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बिहार छोड़कर यूपी क्यों आना चाहते हैं नीतीश कुमार?

जेडीयू अध्यक्ष के एक बयान ने राजनीतिक माहौल थोड़ा गर्म कर दिया है, नीतीश कुमार की लोकसभा में दावेदारी कहां से होगी... ये बात इन दिनों चर्चा का विषय है?
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फ़ोटो साभार: पीटीआई

देश में जब प्रधानमंत्री पद संभालने की बात आती है, तो नेताओं की नज़रें उत्तर प्रदेश में जाती हैं, क्योंकि जब तक इस प्रदेश की जनता किसी दल या नेता का का बेड़ा पार नहीं करती, तब तक दिल्ली में उसकी सरकार नहीं बनती।

पिछले लंबे वक्त से आप देख रहे होंगे, कि कैसे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपना एक पैर बिहार राज्य की राजनीति से बाहर रखने की कोशिश कर रहे हैं। कहने का मतलब ये है जिस तरह वो विपक्षियों से एक-एककर मुलाकात कर रहे हैं, मोदी सरकार पर हमले कर रहे हैं, अपने पोस्टरों के आगे 2024 के संकल्प की बातें लिखवा रहे हैं... इससे ये साफ ज़ाहिर है कि उनकी नज़र अब दिल्ली की कुर्सी पर है। अपने मुंह से भले ही वे न...न कहें। लेकिन नीतीश के कुर्सी प्रेम से कौन वाकिफ़ नहीं है।

शायद इसी राजनीति का नतीजा है कि उन्होंने फैसला किया है लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए मैदान में उतरेंगे। लेकिन हां उनका चुनावी रणक्षेत्र बिहार नहीं बल्कि उत्तर प्रदेश होगा।

दरअसल ऐसा हम नहीं कह रहे हैं कि बल्कि जेडीयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ ललन सिंह कह रहे हैं।

एक निजी चैनल के साथ बात करते हुए ललन सिंह ने कहा था कि.. "नीतीश कुमार 2024 में कहाँ से चुनाव लड़ेंगे, इस पर अभी से बात करना जल्दबाज़ी होगी, लेकिन उत्तर प्रदेश बिहार का पड़ोसी राज्य है और यूपी के लोगों ने भी बिहार में नीतीश के काम को महसूस किया है।"

ललन सिंह के मुताबिक़, "जेडीयू की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में यह मुद्दा उठा था। कुछ कार्यकर्ताओं की यह भी इच्छा है कि वो मिर्ज़ापुर से चुनाव लड़ें, तो कुछ चाहते हैं कि नीतीश आंबेडकर नगर से चुनाव लड़ें। ये कार्यकर्ताओं की भावना है लेकिन इसपर समय से पहले कुछ भी कहना उचित नहीं है।"

अब ललन सिंह पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, तो उनकी बात का मतलब भी बड़ा ही होगा, लेकिन अगर वाकई ऐसा होता है तो ये मानकर चलना ग़लत नहीं होगा कि नीतीश ने विपक्षियों के साथ मिलकर भाजपा को घेरने के लिए ज़रूर कोई मास्टर प्लान तैयार किया है।

उत्तर प्रदेश में नीतीश कुमार किन सीटों से चुनाव लड़ सकते हैं, इसके लिए सबसे ज्यादा चर्चा फूलपुर और मिर्ज़ापुर लोकसभा सीट की है। तो एक-एक कर दोनों की बात कर लेते हैं।

सबसे पहला सवाल ये कि फूलपुर ही क्यों चुन सकते हैं नीतीश?

फूलपुर लोकसभा प्रयागराज ज़िले में आती है, जो पूर्वी उत्तर प्रदेश का एक अहम हिस्सा है, और ये हिस्सा बिहार सीमा के बहुत ज्यादा दूर नहीं है। दूसरा ये कि नरेंद्र मोदी की संसदीय सीट वाराणसी भी यहां से ज्यादा दूर नहीं है, तो नीतीश कुमार सीधा प्रधानमंत्री मोदी से मुकाबला करने वाली छवि गढ़ने का भी प्रयास कर सकते हैं। क्योंकि अक्सर ऐसा होता है कि नरेंद्र मोदी जैसे बड़े नेता जिस सीट से चुनाव लड़ते हैं, उसके आसपास की सीटों पर भी उसका असर देखने को मिलता है, तो ऐसे में नीतीश का यहां से लड़ना उन्हें विपक्षी दल का मुख्य नेता भी बना सकता है।

फिर हमने बिहार की सीमा के पास होने की बात भी की है, यानी फूलपुर लोकसभा और आसपास के क्षेत्र, बिहार के कल्चर के आसपास ही हैं, तो यहां भी नीतीश कुमार को फायदा हो सकता है।

