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ख़बरों के आगे-पीछे : महाराष्ट्र बनाम गुजरात, कांग्रेस की कवायद और अन्य

यह हफ़्ता: महाराष्ट्र में राज्य के प्रोजेक्ट गुजरात जाना एक बड़ा मुद्दा बना हुआ है। उधर कांग्रेस भारत जोड़ो यात्रा के अलावा अपने चुनाव की प्रक्रिया में है, जिससे भाजपा परेशान है। इधर नीतीश सक्रिय हैं और उन्हें लेकर अखिलेश भी उत्साहित।

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महाराष्ट्र के कई प्रोजेक्ट गुजरात गए

महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली सरकार मुश्किल मे फंसी है। उद्धव ठाकरे की अगुवाई वाली शिव सेना के साथ एनसीपी और कांग्रेस ने वेदांता-फॉक्सकॉन का डेढ़ लाख करोड़ रुपए का प्रोजेक्ट गुजरात चले जाने को बड़ा मुद्दा बनाया है। महाराष्ट्र की इन विपक्षी पार्टियों का कहना है कि एक-एक करके राज्य का सारे बड़े प्रोजेक्ट गुजरात जा रहे हैं और इसी तरह चलता रहा तो एक दिन मुंबई भी गुजरात में चला जाएगा या उसे केंद्र शासित बना दिया जाएगा।

बचाव में पहले तो शिंदे गुट और भाजपा ने पिछली सरकार पर ठीकरा फोड़ना चाहा लेकिन जब वेंदाता समूह के मालिक अनिल अग्रवाल के साथ हुआ शिंदे का पत्राचार सामने आ गया तो दोनों बैकफुट पर आए और उप मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने कहा कि गुजरात कोई पाकिस्तान में नहीं है। हालांकि फड़नवीस जानते हैं कि जब हितों का टकराव होता है तो मुंबई और महाराष्ट्र के लोग गुजरात को पाकिस्तान की तरह ही मानते हैं।

बहरहाल, पिछली सरकार पर ठीकरा फोड़ने का दांव फ़ेल हो गया। उसके बाद यह भी खबर आई है कि पिछले आठ साल में महाराष्ट्र के कई प्रोजेक्ट गुजरात चले गए। मुंबई में इंटरनेशनल फाइनेंशिएल सेंटर बनाने की तैयारी 2007 से चल रही थी, लेकिन केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बनते ही यह प्रोजेक्ट गुजरात चला गया। इसी तरह मुंबई पर आतंकी हमले के बाद से नेशनल एकेडमी ऑफ कोस्टल पोलिसिंग मुंबई से सटे पालघर में बनाने की तैयारी हो रही थी लेकिन वह एकेडमी भी गुजरात चली गई। अब वेदांता-फॉक्सकॉन की परियोजना भी तालेगांव (पुणे) से गुजरात चली गई।

राहुल की सर्वोच्चता कायम करने की कवायद

कई लोगों को इस बात पर हैरानी हो रही है कि जब राहुल गांधी ने तय कर लिया है कि वे कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव नहीं लड़ेंगे तो फिर करीब एक दर्जन प्रदेश कांग्रेस कमेटियों ने राहुल को अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को क्यों भेजा? इसके साथ ही यह भी कम हैरानी की बात नहीं है कि पार्टी के संचार विभाग के प्रमुख जयराम रमेश ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके कहा है कि राज्यों की ओर से पास किए जा रहे प्रस्तावों को मानने के लिए पार्टी आलाकमान बाध्य नहीं है। असल में यह पूरी कवायद राहुल गांधी को पार्टी के सर्वोच्च नेता के रूप में स्थापित करने और उनकी नैतिक सत्ता को मजबूत बनाने के लिए की गई।

