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अधिनायकवाद और भारत में सार्वजनिक आचारनीति का संकट

जिस तेजी के साथ अधिकारी सार्वजनिक रूप से नैतिक व्यवहार करने में विफल हो रहे हैं ऐसे में यह संकेत देता है कि तर्कसंगत जांच, निर्णय करने और नैतिक दबाव बनाने की प्रक्रिया गैर-कार्यात्मक और अप्रभावी है।
(फाइल फोटो)

सार्वजनिक जीवन में जिस तरह से अधिकारी जिम्मेदारी पूर्ण व्यवहार करने में असफल हो रहे हैं, यह सार्वजनिक आचारनीति यानी पब्लिक इथिक्स के मामले में बढ़ती चिंता को दर्शाता है। इस संकट के चलते भारत में एक विशेष तरह के अधिनायकवाद को भी बढ़ावा मिल रहा है। इसलिए, नुकसान की स्थिति केवल यहां-वहां निर्णय की व्यक्तिगत विफलता नहीं है बल्कि देश में लोकतंत्र की प्रकृति की विफलता है।

भारत-पाक क्रिकेट दोनों देशों के कई लोगों के लिए चिंता का विषय है। लोगों के टीवी के सामने बैठने से सड़कों पर ट्रैफिक कम हो जाता है। हर जीत के बाद बेइंतहा पटाखे छोड़े जाते हैं। हार को राष्ट्रीय आपदा के रूप में देखा जाता है। इस तरह के माहौल को देखते हुए शायद ही यह आश्चर्य की बात है कि लोग मैच की स्थिति के बारे में अजनबी लोगों से भी पूछने में संकोच नहीं करते हैं।

हालांकि, विकेटों के गिरने की संख्या के बारे में बेचैन होकर पूछना अजीब लगता है और वह भी जब राज्य (बिहार) के स्वास्थ्य मंत्री अन्य वरिष्ठ मंत्रियों के साथ आधिकारिक बैठक के दौरान इसके बारे में पूछते हैं। वास्तव में यह बेहद हास्यास्पद है कि जब एन्सेफलाइटिस से हुई बड़ी संख्या में मौत के बारे में बैठक बुलाया गया था तो ऐसे में मैच के बारे में इस बैठक में जानकारी क्या आवश्यकता हो गई। इस बीमारी से सौ से अधिक बच्चों की जान चली गई थी।

जो कुछ भी होता हुआ देखा जाता है उसके बीच सभी समाज अंतर करते हैं और उचित पुरस्कार और अस्वीकृति द्वारा सार्वजनिक रूप से नैतिकता का एक प्रभावी और कार्यात्मक क्षेत्र बनाने की कोशिश करते हैं। 

आधुनिक लोकतांत्रिक समाज निजी जीवन में महत्वपूर्ण स्वतंत्रता की अनुमति देते हैं; इसे काफी हद तक संबंधित लोगों के कहने तथा करने के उनके व्यक्तिगत निर्णय पर छोड़ दिया जाता है। दूसरी ओर सभी के सार्वजनिक कार्य सार्वजनिक जांच के अधीन हो सकते हैं और हैं।

कोई भी जांच एक तर्कसंगत निर्णय होता है जो अधिक या कम नियमों के परिभाषित ढांचे के आधार पर होता है। नियमों के ढांचे में बदलाव न करने वाले परंपरा आधारित समाज के विपरीत आधुनिक लोकतांत्रिक समाज का आकर्षण और चुनौती खुद को तर्कसंगत जांच के अधीन कर सकता है। 

इन विचारों का मतलब है कि ऐसे समाज में सार्वजनिक प्राधिकार का कोई भी कार्य बड़े पैमाने पर लोगों द्वारा जांच का मुद्दा होता है जो उसकी उपयुक्तता पर निर्णय देने के लिए स्वतंत्र हैं। इन निर्णयों का बढ़ता हुआ प्रभाव एक सभ्य व्यवहार की अपेक्षाओं का नैतिक दबाव बनाता है। 

