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जिन महिलाओं के पास है संपत्ति का मालिकाना अधिकार, उनके लिए घरेलू हिंसा का ख़तरा कम- प्रो. बीना अग्रवाल

भारतीय महिलाओं को संपत्ति का अधिकार दिलवाने के लिए बड़ी लड़ाई लड़ने वाली प्रोफेसर बीना अग्रवाल से रश्मि सहगल की बातचीत।
बीना अग्रवाल

बीना अग्रवाल ब्रिटेन की मैनचेस्टर यूनिवर्सिटी में विकास अर्थशास्त्र और पर्यावरण की प्रोफ़ेसर हैं, उन्हें 1994 में आई उनकी किताब "अ फील्ड ऑफ वन्स ओन: जेंडर एंड लैंड राइट्स इन साउथ एशिया" के लिए पुरस्कार भी मिल चुका है। 2005 में उन्होंने लैंगिक समानता के लिए हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में बदलाव के लिए नागरिक अभियान चलाया था। उनका महिला अधिकारों के क्षेत्र में प्रतिनिधि काम किया है। भारतीय महिलाओं को 'संपत्ति का उत्तराधिकारी' बनने के अधिकार को दिलवाने का बड़ा श्रेय उन्हें जरूर जाना चाहिए। यहां रश्मि सहगल के साथ इंटरव्यू की बातें पेश की गई हैं।

अगस्त में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया फ़ैसला, संपत्ति में हिंदू महिला के अधिकारों को ध्यान में रखते हुए कितना अहम है?

सुप्रीम कोर्ट की 3 सदस्यीय बेंच द्वारा दिया गया हालिया फ़ैसला संपत्ति में हिंदू महिला के अधिकारों को ना तो बढ़ाता है और ना ही उनमें कोई बदलाव लाता है। बल्कि इस फ़ैसले के ज़रिए सुप्रीम कोर्ट ने 2005 के अपने मूल फ़ैसले की भावना को ध्यान में रखते हुए हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम (2005) की व्याख्या की है। इस स्पष्टीकरण की जरूरत थी। क्योंकि पहले सुप्रीम कोर्ट की दो बेंचों द्वारा दिए गए फ़ैसले विरोधाभासी और शंका पैदा करने वाले थे। इस स्पष्टीकरण से कोर्ट मे लंबित और भविष्य में आने वाले मामलों में मदद मिलेगी। साथ में मी़डिया कवरेज से लोगों में कानून के प्रति जागरुकता आएगी। लेकिन इससे ज़्यादातर महिलाओं पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। क्योंकि बहुत कम महिलाएं ही अपने अधिकारों के लिए कोर्ट जा पाती हैं।

कानून को ज़्यादा प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए हमें गांव में ज़मीन बंटवारे का हिसाब रखने वाले अधिकारियों और परिवार के सदस्यों का रुढ़िवादी रवैया बदलना होगा। ताकि महिलाओं के इस अधिकार को ज़्यादा सामाजिक मान्यता मिल पाए। कानून के पास होने के 15 साल बाद भी सामाजिक रवैया बड़ी बाधा बना हुआ है। महिलाओं को कानूनी सहायता देने की सुविधा भी इस दिशा में अच्छा कदम हो सकती है। कुछ NGO इस दिशा में काम कर रहे हैं।

आपकी 1994 में आई किताब "अ फील्ड ऑफ वन्स ऑन: जेंडर एंड लैंड राइट्स इन साउथ एशिया", में आपने बताया है कि क्यों महिलाओं के आर्थिक और सामाजिक सशक्तिकरण के लिेए संपत्ति पर उनका अधिकार जरूरी है। क्या आप इसकी और व्याख्या कर सकती हैं?

