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क्यों बाइडेन अमेरिका द्वारा थोपे गए शीत युद्ध को जारी रखेंगे

क्या बाइडेन प्रशासन में अमेरिकी विदेशी में बड़े बदलाव आएंगे? विजय प्रसाद कहते हैं कि ऐसा होना मुश्किल है, ख़ासकर चीन के साथ जारी शीत युद्ध की स्थिति में किसी तरह का बदलाव आना मुश्किल है।
बाइडेन
बाइडेन-हैरिस उन प्रशासन आर्थिक और सैन्य गठबंधन को दोबारा बनाने के लिए दृढ़ दिखाई पड़ता है, जो ट्रंप के अतार्किक और अनाड़ी व्यक्तित्व की वज़ह से ख़तरे में पड़ चुके हैं। यह अमेरिका द्वारा अपनी साम्राज्यवादी परंपरा को छोड़ने जैसी बातों से काफ़ी दूर है।

जब जो बाइडेन व्हॉइट हॉउस में प्रवेश करेंगे, तब अमेरिकी विदेश नीति में बहुत कुछ बदलेगा। अब ट्विटर के ज़रिए अमेरिकी विदेश नीतियों की घोषणा नहीं की जाएगी और ज़्यादा संतुलन के साथ बात रखी जाएगी। जिस तरह से ट्रंप ने मोंटेनीग्रो के प्रधानमंत्री डस्को मार्कोविच को 2017 में नाटो बैठक के दौरान किनारे हटाया था, जो बताता है कि ट्रंप अशिष्ट है, कम से कम बाइडेन इस तरह से लोगों से धक्का-मुक्की कर आगे अपनी जगह नहीं बनाएंगे। लेकिन उनकी मोहक मुस्कान कई क्रूर लक्ष्यों को ढंक लेगी। विदेश नीति के मामले में बाइडेन ट्रंप से अलग दिखाई देंगे। लेकिन उनकी नीतियों की बाहरी रूप-रेखा पहचानी जा सकेगी।

ट्रंप के एकांतवाद में छुपे हैं कई नापाक गठबंधन

क्या ट्रंप एकांतवादी थे? दरअसल ऐसा नहीं है। हालांकि उनकी विदेश नीति पर पहली नज़र मारने से ही पता चल जाता है कि उनकी यह पहचान क्यों बनी।

ट्रंप का क्यूबा, ईरान और वेनेजुएला के खिलाफ़ आक्रामक रवैया रहा है, उन्होंने इन देशों के खिलाफ़ कई अवैधानिक प्रतिबंध लगाए। वहीं फिलिस्तीन के पूर्ण खात्मे के इज़रायली प्रोजेक्ट के साथ उन्होंने पूरी निष्ठा दिखाई। चीन के खिलाफ़ उनके "व्यापारिक युद्ध" को अमेरिकी अर्थव्यवस्था को फिर से खड़े करने के तौर पर पेश किया गया, पर दरअसल यह अमेरिकी शक्ति को बरकरार रखने के बारे में भी था। आखिर "मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशन" और "अमेरिका क्रेसे" जैसे उपकरणों का क्या दूसरा फायदा होगा, जब उन्हें सिर्फ़ अमेरिकी कंपनियों को पूरी दुनिया में आगे रखने के लिए बनाया गया है।

निश्चित तौर पर ट्रंप ने पश्चिमी सैन्य गठबंधन तंत्र पर हमले किए, उन्होंने नाटो के सदस्यों पर ज़्यादा खर्च करने के लिए दबाव डाला। लेकिन ठीक इसी दौरान ट्रंप ने दूसरे सैन्य गठबंधन भी बनाए। इन्हीं में से एक "क्वाड्रिलेटरल सिक्योरिटी डॉयलॉग या क्वाड" था, जिसे पहली बार जॉर्ज बुश ने 2007 में विकसित किया था। इस गठबंधन के ज़रिए ऑस्ट्रेलिया, भारत और जापान को एक कर चीन के खिलाफ़ सैन्य गठबंधन बनाया गया। ठीक इसी दौरान ट्रंप ने लीमा समूह (2017 में स्थापित) के ज़रिए लैटिन अमेरिका में अपना एजेंडा चलाया, ताकि वेनेजुएला के खिलाफ़ गठबंधन बनाया जा सके।

क्यों बाइडेन बहुपक्षीय नहीं हैं?