अध्यक्ष कोई भी बने लेकिन सर्वोच्च नेता राहुल रहेंगे। कांग्रेस की ओर से कहा जाएगा कि सारी प्रदेश कमेटियां राहुल को अध्यक्ष बनाना चाहती थीं लेकिन उन्होंने यह पद ठुकरा दिया। जो भी नया अध्यक्ष होगा उसके ऊपर इसका दबाव रहेगा। वैसे भी कांग्रेस की साढ़े तीन हजार किलोमीटर की भारत जोड़ो यात्रा के बाद राहुल गांधी का कद बहुत बड़ा हो जाने वाला है। ये दोनों काम बहुत योजनाबद्ध तरीके से किए जा रहे हैं। पदयात्रा से राहुल के प्रति बनाई गई धारणा टूटेगी और वे एक जननेता के रूप में स्थापित होंगे और प्रदेश कमेटियों के प्रस्ताव से पार्टी के अंदर उनकी सर्वोच्चता कायम होगी।

जजों की नियुक्ति का सिस्टम बदलेगा!

केंद्र सरकार एक बार फिर जजों की नियुक्ति का सिस्टम बदलने का इरादा बना रही है। पिछले काफी समय से सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर सवाल उठते रहे हैं। अभी सर्वोच्च और उच्च अदालतों में जजों की नियुक्ति सुप्रीम कोर्ट के सबसे वरिष्ठ पांच जजों के कॉलेजियम के जरिए होती है। कॉलेजियम जजों की नियुक्ति के लिए नामों की सिफारिश सरकार के पास भेजता है। पिछले कुछ समय से इसे लेकर बहुत टकराव है। सुप्रीम कोर्ट के कई प्रधान न्यायाधीशों ने कहा कि सरकार नामों की मंजूरी में देरी कर रही है, जिसकी वजह से राज्यों की हाई कोर्टों में बहुत सारे पद खाली रह जा रहे हैं। राज्यों की उच्च अदालतों में बहुत सारे पद खाली रह जा रहे है। राजस्थान हाई कोर्ट के लिए सिफारिशें अभी भी रूकी हुई हैं, जहां जजों के आधे पद खाली हैं।

बहरहाल, अब सरकार की ओर से केंद्रीय कानून मंत्री कीरेन रिजीजू ने कहा है कि नामों की मंजूरी में देरी कानून मंत्रालय की वजह से नहीं बल्कि सिस्टम की वजह से हो रही है। कानून मंत्री के इस बयान को इस बात का संकेत माना जा रहा है कि सरकार सिस्टम बदलने का प्रयास करेगी। पहले राष्ट्रीय न्यायिक जवाबदेही आयोग यानी एनजेएसी के जरिए यह प्रयास हुआ था पर सुप्रीम कोर्ट ने इसे रद्द कर दिया था। अब एक बार फिर एनजेएसी के जरिए या किसी और तरीके से कॉलेजियम सिस्टम को बदलने का प्रयास होगा।

गुजरात में कौन है 'आप’ का चेहरा?

आम आदमी पार्टी का दावा है कि वह गुजरात में सरकार बनाने जा रही है। कथित राष्ट्रीय मीडिया यानी दिल्ली संचालित होने वाले टीवी चैनल भी यही तस्वीर पेश कर रहे हैं कि गुजरात में मुकाबला भाजपा और आम आदमी पार्टी के बीच है और मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस सत्ता की दौड़ से बाहर है। लेकिन अहम बात यह है कि चुनाव में दो-ढाई महीने का समय रह गया है और आम आदमी पार्टी अभी तक कोई स्थानीय चेहरा पेश नहीं कर पाई है। गुजरात कोई दिल्ली जैसा राज्य नहीं है, जहां हरियाणा के रहने वाले अरविंद केजरीवाल के नाम पर पार्टी चुनाव जीत गए। केजरीवाल को भी पता है कि पंजाब में चुनाव जीतने के लिए उनको भगवंत मान का चेहरा आगे करना पड़ा। पंजाब की तरह ही गुजरात में भी अस्मिता की राजनीति होती है। प्रधानमंत्री बनने से पहले नरेंद्र मोदी लगातार छह करोड़ गुजरातियों की बात करते थे। अब भी गुजरात से उनका खास प्रेम है। इसलिए केजरीवाल को भी गुजराती चेहरा पेश करना होगा।

