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अयोध्या के बाबरी मस्जिद विवाद की शक्ल अख़्तियार करेगा बनारस का ज्ञानवापी मस्जिद का मुद्दा?

वाराणसी के ज्ञानवापी प्रकरण में सिविल जज (सीनियर डिविजन) ने लगातार दो दिनों की बहस के बाद कड़ी सुरक्षा के बीच गुरुवार को फैसला सुनाते हुए कहा कि अधिवक्ता कमिश्नर नहीं बदले जाएंगे। उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक की निगरानी में सर्वे का काम होगा, जिसके लिए ज्ञानवापी मस्जिद का तहखाना भी खोला जाएगा। सर्वे रिपोर्ट 17 मई 2022 को अदालत को सौंपी जाएगी।
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बनारस की ज्ञानवापी मस्जिद

उत्तर प्रदेश के वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर जिस तरह की स्थिति पैदा हो रही है, उससे इस आशंका को बल मिल रहा है कि यह मुद्दा भी आयोध्या के बाबरी मस्जिद की शक्ल में खड़ा हो सकता है। वाराणसी के सिविल जज (सीनियर डिविजन) ने लगातार दो दिनों की बहस के बाद गुरुवार को कड़ी सुरक्षा के बीच फैसला सुनाते हुए कहा कि अधिवक्ता कमिश्नर नहीं बदले जाएंगे। उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक की निगरानी में सर्वे का काम होगा, जिसके लिए ज्ञानवापी मस्जिद का तहखाना भी खोला जाएगा। सर्वे रिपोर्ट 17 मई 2022 को अदालत को सौंपी जाएगी। इस बीच इलाहाबाद हाईकोर्ट ने श्रीकृष्ण जन्मभूमि और शाही ईदगाह मस्जिद विवाद पर सुनवाई करते हुए मथुरा की अदालत को चार महीने के अंदर सभी अर्जियों का निपटारा करने का निर्देश दिया। 

दूसरी तरफ, आगरा के ताजमहल विवाद में लखनऊ हाईकोर्ट के जस्टिस डीके उपाध्याय ने याचिकाओं के खिलाफ  सख्त रुख अपनाते हुए कहा कि पीआईएल व्यवस्था का दुरुपयोग न किया जाए। याचिका दायर करने वाले पर टिप्पणी करते हुए कोर्ट ने यहां तक कहा कि यूनिवर्सिटी जाओ, पीएचडी करो, तब हाईकोर्ट आना।

हिन्दू शास्त्रों के मुताबिक, काशी विश्वनाथ मंदिर शिव के 12 ज्योर्तिलिंगों में से एक है। यह मंदिर गंगा नदी के किनारे स्थित है। रामजन्‍मभूमि आंदोलन के समय से ही हिन्दूवादी संगठन ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर आवाज उठाते आ रहे हैं। नब्बे के दशक में रामजन्‍मभूमि आंदोलन के दौरान काशी-मथुरा को लेकर भी जयकारे लगाए जाते थे, "अयोध्या तो बस झांकी है, काशी-मथुरा बाकी है...।" 

यह दावा तो सालों से किया जा रहा है कि स्वयंभू शिवलिंग के ऊपर मस्जिद का निर्माण किया गया है। मौजूदा समय में जिस स्थान पर काशी विश्वनाथ मंदिर है, वह बाद में बना है। असली मंदिर वही है जहां इस समय ज्ञानवापी मस्जिद खड़ी है। विवादित परिसर से मस्जिद को हटाकर वह जगह हिन्दुओं को पूजा के लिए सौंपी जाए। ज्ञानवापी मस्जिद विवाद के साथ मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मभूमि और आगरा में ताजमहल पर भी किचकिच शुरू हो गई है। दिल्ली में कुतुबमीनार परिसर में पूजा-पाठ को लेकर हिंदू संगठनों ने प्रदर्शन शुरू कर दिया है। देश में ऐसे कई विवादित स्थल हैं जिसको लेकर हाल के दिनों में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच तनातनी बढ़ने लगी है।

श्रीकृष्ण जन्मभूमि

क्या है ज्ञानवापी का ताज़ा विवाद?

दिल्ली की राखी सिंह, लक्ष्मी देवी, मंजू व्यास, सीता साहू और रेखा पाठक ने 18 अगस्त 2021 को संयुक्त रूप से सिविल जज सीनियर डिवीजन रवि कुमार दिवाकर की कोर्ट में याचिका दायर कर मांग की थी कि काशी विश्वनाथ धाम-ज्ञानवापी परिसर स्थित श्रृंगार गौरी और विग्रहों को 1991 की पूर्व स्थिति की तरह नियमित दर्शन-पूजन के लिए सौंपा जाए। आदि विश्वेश्वर परिवार के विग्रहों की यथास्थिति रखी जाए। याची महिलाओं का नेतृत्व राखी सिंह कर रही हैं, जो दिल्ली की रहने वाली हैं। बाकी चार महिला याचिकाकर्ता बनारस की निवासी हैं। इन सभी की मांग है कि उन्हें ज्ञानवापी मस्जिद के परिसर में मां श्रृंगार गौरी, गणेश, हनुमान, नंदी और मंदिर परिसर में दिख रही दूसरी देवी देवताओं का दर्शन-पूजा और भोग की इजाज़त दी जाए।

याचिकाकर्ताओं का दावा है कि श्रृंगार गौरी,  हनुमान, गणेश के अलावा अदृश्य देवी-देवता दशाश्वमेध पुलिस थाने के प्लॉट नंबर-9130 में मौजूद हैं। यह स्थान काशी विश्वनाथ कॉरिडोर से सटा हुआ है। उनकी यह भी मांग है कि अंजुमन इंतजामिया मस्जिद को देवी-देवताओं की मूर्तियों को तोड़ने, गिराने या नुकसान पहुंचाने से रोका जाए और उत्तर प्रदेश सरकार को "प्राचीन मंदिर" के प्रांगण में देवी-देवताओं की मूर्तियों के दर्शन, पूजा करने के लिए सभी सुरक्षा के इंतज़ाम करने के आदेश दिए जाएं। याचिका में इन महिलाओं ने अलग से अर्ज़ी देकर यह भी मांग रखी थी कि कोर्ट एक अधिवक्ता आयुक्त (एडवोकेट कमिश्नर) की नियुक्ति करे जो इन सभी देवी-देवताओं की मूर्तियों के अस्तित्व को सुनिश्चित करे।

