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अमेरिका को जो चिंगारी जला रही है उसका बारूद सदियों से तैयार होते आ रहा है

एक लंबे संघर्ष के बाद अमेरिका में 1965 में काले लोगों को फिर से बराबरी का दर्जा दिया गया। तब से लेकर अब तक बहुत कुछ बदला है। लेकिन ख़ामियां भी भरपूर हैं। कानूनी सुधार होने के बावजूद आर्थिक असामनता की खाई गहरी है। पुलिसिया दमन काले लोगों पर अब भी हावी है।
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Image courtesy: the national geographic.com

‘आई कांट ब्रीथ’ यानी मैं सांस नहीं ले पा रहा हूँ। यह अफ्रीकी-अमेरिकी मूल के एक काले नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड के अंतिम शब्द हैं। या ये कह लीजिये कि इन्हीं शब्दों के जरिये जॉर्ज फ्लॉयड ने अपने गर्दन पर घुटने टेक कर बैठे गोरे पुलिसवाले से जिंदगी की गुहार की। लेकिन गोरे पुलिस वाले ने जॉर्ज के गुहार की तरफ ध्यान भी नहीं दिया और जॉर्ज ने दम तोड़ दिया।

इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के बाद अमेरिका में जो हो रहा है उसे पूरी दुनिया देख रही है। अगर यह केवल एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना होती तो इस पर ज्यादा बहस नहीं होती लेकिन यह घटना इंसानों के अंदर जमी उस सोच से जुड़ी है जिस सोच के जरिये पूरी दुनिया में काले और गोरे रंग के लोग में भेदभाव किया जाता रहा है।

सवाल यही है कि क्या अगर जॉर्ज फ्लॉयड कोई गोरा होता तो गोरा पुलिस वाला उसकी गर्दन को घुटने से दबाकर उसे इस तरह रोकने की कोशिश करता? इसका जवाब चाहे जो भी हो लेकिन एक बात तो साफ निकलकर आती है कि काले रंग के लोगों के लिए गोरे लोगों के अंदर बहुत गहरा अलगाव का भाव बैठा हुआ है। और ऐसे अलगाव के रिश्ते पर सबसे कड़ा हमला तभी होता है जब सारे लोग एकमत होकर उसका विरोध करने निकलते हैं। अमेरिका में भी ठीक ऐसा ही हो रहा है।

अमेरिका के साथ बहुत सारी असहमतियां हैं। एक मजबूत राष्ट्र के तौर पर अमेरिका ने जितना दुनिया का भला नहीं किया है उससे कही ज्यादा दुनिया का बुरा किया है। फिर भी इस घटना को लेकर अमेरिकी नागरिकों का विरोध प्रदर्शन पूरी दुनिया में स्टेट के जरिये होने वाले हिंसा के खिलाफ मिसाल बन रहा है।

आई कांट ब्रीथ का नारा लगाते हुए लोग सड़कों पर निकल रहे हैं। अमेरिका के तकरीबन 140 शहरों में लोग इकठ्ठा होकर विरोध कर रहे हैं। नेशनल सिक्योरिटी गार्ड सड़कों पर हैं। व्हाइट हॉउस के सामने विरोध प्रदर्शन हो रहा है। एक समय अमेरिका का झंडा प्रदर्शनकारियों ने नीचे गिरा दिया और अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को बंकर में जाकर छिपना पड़ा।  

अमेरिका में केवल 8-10 फीसदी जनसंख्या काले लोगों की है। लेकिन इस घटना के खिलाफ पूरा अमेरिका खड़ा है। यानी गोरे लोग ने जमकर भगीदारी की है। यही एक सबसे अहम नजरिया है जो पूरी दुनिया के लिए मिसाल है। कहने का मतलब यह है कि जब तक मेजोरिटी, माइनॉरिटी के लिए खड़ी नहीं होगी, तब तक नाइंसाफियां कम नहीं होंगी।