लेकिन कहां है गुजराती चेहरा? अभी गोपाल इटालिया पार्टी के प्रादेशिक संयोजक हैं। वे पाटीदार आरक्षण आंदोलन से जुड़े रहे थे लेकिन कहीं भी उनका चेहरा नहीं दिखाई देता है। सारे प्रचार, सभाएं, रोड शो, प्रेस कॉन्फ्रेंस अरविंद केजरीवाल करते हैं या दिल्ली से उनके साथ गए नेता करते हैं। मीडिया भी इस बारे में केजरीवाल से सवाल नहीं करता है।

कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव से भाजपा की परेशानी

भाजपा को लेकर कांग्रेस को पूरी तरह खत्म हो गई बताने वाली भाजपा और उसके ढिंढोरची बने मीडिया की नजरें इस समय ज्यादा कांग्रेस की गतिविधियों पर ही टिकी हैं। राहुल गांधी की अगुआई में जारी भारत जोड़ो यात्रा पर तो रोजाना हमले हो ही रहे हैं, अध्यक्ष पद के लिए होने वाले चुनाव पर भी निशाना साधा जा रहा है। पहले कांग्रेस को वंशवादी पार्टी बताते हुए प्रचार किया गया कि कांग्रेस में अध्यक्ष का पद नेहरू-गांधी परिवार के लिए आरक्षित है और उसी परिवार का कोई व्यक्ति अध्यक्ष बनेगा। अब जबकि तय हो गया है कि सोनिया गांधी अध्यक्ष पद छोड़ेंगी और राहुल या प्रियंका में से कोई भी अध्यक्ष नहीं बनेगा तो यह प्रचार किया जा रहा है कि जो भी अध्यक्ष बनेगा वह गांधी परिवार की कठपुतली होगा। यह सही है कि कांग्रेस का अध्यक्ष वही बनेगा, जिसे गांधी परिवार का समर्थन हासिल होगा और अध्यक्ष बनने के बाद वह काम भी उसी तरह करेगा जैसा करने को कहा जाएगा। लेकिन इसमें नया क्या है?

ऐसा तो भाजपा में भी होता आया है और अभी हो रहा है। भाजपा में या तो पार्टी के शीर्ष नेता अध्यक्ष बनते हैं या उनकी और आरएसएस की पसंद का व्यक्ति पार्टी अध्यक्ष बनाया जाता है। फिर जो अध्यक्ष बनता है वह उसी तरह काम करता है जैसा उसे ऊपर से करने को कहा जाता है। जैसे अभी जेपी नड्डा भाजपा के अध्यक्ष हैं लेकिन सब जानते हैं कि पार्टी की वास्तविक ताकत नरेंद्र मोदी और अमित शाह के हाथ में ही हैं। ऐसा ही कांग्रेस में भी होगा।