उदारवादी मीडिया बाइडेन को बहुपक्षीय प्रवृत्ति के व्यक्ति की तरह पेश करता है। लेकिन बाइडेन की विदेश नीति पर इस तरह के अनुमान के लिए उपयोग किए गए सबूत समस्याग्रस्त हैं।

बाइडेन उस पश्चिमी सैन्य गठबंधन तंत्र को दोबारा खड़ा करना चाहते हैं, जिसका ट्रंप ने बहुत हद तक क्षरण कर दिया है। बाइडेन के इस उत्साह का एक सबूत उनके द्वारा शुरू में ही फ्रांस के राष्ट्रपति इमेनुएल मैक्रां को किया गया फोन है, इससे इशारा मिलात है कि यूरोप में एक बार फिर अमेरिका एक पक्ष के तौर पर खुद को पेश करेगा। यह बहुपक्षीय दुनिया की तरफ कदम नहीं है, बल्कि यह हमें पुराने ढांचे की तरफ ले जाता है, जहां (कनाडा और अपने यूरोपीय सहयोगियों के साथ) अमेरिका अपनी सेना, कूटनीति और आर्थिक शक्ति का इस्तेमाल कर दुनिया के ढांचे पर हावी होने की कोशिश करता था।

बाइडेन को बहुपक्षीय बताने के लिए उनकी अमेरिका को ईरान डील और 2016 के पेरिस समझौते पर वापस लाने की प्रतिबद्धता का सहारा लिया जाता है। 

आखिर बाइडेन क्यों चाहते हैं कि अमेरिका, ईरान के प्रति अपनी प्रतिबद्धताओं पर वापस लौटे? ओबामा ने इसलिए यह समझौता किया था, क्योंकि यूरोपीय देश ऊर्जा के स्त्रोत को लेकर आतुर थे। क्योंकि अमेरिका और फ्रांस ने 2011 के युद्ध में लीबियाई तेल तक पहुंच नष्ट कर दी थी और 2014 के यूक्रेन विवाद के चलते रूसी प्राकृतिक गैस तक पहुंच को नुकसान पहुंच दिया था। ओबामा ने ईरान समझौता अंतरराष्ट्रीय कानून की मांग के चलते नहीं, बल्कि यूरोपीय देशों की आतुरता के चलते किया था। बाइडेन यूरोपीय देशों को यह तोहफा देंगे, जिसका ईरानी लोगों ने स्वागत किया है, ताकि अमेरिका अपने पश्चिमी गठबंधन तंत्र को मजबूत कर सके। इस बीच बाइडेन ने ईरानी लोगों के दम घोंटने संबंधी बातें चालू रखी हैं।

ओबामा के कार्यकाल के दौरान पर्यावरण पर हुई बातचीत, जिनका नतीज़ा पेरस समझौता हुआ, उसमें अमेरिका ने समझौते के शब्दों को पानी में बहा दिया, इससे एक वास्तविक बहुपक्षीय समझौता होने से रह गया, जो एक शताब्दी के जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल के लिए पश्चिमी जिम्मेदारी को मान्यता दे देता। एक बार फिर, बाइडेन द्वारा पेरिस समझौते पर वापस आने की शपथ में हमारी पृथ्वी को बचाने के लिए कोई बड़ा वायदा नहीं किया गया है। मुख्य लक्ष्य अमेरिकी नेतृत्व वाले गठबंधन तंत्र में यूरोपीय देशों को शामिल करना और गठबंधन को मजबूत बनाना है।

अमेरिका का मुख्य लक्ष्य प्रधानता

अमेरिकी गृह विभाग के नीति-योजना अधिकारियों ने शीत युद्ध के शुरुआती दौर में लिखा था, "सबसे ज़्यादा ताकत से कुछ भी कम हार चुनना होगा। सबसे ज़्यादा ताकत अमेरिकी नीति का लक्ष्य होना चाहिए।" प्रधानता हासिल करना अमेरिकी नीतियों का खुला लक्ष्य है। अपने चार साल के कार्यकाल में ट्रंप भी इस लक्ष्य से नहीं हिेले। ना ही अपने सार्वजनिक जीवन के पांच दशकों में बाइडेन इससे कभी हटे। बाइडेन की सलाहकार चार्ल्स कुपचान ने "आइसोलेशनिज़्म" नाम से एक नई किताब लिखी है। इससे अमेरिकी विदेश नीति में स्वाभाविक झलक मिलती है। अंत में किताब कहती है, "US को अपना अपवादवादी आवरण दोबारा हासिल करना होगा।" इसका मतलब हुआ कि अमेरिका को प्रधानता, सर्वोच्चता हासिल करने की अपनी कोशिशों जारी रखना होगा।

प्रधानता के लक्ष्य की वज़ह से अमेरिकी कुलीन यह तथ्य स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं कि 2003 के अवैधानिक युद्ध और 2007 के साख संकट (क्रेडिट क्राइसिस) के बाद अमेरिकी ताकत में धीमा क्षरण शुरू हो चुका है। वह इस बात को समझने में नाकामयाब रहे हैं कि अब दुनिया किसी एक महाशक्ति को बर्दाश्त नहीं करेगी, इसके चलते अमेरिका ने चीन के खिलाफ़ युद्ध जैसी स्थिति बना दी है। इसकी शुरुआत ओबामा द्वारा 2015 एशिया को धुरी बनाए जाने से हो गई थी, वहीं ट्रंप के व्यापारिक युद्ध ने इसे प्रबल कर दिया।