काले लोगों के साथ जब गोरे लोग बहुत बड़ी संख्या में कदम से कदम मिलाकर चलते है तभी जाकर स्टेट की ज्यादतियां कम होती है। इसलिए सोशल मीडिया पर पुलिस और प्रदर्शनकरियो के बीच हिंसक झड़पों के साथ वैसे वीडियों भी वायरल हो रहे हैं, जहां पुलिस प्रदर्शनकरियों का साथ देते नजर आ रही है। घुटने पर बैठकर माफ़ी मांगते हुए विरोध प्रदर्शन करने की इजाजत देते हुए नजर आ रही है। एक समाज की यही खूबी होनी चाहिए कि बहुत सारे विचारों को अपने साथ लेकर चले लेकिन न्याय के लिए केवल एक ही विचार रखे कि वह उसके पक्ष में खड़ा हो जो सही है और उसके विरोध में खड़ा हो जो गलत है।  

लेकिन इस घटना ने तो केवल चिंगारी काम किया है। अमेरिकी समाज में रंगभेद-नस्लभेद का बारूद सदियों से बनता आ रहा है। अमेरिका का जन्म समानता और स्वतंत्रता के मूल्यों पर हुआ था। यही अमेरिका के संविधान की आत्मा भी है लेकिन काले लोगों के लिहाज से देखा जाए तो इसमें बहुत विरोधाभास है। काले लोगों तो बहुत लंबे समय तक अमेरिकी समाज में बराबरी का दर्जा नहीं मिला था।

पहली बार साल 1865 में अमेरिका में काले लोगों को गोरे लोगों के बराबर का दर्जा दिया गया। इससे पहले काले लोग, गोरों के गुलाम हुआ करते थे। दास हुआ करते थे। जिस तरह से सामानों की खरीद बिक्री होती थी, उसी तरह से लोगों की खरीद बिक्री होती थी। साल 1790 में काले लोगों की आबादी तकरीबन 20 फीसदी के आसपास हुआ करती थी। इतनी बड़ी आबादी के साथ जानवरों से बदतर सलूक होता था।

अमेरिका में गृह युद्ध छिड़ा जिसमे छह लाख से अधिक अमेरिकी मारे गए। इसके बाद साल 1789 में बने अमेरिका के संविधान में साल 1865 में 13वां संविधान संशोधन किया गया और दास प्रथा को  खत्म किया गया। यानी दास प्रथा का खात्मा संविधान बनने के तकरीबन 76 साल बाद हुआ। लेकिन यह तो केवल देश के दस्तावेज से दास प्रथा को खत्म करने की बात थी।

साल 1877 में अमेरिका में दक्षिण के कई प्रांतों ने काले लोगों को दिए गए बराबरी के अधिकार को छीन लिया। छीनने वालों ने तर्क दिया कि काले लोग गोरों से बिलकुल अलग हैं। रहन-सहन, खान-पान सब अलग है। इन्हें अलग किया जाना चाहिए। लोगों की धारणाएं तो समझी भी जा सकती है लेकिन हद दर्ज के नाइंसाफी वाली बात यह रही कि अमेरिका की सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को मान लिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि काले लोगों के रहन-सहन का तरीका बिलकुल अलग है। काले और गोर लोग अलग-अलग रहेंगे।

अमेरिका के इतिहासकार रिचर्ड वाइट लिखते हैं कि समाज द्वारा काले और गोरों के बीच बनाई सीमाओं को लांघने पर काले लोगों की सरेआम लिंचिंग हो जाती थी। लिंचिग करना सरेआम कत्ल कर देने से भी बदतर होता था। लोग पहले बेइज्जत करते थे, मखौल उड़ाते थे, नसबंदी कर देते थे, जला देते थे और यहां तक कि मिलकर मार देते थे। यह नस्लभेद का खतरनाक दौर था।  उस दौर की तस्वीरें रूह कंपा देने वाली हैं। यानी सुप्रीम कोर्ट ने नस्ल के आधार पर अलगाव वाली व्यवस्था को पैदा कर दिया।

आशुतोष वार्ष्णेय भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक हैं और दुनिया के प्रतिष्ठित सोशल साइंटिस्ट है। आशुतोष इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि साल 1950 से 65 के बीच रंगभेद को लेकर अमेरिकी समाज ने जमकर विरोध प्रदर्शन किया। इन्हीं विरोध प्रदर्शनों में गाँधीवादी तरीके से विरोध प्रदर्शन कर मार्टिन लूथर किंग ने अमेरिका के जनमानस को झकझोर कर रख दिया।

