हैं। जिसके चलते मानसून में बाढ़ का खतरा और गर्मियों में जल संकट बढ़ रहा है।

इससे पहले देहरादून में ही जौलीग्रांट एयरपोर्ट के विस्तार के लिए 10 हज़ार पेड़ों के काटने का प्रस्ताव भेजा गया था। जिस पर पर्यावरण प्रेमियों ने तीव्र विरोध जताया था।

इसे पढ़ें: जब 10 हज़ार पेड़ कट रहे होंगे, चिड़ियों के घोंसले, हाथियों के कॉरिडोर टूट रहे होंगे, आप ख़ामोश रहेंगे?

क्या हैं जंगल के अधिकार

वर्ष 2017 में नैनीताल हाईकोर्ट ने गंगा-यमुना समेत नदियों, झीलों, ग्लेशियर, जंगल, बुग्यालों को जीवित प्राणी का दर्जा दिया था। बाढ़ पीड़ितों समेत अन्य आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने इस फ़ैसले पर रोक लगा दी थी। लेकिन जिस तरह से जंगल, नदियों, वन्यजीवों, चिड़ियों के संसार को उजाड़ने के लिए एक के बाद एक योजनाएं तैयार की जा रही हैं, क्या आपको लगता है कि हमें धरती पर बने रहने के इनके अधिकार की कानूनी तौर पर भी रक्षा करनी होगी?

सभी फ़ोटो: वर्षा सिंह

(देहरादून स्थित लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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