फूलपुर सीट के जातीय समीकरण की बात करें, तो सबसे बड़ी आबादी दलितों की है, जो करीब 18.5 फीसदी है। इसके बाद पटेल और कुर्मी वोटर हैं। इनकी आबादी 13.36 फीसदी है। मुस्लिम वोटर भी यहां 12.90 फीसदी हैं। इनके अलावा करीब 11.61 फीसदी ब्राह्मण भी प्रयागराज की इस लोकसभा क्षेत्र में निवास करते हैं। वैश्यों की आबादी करीब 5.4 फीसदी है। इनके अलावा कायस्थ करीब 5 फीसदी, राजपूत 4.83 फीसदी, भूमिहार 2.32 फीसदी हैं। कुल मिलाकर सवर्ण आबादी यहां 23 फीसदी है। मौर्य और अन्य जातियों को मिला लें तो ये 16 फीसदी के आसपास आते हैं।

कहने का मतलब ये है कि अगर नीतीश कुमार सवर्ण और कुर्मी-पटेल को साध लेते हैं और सपा का साथ हासिल करते हैं तो एक बार फिर फूलपुर का समीकरण बदल सकता है।

समीकरण क्यों बदल सकता है?

फूलपुर सीट का इतिहास देखें तो भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू का संसदीय क्षेत्र रहा है। जवाहर लाल नेहरू यहां से 1952, 1957 और 1962 में चुनाव जीते थे। इसके बाद भी कांग्रेस के नेता यहां से जीतते रहे हैं, यानी कुल मिलाकर ये सीट कभी कांग्रेस का गढ़ रही हैं, लेकिन बाद में यहां सपा और बसपा ने भी अपना परचम लहराया। वहीं पिछले दो लोकसभा चुनावों 2014 और 2019 में ये सीट भाजपा के खाते में गई। यानी यहां कि जनता ने अक्सर बदलाव की ओर देखा है, तो ज़ाहिर है यहां बसपा, सपा और भाजपा और कांग्रेस के वोटरों का मिला-जुला संगम है, ऐसे में अगर नीतीश कुमार बसपा और सपा का साथ पा जाते हैं, तो विरोधी के लिए चुनौती पेश कर सकते हैं।

मिर्ज़ापुर से लड़ना कितना फायदेमंद?

मिर्जापुर लोकसभा सीट भी पूर्वी उत्तर प्रदेश का हिस्सा है, और यहां सबसे ज्यादा कुर्मी वोटर्स हैं। यानी सीधा सा मतलब है कि.. क्योंकि नीतीश कुमार भी कुर्मी समाज से ही आते हैं, तो ये सीट उनके लिए बहुत ज्यादा मुफीद साबित हो सकती है।

वहीं 2019 के लोकसभा चुनावों के आंकड़ों पर ग़ौर करें, तो यहां कुर्मी वोटर 3 लाख से ज़्यादा थे जबकि दूसरे नंबर पर बिंद समाज के वोटर थे। जिनकी संख्या क़रीब डेढ़ लाख थी, यानी यहां कुर्मी वोटरों की संख्या काफ़ी बड़ी है, जो नीतीश कुमार के लिए एक उम्मीद बन सकते हैं।

इसके अलावा जेडीयू की तरफ से नीतीश के लिए अम्बेडकर नगर लोकसभा सीट की चर्चा भी हो रही है, यहां भी कुर्मियों की संख्या अच्छी है शायद इसलिए जेडीयू की तरफ से उन्हें 3 सीटों की चर्चा छेड़ी गई है।

आपको बता दें कि नीतीश कुमार ने अपना आख़िरी लोकसभा चुनाव 2004 में लड़ा था, और जीते भी थे। इससे पहले भी नीतीश कुमार 1989, 1991, 1996, 1998 और 1999 में लोकसभा चुनाव लड़कर लगातार जीतते रहे हैं।

इतना ही नहीं नीतीश कुमार मुख्यमंत्री की सीट पर भी लगातार विधान परिषद के रास्ते ही पहुंचते है, कहने का मतलब ये है कि उन्होंने अपना आख़िरी विधानसभा चुनाव 1995 में लड़ा था।

यानी नीतीश कुमार अपने करियर में जब-जब चुनाव लड़े हैं, तो ज्यादातर जीत हासिल की है, और अगर चुनाव नहीं लड़े हैं, तब भी गद्दी तो अपने पास ही रखी है।

कुल मिलाकर ये कहना ग़लत नहीं होगा कि नीतीश कुमार देश के वरिष्ठ और अनुभवी राजनीतिज्ञों में एक हैं।

