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ख़बरों के आगे-पीछे: विपक्ष की राजनीति का सूत्रधार कौन?

विपक्ष की राजनीति किसके हाथ में है? निश्चित रूप से कांग्रेस के हाथ में नहीं है और उसमें भी राहुल गांधी के हाथ में तो कतई नहीं! कहा जा रहा है कि इस समय दो नेता समूचे विपक्ष की राजनीति को नियंत्रित कर रहे हैं। उनमे से एक हैं शरद पवार और दूसरे सीताराम येचुरी।
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सिर्फ़ ढाई महीने के लिए प्रधान न्यायाधीश

जस्टिस उदय उमेश ललित देश के नए प्रधान न्यायाधीश होंगे। इसी महीने की 26 तारीख को रिटायर हो रहे मौजूदा प्रधान न्यायाधीश एनवी रमना ने अपने उत्तराधिकारी के तौर पर जस्टिस उदय उमेश ललित के नाम की सिफारिश राष्ट्रपति के पास भेजी है। सुप्रीम कोर्ट में इस समय जस्टिस ललित वरिष्ठता क्रम में जस्टिस रमना के बाद दूसरे स्थान पर हैं और परंपरा के मुताबिक उनके नाम की सिफारिश प्रधान न्यायाधीश पद के लिए की गई है। उनका कार्यकाल सिर्फ 74 दिन का होगा। वे आठ नवंबर को रिटायर हो जाएंगे। देखने वाली बात होगी कि क्या वे अपने कार्यकाल में संविधान के अनुच्छेद 370 और इलेक्टोरल बॉन्ड जैसे राष्ट्रीय महत्व के मामलों का निबटारा करेंगे, जो लंबे समय से विचाराधीन हैं।

जस्टिस ललित आपराधिक कानून के विशेषज्ञ माने जाते हैं। वे अगस्त 2014 में वकील से सीधे सुप्रीम कोर्ट जज बनाए गए थे। सुप्रीम कोर्ट में जज नियुक्त होने से पहले उन्होंने कई हाईप्रोफाइल मामलों में अभियुक्तों की पैरवी की। उन्होंने बहुचर्चित सोहराबुद्दीन एनकाउंटर मामले में अमित शाह, बाबरी मस्जिद ध्वंस मामले में कल्याण सिंह, दोहरी जन्मतिथि के मामले में जनरल वीके सिंह, कालेधन के मामले में हसनअली और भ्रष्टाचार के मामले में कैप्टन अमरिंदर सिंह की भी पैरवी की। जस्टिस यूयू ललित देश के ऐसे दूसरे प्रधान न्यायाधीश होंगे जो वकील से सीधे सुप्रीम कोर्ट जज बने। इससे पहले 1971 से 1973 के दौरान प्रधान न्यायाधीश रहे जस्टिस एसएम सिकरी वकील से सीधे सुप्रीम कोर्ट में जज बनाए गए थे।

ममता नहीं झटक सकेंगी पार्थ से पल्ला

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अपने भतीजे अभिषेक बनर्जी की वजह से एक बार फिर उलझन में हैं। पार्टी के विस्तार की योजनाएं फ़ेल होने के बाद उन्होंने अभिषेक का कद कम किया था लेकिन फिर उनको पार्टी का महासचिव बना कर नंबर दो की पोजिशन देनी पड़ी। अब दूसरी बार उनके कारण ममता मुश्किल में हैं। चर्चा है कि सरकार में नंबर दो की हैसियत रखने वाले पार्थ चटर्जी पर हुई कार्रवाई के पीछे अभिषेक या उनके किसी आदमी का हाथ है, जिसने केंद्रीय एजेंसियों को अर्पिता मुखर्जी और उनके सारे फ्लैट्स की जानकारी दी। चर्चा यह भी है कि पार्थ को इसका पता है और इसलिए उन्होंने ममता और पूरी पार्टी को लपेटे में लेने का दांव चला है।

कहा जा रहा है कि अगर ममता ने पार्थ से किनारा किया तो वे कई बातें जांच एजेंसी को बताएंगे। कहा जा रहा है कि ममता बनर्जी और बाद में तृणमूल कांग्रेस के दूसरे नेताओं के रेल मंत्री रहते रेलवे में हुई भर्तियों का जिक्र भी पार्थ कर सकते हैं। माना जाता है कि उन भर्तियों में भी पैसे का लेन-देन हुआ था। ऐसे ही मामले में लालू प्रसाद का पूरा परिवार फंसा हुआ है। बताया जा रहा है कि पार्थ ने कहा है कि शिक्षकों की बहाली के लिए पार्टी दफ्तर और विधायकों-सांसदों के यहां से सूची आती थी, जिन पर मंजूरी दी जाती थी। दस्तावेज दूसरी जगह से बन कर आते थे और पैसे भी दूसरी जगह ही जाते थे। अभी उन्होंने किसी का नाम नहीं लिया है लेकिन उसमें भी ज्यादा समय नहीं लगेगा। इसीलिए ममता को पार्थ के बारे में अपनी रणनीति बदलनी होगी।