अचल संपत्ति, खासकर ज़मीन, अब भी भारत में लोगों की सबसे अहम संपत्ति है। ग्रामीण इलाकों में यह सपंत्ति, नई संपदा बनाने वाली और आजीविका का ज़रिया है। किसानों के लिए यह बेहद अहम उत्पादक संसाधन है। लेकिन ज़मीन के मालिकाना हक वाले परिवारों में भी, अगर महिलाओं के पास ज़मीन या घर नहीं है, तो वे भी आर्थिक और सामाजिक तौर पर संकटग्रस्त होती हैं। ज़मीन का एक छोटा टुकड़ा होने से भी महिलाओं को गरीबी का ख़तरा कम हो जाता है, खासकर विधवा या तलाकशुदा मामलों में। जब महिला के पास ज़मीन का मालिकाना हक होता है, तब बच्चों की हालत, स्वास्थ्य और शिक्षा भी बेहतर पाई गई है। किताब लिखने के बाद किए गए शोध में मैंने पाया कि अगर महिला के पास अचल संपत्ति होती है, तो घरेलू हिंसा का खतरा भी काफ़ी कम हो जाता है।

महिलाओं के पास ज़मीन का अधिकार होने से संभावित उत्पादकता फायदे भी बढ़ जाते हैं। ग्रामीण भारत में करीब़ 30 फ़ीसदी कृषि कामग़ार महिलाएं हैं, वहीं 70 फ़ीसदी से ज़्यादा महिलाएं अब भी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर हैं। करीब़ 14 फ़ीसदी महिलाएं खेत प्रबंधक भी हैं, हालांकि इस संख्या में बहुत सारी महिलाएं ऐसी हैं, जिनके पति के नौकरी में होने की वजह से वह कृषि कार्य का प्रबंधन करती हैं। जो महिलाएं खेतों का प्रबंधन करती हैं, उनके पास लिए कर्ज़, सब्सिडी लेना और बाज़ार तक पहुंच भी आसान हो जाती है। इसके चलते उनकी फ़सल में काफ़ी सुधार होता है, जिससे देश का कृषि विकास भी होता है।

ज़मीन का मालिकाना हक होने से महिलाओं का कई तरह से सशक्तिकरण होता है। मेरी किताब में मैंने सशक्तिकरण को परिभाषित करते हुए बताया है कि "यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिससे वंचित (शक्तिहीन) तबकों या व्यक्तियों को शक्ति संबंधों को अपने पक्ष में झुकाने और उन्हें चुनौती देने का अधिकार मिलता है। यह वह शक्ति संबंध होते हैं, जिनसे उन्हें आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक स्थितियों में निचली श्रेणी में रहना पड़ता है।" ज़मीनी अधिकारों से महिलाओं की आर्थिक स्थिति भी अच्छी होगी, साथ ही सामाजिक और राजनीतिक लैंगिक भेदभाव को चुनौती देने की उनकी क्षमता भी मजबूत होगी। 1970 के दशक के आखिर में जब गया में दो भूमिहीन महिलाओं को अपने नाम पर पहली बार ज़मीन मिली तो उन्होंने कहा, "हमारे पास जीभ थी, पर हम बोल नहीं सकते थे, हमारे पास पैर थे, पर हम चल नहीं सकते थे। अब जब हमारे पास ज़मीन है, तो हमारे पास बोलने और चलने की शक्ति आ गई है।" यही सशक्तिकरण है!

अपने लेखन में मैंने संपत्ति के नामित अधिकार और संपत्ति को नियंत्रित करने के अधिकार व फ़ैसले लेने की क्षमता में अंतर बताया है। मैंने मालिकाना हक और नियंत्रण, दोनों को दर्शाने के लिए "कमान" शब्द का इस्तेमाल किया है।

2007 में आपने जर्नल ऑफ ह्यूमन डिवेल्पमेंट में "टूवार्ड्स फ्रीड्म फ्रॉम डोमेस्टिक वॉयलेंस" लिखा, जिसमें आपने तर्क दिया कि अचल संपत्ति के मालिकाना अधिकार होने से महिलाओं की हिंसा से भी सुरक्षा होती है। क्या आप इससे जुड़े आपके नतीजों पर कुछ कहना चाहेंगी?