नागरिक अधिकारों की बहाली के लिए जमकर लोग सड़कों पर उतरें। इसलिए साल 1965 में काले लोगों को फिर से बराबरी का दर्जा दिया गया। तब से लेकर अब तक बहुत कुछ बदला है। लेकिन खामियां भी भरपूर हैं।  

कानूनी सुधार होने के बावजूद भी आर्थिक असामनता की खाई गहरी है। अब पहले की तरह लिंचिंग नहीं होते लेकिन इसका मतलब यह नहीं लिंचिंग खत्म हो चुका है। पुलिसिया दमन काले लोगों पर अब भी हावी है। साल 1790 के काले लोगों की आबादी 20 फीसदी से कम होकर अभी हाल फिलहाल दस फीसदी हो गयी है। फिर भी अमेरिका के जेलों में तकरीबन 32 फीसदी काले लोग भरे पड़े हैं। अपराध और काले लोगों को आपस में जोड़कर अभी भी देखा जाता है।  

पुलिस द्वारा काले लोगों के खिलाफ अपनाये जाने वाले रुख में अभी भी दमन की प्रवृत्ति हावी है। काले लोगों के साथ नस्लीय भेदभाव से जुड़े बहुत सारे पुलिस के मामले में पुलिस को सजा नहीं दी गयी। पुलिस दंड से बच गयी और इसमें जजों ने पुलिस का पक्ष लिया और पुलिस को बचा लिया।

कहने का मतलब है कि काले लोगों के साथ नाइंसाफियां आम बात नहीं है। सिस्टम में घुसी हुई बात है। और जो विषय सिस्टम को सड़ा रहे होते हैं वह तभी ठीक होते हैं, जब सिस्टम के सामने जनता की आवाज बुलंद होती है। अमेरिकी राष्ट्रपति का कहना है कि अगर सामान्य तरीके से प्रदर्शन कंट्रोल में नहीं आते हैं तो वह मिलिट्री का भी इस्तेमाल करेंगे।  

भारत में भी इस विरोध के खूब चर्चे हैं। इसकी तुलना भारत की जाति प्रथा और साम्प्रदायिकता से की जा रही है। नस्लभेद, जातिवाद और हिन्दू मुस्लिम विवाद कुछ मामलों में समान है कि सबके केंद्र में एक-दूसरे भेदभाव है। एक दूसरे से नफ़रत और अलगाव की भावना है। भेदभाव करने पर सभी समाजों को एक ही तरह का परिणाम सहना पड़ता है। लेकिन नस्लभेद, जातिवाद  और हिन्दू मुस्लिम विवाद से बिलकुल अलग-अलग पहेली है। इनकी बुनावट की परते अलग हैं।  

एक सवाल यह भी है कि जिस तरह से पुलिस अमेरिका में लोगों का साथ दे रही है, उस तरह से भारत में क्यों नहीं देती? इस पर बहुत सारी राय है। सोशल मीडया में दोनों तरह की तस्वीरें हैं। पुलिस और लोगों के बीच हिंसा, मारपीट और आगजनी को दिखाती तस्वीरें और लोगों और पुलिस के आपसी सहमति के साथ विरोध प्रदर्शन की तस्वीरें। कहने का मतलब यह है कि तस्वीरों के जरिये समाज की सच्चाई जानना मुश्किल है।

इसलिए अमेरिका में पढाई कर रहे रिसर्च स्कॉलर अभिन्नदन से बात की। अभिनंदन ने कहा कि अमेरिका और भारत में लोकतंत्र का स्तर अलग है। अमेरिका में आज़ादी के तरफ़दार बहुत सारे लोग हैं। इसलिए कोरोना के दौर में ऐसी भी तस्वीरें दिखी थीं जिसमे लोग लॉकडाउन के विरोध में हथियार लेकर सड़कों पर आ गए थे।  