संसद में विरोध प्रतिबंधित

सरकार की नीतियों पर सवाल उठाना, उसकी कमियों और गलतियों को उजागर करना और सरकार बात नहीं सुने तो विरोध प्रदर्शन करना विपक्ष का अधिकार होता है। संसद के 70 साल के इतिहास में अनुभव और परंपराओं के आधार पर विरोध के कुछ तरीके स्थापित हुए। लेकिन अब लग रहा है कि उन तरीकों से विपक्षी पार्टियां विरोध नहीं कर पाएंगी। विपक्षी सदस्य सदन में नारेबाजी करते हैं, वेल में जाकर प्रदर्शन करते हैं, नारे लिखी तख्तियां लहराते हैं, लेकिन अब इन सब पर रोक लग गई है। संसद के मानसून सत्र में ऐसा करने पर दोनों सदनों में 27 सांसद निलंबित किए गए। सवाल है कि सांसद सदन के अंदर प्लेकार्ड्स नहीं ले जाएंगे, नारे नहीं लगाएंगे, वेल में नहीं जाएंगे, प्रतिरोध के शब्द नहीं बोल पाएंगे, संसद परिसर में धरना-प्रदर्शन नहीं कर पाएंगे तो फिर सरकार का विरोध कैसे करेंगे? या तो वे चुपचाप अपनी जगह पर खड़े रहे या सदन से बाहर चले जाएं!

गौरतलब है कि पिछले दिनों असंसदीय शब्दों की एक सूची सामने आई थी, जिसमें वे सारे शब्द थे, जिनका इस्तेमाल सरकार का विरोध करने के लिए होता है। अब वे सारे शब्द अससंदीय करार दे दिए गए हैं तो सांसद कैसे विरोध करेंगे। राज्यसभा के एक मैनुअल में कहा गया कि सांसदों को संसद परिसर में धरना, प्रदर्शन नहीं करना चाहिए। हालांकि इस पर पाबंदी नहीं है और इस सत्र में भी सांसदों ने प्रदर्शन किया। लेकिन जिस तरह नारे लगाने और प्लेकार्ड्स दिखाने पर सांसद निलंबित किए गए उसी तरह आने वाले दिनों में हो सकता है कि संसद परिसर में प्रदर्शन करने पर भी निलंबित होने लगे!

बिहार में भाजपा अकेले लड़ने की तैयारी में

भाजपा बिहार में अगला विधानसभा चुनाव अकेले ही लड़ सकती है। पार्टी के सात मोर्चों के साढ़े सात सौ पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं को पटना बुला कर दो दिन का सम्मेलन करना उसकी अकेले चुनाव लड़ने की तैयारियों का हिस्सा माना जा रहा है। देश भर से मोर्चों के पदाधिकारी बिहार गए तो वे पटना में नहीं रुके, बल्कि उनको आसपास के गांवों में भाजपा कार्यकर्ताओं के यहां ठहरने के लिए भेजा गया। भाजपा ने पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा के लिए रोड शो कराया और प्रदेश भर के कार्यकर्ताओं को पटना बुला कर अपनी ताकत दिखाई। दूसरी ओर भाजपा के सहयोगी जनता दल (यू) ने पूरी तरह से दूरी दिखाई। यहां तक कि पुलिस इतनी तटस्थ रही कि उसको सूचना तक नहीं मिली कि छात्र जेपी नड्डा का घेराव करने की तैयारी कर रहे हैं। जब पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का घेराव हो गया तो भाजपा कार्यकर्ताओं ने उन्हें गाड़ी में बैठा कर निकाला। जनता दल (यू) से बढ़ रही दूरी के कारण ही कहा जा रहा है कि भाजपा अकेले लड़ने की तैयारी कर रही है। भाजपा को अंदाजा हो गया है कि नीतीश कुमार एक बार फिर राष्ट्रीय जनता दल के साथ समीकरण बना सकते हैं।