यूपी में अखिलेश को नीतीश की जरूरत

उत्तर प्रदेश में अब यह साफ हो गया है कि समाजवादी पार्टी अपने मुस्लिम-यादव यानी माई समीकरण के सहारे ही भाजपा से मुकाबला नहीं कर सकती। उसे इसके साथ कुछ अन्य जातियों को जोड़ना होगा। अखिलेश यादव ने पिछली बार कृष्णा पटेल, केशव देव मौर्य और ओमप्रकाश राजभर के जरिए कुछ पिछड़ी जातियों को और जयंत चौधरी के जरिए जाट मतदाताओं को जोड़ने का प्रयास किया था लेकिन हिंदुत्व की लहर के आगे यह समीकरण काम नहीं आया। इससे उनको समझ में आया है कि हिंदुत्व की काट के लिए ज्यादा तीव्र जातीय लहर पैदा करनी होगी और उसके लिए जातीय अस्मिता को बड़े मुद्दे से जोड़ना होगा। यह काम नीतीश कुमार के जरिए हो सकता है। अगर नीतीश कुमार के नाम से यह प्रचार हो कि देश का पहला कुर्मी प्रधानमंत्री बनाना है या सरदार सरदार पटेल जो काम नहीं कर पाए वह नीतीश करेंगे तो उससे एक बड़ी लहर पैदा की जा सकती है। इसलिए माना जा रहा है कि अगले लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार को विपक्ष का साझा चेहरा बनाए जाने की संभावना से सबसे ज्यादा उत्साहित अखिलेश यादव हैं। जैसे ही बिहार में नीतीश का भाजपा से गठबंधन टूटा वैसे ही उत्तर प्रदेश मे कई जगह होर्डिंग्स लग गए, जिन पर लिखा था 'यूपी प्लस बिहार इज इक्वल टू गई मोदी सरकार’। बताया जा रहा है कि अखिलेश यादव की जनता दल (यू) के कुछ बड़े नेताओं से बात हुई है और वहीं से यह बात निकली कि नीतीश कुमार को पूर्वी उत्तर प्रदेश की मिर्ज़ापुर या फूलपुर सीट से लोकसभा का चुनाव लड़ना चाहिए। ध्यान रहे कि नरेंद्र मोदी भी यूपी की वाराणसी सीट से लड़ते हैं। उनके अगल बगल की सीट से नीतीश के लड़ने से बड़ा माहौल बनेगा। मोदी बनाम नीतीश का मुकाबला समाजवादी पार्टी को बहुत फायदा पहुंचा सकता है। यादव के साथ दूसरी सबसे बड़े पिछड़ी जाति समूह के जुड़ने से उत्तर प्रदेश की तस्वीर बदल सकती है।

लालू और नीतीश कांग्रेस के लिए मददगार होंगे

कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश के बार-बार यह कहने का कोई मतलब नहीं है कि कांग्रेस के बगैर विपक्षी एकता नहीं होगी या भारत जोड़ो यात्रा के बाद कांग्रेस इतनी मजबूत हो जाएगी कि कोई उसकी अनदेखी नहीं कर पाएगा। सब जानते हैं और मानते हैं कि विपक्षी एकता में कांग्रेस की निश्चित रूप से महत्वपूर्ण भूमिका रहेगी, क्योंकि ज्यादातर राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों का कांग्रेस के साथ कोई टकराव नहीं है। जहां टकराव है वहां कांग्रेस कितनी भी मजबूत हो जाए, तालमेल मुश्किल होगा। इसलिए जब समय आएगा तब विपक्षी गठबंधन बनेगा और उसमें कांग्रेस की भी भूमिका रहेगी। इस सिलसिले में कांग्रेस को सबसे बड़ी मदद बिहार से मिलेगी। लालू प्रसाद और नीतीश कुमार कांग्रेस के सबसे बडे मददगार होंगे। लालू प्रसाद ने हाल ही में पटना में कहा है कि वे और नीतीश कुमार एक साथ मिल कर सोनिया गांधी के पास जाएंगे। मुख्यमंत्री बनने के बाद से नीतीश का सोनिया गांधी से मिलना बाकी है। तेजस्वी यादव दिल्ली में सोनिया गांधी से मिल चुके हैं। नीतीश कुमार पिछले दिनों दिल्ली में कई विपक्षी नेताओं से मिले थे लेकिन तब सोनिया गांधी विदेश में थीं। तब नीतीश ने कहा था कि सोनिया गांधी के विदेश से लौटने के बाद वे उनसे मिलेंगे। बहरहाल, लालू प्रसाद और नीतीश कुमार जब भी मिले, उससे फर्क नहीं पड़ना है। ये दोनों नेता विपक्षी गठबंधन में कांग्रेस के लिए जगह बनवाएंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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