एक साथी प्रदीप पांडा के साथ मिलकर यह अध्ययन किया था। यह अध्ययन केरल के तिरुवनंतपुरम में 502 ग्रामीण और शहरी परिवारों के प्राथमिक आंकड़ों पर आधारित था। पिछले अध्ययनों के उलट, जिनमें महिलाओं का आर्थिक दर्जा नापने के लिए महिला रोज़गार को ही ध्यान में रखा जाता है, इसमें हमने अचल संपत्ति (घर या ज़मीन) के मालिकाना अधिकार का दंपत्ति हिंसा पर प्रभाव का परीक्षण किया। इसके नतीज़े बहुत चौंकाने वाले थे। 15-49 साल की विवाहित महिलाओं में, अगर उनके पास ज़मीन या घर नहीं है, तो 49 फ़ीसदी महिलाओं के साथ हिंसा हुई। लेकिन जिन महिलाओं के पास घर और ज़मीन दोनों का मालिकाना हक है, तो इस वर्ग में केवल 7 फ़ीसदी महिलाओं के साथ ही घरेलू हिंसा हुई। जिन महिलाओं के पास सिर्फ़ जम़ीन का अधिकार है, उनमें से 18 फ़ीसदी और जिन महिलाओं के पास केवल घर का अधिकार उनमें से 10 फ़ीसदी के साथ ही घरेलू हिंसा की घटनाएं हुईं।

यहां गौर करने वाली बात यह भी है कि महिलाओं का एक छोटा वर्ग ऐसा भी है, जिनके पास औपचारिक क्षेत्र में नौकरियां हैं, जो अपने पति से ज़्यादा कमाती हैं, लेकिन उन्हें हिंसा की घटनाओं का बेरोज़गार महिलाओं से ज़्यादा सामना करना पड़ता है। लेकिन अगर किसी महिला के पास संपत्ति है और उसका पति संपत्ति विहीन भी है, तो भी उसे हिंसा का कम सामना करना पड़ता है। दूसरे शब्दों में कहें तो रोज़गार होने से महिला की सुरक्षा पर विपरीत असर पड़ सकता है, पर अचल संपत्ति का अधिकार होने से उसको सुरक्षा मिलती है।  

आपने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम को लेकर एक कैंपेन चलाया, जिसकी परिणिति हिंदू उत्तराधिकार संशोधन अधनियम 2005 के तौर पर हुई। संशोधन से क्या बड़े बदलाव आए?

हिंदू उत्तराधिकार के कानून व्यक्तिगत संपत्ति और पारिवारिक संपत्ति में अंतर करते हैं। 1956 के हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम से 1956 के पहले की तुलना में महिलाओं को उसकी पैतृक संपत्ति में कई अहम अधिकार हासिल हुए थे। जैसे- किसी शख्स का बेटा, बेटी, मां और विधवा को पहली श्रेणी का वारिश माना जाने लगा, मतलब अगर कोई शख्स बिना वसीयत के मर जाता है, तो इन लोगों का उसकी व्यक्तिगत संपत्ति में बराबर का हिस्सा माना जाएगा। लेकिन बेटियों को संयुक्त परिवार में "कोपार्सनर (सरल शब्दों में कहें, तो पारिवारिक संपत्ति में जन्मजात उत्तराधिकार का अधिकार)" नहीं माना गया था। वहीं बेटे को जन्म के साथ ही यह अधिकार हासिल होता है, जिसे उसका पिता भी अपनी मर्जी से छीन नहीं सकता।

HSA (1956) में कृषि ज़मीन को इसके दायरे से बाहर रखा गया था, जिसका बंटवारा पारंपरिक नियमों और हर राज्य के भू सुधार कानूनों के हिसाब से होता था। कई राज्यों में इन कानूनों में वृहद स्तर का लैंगिक भेदभाव भी दिखाई देता है।

इसके बाद चार राज्यों, तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र ने एक साथ मिलकर HSA 1956 में संशोधन कर लिया, ताकि अविवाहित बेटी को कोपार्सनर बनाया जा सके। जबकि केरल ने संयुक्त परिवार संपत्ति को ही पूरे तरीके से खत्म कर दिया।

पर हिंदू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम, 2005 से समग्र तौर पर बदलाव कर दिए गए। इसने सभी राज्यों के लिए भेदभावयुक्त कृषि प्रावधान को अलग कर दिया और सभी बेटियों (विवाहित या अविवाहित) को संयुक्त परिवार की संपत्ति में कोपार्सनर माना। यह बहुत बड़ा कदम था। इससे महिलाओं को कृषि भूमि का उत्तराधिकारी बनने और अपने भाईयों के बराबर का हिस्सेदार बनने का अधिकार मिला। चूंकि कोपार्सनर बनने का अधिकार जन्मजात होता है, इसलिए व्यक्तिगत संपत्ति की तरह पिता अपनी मर्जी से भी इसको नहीं छीन सकता।

साथ में अब महिलाएं संयुक्त परिवार की संपत्ति का बंटवारा भी करवा सकती हैं, अब वह कर्ता (प्रबंधक) भी हो सकती हैं और अपने पारिवारिक घर में रहना, अपने भाईयों की तरह उनका कानूनी अधिकार है।

संशोधनों को देखते हुए, क्या भारत में ज़मीनी स्तर पर महिलाओं के भूमि अधिकार में कुछ बदलाव आया है?

