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पश्चिम बंगाल मतदान: विश्लेषक वाम-आईएसएफ गठबंधन को आख़िर किस तरह समझने में गलती कर बैठे?

अगर बंगाल में धर्मनिरपेक्ष टीएमसी सत्ता में है, तो सवाल है कि लगातार होती सांप्रदायिक झड़पें माहौल को क्यों बिगाड़ रही हैं और भाजपा के असर को बेतरह क्यों बढ़ा रही हैं?
पश्चिम बंगाल मतदान

एक सुहानी शाम को भारत के एक ग़ैर-धर्मनिरपेक्ष बाशिंदे ने मेरे मेलबॉक्स में एक संदेश छोड़ा और उसने उस संदेश में अब्बास सिद्दीक़ी की नव-निर्मित राजनीतिक पार्टी-इंडियन सेक्युलर फ़्रंट (ISF) के साथ वाम मोर्चे के गठबंधन का मज़ाक उड़ाया था।उस संदेश में हरे रंग में वह हंसिया और हथौड़ा था, जो कम्युनिस्ट पार्टी के साथ परंपरागत तौर पर लाल रंग के साथ जुड़ा रहा है और ऐसा करके दरअसल उस संदेश में कम्युनिस्ट पार्टी को विकृत रूप में प्रस्तुत किया गया था। मज़ाक उड़ाने की इस कोशिश में सांप्रदायिक रसातल की तरफ़ जाते वामपंथियों को लेकर किसी भी तरह की चिंता नहीं थी,जो कि निश्चित रूप से है भी नहीं, बल्कि इस संदेश में मुसलमानों की मुखरता को देखते हुए एक अभिजात्य वर्ग के अतिवादी हिंदूवादी चेहरों की व्याकुलता दिखाई देती है।

मुसलमानों के ख़िलाफ़ धारणा और पूर्वाग्रह को ऐतिहासिक रूप से झुठलाया जाता रहा है। इसके अलावा,इस उप-महाद्वीप में जिस शख़्स ने इतिहास की यह चाल चली थी,वह कोई मज़हबी मौलाना नहीं था, जो देश के ख़ूनी बंटवारे के साथ आगे बढ़ गया था, बल्कि वह एक धर्मनिरपेक्ष, आधुनिकतावादी और शिष्ट वकील मोहम्मद अली जिन्ना थे।

जिन्ना के मुख्य सहयोगियों में वे सामंत भी थे, जिन्हें इस बात का डर था कि वे भावी बुर्जुआ-लोकतांत्रिक भारत से बेदखल कर दिये जायेंगे। जाहिर है,अविभाजित भारत में मौलाना हसरत मोहानी जैसे आधुनिक विचारों वाले कई मौलाना भी सामने आये थे। मोहानी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सबसे शुरुआती सदस्यों मे से एक थे। उन्होंने ही हमें वह मशहूर ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ का क्रांतिकारी नारा दिया था, जो बाद में भगत सिंह जैसे मार्क्सवादी क्रांतिकारियों और उनके साथियों और कांग्रेस के भीतर वामपंथियों के बीच लोकप्रिय हुआ था।

कांग्रेस के मौलाना अबुल कलाम आज़ाद भी लगातार धर्मनिरपेक्ष और अविभाजित भारत के विचार के साथ बने रहे और स्वतंत्र भारत के पहले शिक्षा मंत्री बने। इस कहानी की सीख यही है कि अहम वह गोल टोपी नहीं है, बल्कि उसके नीचे का वह दिमाग़ है, जो प्रगतिवादी या प्रतिगामी संदेश को अपने साथ रखे होता है।

सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक़, भारतीय मुसलमान दोहरा बोझ ढो रहे हैं, यानी कि उन पर एक तरफ़ "देशद्रोही" होने का आरोप लगाया जाता है, तो दूसरी तरफ़ "तुष्ट" होने का आरोप मढ़ा जाता है। यह एक ऐसी स्थिति है, जो उनके हालात और किसी भी तरह से उन्हें लेकर किये गये किसी भी तरह के सकारात्मक कार्य को दोहरे तौर पर संदिग्ध बना देता है। हैरत नहीं कि इस समुदाय के भीतर दलित,अजलाफ़ और अरज़ल बेहद हाशिए पर हैं और आरक्षण के फ़ायदे से भी वंचित हैं।

यहां तक कि डॉ.बीआर अंबेडकर ने भी इनकी बदहाली पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया था। अगर उन्होंने ऐसा किया होता, तो उनकी तरफ़ से किया गया वह स्पष्ट आह्वान कि "मैं एक हिंदू के रूप में नहीं मरूंगा", उस आह्वान की गूंज हाशिए पर खड़े मुसलमानों के साथ भी गूंजी होती और मुसलमानों को अशरफ़ियत के वर्चस्व और इस समुदाय पर बड़े पैमाने पर उनके कब्ज़े पर सवाल उठाने की अनुमति भी मिली होती।