हिंदू पक्षकार का यह भी आरोप है कि उन्हें और वकील कमिश्नर को बेरिकेडिंग के दूसरे तरफ यानी ज्ञानवापी मस्जिद के अंदर और तहखाने में मुस्लिम पक्षकार के द्वारा वीडियोग्राफी और सर्वे नहीं करने दिया गया। हिंदू पक्षकार के तरफ से यह भी कहा गया है कि मुस्लिम पक्षकार ने उन्हें ज्ञानवापी मस्जिद के अंदर और तहखाने में अंदर जाने से यह कहते हुए रोका कि कोर्ट का ऐसा कोई आदेश नहीं है। मुस्लिम पक्षकार की तरफ से वाराणसी जिला सिविल कोर्ट में वकील कमिश्नर के ऊपर आपत्ति दायर की गई है, जिसमें आरोप लगाया गया है कि उन्हें वकील कमिश्नर पर भरोसा नहीं है, क्योंकि वह केवल एक पक्ष की बात सुन रहे हैं। इस मामले में 10 और 11 मई को सुनवाई के बाद वाराणसी के सिविल कोर्ट (सीनियर डिविजन) रवि कुमार की अदालत ने कड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बीच फैसला सुनाते हुए कहा कि दो अधिवक्ता कमिश्नर मस्जिद परिसर का सर्वे करेंगे। इनमें एक होंगे विशाल सिंह और दूसरे अजय मिश्र। सर्वे की कार्रवाई बनारस के जिलाधिकारी को सुनिश्चित करानी होगी। इस काम में जो लोग बाधा डालेंगे, उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी।

ज्ञानवापी प्रकरण में सबसे पहले सूरजकुंड निवासी डॉ. सोनलाल आर्य ने साल 1995 में याचिका दायर कर दर्शन-पूजन व सर्वे की मांग की थी। 18 मई 1996 को कोर्ट ने सर्वे करने के लिए कोर्ट कमिश्नर नियुक्त किया। डॉ. सोनेलाल के मुताबिक दोनों पक्षों को नोटिस देकर बुलाया गया था। सर्वे के दौरान वादी पक्ष की ओर से पांच लोग पहुंचे थे और विपक्ष की ओर से 500 लोगों का हुजूम पहुंच गया था। बाद में तत्कालीन एडीएम सिटी बादल चटर्जी ने दोनों पक्षों से वार्ता कर इस विवाद को सुलझाने का प्रयास किया। बात नहीं बनी तो कोर्ट कमिश्नर ने कमीशन की कार्यवाही खारिज कर दी थी।

साल 1991 से चल रहा है केस

ज्ञानवापी मस्जिद का केस साल 1991 से ही वाराणसी के स्‍थानीय कोर्ट में चल रहा है। स्वयंभू विश्वेश्वर की ओर से डॉ. रामरंग शर्मा, हरिहर पांडेय और सोमनाथ व्यास ने एफटीसी कोर्ट में याचिका दायर कर नया निर्माण और पूजा करने का अधिकार मांगा था। इस मामले में अंजुमन इंतजामिया मसाजिद को प्रतिवादी बनाया गया था। कोर्ट ने लंबी सुनवाई के बाद साल 1997 में वादी और प्रतिवादी दोनों के पक्ष में आंशिक निर्णय दिए थे, असंतुष्ट होकर प्रतिवादी ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की। 13 अगस्त 1998 को इलाहाबाद हाइकोर्ट ने निचली अदालत के फैसले पर रोक लगा दी थी।

ज्ञानवापी के पुरातात्विक सर्वेक्षण के लिए अदालत में याचिका दायर करने वाले हरिहर पांडेय कहते हैं, "साल 1991 में हम तीन लोगों ने ये मुक़दमा दाख़िल किया था। मेरे अलावा सोमनाथ व्यास और संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर रहे रामरंग शर्मा थे। ये दोनों लोग अब जीवित नहीं हैं। इस मुक़दमे के दाख़िल होने के कुछ दिनों बाद ही मस्जिद प्रबंधन कमेटी ने केंद्र सरकार की ओर से बनाए गए उपासना स्थल क़ानून, 1991 का हवाला देकर इसे हाईकोर्ट में चुनौती दी। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने साल 1993 में स्टे लगाकर यथास्थिति क़ायम रखने का आदेश दिया था, लेकिन स्टे ऑर्डर की वैधता पर सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के बाद साल 2019 में वाराणसी कोर्ट में फिर से इस मामले में सुनवाई शुरू हुई और इसी सुनवाई के बाद मस्जिद परिसर के पुरातात्विक सर्वेक्षण की मंज़ूरी दी गई। साल 1991 में काशी विश्वनाथ मंदिर के पुरोहितों ने वाराणसी सिविल कोर्ट में याचिका दायर की थी, जिसमें कहा गया है कि मूल मंदिर को 2050 साल पहले राजा विक्रमादित्य ने बनवाया था। साल 1669 में औरंगजेब के कार्यकाल में इसे तोड़कर मस्जिद बनवाई।"