चीन पर शीत युद्ध का ख़तरा

2015 से अब तक किसी भी अमेरिकी CEO ने अमेरिका और चीन के बीच माहौल को सौहार्द्रपूर्ण बनाने के लिए कोई वक्तव्य नहीं दिया है। ऐपल के टिम कुक की अगस्त, 2019 में ट्रंप के साथ बैठक हुई थी, वह भी सिर्फ़ इसलिए ताकि ऐपल सैमसंग के साथ ज़्यादा बेहतर ढंग से प्रतिस्पर्धा में आ सके। बता दें सैमसंग को अमेरिकी टैरिफ का नुकसान नहीं झेलना पड़ा था। ट्रंप के व्यापारिक युद्ध के बारे में कोई भी बड़ा वक्तव्य नहीं दिया गया था, जिससे कुक बहुत प्रसन्न दिखाई पड़ते हैं।

सिलिकॉन घाटी की कंपनियां जानती हैं कि कुछ तकनीकी विकास जैसे 5G रोबोटिक्स, GPS और आने वाले समय में माइक्रोचिप्स में चीनी कंपनियों ने अगली पीढ़ी की तकनीक विकसित की है, कई मामलों में उन्होंने अमेरिकी कंपनियों को भी पीछे छोड़ दिया है। सिलिकॉन घाटी की कंपनियां इस बात से प्रसन्न नज़र आ रही हैं कि पूरा अमेरिकी राज्य चीन की कंपनियों के पीछे पड़ गया है। इसके तहत सुरक्षा उपकरणों का इस्तेमाल कर, ह्यूवेई पर चीनी सरकार के लिए जासूसी करने का आरोप लगाया गया। यह देखना दिलचस्प है कि वैसे तो सिलिकॉन घाटी की कोई भी कंपनी निजता की फिक्र नहीं करती, लेकिन अमेरिका ने निजता और जासूसी के तर्कों का इस्तेमाल चीनी तकनीकी कंपनियों को नुकसान पहुंचाने और सिलिकॉन घाटी की कंपनियों की बौद्धिक संपदा और बाज़ार बढ़त की सुरक्षा करने में किया। जबकि एडवर्ड स्नोडेन के खुलासों से पता चलता है कि अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी, PRISM प्रोग्राम का इस्तेमाल सिलिकॉन घाटी की इंटरनेट फर्म का डाटा इकट्ठा करने में करती है। चूंकि ऊपर उल्लेखित वज़ह व्यापारिक युद्ध की असली वज़ह हैं, तो इस बात की प्रबल संभावना है कि बाइडेन प्रशासन इसे जारी रखेगा। बल्कि बाइडेन ऐसा कह भी चुके हैं।

2013 में चीनी सरकार ने "वन बेल्ट, वन रोड या BRI" चालू किया था, ताकि वैश्विक स्तर पर अपनी व्यवसायिक संबंधों को बढ़ाया जा सके। ओबामा प्रशासन ने इसका जवाब देते हुए 2015 में ट्रांस-पैसेफिक पार्टनरशिप (TPP) चालू कर दी, इसका मक़सद प्रशांत महासागार के आसपास के क्षेत्रों में चीन के व्यवसायिक संबंधों को खत्म करना था। ट्रंप तो इससे भी परे गए और उन्होंने चीन के खिलाफ़ सीधा व्यापारिक युद्ध छेड़ दिया।  BRI के लिए चीन द्वारा लाए जाने वाले कई ट्रिलियन डॉलर की काट के लिए अमेरिका ने मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशन (2004 में बनाया गया) और अमेरिका क्रेसे (2019) का इस्तेमाल कर अफ्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका में कई बिलियन डॉलर पहुंचाए। यह सब चीन को कमजोर करने और अमेरिका की प्रधानता बरकरार रखने की अंधाधुंध कोशिशें थीं।

अमेरिका अब भी दुनिया में बदली हुई स्थिति को मान्यता देने के लिए तैयार नहीं है। इसमें वक़्त लगेगा। इस बीच लोगों का बढ़ते टकराव के खिलाफ़ बोलना जरूरी है। 

विजय प्रसाद एक भारतीय इतिहासकार, संपादक और पत्रकार हैं। वे ग्लोबट्रॉटर के राइटिंग फेलो और मुख्य संवाददाता हैं। विजय प्रसाद लेफ़्टवर्ड बुक्स के मुख्य संपादक और ट्राईकॉन्टिनेंटल: इंस्टीट्यूट फॉर सोशल रिसर्च के निदेशक भी हैं। वे चीन की रेनमिन यूनिवर्सिटी के चोंगयांग इंस्टीट्यूट फॉर फॉयनेंशियल स्टडीज़ के नॉन-रेसिडेंट फेलो भी हैं। उन्होंने 20 से ज़्यादा किताबें लिखी हैं, जिनमें "द डॉर्कर नेशन्स" और "द पूअरर नेशंस" शामिल हैं। उनकी हालिया किताब "वाशिंगटन बुलेट्स" है, जिसका परिचय इवो मोराल्स आयमा ने लिखा है।

यह लेख ग्लोबट्रॉटर द्वारा उत्पादित किया गया था।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

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