इस उदासीनता का नतीजा आख़िरकार तीन स्तर पर सामने आया था। 1950 के दशक में बौद्धों को राष्ट्रपति के अध्यादेश के ज़रिये आरक्षण लाभ में हिस्सेदारी मिली थी और ग़ैर-कुलीन मुस्लिम जातियों को बड़े पैमाने पर इससे बाहर रखा गया था, मुसलमानों के भीतर अपना आशियाना तलाश रहे एक ऐसा नेतृत्व भी सामने आया था, जिसका मक़सद उस फ़ायदे को भुनाना था, जिसे बाद में "वोट-बैंक" के तौर पर जाना गया और निचले स्तर के आंदोलन की नाकामी ने अखिल भारतीय मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे प्रतिगामी निकायों को अपने नापाक तरीक़ों से चिकनी चुपड़ी बात करने वाले राजनेताओं को निर्देशित करने की अनुमति दे दी।

हालत इतनी ख़राब हो गयी है कि अब भाजपा के लिए तत्क्षण दिये जाने वाले तीन तलाक़ पर इस तरह से कार्य करना था, जो उसकी राजनीतिक रणनीति के अनुकूल था, और मुसलमानों के नेतृत्व की ज़िम्मेदारी एईएमआईएम के उन ओवैसी भाइयों के पसंद किये जाने पर आकर टिक गया है, जो भाजपा के लिए दूसरी तरह से सहयोगी भूमिका निभाते हैं। एईएमआईएम को भारत की एकमात्र ऐसी राजनीतिक पार्टी होने का गौरव हासिल है, जिसका कोई चुनावी घोषणा पत्र नहीं है और ओवैसी भाइयों के पास हैदराबाद निज़ाम के रज़ाकारों की सामंती विरासत है।

भारत में मुसलमानों की आर्थिक बदहाली का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि 84.5% मुस्लिम परिवार हर रोज़ 20 रुपये और हर महीने 609 रुपये से ज़्यादा ख़र्च नहीं करते हैं और मुसलमान “बेहद ग़रीब”, “ग़रीब”, “सीमांत” और आबादी के "कमज़ोर" वर्ग है। मध्य आय वर्ग, जिसमें भारतीय मुस्लिम परिवारों का 13.3% है, यह प्रति व्यक्ति खपत के मुताबिक़ प्रति माह 1,098 रुपये या प्रतिदिन 37 रुपये ख़र्च करता है। उच्च आय वर्ग में शामिल महज़ 2.2% भारतीय मुसलमान प्रति माह 2,776 रुपये या प्रतिदिन 93 रुपये ख़र्च करते हैं। 2011 की जनगणना के मुताबिक़, 65.1% हिंदुओं के मुक़ाबले मुसलमानों में औसत साक्षरता दर 59.1% है।

यह भी दिलचस्प है कि हिंदू पुरुषों की 76.2% औसत साक्षरता दर के मुक़ाबले मुस्लिम पुरुषों की औसत साक्षरता दर 67.6% है, यानी औसत साक्षरता के लिहाज़ से दोनों के बीच का अंतर 8.6% है। हालांकि, हिंदू और मुस्लिम महिलाओं में औसत साक्षरता दर क्रमशः 53.2% और 50.1% है, यानी इन दोनों के बीच का अंतर महज़ 3.1% है।

हिंदू पुरुषों और महिलाओं के बीच औसत साक्षरता दर क्रमश: 76.2% और 53.2% है, यानी इनके बीच 23% का भारी अंतर है। जबकि मुस्लिम पुरुषों और महिलाओं के बीच की औसत साक्षरता दर क्रमशः 67.6% और 50.1% है, जिनमें कि 17.5% का अंतर है।

इस तरह, दोनों ही समुदायों के मामलों में महिलायें अपने पुरुष समकक्षों से बहुत पीछे हैं। ये आंकड़े इस मिथक को भी ध्वस्त करता है कि मुसलमान एक पिछड़े नज़रिये वाला समुदाय हैं और ख़ासकर महिलाओं की शिक्षा और सशक्तिकरण के सवाल को लेकर रूढ़िवादी हैं।

पिछले दस सालों से चल रहे टीएमसी के कुशासन ने न सिर्फ़ पश्चिम बंगाल के लोगों के लिए मुश्किलें खड़ी कर दी हैं, बल्कि भाजपा के उल्कापिंड को भी तेज़ी से बढ़ने दिया है। भाजपा ने उस सांप्रदायिक जिन्न को बाहर निकाल दिया है, जिसे वामपंथियों ने अपने शासन के 34 वर्षों के दौरान बोतल में बंद कर ज़मीन के नीचे दफ़्न कर दिया था। बंगाल के लोग और राजनीतिक पर्यवेक्षक, दोनों ही राज्य में बिगड़ती सांप्रदायिक स्थिति को लेकर परेशान हैं।