इसी दौरान सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक आदेश में यह भी कहा था कि स्थगन आदेश छह माह बाद स्वत: खारिज हो जाएंगे। इस पर वर्ष 2018 में मुकदमे में अधिवक्ता रहे विनय शंकर रस्तोगी ने कोर्ट में प्रार्थना पत्र देकर वादमित्र नियुक्त करने की मांग की थी। तब तक दो वादकारियों का निधन हो चुका था। तीसरे वादी कोर्ट जाने में सक्षम नहीं थे। लिहाजा, विनय शंकर रस्तोगी ने 2019 में मूल वाद में अलग से प्रार्थना पत्र देकर पुरातत्व विभाग की ओर से सर्वेक्षण करने की अनुमति मांगी। इसके बाद सर्वेक्षण प्रकरण पर सुनवाई शुरू हो गई। एएसआई को विभिन्न प्रक्रियाओं के तहत सर्वेक्षण कराने का आदेश दिया गया था। बाद में हाईकोर्ट ने एएसआई सर्वे पर रोक लगा दी थी। बाद में सुनवाई के बाद इस मामले में भी कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया है। दरअसल, साल 1998 में ज्ञानवापी मस्जिद की देखरेख करने वाली कमेटी अंजमुन इंतजामिया ने कहा है कि इस विवाद में कोई फैसला नहीं लिया जा सकता, क्योंकि प्लेसेस ऑफ वरशिप एक्ट के तहत इसकी मनाही है। इसी आधार पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने निचली अदालत की कार्यवाही पर रोक लगाई थी। हाईकोर्ट में इस मामले की सुनवाई 10 मई 2022 को होनी थी, लेकिन वकीलों की हड़ताल के चलते 16 मई की तारीख लगा दी गई है।

क्या कहते हैं इतिहासकार?

 विश्वनाथ मंदिर तोड़ने और फिर मस्जिद बनवाने के बारे में कई दिलचस्प कहानियां हैं। हिन्दू और मुसलमान दोनों पक्ष ऐतिहासिक दस्तावेज़ों और इतिहासकारों के दावों के आधार पर अपने-अपने पक्ष में तर्क देते हैं। बीबीसी की एक हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि मशहूर इतिहासकार डॉक्टर विश्वंभर नाथ पांडेय ने अपनी पुस्तक 'भारतीय संस्कृति, मुग़ल विरासत: औरंगज़ेब के फ़रमान' के पृष्ठ संख्या 119 और 120 में पट्टाभिसीतारमैया की पुस्तक 'फ़ेदर्स एंड स्टोन्स' के हवाले से विश्वनाथ मंदिर को तोड़े जाने संबंधी औरंगज़ेब के आदेश और उसकी वजह के बारे में बताते हैं।

डॉक्टर पांडेय लिखते हैं, "एक बार औरंगज़ेब बनारस के निकट के प्रदेश से गुज़र रहे थे। सभी हिन्दू दरबारी अपने परिवार के साथ गंगा स्नान और विश्वनाथ दर्शन के लिए काशी आए। विश्वनाथ दर्शन कर जब लोग बाहर आए तो पता चला कि कच्छ के राजा की एक रानी ग़ायब हैं। खोज की गई तो मंदिर के नीचे तहखाने में वस्त्राभूषण विहीन, भय से त्रस्त रानी दिखाई पड़ीं। जब औरंगज़ेब को पंडों की यह काली करतूत पता चली तो वह बहुत क्रुद्ध हुआ और बोला कि जहां मंदिर के गर्भ गृह के नीचे इस प्रकार की डकैती और बलात्कार हो, वो निस्संदेह ईश्वर का घर नहीं हो सकता। उसने मंदिर को तुरंत ध्वस्त करने का आदेश जारी कर दिया।" 

विश्वंभर नाथ पांडेय आगे लिखते हैं, "औरंगज़ेब के आदेश का तत्काल पालन हुआ,  लेकिन जब बात कच्छ की रानी तक पहुंची उन्होंने उसके पास संदेश भिजवाया कि इसमें मंदिर का क्या दोष है? दोषी तो वहां के पंडे हैं। वो लिखते हैं, "रानी ने इच्छा प्रकट की कि मंदिर को दोबारा बनवा दिया जाए। औरंगज़ेब के लिए अपने धार्मिक विश्वास के कारण, फिर से नया मंदिर बनवाना संभव नहीं था। इसलिए उसने मंदिर की जगह मस्जिद खड़ी करके रानी की इच्छा पूरी की।"

बीबीसी रिपोर्ट के मुताबिक, "प्रोफ़ेसर हेरंब चतुर्वेदी कहते हैं कि कच्छ के राजा कोई और नहीं बल्कि आमेर के कछवाहा शासक थे। मंदिर गिराने का आदेश औरंगज़ेब ने दिया था, लेकिन मंदिर को गिराने का काम कछवाहा शासक राजा जय सिंह की देख-रेख में किया गया था। स्वर्ण मंदिर में जो ऑपरेशन ब्लू स्टार हुआ था उसके आलोक में हमें इस घटना को देखना चाहिए। मंदिर तोड़ने पर जैसा रोष तत्कालीन हिन्दू समाज पर हुआ होगा, वैसा ही ऑपरेशन ब्लू स्टार का सिख समाज में हुआ और उसका हश्र, इंदिरा गांधी ने भुगता। यह इतिहास ही नहीं, इतिहास समझने की दृष्टि भी है।"

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक कुछ इतिहासकारों का मानना है कि ज्ञानवापी मस्जिद को 14वीं सदी में जौनपुर के शर्की सुल्तानों ने बनवाया था और इसके लिए उन्होंने यहां पहले से मौजूद विश्वनाथ मंदिर को तोड़ा गया था। लेकिन इस मान्यता को तथ्य मानने से कई इतिहासकार इनकार करते हैं। इनके मुताबिक ये दावे साक्ष्यों की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। विश्वनाथ मंदिर के निर्माण का श्रेय अकबर के नौरत्नों में से एक राजा टोडरमल को दिया जाता है, जिन्होंने साल 1585 में अकबर के आदेश पर दक्षिण भारत के विद्वान नारायण भट्ट की मदद से कराया था।