इस समाज-व्यापी नैतिक दबाव की प्रभावशीलता इस बात से निर्धारित की जा सकती है कि कैसे एक नैतिक सार्वजनिक व्यवहार प्राधिकार की दूसरी प्रकृति बन गई है। जिस तेजी के साथ प्राधिकारी सार्वजनिक रूप से नैतिक व्यवहार करने में विफल हो रहे हैं ऐसे में यह संकेत देता है कि तर्कसंगत जांच, निर्णय करने और नैतिक दबाव बनाने की प्रक्रिया गैर-कार्यात्मक और अप्रभावी है। ऐसा लगता है कि देश में अधिकार प्राप्त लोग इस सच्चाई के बारे में भी नहीं जानते हैं कि उनसे नैतिक व्यवहार की उम्मीद की जाती है।

राजनीतिक प्राधिकार में लोगों की बेशर्मी आइसबर्ग की कहावत अर्थात बड़ी समस्या के बजाए छोटी दिखने वाली की तरह है जो वास्तव में प्राधिकार के अन्य स्थानों तक भी फैली हुई है। नौकरशाह कोई भी हिम्मत दिखाने के बजाय आसान रास्ता निकालना पसंद करते हैं। 

दूसरी ओर मीडिया के पंडित सत्ता से कठिन सवाल पूछने के बजाय चीयर लीडर होना पसंद करते हैं। आध्यात्मिक गुरु अनुयायियों की अस्तित्व संबंधी उत्सुकता का फायदा उठाकर उन्हें अंधे अनुयायियों में बदल देते हैं। यहां तक कि न्यायपालिका खुद को प्रक्रियात्मक विवाद से बचने की कोशिश रही है। 

जनादेश के माध्यम से अधिकार प्राप्त करने वाले और हारने पर कार्यालय छोड़ देने वाले राजनेताओं के विपरीत नौकरशाहों और कानून अधिकारियों को विशेष ज्ञान और कौशल के आधार पर प्राधिकार का पद मिलता है। 

उनके प्राधिकार का उत्तरदायी कार्य उनके प्रशिक्षण का एक हिस्सा माना जाता है। जब यह उनके पास आता है और वे गैर जिम्मेदाराना तरीके से अपने अधिकार का इस्तेमाल करते हैं तो यह तब होता है जब किसी को यह कहने के लिए मजबूर किया जाता है, "वे इसे क्यों नहीं करते?"

हालिया चुनावों के दौरान एक साक्षात्कार में पीएम मोदी ने कहा कि पाकिस्तान में बालाकोट पर हमले के कुछ घंटे पहले भारतीय विशेषज्ञों ने लक्षित क्षेत्र पर बादल होने के कारण राय बदल दी थी। लेकिन उन्होंने तर्क दिया कि बादल होने से पाकिस्तानी राडार के लिए भारतीय लड़ाकू विमानों पर नज़र रखना मुश्किल हो जाएगा और हमले करने को कहा। 

चुनाव के दौरान इस जानकारी का खुलासा करने के पीछे का विचार शायद स्थिति के अनुसार खुफिया जानकारी के साथ मजबूत इच्छाशक्ति वाले नेतृत्व की छवि को फैलाना था। बीजेपी की सोशल मीडिया सेल ने इस संदेश को फैलाने के लिए साक्षात्कार के लिंक को तुरंत डाल दिया।

हालांकि, पीएम के बादल में रडार काम न करने के दावे के एक दिन के भीतर ही इसे हटा लिया गया। इसको लेकर बड़े पैमाने पर इसकी हंसी उड़ाई गई। हमारे पीएम अवैज्ञानिक दावे करने के लिए जाने जाते हैं यहां तक भारतीय विज्ञान कांग्रेस के मंच से भी इस तरह के दावे करते हैं। 

हालांकि, भारतीय विशेषज्ञों के बारे में यह प्रकरण क्या कहता है? ये विशेषज्ञ भारत के वेतन प्राप्त करने वाले पेशेवर कर्मचारी थें। हमें नहीं पता कि कौन सा (यदि कोई हो) कारण उन्होंने पीएम को अपनी हिचकिचाहट को लेकर दिया था या उन्होंने राडार के बारे में पीएम के तर्क पर कैसे प्रतिक्रिया दिया? क्या उनमें से किसी ने पीएम को उनके गलत अवधारणा के बारे में भ्रम दूर करने के बारे में सोचा? 