कहने का मतलब है भारत और अमेरिकी पुलिस में अलगाव तो है। लेकिन चूँकि प्रकृति में दोनों स्टेट पावर का ही हिस्सा है। इसलिए अमेरिकी पुलिस की भी ज्यादितियां भी दुनिया में किसी दूसरे पुलिस की तरह ही हैं। अमेरिकी पुलिस की खूब वाहवाही करने से पहले जॉर्ज फ्लॉयड की घटना को ही ध्यान में रख लेना चाहिए तो साफ दिखेगा कि उसकी भी मौत का जिम्मेदार एक पुलिस वाला ही था।  

जहां तक प्रोटेस्ट में लोगों की बड़ी संख्या में आने की बात है तो इस पर लोकतंत्र के स्तर की ही बात लागू होती है। हम सब कैलकुलेट करते हैं कि हमें प्रोटेस्ट में जाना चाहिए या नहीं। इस कैलकुलेशन में यह बात साफ दिखती है कि पुलिस का रवैया नरमी बरतने वाला तो नहीं होगा। शायद इसलिए भारत में बहुत कम लोग बाहर निकलकर आते हैं और अमेरिका में ज्यादा लोग बाहर निकलकर आ रहे हैं। एक बात तो माननी पड़ेगी कि अमेरिकी पुलिस किसी प्रोटेस्टर के पूरे परिवार को नहीं परेशान कर रही है। या उसपर यूएपीए जैसा कठोर कानून का इस्तेमाल नहीं कर रही है।  

एक सवाल यह भी है कि गोरे लोग काले लोगों के साथ जमकर भागीदारी कर रहे हैं। भारत में जातिगत भेदभाव और साम्प्रदायिक भेदभाव में ऐसा क्यों नहीं होता। सवर्ण जातियां चुप्पी क्यों बना लेती है? इसका चाहें जो भी जवाब दिया जाए या विश्लेषण किया जाए लेकिन एक बात तो साफ़ है कि गोरे लोगों के आगे आने की वजह से काले लोगों का भेदभाव दूर होगा और गोरे लोग ऐसा काम कर रहे हैं।

जातिगत मसलों पर लिखने वाले दिलीप मंडल द प्रिंट में लिखते हैं कि अमेरिका में काले लोगों की आबादी काफी कम है। काले और उनकी मिली-जुली नस्ल के लोगों को मिला दें तो भी उनकी आबादी 14 प्रतिशत से कम है। यानी आने वाले कई दशकों और हो सकता है कि सदियों तक अमेरिका श्वेत बहुल बना रहेगा। इसलिए गोरों लोगों को ये लगता है कि अपने कुछ विशेषाधिकारों को छोड़ने से उनके वर्चस्व पर कोई निर्णायक फर्क नहीं पड़ेगा। भारत में हिंदू सवर्ण एक अल्पसंख्यक श्रेणी है। दलितों-आदिवासियों और पिछड़ों की तुलना में उनकी आबादी काफी कम है। अपनी आबादी की तुलना में उनके पास बहुत ज्यादा संसाधन और सत्ता है। अगर वे उदार होते हैं तो इससे उनका वर्चस्व टूट सकता है।

अब एक सबसे बड़ा सवाल यह है कि मैंने हर जगह काला शब्द लिखा अश्वेत शब्द का इस्तेमाल क्यों नहीं किया। इस पर कवि-पत्रकार मुकुल सरल लिखते हैं कि अमेरिका में काले नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड की हत्या के बाद उपजे जनाक्रोश को भारत में रिपोर्ट करते हुए पत्रकार व अन्य लोग फ्लॉयड को अश्वेत लिख रहे हैं। यह सही नहीं है। हमें उन्हें काला ही लिखना चाहिए। इसमें शर्म या हिचक क्यों? अगर हम ब्लैक या काला लिखते हिचकते हैं तो इसका मतलब है कि हमने भी गोरों की सर्वोच्चता को उसी तरह स्वीकार कर रखा है, जैसे वे अपने को समझते हैं। अश्वेत कहने का मतलब है कि जो श्वेत न हो। यानी हमनें खुद दुनिया को नकारात्मक रूप से दो हिस्सों में बांट दिया एक जो श्वेत है और एक जो श्वेत नहीं है। इससे बाहर निकलिए। दुनिया इस तरह दो भागों में नहीं बटी है और अगर कोई बांटता है तो वो गलत करता है। 

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