वाराणसी स्थित काशी विद्यापीठ में इतिहास विभाग में प्रोफ़ेसर रह चुके डॉक्टर राजीव द्विवेदी कहते हैं, "विश्वनाथ मंदिर का निर्माण राजा टोडरमल ने कराया, इसके तिहासिक प्रमाण हैं। टोडरमल ने इस तरह के कई और निर्माण भी कराए हैं। यह काम उन्होंने अकबर के आदेश से कराया, यह बात भी ऐतिहासिक रूप से पुख्ता नहीं है। राजा टोडरमल की हैसियत अकबर के दरबार में ऐसी थी कि इस काम के लिए उन्हें अकबर के आदेश की ज़रूरत नहीं थी। विश्वनाथ मंदिर का पौराणिक महत्व तो बहुत पहले से ही रहा है, लेकिन बहुत विशाल मंदिर यहां उससे पहले रहा हो यह इतिहास में प्रामाणिक तौर पर कहीं दर्ज नहीं है। यहां तक कि टोडरमल का बनवाया मंदिर भी बहुत विशाल नहीं था। दूसरी ओर, इस बात को ऐतिहासिक तौर पर भी माना जाता है कि ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण मंदिर टूटने के बाद ही हुआ और मंदिर तोड़ने का आदेश औरंगज़ेब ने ही दिया।"

राजस्व दस्तावेजों में जामा मस्जिद

ज्ञानवापी मस्जिद की देख-रेख करने वाली संस्था अंजुमन इंतज़ामिया मसाजिद के संयुक्त सचिव सैयद मोहम्मद यासीन कहते हैं "मस्जिद में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे पता चल सके कि उसका निर्माण कब हुआ? राजस्व दस्तावेज़ ही सबसे पुराना दस्तावेज़ है। इसी के आधार पर साल 1936 में दायर एक मुक़दमे पर साल 1937 में उसका फ़ैसला भी आया था और इसे मस्जिद के तौर पर अदालत ने स्वीकार किया था। अदालत ने माना था कि यह नीचे से ऊपर तक मस्जिद है और वक़्फ़ प्रॉपर्टी है। बाद में हाईकोर्ट ने भी इस फ़ैसले को सही ठहराया। इस मस्जिद में 15 अगस्त 1947 से पहले से ही नहीं बल्कि 1669 में जब यह बनी है, तभी से यहां नमाज़ पढ़ी जा रही है। कोरोना काल में भी यह सिलसिला नहीं टूटा है।"

सैयद मोहम्मद यासीन यह भी बताते हैं,  "भरोसेमंद ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में ज्ञानवापी मस्जिद का पहला ज़िक्र 1883-84 में मिलता है जब इसे राजस्व दस्तावेज़ों में जामा मस्जिद ज्ञानवापी के तौर पर दर्ज किया गया। मस्जिद के ठीक पश्चिम में दो कब्रें हैं जिन पर सालाना उर्स होता था। साल 1937 में कोर्ट के फ़ैसले में भी उर्स करने की इजाज़त दी गई। ज्ञानवापी में कब्रें अब भी महफ़ूज़ हैं, लेकिन अब वहां उर्स नहीं होता है। दोनों क़ब्रें कब की हैं, इसके बारे में उन्हें पता नहीं है।"

"आमतौर पर यही माना जाता है कि मस्जिद और मंदिर दोनों ही अकबर ने साल 1585 के आस-पास नए मज़हब 'दीन-ए-इलाही' के तहत बनवाए थे, लेकिन इसके दस्तावेज़ी साक्ष्य बहुत बाद के हैं। ज़्यादातर लोग तो यही मानते हैं कि मस्जिद अकबर के ज़माने में बनी थी। औरंगज़ेब ने मंदिर को तुड़वा दिया था क्योंकि वो 'दीन-ए-इलाही' को नकार रहे थे। मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनी हो, ऐसा नहीं है। यह मंदिर से बिल्कुल अलग है। ये जो बात कही जा रही है कि यहां कुआँ है और उसमें शिवलिंग है, तो यह बात बिल्कुल ही ग़लत है। साल 2010 में हमने कुएं की सफ़ाई कराई थी, वहां कुछ भी नहीं था।"

मोहम्मद यासीन यह भी कहते हैं, "साल 1937 में फ़ैसले के तहत मस्जिद का एरिया एक बीघा, नौ बिस्वा और छह धूर तय किया गया था लेकिन 1991 में सिर्फ़ मस्जिद के निर्माण क्षेत्र को ही घेरा गया और अब मस्जिद के हिस्से में उतना ही क्षेत्र है। यह कितना है, इसकी कभी नाप-जोख नहीं की गई है। विवाद हमारे जानने में कभी हुआ ही नहीं। यहां तक कि ऐसे भी मौक़े आए कि ज़ुमे की नमाज़ और शिवरात्रि एक ही दिन पड़ी, लेकिन तब भी सब कुछ शांतिपूर्वक रहा।"

हालांकि मंदिर-मस्जिद को लेकर कई बार विवाद हुए हैं, लेकिन ये विवाद आजादी से पहले के हैं। 1809 में जब हिंदुओं ने विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद के बीच एक छोटा स्थल बनाने की कोशिश की थी, तब भीषण दंगे हुए थे। स्थानीय लोगों के मुताबिक, मंदिर-मस्जिद को लेकर कई बार विवाद हुए हैं लेकिन ये विवाद आज़ादी से पहले के हैं, उसके बाद के नहीं। ज़्यादातर विवाद मस्जिद परिसर के बाहर मंदिर के इलाक़े में नमाज़ पढ़ने को लेकर हुए थे।

सबसे अहम विवाद साल 1809 में हुआ था जिसकी वजह से सांप्रदायिक दंगे भी हुए थे। ज्ञानवापी का विवाद साल 1991 के क़ानून के बाद मस्जिद के चारों ओर लोहे की चहारदीवारी बना दी गई। हालांकि उसके पहले यहां किसी तरह के क़ानूनी या फिर सांप्रदायिक विवाद की कोई घटना सामने नहीं आई थी।