वास्तव में, राडार और बादल के अपने ज्ञान के बारे में राष्ट्रीय टीवी पर पीएम के आत्मविश्वास को देखते हुए यह बहुत संभव है कि सभी विशेषज्ञ बिना किसी शोर शराबे के उनकी बातों को मान लें। उच्च प्राधिकारी की निष्क्रियता वास्तव में प्राधिकार के मामले में भारतीयों की प्रणालीगत विशेषता है। कोई यह तर्क दे सकता है कि यह हमारे कथित रूप से उदार लोकतांत्रिक गणराज्य के प्राधिकार ढांचे पर जाति व्यवस्था की श्रेणीबद्ध पदानुक्रम के मनोविज्ञान का प्रतिस्थापन है।

प्राधिकार की स्थिति में भारतीयों द्वारा सार्वजनिक रूप से आचारनीति की तीसरी बड़ी चूक एक और प्रणालीगत प्रकृति को दर्शाती है: सार्वजनिक जिम्मेदारियों से निजी मामलों को अलग करने में विफलता। 

19 अप्रैल 2019 को भारत के सर्वोच्च न्यायालय के एक पूर्व कर्मचारी ने भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा यौन उत्पीड़न का दावा करते हुए अदालत के सभी न्यायाधीशों को हस्ताक्षर वाला एक हलफनामा भेजा था। भारत के मुख्य न्यायाधीश के ख़िलाफ़ यौन उत्पीड़न की शिकायतों को जांचने की कोई प्रक्रिया नहीं है। 

उक्त आरोप को कैसे निपटाया जाए इस पर विचार करने के बजाय सीजेआई ने शनिवार को यानी अगले दिन विशेष बैठक में अदालत की तीन सदस्यीय पीठ का गठन किया। बेंच में होने के चलते ‘उन्होंने’ खुद पर लगे आरोपों ’को ख़ारिज कर दिया और यह भी कहा कि सीजेआई के कार्यालय को निष्क्रिय’ करने के लिए एक बड़ी साजिश रची गई थी।

उन्होंने यह भी कहा कि महिला शिकायतकर्ता पर पहले से ही दो आपराधिक शिकायतें दर्ज थे और उन्होंने यह भी कहा कि 6,80,000 रुपये के बैंक बैलेंस के साथ 20 साल की निस्वार्थ सेवा की। इसके बाद कथित छेड़छाड़ के बारे में सच्चाई का पता लगाने के लिए वरिष्ठ न्यायाधीशों के तीन सदस्यीय जांच पैनल का गठन किया गया। 

इस समिति के एक सदस्य ने शिकायतकर्ता द्वारा उनकी सदस्यता पर सवाल उठाने के बाद उन्हें खुद को अलग करना पड़ा क्योंकि उन्होंने पहले ही महिला के आरोपों के ख़िलाफ़ सार्वजनिक बयान दिया था। 

जांच करने वाले इन हाउस पैनल ने इस शिकायतकर्ता या काफी हद तक जनता के प्रति कोई ज़िम्मेदारी नहीं निभाई। इसने सीजेआई को निर्दोष बताते हुए फैसला सुना दिया (कार्यवाही में शिकायतकर्ता की भागीदारी के बिना)। इसके निर्णय के आधार का कारण पब्लिक डोमेन में नहीं हैं। यह भी ज्ञात नहीं है कि इसने केवल कथित छेड़छाड़ के मामले की जांच की या उत्पीड़न की भी जांच की जो मूल हलफनामे में दावा किया गया।

समाज और सार्वजनिक आचारनीति के नैतिक वातावरण

सार्वजनिक रूप से आचारनीति का व्यवहार करने में विफलता को भ्रष्टाचार से अलग करने की जरूरत है। वास्तव में भ्रष्टाचार एक अपराध है जबकि ऊपर वर्णित मामलों में से कोई भी इस श्रेणी में नहीं आता है। 