उधर नीतीश कुमार को भी लग रहा है कि भाजपा फिर एक बार जनता दल (यू) को निबटाने की कोशिश करेगी। पहले चिराग पासवान के जरिए और फिर आरसीपी सिंह के जरिए यह कोशिश हो चुकी है। इसलिए इस बार वे पहले से सावधानी बरत रहे हैं। बहरहाल, बताया जाता है कि भाजपा के आला नेताओं ने अपने प्रादेशिक नेताओं को 200 सीटों पर तैयारी करने को कहा गया है। अगर तालमेल टूटता है तो चिराग पासवान की एनडीए में इंट्री होगी और साथ ही कांग्रेस को तोड़ने का प्रयास होगा।

सत्तापक्ष के सांसदों पर कोई कार्रवाई नहीं

संसद के मानसून सत्र में दोनों सदनों के कुल 27 सदस्य निलंबित हुए। लोकसभा के चार सांसदों को तो पूरे सत्र के लिए जबकि राज्यसभा के 23 सांसदों को एक सप्ताह के लिए निलंबित किया गया। राज्यसभा के निलंबित सांसदों की निलंबन अवधि पूरी गई, जबकि लोकसभा के चार सांसदों का निलंबन स्पीकर की पहल पर खत्म हो गया। बाद में दोनों सदनों में सत्तापक्ष के सांसदों के खिलाफ शिकायत हुई। लोकसभा में केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी के खिलाफ और राज्यसभा मे दो केंद्रीय मंत्रियों निर्मला सीतारमण और पीयूष गोयल के खिलाफ शिकायत हुई है। पीयूष गोयल तो सदन के नेता भी हैं। उनके खिलाफ राज्यसभा में कांग्रेस के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने शिकायत की। उन्होंने सीतारमण और गोयल पर दशकों से स्थापित परंपरा और नियम तोड़ने का आरोप लगाते हुए लिखा कि दोनों सदस्यों ने दूसरे सदन के सदस्य के खिलाफ टिप्पणी की। गौरतलब है कि दोनों ने राष्ट्रपति पर की गई अधीर रंजन चौधरी की टिप्पणी को लेकर सोनिया गांधी पर निशाना साधा था। इसी तरह लोकसभा में स्मृति ईरानी की टिप्पणियों को लेकर भी कांग्रेस ने उन पर कार्रवाई करने या कम से कम उनकी टिप्पणियां सदन की कार्यवाही से हटाने की मांग की।

कांग्रेस का आरोप है कि उन्होंने सोनिया गांधी को घेर कर उनसे अपमानजनक तरीके से बात की। विपक्ष का यह भी कहना है कि ईरानी ने अधीर रंजन की टिप्पणी को दोहराते हुए कई बार खुद राष्ट्रपति के प्रति अपमानजनक संबोधन किया, जिसे सदन की कार्यवाही से निकाला जाना चाहिए। अभी तक इन शिकायतों पर अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई और शायद होगी भी नहीं।

विपक्ष की राजनीति का सूत्रधार कौन?

विपक्ष की राजनीति किसके हाथ में है? निश्चित रूप से कांग्रेस के हाथ में नहीं है और उसमें भी राहुल गांधी के हाथ में तो कतई नहीं! तो क्या ममता बनर्जी या के चंद्रशेखर राव विपक्षी राजनीति की कमान संभाल रहे हैं? ये दोनों नेता भागदौड़ करते तो दिख रहे हैं लेकिन कुल मिला कर इनका फोकस अपने राज्य पर है। ये दोनों नेता किसी तरह राज्य की राजनीति की डोर अपने हाथ में रखने की राजनीति कर रहे हैं, ताकि भाजपा को किसी तरह अपने राज्य में रोक सकें। इसलिए ये दोनों नेता खूब भागदौड़ कर रहे हैं। बाकी विपक्षी नेताओं में एमके स्टालिन या एचडी देवगौड़ा आदि को दिल्ली की राजनीति से कोई मतलब नहीं है। इसीलिए कहा जा रहा है कि इस समय दो नेता समूचे विपक्ष की राजनीति को नियंत्रित कर रहे हैं। उनमे से एक हैं शरद पवार और दूसरे सीताराम येचुरी। राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति पद का विपक्ष का उम्मीदवार तय कराने मे सबसे ज्यादा भूमिका इन्हीं दोनों नेताओं रही। राष्ट्रपति पद के लिए यशवंत सिन्हा का नाम भले ही सबसे पहले ममता बनर्जी ने लिया था लेकिन बाद में उन्होंने खुद ही विपक्षी नेताओं से एक बातचीत कहा कि उन्होंने सिन्हा को राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाने को नहीं कहा था। असल में उनके नाम पर अंतिम मुहर येचुरी ने लगवाई थी। इसी तरह उप राष्ट्रपति पद के लिए मार्गरेट अल्वा का नाम शरद पवार ने तय कराया।