विवाद में महंत परिवार की इंट्री

काशी विश्वनाथ मंदिर के पूर्व महंत राजेंद्र तिवारी "न्यूजक्लिक" से कहते हैं, " अकबर के नौरत्न राजा टोडरमल ने राजकोष के पैसे से मौजूदा विश्वनाथ मंदिर का जिर्णोद्धार कराया था। मुगल बादशाह दारा शिकोह संस्कृत की शिक्षा लेने बनारस आया तो उसने समूचे काशी विश्वनाथ मंदिर परिसर का पट्टा भीमराव लिंगिया के नाम करते हुए समूचे परिसर को सुपुर्द कर दिया। तभी से हमारी पीढ़ियां  मंदिर की देखरेख और पूजा-अर्चना करती आ रही थीं। कट्टर मुस्लिम शासक औरंगजेब ने जब दारा शिकोह को जब गिरफ्तार कर जेल में डाला और सत्ता पर काबिज हुआ तो परिस्थितियां बदल गईं। औरंगजेब की सेनाओं ने जब विश्वनाथ मंदिर पर हमला किया तो भीमराम लिंगिया के परिजनों ने विश्वनाथ मंदिर के शिवलिंग को वहां से हटाकर वहां अपने घर में स्थापित कर दिया। यह वही स्थान है जहां मौजूदा समय में विश्वनाथ मंदिर है। औरंगजेब का शासन जब तक उत्कर्ष था उस काल में किसी को पता नहीं था कि विश्वनाथ जी कहां हैं?  इसके बावजूद काशी विश्वनाथ के शिवलिंग की पूजा-अर्चना निर्वाध चलती रही। औरंगजेब का शासन खत्म होते ही विश्वनाथ मंदिर को आम जनता के दर्शनार्थ के लिए खोल दिया गया। इसी दरम्यान अहिल्याबाई होल्कर बनारस आईं और उन्होंने महंत परिवार से अनुमति लेकर उसी स्थान पर काशी विश्वनाथ मंदिर का फिर से जीर्णोद्धार कराया। बाद राज रणजीत सिंह ने मंदिर के गुंबदों को स्वर्ण मंडित किया।"

पूर्व महंत राजेंद्र तिवारी कहते हैं, " काशी विश्वनाथ मंदिर को भले ही शासन ने अपने कब्जे में ले लिया है, लेकिन उस मंदिर की परंपरागत जितनी भी सेवाएं हैं उसकी व्यवस्था महंत परिवार कर रहा था। नगर निगम के अभिलेखों में यह स्थान सीके 35/18 दर्ज था, जिसमें महंत परिवार का नाम पीढ़ियों से चला आ रहा था, जिसे योजनाबद्ध तरीके से प्रशासन ने हटा दिया है। साथ ही उस अभिलेख को भी गायब कर दिया है जो हमारे पूर्वजों के नाम पट्टा था। मंदिर और समूचे परिसर के मालिकाना हक को लेकर हमने जिला अदालत और सुप्रीम कोर्ट याचिकाएं दायर कर रखी हैं, जो विचाराधीन हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि सरकार ने हमसे मंदिर तो लिया, मगर मुआवजा नहीं दिया। नियमानुसार जब कोई संपत्ति सरकार अधिग्रहित करती है तो मुआवजा देती है। इस मामले में यूपी सरकार सुप्रीम कोर्ट और स्थानीय अदालत से भाग रही है। अभी तक उसने कोर्ट में कोई जवाब दाखिल नहीं किया है। जवाब दाखिल करने में लेट-लतीफी के चलते जिला अदालत दो मर्तबा सरकार पर हर्जाना लगाते हुए दंडात्मक कार्रवाई कर चुकी है। विश्वनाथ मंदिर के गर्भगृह में हमारे परदादा का चित्र आज भी मार्बल पर चस्पा है, जिसे हटाने के लिए कई बार नाकाम कोशिशें हो चुकी हैं।"  

राजेंद्र तिवारी यह भी कहते हैं, " ज्ञानवापी मस्जिद में विश्वनाथ का ज्योतिर्लिंग दबा है, यह बातें कपोरकल्पित हैं। सियासी फायदे के लिए यह अनर्गल प्रचार किया और कराया जा रहा है। ज्ञानवापी के विवाद पर बहस से पहले महंत परिवार के वाद पर फैसला आना चाहिए, ताकि धार्मिक भ्रांतियां दूर हो सकें। कोर्ट को यह भी जांच-पड़ताल करनी चाहिए कि तथाकथित कारिडोर के निर्माण में कितनी काशी खंड की कितनी मूर्तियों और बिग्रहों को क्यों तोड़ा गया? मुस्लिम शासकों के समय की परिस्थियां और थीं और इस समय की और हैं। सर्वविदित है कि ज्ञानवापी पहले मंदिर था, जिसे औरंजेब के काल में तोड़ा गया था। मोदी के कार्यकाल में काशी खंड के सैकड़ों मंदिरों और बिग्रहों को तोड़ा गया। काशी विश्वनाथ की कचहरी समेत तमाम पुरातन मंदिरों को तोड़ने के लिए कुसूरवार लोगों पर भी मुकदमा चलना चाहिए, क्योंकि मुगलकाल में बादशाहों का फरमान चलता था और इस समय लोकतंत्र है। धर्म के नाम पर किसी को मनमानी करने की छूट कतई नहीं मिलनी चाहिए।"

इसे झगड़ा कहें या रगड़ा?

वाराणसी के ज्ञानवापी का मामला भले ही सुर्खियों में है, लेकिन धार्मिक स्थलों को लेकर सैकड़ों विवाद तमाम सालों से अदालतों में चल रहे हैं। यूपी के मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मभूमि और शाही ईदगाह मस्जिद विवाद हाईकोर्ट में चल रहा है। दूसरी ओर, ताजमहल के बंद 22 कमरों का राज बाहर लाने की मांग को लेकर इलाहबाद हाईकोर्ट में अर्जी दी गई है। दिल्ली, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल और गुजरात के कई धार्मिक स्थलों का मामला अब किसी जलजले की तरह उभरा है।