अपराध राज्य की विशेष संस्थाओं द्वारा विस्तृत कानूनी प्रक्रियाओं के माध्यम से नियंत्रित किया जाता है जो अपराध और दंड देने के लिए तैयार किया जाता है। इसके विपरीत सार्वजनिक आचारनीति अपेक्षाओं के अस्पष्ट क्षेत्र में आता है जिसमें ’अवश्य चाहिए’ की आज्ञा के बजाय ’चाहिए’ का नैतिक निहित है। वे तर्क तथा मत की कमज़ोर शक्तियों के माध्यम से काम करते हैं और समाज के नैतिक वातावरण में रहते हैं। 

इस वातावरण में समाज के सभी सदस्य ग्रहण करते और देते हैं; हम अपने नैतिक दिशा को इससे ही प्राप्त करते हैं, साथ ही साथ अपने स्वयं के निर्णय और कार्यों के माध्यम से इसमें योगदान करते हैं। एक स्वस्थ सार्वजनिक आचारनीति के लिए आवश्यक है कि समाज का नैतिक वातावरण हमें नैतिक निर्णय लेने के लिए प्रोत्साहित करे और हमें गलत होने पर चेतावनी देने वाला तंत्र हो।

आधुनिक लोकतांत्रिक समाज में सार्वजनिक आचारनीति को सार्वजनिक विवेक-बुद्धि के कार्य से अलग नहीं किया जा सकता है। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, किसी कार्रवाई की जांच में मूल्यांकन करने के निर्णय तक पहुंचने के लिए हमारे तर्कसंगत संकाय का इस्तेमाल शामिल है। जब हम अपने निर्णयों के लिए तर्क देते हैं तो हम यह भी दिखाते हैं कि हमारा मूल्यांकन हमारी पूर्व धारणाओं, पूर्वाग्रहों, पसंद या राय पर आधारित नहीं है। 

इसके अलावा हमारे तर्क सार्वजनिक आचारनीति के क्षेत्र को उर्वर बनाते हैं, उन विचारों को शामिल करते हैं जिन पर हम निर्णय लेते हैं कि सार्वजनिक कार्रवाई उचित है या अनुचित। उदाहरण के लिए हम इस विश्वास के आधार पर एक आधिकारिक बैठक के दौरान क्रिकेट मैच के बारे में सवाल पूछने वाले एक मंत्री से निराश हो सकते हैं कि एक आधिकारिक बैठक को मित्रों और परिवार की निजी सभा से अलग होना चाहिए। 

हम यह भी मान सकते हैं कि राज्य के स्वास्थ्य विभाग के प्रभारी मंत्री के लिए सौ से ज़्यादा बच्चों की मौत एक नियमित मामलों के रूप में नहीं मानने के लिए पर्याप्त संकट है। बालाकोट हवाई हमले की बैठक के दौरान विशेषज्ञों के बातों की हमारी अस्वीकृति इस विश्वास पर आधारित हो सकती है कि गैर विशेषज्ञ प्रधानमंत्री के ज्ञान के बजाय तकनीकी मामलों में विशेषज्ञों द्वारा सबसे बेहतर निर्णय लिया जा सकता है। 

इसके अलावा हम यह मान सकते हैं कि किसी विशेषज्ञ का प्राथमिक कर्तव्य है कि वह अपने पेशेवर विचारों को पेश करे बजाय इसके कि वह अपने बॉस के आगे झुक जाए।

सार्वजनिक कार्यों को लेकर हमारे तर्कसंगत निर्णय को कुछ कथन द्वारा सहायता मिलती है जो सदियों के अनुभवों पर प्राप्त ज्ञान को व्यक्त करते हैं। उदाहरण के लिए यह आवश्यकता कि ‘हितों का टकरा’ नहीं होना चाहिए, ये इस मान्यता से उभरता है कि सार्वजनिक संस्थागत ढांचे कई हितों से भरे हुए हैं जो संघर्ष में हो सकते हैं और इन संरचनाओं की अखंडता सर्वोपरि है।

ये संरचनाएं बड़े सामाजिक लक्ष्यों की सेवा करने का दावा करके अपनी वैधता प्राप्त करती हैं। यहां तक कि यह धारणा कि बड़े सामाजिक लक्ष्य से समझौता किया गया है, इस वैधता को नुकसान पहुंचाता है। इसलिए उन्हें प्राधिकार की स्थिति में रहने वाले व्यक्तियों के निजी हितों के साथ किसी भी वास्तविक या काल्पनिक संघर्ष से बचाने की आवश्यकता है। 