सभी इस बात को लेकर हैरान हैं कि कथित धर्मनिरपेक्ष टीएमसी शासन के वजूद में होने के बावजूद, शांतिपूर्ण माहौल में सांप्रदायिकरण का ज़हर कैसे फ़ैल रहा है और साथ ही साथ सांप्रदायिक झड़पें भी आम क्यों होती जा रही हैं।

इन सवालों का जवाब इतिहास में निहित है। अपने वजूद में आने के बाद से ही टीएमसी एक अवसरवादी राजनीतिक पार्टी रही है। इसने शुरुआत से ही भाजपा के साथ गठबंधन किया है और राज्य की मुख्यमंत्री, ममता बनर्जी और उनकी पार्टी के अन्य नेता, पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी के मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री भी रहे हैं।

भाजपा को पोषित करने के बाद, टीएमसी ने अकेले आगे बढ़ने और एक नया सामाजिक अंकगणित बनाने का विकल्प चुना, जिसके लिए उसकी नज़र बंगाल के उन मुसलमानों पर गयी, जो राज्य की आबादी का तक़रीबन 27.3% हैं। बनर्जी ने सच्चर रिपोर्ट का हवाला देते हुए रिज़वानुर रहमान की मौत का इस्तेमाल किया और कई अन्य सिलसिले में वामपंथियों के ख़िलाफ़ मुसलमानों को अपने पीछे लामबंद होने के लिए कहा। बंगाल के लोगों को इसकी क़ीमत जो चुकानी पड़ी है, वह कहीं ज़्यादा है।

टीएमसी के साथ आधिकारिक तौर पर अलग होने के बाद, भाजपा ने बंगाल के लोगों, ख़ासकर हिंदू बहुसंख्यकों को यह समझाती रही है कि बनर्जी मुसलमानों को तुष्ट कर रही हैं। हालांकि, तथ्य इस झूठी धारणा की पुष्टि नहीं करते है। मशहूर अर्थशास्त्री,अमर्त्य सेन के प्रतीची संस्थान की तरफ़ से आयोजित मुसलमानों की स्थिति पर किये गये सच्चर रिपोर्ट के बाद के अध्ययन में यह पाया गया है कि महज़ 1% मुसलमानों के पास ही वेतनभोगी निजी नौकरी है, ग्रामीण बंगाल में 47% मुसलमान कृषि और ग़ैर-कृषि मजदूर हैं, ग्रामीण बंगाल में 80% मुस्लिम परिवार सिर्फ़ 5,000 रुपये प्रति माह कमाते हैं, 38% परिवार 2,500 रुपये से कम कमाते हैं, और बंगाल के 97% से ज़्यादा मुसलमान सामाजिक तौर पर ओबीसी श्रेणी में आते हैं। ममता बनर्जी के बंगाल में मुसलमानों की दुर्दशा ऐसी ही है ! यह व्हाट्सएप, फ़ेसबुक, यूट्यूब के ज़रिए और राज्य के बीजेपी नेताओं की तरफ़ से आग लगाने वाले भाषणों के ज़रिए भाजपा द्वारा चलाये जा रहे बड़े पैमाने पर ग़लत प्रचार अभियान का नतीजा ही है कि मुसलमानों को बनर्जी के शासन के तहत "विजेता" घोषित किया जा रहा है, जबकि निश्चित रूप से ऐसा है नहीं।

टीएमसी की धर्मनिरपेक्षता के गिरवी रखे जाने का पता इस बात से भी चलता है कि इसके बड़े-बड़े नेता रातोंरात भाजपा के सदस्य कैसे बन जाते हैं ! मुस्लिम तुष्टिकरण सिद्धांत के ख़िलाफ़ जाने वाला एक और दिलचस्प घटनाक्रम अब्बास सिद्दीकी द्वारा भारतीय धर्मनिरपेक्ष मोर्चा का गठन है। सचाई यह है कि ग़रीब मुसलमानों को बनर्जी की टीएमसी से बहुत बुरा सिला मिला है, जिस वजह से सिद्दीक़ी ने एक अलग पार्टी बनायी और लेफ़्ट डेमोक्रेटिक एंड सेक्युलर फ़्रंट के साथ गठबंधन किया।