मुझे यह कहते हुए दुख होता है कि फिलहाल बदलाव नहीं आए हैं। कई दशकों तक ज़मीन के मालिकाना अधिकार के लिए लैंगिक आधार पर आंकड़ों का संकलन नहीं किया गया, इसलिए हम यह नहीं बता सकते कि महिलाओं के पास कितनी ज़मीन का मालिकाना हक है। हाल में, 9 राज्यों के भीतर ग्रामीण परिवारों के लिए मैं इस आंकड़े को हासिल नहीं कर पाई। मैंने पाया कि 2014 तक ज़मीन मालिकों में से केवल 14 फ़ीसदी ही महिलाएं हैं और कुल ज़मीन में केवल 11 फ़ीसदी ही इनके अधिकार में है।

एक तरफ कानूनी संशोधनों से बेटियों के अधिकार मजबूत हुए हैं, दूसरी तरफ मैंने पाया कि महिलाओं को ज़मीन मिलने के मौके विधवा होने पर ही ज़्यादा होते हैं। यह परंपराओं के मुताबिक़ ही है, जिसके तहत विधवा के अधिकारों को बेटियों के अधिकारों पर वरीयता दी जाती है। बहुत कम लड़कियां अपने भाईयो के साथ साझा मालिक थीं। जबकि हमारी उम्मीदों के हिसाब से अगर लड़कियों को कोपार्सनर के तौर पर दर्ज किया जाता, तो यह तस्वीर अलग होती।

कई महिलाएं अपने उत्तराधिकारों का दावा नहीं करतीं। इसके लिए कौन से कारक जिम्मेदार हैं?

आमतौर पर महिलाएं अपने भाईयों के पक्ष में पैतृक संपत्ति में अपना दावा छोड़ देती हैं। इसकी वज़ह खुला और छुपा सामाजिक दबाव है। बेटियों पर दबाव होता है कि वह ना केवल परिवार में अपने दावे को छोड़ दें, बल्कि पटवारी के यहां से भी यह दावा छोड़ दें। महिलाओं पर छुपा हुआ दबाव भी होता है। सामाजिक तौर पर आशा लगाई जाती है कि एक "अच्छी लड़की" अपने अधिकारों को छोड़ देती है। फिर एक सरकारी सामाजिक सुरक्षा ढांचे के आभाव में कई महिलाएं अपने मां-बाप की मौत के बाद भाईयों को ही अपने मददगार के तौर पर देखती हैं। इसलिए वे अपने भाईयों के साथ संबंधों को बचाने के लिए अपने दावों को छोड़ देती हैं, जबकि हो सकता है कि उनके भाई उस तरह की मदद उपलब्ध ना करवा पाएं।

तो कहा जा सकता है कि सामाजिक दबाव एक बड़ी बाधा है। खासकर उत्तर भारत में, जहां महिलाओं को दूरदराज के गांवों में ब्याहा जाता है और बेटी को दी गई कोई भी ज़मीन परिवार के नुकसान के तौर पर देखी जाती है। दक्षिण भारत में गांवों में ही बेटियों की शादी होती है और थोड़े दूर के संबंधियों में भी शादी की अनुमति होती है, वहां कम सामाजिक बाधाएं देखने को मिलती हैं। फिर भी वहां भी मालिकाना हक में बड़ा लैंगिक भेद है।

कुछ महिलाएं ही अपने अधिकारों के लिए कोर्ट जाना चाहती हैं। लेकिन अब जब विवाहित महिलाओं का भी कोपार्सनरी संपत्ति में अधिकार है, तो उनके पति और बेटे भी दावेदार हो गए हैं और वे महिलाओं को मुकदमे लगाने के लिए प्रेरित कर सकते हैं।

आप कहती हैं कि भूमि और राजस्व अधिकारी अकसर संशोधित कानूनों के विशेष उपबंधों से अनजान होते हैं या फिर महिलाओं के प्रति पक्षपात भरे रवैये से काम करते हैं। इस दिक्कत को कैसे दूर किया जा सकता है?