ईदगाह मस्जिद विवाद: मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मभूमि और शाही ईदगाह मस्जिद विवाद पर 12 मई को हाईकोर्ट में सुनवाई हुई, जिसमें कोर्ट ने मथुरा की अदालत को चार महीने के अंदर सभी अर्जियों का निपटारा करने का निर्देश दिया। वादी पक्ष ने मांग की थी कि इस केस से जुड़े मामलों का निस्तारण नियमित तौर पर किया जाए। लखनऊ की रहने वाली रंजना अग्निहोत्री ने श्री कृष्ण जन्मभूमि की 13.37 एकड़ भूमि के स्वामित्व की मांग को लेकर वाद दायर किया है। इसमें श्री कृष्ण जन्मभूमि में बनी शाही ईदगाह मस्जिद को हटाने की भी मांग की गई है। शाही ईदगाह मस्जिद मथुरा शहर में श्रीकृष्ण जन्मभूमि मंदिर परिसर से सटी हुई है। पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक इस स्थल को हिंदू धर्म में श्रीकृष्ण की जन्मस्थली माना जाता है। कहा जाता है कि मुगल शासन औरंगजेब ने साल 1669 में श्रीकृष्ण मंदिर की भव्यता से चिढ़कर उसे तुड़वा दिया था और इसके एक हिस्से में ईदगाह का निर्माण कराया गया था। इसी ईदगाह को हटाने के लिए कोर्ट में वकील विष्णु जैन और रंजना अग्निहोत्री ने कोर्ट में केस दाखिल किया है।

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ताजमहल विवादः आगरा के ताजमहल विवाद में लखनऊ हाईकोर्ट के जस्टिस डीके उपाध्याय ने 12 मई को इस मामले में सख्त रुख अपनाया और कहा कि पीआईएल व्यवस्था का दुरुपयोग न किया जाए। याचिका दायर करने वाले पर टिप्पणी करते हुए कोर्ट ने यहां तक कहा कि यूनिवर्सिटी जाओ, पीएचडी करो तब हाईकोर्ट आना। इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच में दाखिल याचिका में ताजमहल के बंद 22 कमरों को खुलवाने और आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया से जांच कराने की मांग की गई थी। यह याचिका भाजपा के अयोध्या के मीडिया इंचार्ज रजनीश सिंह ने दाखिल की थी, जिनका कहना है ताजमहल मकबरा नहीं महादेव का मंदिर है। ताजमहल का निर्माण मुगल बादशाह शाहजहां ने साल 1653 में कराया था। मुमताज के इस प्रसिद्ध मकबरे को लेकर हिंदू संगठनों का दावा है कि शाहजहां ने ‘तेजो महालया’ नामक भगवान शिव के मंदिर को तुड़वाकर वहां ताजमहल बना दिया। इस विवाद में अब जयपुर के पूर्व राजघराने की सदस्य एवं भाजपा सांसद दीय कुमारी भी कूद गई हैं। वह दावा कर रही हैं, "जिस जमीन पर ताजमहल बनवाया गया है वह जयपुर राजघराने की है। हमारे पास इस बात के पुख्ता दस्तावेज हैं।"  

अटाला मस्जिदः यूपी के जौनपुर जिले में स्थित अटाला मस्जिद भी विवादों से घिरी रही है। इस मस्जिद का निर्माण साल 1408 में इब्राहिम शरीकी ने कराया था। हिन्दूवादी संगठनों का दावा है कि इब्राहिम ने जौनपुर में स्थित अटाला देवी मंदिर को तोड़कर वहां अटाला मस्जिद बनाई थी। अटाला देवी मंदिर का निर्माण गढ़ावला के राजा विजयचंद्र ने कराया था।

कमल मौला मस्जिद: मध्य प्रदेश के धार जिले में स्थित कमल मौला मस्जिद भी विवादों में रही है। हिंदू इसे माता सरस्वती का प्राचीन मंदिर भोजशाला बताते हैं और मुस्लिम अपनी इबादतगाह। माना जाता है कि भोजशाला मंदिर का निर्माण हिंदू राजा भोज ने 1034 में कराया था। इस पर पहले 1305 में अलाउद्दीन खिलजी ने हमला किया। फिर मुस्लिम सम्राट दिलावर खान ने यहां स्थित विजय मंदिर को नष्ट करके सरस्वती मंदिर भोजशाला के एक हिस्से को दरगाह में बदलने की कोशिश की। बाद में महमूदशाह ने सरस्वती मंदिर के बाहरी हिस्से पर कब्जा करते हुए वहां कमल मौलाना मकबरा बना दिया। साल 1997 से पहले हिंदुओं को यहां पूजा नहीं, बल्कि केवल दर्शन करने की इजाजत थी। अब इसकी देखरेख ऑकियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया करता है। साल 2006, 2013 और 2016 को यहां सांप्रदायिक तनाव की वारदातें हो चुकी हैं।

बीजा मंडल मस्जिद: मध्य प्रदेश के विदिशा शहर के बीजा मंडल मस्जिद पर विवाद भी अब तूल पकड़ने लगा है। हिन्दूवादी संगठनों का दावा है कि बीजा मंडल मस्जिद का निर्माण परमार राजाओं द्वारा निर्मित चर्चिका देवी के हिंदू मंदिर को नष्ट करके किया गया था। इस स्थल पर मौजूद एक खंभे पर लगे शिलालेख में बताया गया है कि मूल मंदिर देवी विजया को समर्पित था। सबसे पहले इस मंदिर का निर्माण 8वीं सदी में हुआ था और फिर 11वीं सदी में चर्चिका देवी के भक्त परमार वंश और मालवा के राजा नरावर्मन ने विजया मंदिर का पुनर्निर्माण कराया था। बाद में साल 1658-1707 के दौरान औरंगजेब ने इस मंदिर पर हमला करके इसे लूटा और नष्ट कर दिया। उसने मंदिर के उत्तरी ओर मौजूद सभी मूर्तियों को दफनाकर इसे मस्जिद में बदल दिया गया।

कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद: कुतुब मीनार के पास स्थित कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद का विवाद भी नए सिरे से खड़ा किया जा रहा है। कुतुब मीनार परिसर देश के प्रमुख धरोहरों में से एक है। मस्जिद का निर्माण कुतुबुद्दीन ऐबक ने कराया था। माना जाता है कि इस मस्जिद का निर्माण 27 हिंदू और जैन मंदिरों को नष्ट करके किया गया था। राम मंदिर-बाबरी मस्जिद विवाद के दौरान अयोध्या में खुदाई में शामिल रहे प्रसिद्ध आर्कियोलॉजिस्ट केके मुहम्मद ने हाल ही में कहा था कि कुतुब मीनार के पास स्थित कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद को बनाने के लिए 27 हिंदू और जैन मंदिरों को तोड़ गया था। केके मुहम्मद ने दावा किया है, " मस्जिद के पूर्वी गेट पर लगे एक शिलालेख में भी इस बात का जिक्र है। इस मामले को लेकर फरवरी 2022 में दिल्ली के साकेत स्थित डिस्ट्रिक कोर्ट में याचिका दायर की गई है और पूजा करने का अधिकार मांगते हुए दावा किया गया है कि इस मस्जिद में पिछले 800 वर्षों से नमाज नहीं अदा की गई है। "