भाजपा ने अपने उभार के लिए आसनसोल जैसे शहर को चुना था, जिसे भाईचारे का शहर भी कहा जाता है। दुर्भाग्य से, यह भाईचारा ही है, जो टीएमसी के शासनकाल के दौरान तार-तार होता गया है, और भाजपा सांप्रदायिक लहर की पीठ पर सवाल होकर आगे बढ़ती गयी है और इस शहर के नागरिकों में कामयाबी के साथ दोफाड़ कर दिया है। शहर के कामकाजी ग़रीब, जिनमें हिंदू और मुस्लिम दोनों हैं, उन्हें बेहद कम पैसे भुगतान किये जाते हैं। उद्योग और विनिर्माण इकाइयों की कमी से शहर में सेवा क्षेत्र का जैसे-तैसे तेज़ी से विकास हुआ है। यह शहर में पहले से मौजूद उस महजनी अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ा दे रहा है, जिसमें रिटेल और होलसेल शॉप्स, वर्कशॉप, रेस्त्रां, कैफ़े, होटल, मॉल, छोटे और मझोले विनिर्माण इकाइयां शामिल हैं।

काम करने की स्थिति और श्रमिकों का जीवन बेहद दयनीय है। पश्चिम बंगाल सरकार की तरफ़ से अकुशल श्रम के लिए न्यूनतम मज़दूरी 8,530 रुपये प्रति माह (2020) निर्धारित है, लेकिन इसके बावजूद काम करने वाले श्रमिकों के 1% से से ज़्यादा श्रमिकों को यह निर्धारित वेतन भी नहीं मिलता है। आसनसोल में जिन  50 प्रतिष्ठानों में एक सैंपल सर्वेक्षण किया गया, उनमें श्रमिकों को मिलने वाले औसत वेतन की दर, 6,000 रुपये प्रति माह से ज़्यादा नहीं है। इतनी छोटी रक़म से चार सदस्यों के परिवार का भरण-पोषण भी नहीं किया जा सकता है।

इस तरह की नाइंसाफ़ी की बड़ी वजह आसनसोल में श्रमिकों की लामबंदी की भारी कमी और असंगठित / अनौपचारिक क्षेत्र में यूनियनों की ग़ैर-मौजूदगी है। हालांकि, यहां के व्यापारिक पूंजीपतियों के पास सत्ता पक्ष और सरकार को अपने पक्ष में करने के लिए तीन संगठित वाणिज्य मंडल हैं। हालात और बदतर इसलिए हो गये हैं, क्योंकि भाजपा अपने घोर सांप्रदायिक-चुनावी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए इन कामगार ग़रीबों के ग़ुस्से को भोथरा बना दे रही है।

आसनसोल और आसपास के इलाक़ों में दो बड़े सांप्रदायिक घटनाएं देखी गयी हैं। सांप्रदायिक दंगों का इतिहास इस बात को साबित करता है कि इन दंगों के पीड़ित अमीरों में हिंदू और मुस्लिम दोनों हैं और उनमें दोनों ही समुदायों के ग़रीब मारे जाते हैं। वाम मोर्चे की सरकार के 34 साल के कार्यकाल के दौरान धर्मों के बीच शांति क़ायम रही थी।

वाम-उदारवादी विश्लेषक वामपंथी के साथ आईएसएफ़ के इस गठबंधन को अवसरवाद और उस संभावना के गर्भ के तौर पर देख रहे हैं, जिससे बंगाल में हिंदुत्व की प्रचंड लपटों को हवा मिल सकती है। लेकिन, यह गठबंधन स्पष्ट रूप से भाजपा की तरफ़ से फैलाये गये "ज़बरदस्त तुष्टीकरण सिद्धांत" को कमज़ोर भी करता है। हां,पीरज़ादा के अतिवादी बयान के कई मिसालें ज़रूर हैं, ख़ास तौर पर महिलाओं पर उनकी टिप्पणियां, "सही" इस्लाम का पालन करने पर ज़ोर और सार्वजनिक रूप से सहयोगी दलों को नीचा दिखाने का उनका व्यवहार।

लेकिन, इस गठजोड़ की संभावनाओं से हम आंखें नहीं चुरा सकते। अब्बास ने साफ़ कर दिया है कि आईएसएफ़  कोई संप्रदायवादी राजनीतिक पार्टी नहीं है,बल्कि यह सभी संप्रदायों, हिंदुओं, आदिवासियों, दलितों और मुसलमानों के सबसे निचले तबके के लिए काम रखेगा। आईएसएफ़ का अध्यक्ष एक आदिवासी हैं। प्रगतिशील लोगों को अब्बास के ज़िम्मेदार होने की भावना वाले एक परिपक्व राजनेता बनने की संभावना पर भी ध्यान देना चाहिए, यह कुछ ऐसी बात है, जो हिंदुत्व के ख़तरे को देखते हुए अपरिहार्य है।

लेखक कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के वर्ल्ड हिस्ट्री डिपार्टमेंट में एक रिसर्च स्कॉलर हैं। इनके विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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