नीतीश के राजनीतिक करियर पर एक नज़र

1977 विधानसभा चुनाव: जनता पार्टी के टिकट पर हरनौत से लड़े,  हार गए।

1980 विधानसभा चुनाव: जनता पार्टी सेक्युलर के टिकट पर हरनौत से लड़े,  हार गए।

1985 विधानसभा चुनाव: हरनौत से लड़े,  इस बार जीत गए।

1989 लोकसभा चुनाव: पहली बार बाढ़ से लड़े, जीत गए।

1991 लोकसभा चुनाव:  इस बार भी सांसद बनें।

1996 लोकसभा चुनाव: एक बार फिर जीत हासिल की।

1998 लोकसभा चुनाव: नीतीश कुमार फिर विजयी हुए।

1999 लोकसभा चुनाव: पांचवीं बार भी सांसद चुने गए।

2004 लोकसभा चुनाव: नालंदा से लड़े, जीत हासिल की।

2006 में नीतीश बिहार विधान परिषद के सदस्य बने।

2012 में फिर बिहार विधान परिषद के सदस्य के रूप में निर्वाचित हुए।

2018 में तीसरी बार वे बिहार विधान परिषद के सदस्य चुने गए।

इतना लंबा राजनीतिक करियर... बिहार के सबसे बड़े नेता और बढ़िया अनुभव रखने वाले नीतीश कुमार आख़िर अपना प्रदेश छोड़कर उत्तर प्रदेश क्या आना चाहते हैं?

इसका जवाब जानने के लिए शायद साल 2014 में जाना पड़ेगा। यही वो साल था जब नरेंद्र मोदी अपने राज्य गुजरात की वडोदरा सीट से तो चुनाव लड़े ही थे, साथ में उत्तर प्रदेश की वाराणसी सीट पर भी पर्चा भरा। नतीजा ये रहा कि वो दोनों सीटों से चुनाव जीत गए। ऐसे में उन्हें एक एक सीट का चुनाव करना था तो उन्होंने वाराणसी सीट चुनी... जिसके बाद आज देश की राजनीति में नरेंद्र मोदी किस स्थान पर हैं, किसी से छिपा नहीं है। शायद उन्होंने भी भांप लिया था कि अगर देश पर राज करना है तो उत्तर प्रदेश आना ही होगा।

शायद इसी सोच के साथ नीतीश कुमार उत्तर प्रदेश की ओर रुख कर रहे हैं और केंद्र के बड़े नेता बनना चाह रहे हैं। हालांकि नीतीश कुमार जिस सीट की चाहत रखते हैं उसके लिए नीतीश की जीत के साथ-साथ बिहार और उत्तर प्रदेश में विपक्ष को भी ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने की ज़रूरत होगी। और अगर नीतीश कुमार ऐसा करने में कामयाब हो जाते हैं तो ये भाजपा के लिए बड़ी चुनौती होगी।

हम ऐसा इसलिए कह रहे हैं क्योंकि बिहार की 40 और उत्तर प्रदेश 80 लोकसभा सीटें मिलाकर ही 120 हो जाती हैं, जो कुल सीटों का 20 प्रतिशत से ज्यादा है।

लेकिन मौजूदा वक्त में उत्तर प्रदेश के अंदर भाजपा की स्थिति जितनी मज़बूत है ऐसे में विपक्षियों का पार पाना इतना आसान होगा नहीं। पिछले चुनाव यानी 2019 में ही उत्तर प्रदेश के अंदर भाजपा ने 80 में से 62 सीटों जीत ली थीं। फिर 2022 में लगातार दूसरा और ऐतिहासिक विधानसभा चुनाव जीत लिया, ऐसे में उत्तर प्रदेश के अंदर भाजपा को मात देने के लिए विपक्ष और नीतीश को बहुत मेहनत करनी पड़ेगी।

वैसे ये कहना भी ग़लत नहीं होगा कि नीतीश कुमार भले ही ख़ुद को महागठबंधन का सबसे बड़ा नेता बनाने में जुटे हों, लेकिन दूसरी ओर कांग्रेस भी दक्षिण भारत की पट्टी में भारत जोड़ो यात्रा के ज़रिए ख़ुद को मज़बूत करने में लगी है। ऐसे में विपक्ष का सबसे बड़ा नेता कौन होगा ये तय कर पाना फिलहाल तो मुश्किल है, लेकिन जिस तरह से नीतीश कुमार एकतरफा केंद्र की ओर पांव बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं, इससे विपक्षी खेमें में टकराव तो ज़रूर होगा।

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