गुजरात का जामा मस्जिद: ज्ञानवापी मस्जिद जैसा ही विवाद गुजरात के अहमदाबाद में जामा मस्जिद को लेकर चल रहा है। दावा किया जा रहा है कि इस मस्जिद को हिंदू मंदिर भद्रकाली को तोड़कर बनाया गया है। अहमदाबाद का पुराना नाम भद्रा था। भद्रकाली मंदिर का निर्माण मालवा (राजस्थान) पर 9वीं से 14वीं सदी तक राज करने वाले राजपूत परमार राजाओं ने कराया था। अहमदाबाद में अभी जो जामा मस्जिद है, उसे अहमद शाह प्रथम ने 1424 में बनवाया था। इस मस्जिद के कई खंभों पर कमल के फूल, हाथी, कुंडलित नाग, नर्तकियों, घंटियों आदि की नक्काशी की गई है, जो अक्सर हिंदू मंदिरों में नजर आते हैं। 

जामी मस्जिद: गुजरात के पाटन जिले में स्थित जामी मस्जिद को लेकर अक्सर विवाद खड़ा होता रहा है। हिन्दुओं का मानना है कि इस मस्जिद को यहां बनी रुद्र महालय मंदिर को तोड़कर बनाया गया था। इतिहासकारों का कहना है रुद्र महालय मंदिर का निर्माण 12वीं सदी में गुजरात के शासक सिद्धराज जयसिंह ने कराया था। साल 1410-1444 के बीच अलाउद्दीन खिलजी ने इस मंदिर के परिसर को नष्ट कर दिया था। बाद में अहमद शाह प्रथम ने मंदिर के कुछ हिस्से को जामी मस्जिद में बदल दिया था।

अदीना मस्जिद: पश्चिम बंगाल के मालदा जिले के पांडुआ में स्थित अदीना मस्जिद का निर्माण 1358-90 में सिकंदर शाह ने कराया था। माना जाता है कि उसने भगवान शिव के प्राचीन आदिनाथ मंदिर को नष्ट करके उसकी जगह अदीना मस्जिद बनवाई थी। वहां मंदिर होने का दावा करने वालों का तर्क है कि अदीना मस्जिद के कई हिस्सों में हिंदू मंदिरों के स्टाइल की डिजाइन नजर आती हैं। 

पूजा स्थल कानून पर सवाल क्यों? 

अयोध्या कांड के बाद पूजा स्थलों को का विवाद रोकने के लिए साल 1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव की कांग्रेस सरकार ने पूजा स्थल कानून बनाया था। इस कानून पर भी अब सवाल खड़ा कर दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने पूजा स्थल कानून, 1991 को चुनौती देने वाली एक याचिका पर केंद्र सरकार को नोटिस जारी करते हुए जवाब मांगा है। याचिकाकर्ता अश्विनी उपाध्याय का कहना है कि ये कानून देश के नागरिकों में भेदभाव करता है और मौलिक अधिकारों का भी उल्लंघन करता है। याचिका में कहा गया है कि यह कानून हिंदू, जैन, सिख और बौद्ध धर्म के लोगों को उनके संवैधानिक अधिकारों से वंचित करता है। उनके जिन धार्मिक और तीर्थ स्थलों को विदेशी आक्रमणकारियों ने तोड़ा, उसे वापस पाने के उनके कानूनी रास्ते को भी बंद करता है। अश्विनी कहते हैं, "देश में ऐसे 900 मंदिर हैं जिन्हें 1192 से 1947 के बीच तोड़कर उनकी जमीन पर कब्जा करके मस्जिद या चर्च बना दिया गया। इनमें से सौ से अधिक तो ऐसे हैं जिनका जिक्र महापुराणों में है। क्यों कहते हैं कि इस कानून का बेस 1947 रखा गया है। अगर इस तरह का कोई बेस बनाया जाता है तो वो बेस 1192 ही होना चाहिए। उम्मीद है कि मौजूदा भाजपा सरकार मेरी याचिका के पक्ष में जवाब देगी, क्योंकि भाजपा का स्टैंड रहा है कि कोई भी विवाद हो उसका निपटारा कोर्ट से होना चाहिए।"

क्यों बना पूजा कानून?

कांग्रेस सरकार ने साल 1991 में पूजा स्थल कानून बनाया था, जिसमें साफ-साफ कहा गया है कि 15 अगस्त 1947 से पहले अस्तित्व में आए किसी भी धर्म के पूजा स्थल को किसी दूसरे धर्म के पूजा स्थल में नहीं बदला जा सकता। अगर कोई ऐसा करने की कोशिश करता है तो उसे एक से तीन साल तक की जेल और जुर्माना हो सकता है। अयोध्या का मामला उस वक्त कोर्ट में था, इसलिए उसे इस कानून से अलग रखा गया था।

दरअसल, पूजा स्थल कानून तब बनाया गया जब रामजन्म भूमि मंदिर विवाद चरम पर था। भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने 25 सितंबर 1990 को सोमनाथ से रथयात्रा निकाली तो जनता दल के मुख्यमंत्री लालू यादव ने उन्हें गिरफ्तार करा लिया। इसका असर यह हुआ कि केंद्र भाजपा के समर्थन से चलने वाली जनता दल की वीपी सिंह सरकार गिर गई। बाद में नए सिरे से चुनाव हुए और केंद्र में कांग्रेस की सरकार आई। पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने तो राम मंदिर आंदोलन के बढ़ते प्रभाव के चलते अयोध्या के साथ ही कई और मंदिर-मस्जिद विवाद उठने लगे थे। इन विवादों पर विराम लगाने के लिए ही नरसिम्हा राव सरकार ये कानून लेकर आई थी।