ममता बनर्जी इस वजह से भी नाराज बताई जा रही हैं कि क्यों विपक्षी राजनीति में येचुरी को इतना महत्व दिया जा रहा है। उनको लग रहा है कि कांग्रेस की वजह से येचुरी को महत्व मिल रहा है। बहरहाल, विपक्षी पार्टियों की एकजुटता बनाने के प्रयास में येचुरी की अहम भूमिका बनी रहने वाली है।

हरियाणा और बिश्नोई का इतिहास दोहराएगा!

हरियाणा में भाजपा ने 2014 में कुलदीप बिश्नोई की पार्टी हरियाणा जनहित कांग्रेस से तालमेल तोड़ दिया था और उसके बाद हुए विधानसभा चुनाव में जीत कर पहली बार सत्ता में आई थी। उस चुनाव में कुलदीप बिश्नोई ने अपनी चुनावी सभाओं में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को धोखेबाज बताते हुए लोगों से कहा था कि वे किसी पर भी भरोसा कर लें मगर मोदी पर कभी भरोसा न करें। अब वही कुलदीप बिश्नोई 2024 के चुनाव से पहले भाजपा में शामिल हुए हैं। भाजपा उनसे तालमेल तोड़ कर सत्ता में आई थी तो उनको साथ लेने के बाद क्या होगा? हरियाणा के नेता इस बारे में कई गणित समझा रहे हैं, लेकिन सबसे दिलचस्प यह है कि वे 2016 में कांग्रेस से जुड़े थे और 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस एक भी सीट नही जीत पाई थी। उसी साल हुए विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस नहीं जीत पाई थी। इसके उलट 2007 में कुलदीप बिश्नोई के कांग्रेस छोड़ कर अलग पार्टी बना लेने के बाद 2009 के चुनाव में कांग्रेस लगातार दूसरी बार सत्ता में आई थी। यानी कुलदीप बिश्नोई कांग्रेस से अलग थे तो कांग्रेस जीत गई थी और वे कांग्रेस में शामिल हुए तो पार्टी हार गई। इसी तरह जब वे भाजपा से अलग हुए तो भाजपा जीत गई और अब वे भाजपा में शामिल हो गए हैं। सो, इतिहास दोहराने की अटकलें लगाई जा रही हैं।

बहनजी की पॉलिटिक्स क्या है?

पिछले कुछ समय से बसपा सुप्रीमो मायावती खुल कर भाजपा का समर्थन कर रही हैं। हालांकि वे इस बात से इनकार करती हैं कि उन्होंने इस साल हुए विधानसभा चुनाव में और उसके बाद दो लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में भाजपा की मदद की। लेकिन उसके बाद राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति के चुनाव में भाजपा उम्मीदवार की मदद करके उन्होंने सारे संदेह दूर कर दिए। बाकी विपक्षी पार्टियों से अलग उन्होंने भाजपा उम्मीदवारों को समर्थन दिया है। राष्ट्रपति चुनाव में तो महिला और आदिवासी के नाम पर उन्होंने समर्थन दिया पर उप राष्ट्रपति उम्मीदवार को समर्थन देने का कोई तर्क उन्होंने नहीं बताया। ऐसा कहने वाले बहुत से लोग हैं कि केंद्रीय जांच एजेंसियों के डर से वे भाजपा की मदद कर रही हैं। यह एक वजह हो सकती है लेकिन एकमात्र वजह नहीं। वे इसमें अपना राजनीतिक फायदा भी देख रही हैं। वे भाजपा का साथ देकर व्यापक हिंदू समाज के बीच बन गई मुस्लिमपरस्त नेता की अपनी छवि बदल रही हैं। उन्हें पता है कि मुसलमान बसपा को तभी वोट देगा, जब दलित और कुछ दूसरे हिंदू समूहों के वोट उसे मिलेंगे। अगर बहुसंख्यक हिंदू समाज उनका साथ नहीं देगा तो मुस्लिम भी साथ नहीं देंगे। इसलिए वे अपने पुराने दलित वोट बैक को कंसोलिडेट कर रही हैं। भाजपा की मदद करके वे समाजवादी पार्टी को भी कमजोर करने की राजनीति कर रही हैं। क्योंकि सपा कमजोर होगी तो वे अपने आप विकल्प बनेंगी। सो, उनकी राजनीति सिर्फ डर की नहीं, बल्कि वोट की भी है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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