कोई विश्वविद्यालय प्राध्यापक परीक्षा कराने के लिए एक परीक्षक नहीं हो सकता है जिसका कोई नज़दीकी रिश्तेदार परीक्षा दे रहा है। इसके अलावा, दो आधिकारिक पदों के बीच संघर्ष हो सकता है।

राष्ट्रीय क्रिकेट अकादमी के एक अधिकारी के रूप में राहुल द्रविड़ से पूरी तरह से भारतीय क्रिकेट के विकास की अपेक्षा की जाती है। इंडियन सीमेंट्स के एक अधिकारी के रूप में जो चेन्नई सुपर किंग्स क्रिकेट टीम के मालिक है उनसे उस टीम के हितों को आगे बढ़ाने की उम्मीद की जा सकती है। दोनों हित वैध हैं लेकिन संघर्ष में होने की संभावना है।

हितों के टकराव पर कथन का अर्थ है कि इस तरह के किसी भी संघर्ष का समाधान उनके व्यक्तिगत निर्णय पर नहीं छोड़ा जा सकता है। यह बेहतर है कि विरोधी मांग करते हैं कि दो हितों को सार्वजनिक रूप से हल किया जाए ताकि इस संकल्प का तर्क किसी को भी विचार करने और जांच करने के लिए हो।

अधिकारों और विशेषाधिकारों के बीच अंतर एक व्यावहारिक अभ्युक्ति है जो अधिकार प्राप्त लोगों की कार्रवाई की स्वतंत्रता की सीमाओं को स्पष्ट करता है और इसलिए सार्वजनिक कार्रवाई पर फैसला करने में मदद करता है। 

हमारे अधिकार हमारी व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए एक ढांचा बनाते हैं। वे सार्वभौमिक हैं, सभी के लिए समान रूप से प्रदान किए जाते हैं और केवल असाधारण परिस्थितियों में ही किया जा सकता है। बराबरी वाले समाज में प्राधिकार के सभी पद विशेषाधिकार के स्थान हैं जिसका आनंद केवल तब तक लिया जा सकता है जब तक प्राधिकार कुछ शर्तों को पूरा करते हैं। समाज दो संभावित रास्तों के माध्यम से तानाशाही उत्पन्न करती हैं। 

एक, जब प्राधिकार न्याय का विरोध करते हैं और यह मानना शुरू कर देते हैं कि उनके प्राधिकार की स्थिति उनके अधिकार के मायने के रूप में है जिसका अर्थ है कि उन्हें व्यक्तिगत स्वतंत्रता है कि वे अपने अनुसार इसका फायदा उठाएं।

श्रीमती गांधी द्वारा लगाया गया आपातकाल इस स्थिति का एक चरम रूप था। हालांकि यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि यह स्थिति जो शासकों और शासितों के बीच एक गहरा अंतर पैदा करती है वह बड़ी संख्या में भारतीयों के लिए जो कई अभाव के लिए हमारे देश में प्राधिकार की प्रकृति रही है।

तानाशाही का दूसरा रास्ता वास्तव में अधिक ख़तरनाक है। समाज इस रास्ते पर आगे बढ़ता है तब लोग काफी हद तक प्राधिकार पर फैसला करना बंद कर देते हैं और शासकों की बातों पर अंध विश्वास पैदा कर लेते हैं। यह फासीवाद का रास्ता है। भारत इस रास्ते पर चल रहा है। 

हाल के राष्ट्रीय चुनाव सर्वेक्षण और लोकनीति के पहले के आंकड़ों से पता चलता है कि भारतीय मतदाताओं का अधिकांश हिस्सा ये सोचता है कि देश को आवधिक चुनावों की अनिश्चितताओं को दूर करने के लिए एक मजबूत नेता की जरूरत है। 

ऐसे लोगों की संख्या 2005 में लगभग तीस प्रतिशत थी जो बढ़कर 2019 में 60 प्रतिशत से अधिक हो गई है। हमारे देश में सार्वजनिक आचारनीति के संकट की वास्तविक क़ीमत है।

(संजय कुमार दिल्ली स्थित सेंट स्टीफन कॉलेज में भौतिकी के अध्यापक हैं।)

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