हमें जागरुकता कार्यक्रम चलाने की जरूरत है और कानूनों के प्रति अधिकारियों को प्रशिक्षण देना होगा। साथ में उन्हें लैंगिक तौर पर ज़्यादा संवेदनशील भी बनाना होगा। कई एनजीओ इस तरह का प्रशिक्षण दे रहे हैं। उदाहरण के लिए गुजरात में "द वर्किंग ग्रुप फॉर वीमेन्स फॉर लैंड ओनरशिप" एक नेटवर्क है, जिसे खड़ा करने में मैंने भी योगदान दिया है, वह पटवारियों को प्रभावी ढंग से प्रशिक्षण दे रहा है। मुझे लगता है कि इससे कुछ हद तक राज्य में महिलाओं द्वारा संपत्तियों के दावे के पंजीकरण में इज़ाफा हुआ है।

मुस्लिम पर्सनल लॉ में मुस्लिम महिलाओं के कृषि भूमि को उत्तराधिकार में पाने के लिए क्या बदलाव करने जरूरी हैं?

"मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937" के मुताबिक़ मुस्लिम समुदाय पर प्रशासन किया जाता है। इस कानून के जरिए,"कृषि ज़मीन से जुड़े सवालों", सभी पारंपरिक रिवाजों पर शरीयत कानून को वरीयता दे दी गई। यह पारंपरिक रिवाज़ गंभीर तौर लैंगिक भेदभाव से भरे हुए थे। शरीयत में पुरुष उत्तराधिकारी बेटी और विधवाओं को संपत्ति से अलग नहीं कर सकता। हालांकि उनकी हिस्सेदारी कम होती है।

1937 के कानून ने क्षेत्रविशेष के चलन और कानून को दबाते हुए मुस्लिम महिलाओं के संपत्ति में अधिकारों को बढ़ाया। लेकिन कृषि ज़मीन में मालिकाना हक़ अब भी अलग-अलग रिवाज़ों और राज्यों के अपने भूमि अधिकार कानूनों के हिसाब चलते रहे। बाद में चार दक्षिण भारतीय राज्यों ने "कृषि ज़मीन से जुड़े सवालों" का वाक्यांश हटाकर कानून में संशोधन कर लिया। लेकिन दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश और उत्तरप्रदेश जैसे उत्तर भारत राज्यों में स्थानीय रिवाजों और भूमि कानूनों के हिसाब से कृषि उत्तराधिकार चलता रहा है, यह रिवाज और कानून गंभीर तौर पर लैंगिक भेदभाव से युक्त हैं। शरीयत कानून, 1937 में केंद्रीय स्तर से सुधार करने की जरूरत है और "कृषि ज़मीन से जुड़े सवालों" के भेदभावकारी वाक्यांश को हटाया जाना चाहिए, ताकि पूरे देश में मुस्लिम महिलाओं के लिए एक ही कानून लागू हो सके, बिलकुल वैसे ही जैसे हिंदू महिलाओं के लिए किया गया है।

मैंने 2005 के आखिर में एक अख़बार में इस बारे में लिखा था। इसके बाद मैंने एक याचिका भी लगाई थी, जिसमें भेदभावकारी उपबंध को हटाने की मांग थी, याचिका पर 420 लोगों और 46 संगठनों (जिनमें से ज़्यादातर मुस्लिम सुधारवादी थे) ने हस्ताक्षर किए थे। मैंने इस याचिका को प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के सामने पेश किया था। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने भी याचिका का समर्थन करते हुए प्रधानमंत्री को खत लिखा था। दुर्भाग्य से सरकार ने इसे आगे नहीं बढ़ाया। इसलिए मुस्लिम महिलाओं के लिए एक बड़ा सुधार इंतज़ार में है। हमें जनजातीय समुदायों के लिए कानूनों को भी सूचीबद्ध करने की जरूरत है, क्योंकि ज़्यादातर समुदाय लैंगिक भेदभाव वाले रिवाजों से चलते हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

‘Women Who Own Property Face Lower Risk of Domestic Violence’--Prof Bina Agarwal

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