पूजा कानून का विरोध पहली बार विरोध हो रहा है, ऐसा नहीं है। जुलाई 1991 में जब केंद्र सरकार ये कानून लेकर आई थी तब भी संसद में भाजपा ने इसका विरोध किया था। उस समय राज्यसभा में अरुण जेटली और लोकसभा में उमा भारती ने इस मामले को संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) के पास भेजने की मांग की थी, लेकिन बाद में वह कानून पास हो गया था। अयोध्या मामले का फैसला आने के बाद ज्ञानवापी के साथ देशभर के करीब सौ से अधिक पूजा स्थलों पर मंदिर की जमीन होने को लेकर दावेदारी की जा रही है। साल 1991 के पूजा कानून के चलते दावा करने वाले कोर्ट नहीं जा सकते। बनारस के जाने-माने अधिवक्ता संजीव वर्मा कहते हैं, "अगर सुप्रीम कोर्ट पूजा स्थल कानून की वैधानिकता पर विचार करता है तो इसका असर काशी-मथुरा के मंदिर विवादों पर भी पड़ेगा। इन मंदिरों के लिए भी अयोध्या मामले की तरह कानूनी लड़ाई शुरू हो सकती है।"

 न्यायविदों का रोल अहम

काशी पत्रकार संघ के पूर्व अध्यक्ष एवं चिंतक प्रदीप कुमार कहते हैं, "ज्ञानवापी का मुद्दा उठने के बाद देशभर में इस तरह की याचिकाओं की बाढ़ सी आ गई है। ज्ञानवापी से साथ मथुरा, आगरा समेत तमाम धर्मिक स्थलों को लेकर विवाद खड़ा किया जा रहा है। ऐसा लग रहा है कि जैसे लोग इंतजार में बैठे थे कि ऐसे तमाम मसलों को अदालत में ले जाकर खड़ा कर देना है। याचिकाओं की आड़ में यह समझाने की कोशिश की जा रही है कि यह मसला कानूनी है। एक साथ तमाम विवाद खड़ा होने पर निचली अदालतों का दायित्व बढ़ जाता है। ज्यादातर याचिकाएं निचली अदालतों में दायर हो रही हैं। ऐसे तमाम मसलों को इंटरटेन करने की जरूरत ही नहीं है, अन्यथा अदालतों में ऐसे विवादों की बाढ़ आ जाएगी। ज्ञानवापी मस्जिद को लेकर आने वाले समय में विवाद और बढ़ने की उम्मीद जो जो देश और समाज के लिए नुकसानदेह है। कानून और समाजिक मूल्यों का तकाजा है कि देशहित में ऐसे मामलों को हतोत्साहित किया जाना चाहिए। कानूनविदों को चाहिए कि वह अमन कायम रखने के लिए कोशिश करें। पड़ोसी मुल्क लंका का हश्र लोग देख रहे हैं। हमारा पड़ोसी मुल्क तबाही और बर्बादी का शिकार हो गया है। वहां भी सरकारी संरक्षण में धर्मस्थलों और संप्रदायों को निशाना बनाया गया था। श्रीलंका में भी बहुसंख्यकवाद का वितंडा खड़ा किया गया और मौजूदा समय में वहां जो हालात हैं उससे भारत को सबक लेने की जरूरत है। यह मुद्दा गभीर चिंता का विषय है।"

प्रदीप कहते हैं, "यह गौर करने की बात है कि इस समय सोने की लंका जल रही तो सोने की चिड़िया का क्या होगा? महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी पर गौर नहीं किया जा रहा है और ये समस्याएं भूख के ऐसे दावानल की ओर ले जा रही हैं जिसमें धर्म की व्यापक क्षति होगी। इसी तरह के राष्ट्रवाद और धर्मांधता ने पूरे देश को सांप्रदायिकता की ओर ढकेल दिया है। इतिहास गवाह है कि धर्म ने कभी भूख पर विजय नहीं पाई है। भूख ने हमेशा धर्म और राजनीति को पीछे ढकेला है। भूख ही ऐसी चीज है जिसके सामने आचार, विचार और विवेक कोई मायने नहीं रखते। आज देश पूरी तरह आत्मनिर्भर बनाने की जरूरत है। सभी को मिलकर भूख और गरीबी से लड़ने की जरूरत है, न कि धर्म स्थलों का विवाद खड़ा कर सामाजिक समरसता को नष्ट करने की। ज्ञानवापी मस्जिद जैसे विवादों को हतोत्साहित किया जाए, यही देश हित में है और यही कानून का तकाजा भी है। कानून इसलिए बना है कि समाज सुरक्षित रहे और अमनो-अमान कायम रहे। कानून को उस रास्ते पर नहीं ले जाना चाहिए जो रास्ता खतरनाक और निर्दोष लोगों का खून बहाने वाला हो।"

वरिष्ठ पत्रकार अमितेश पांडेय कहते हैं, "मुसलमानों में इस बात का खौफ है कि ज्ञानवापी मस्जिद का हस्र भी अयोध्या जैसा हो सकता है। सच यह है कि ये करना कुछ भी नहीं चाहते हैं। सच यह है कि साल 2024 के चुनाव के लिए जमीन तैयार की जा रही है। ज्ञानवापी मस्जिद के मुद्दे को जानबूझकर हवा दी जा रही है। इनका मकसद सिर्फ प्रोपगंडा और समाज में वैमनस्यता फैलाना है। रही बात श्रृंगार गौरी के दर्शन की बात तो उस स्थान पर पूजा-अर्चना करने के लिए किसे कौन रोका है?  मस्जिद का पुरातात्विक सर्वे का मामला हाईकोर्ट में पहले से ही विचाराधीन है। ऐसे में इन्हें मस्जिद में घुसने की जरूरत क्या है?  भाजपा को पता है कि धर्म का वितंडावाद ऐसी अफीम है जिससे बहुसंख्यक को आसानी से संज्ञाशून्य किया जा सकता है।"

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