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चेतावनी! ये मीडिया आपको बीमार...बहुत बीमार कर सकता है

“अपने ही नागरिकों के बीच दुश्मन खोजे जा रहे हैं। अपने ही पाठकों-दर्शकों, नागरिकों के बीच पाकिस्तान खोजे जा रहे हैं। जो इनसे असहमत हैं, इनकी आलोचना करते हैं, सत्ता की नीतियों से सहमत नहीं है, वो इनके दुश्मन है?”

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भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव का पहला राउंड तकरीबन ख़त्म होने जा रहा है। इस दौरान दोनों देशों के आधिकारिक बयानों ने तनाव पैदा नहीं किया बल्कि ‘ऑफ द रिकार्ड’ और ‘सूत्रों’ की ख़बरों ने बड़ा बवाल मचाया। दोनों देशों की मीडिया ने इस तरह से काम किया है कि बात तनाव से होते हुए युद्ध की संभावनाओं तक पहुँच गयी। दोनों देशों के आधिकारिक तौर पर दिए गए 'असैन्य कार्रवाई' ( नॉन मिलिट्री एक्शन) शब्दावली से जितना तनाव पैदा नहीं होता उतने ही ज्यादा युद्ध की संभावनाएं दोनों देशों की मीडिया को सूत्रों के नाम पर दी गई और उसके द्वारा ‘गढ़ी’ गई अभिव्यक्तियों  से होती है। कहने का मतलब है कि अगर इस दौरान मीडिया के असंतुलित बयानों को निकालकर केवल आधिकारिक और संतुलित बयानों को पढ़ें तो भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव के बिंदु तो जाहिर होते हैं लेकिन युद्ध और युद्ध की संभवानाएं नहीं, लेकिन कुछ देर अगर न्यूज़ चैनल देख लीजिए तो लगता है कि बस अभी युद्ध हुआ...।

इस विषय पर विस्तार से चर्चा करने से पहले कुछ बातों को ध्यान में रखना जरूरी है। यह समझना जरूरी है कि दो देशों के बीच तनाव के दौरान एक नागरिक, मीडिया और देश किस तरह बर्ताव कर सकते हैं? 

एक  नागरिक, मीडिया और देश की भूमिकाओं में अंतर होता है। एक लोकतांत्रिक समाज में जहां न्याय के सांस्थानिक औजार हैं वहां जायज हिंसा का भी समर्थन करना एक हद तक गलत बात है। यह संस्थाएं बहुत अच्छी तरह से काम करती रहें, इसके लिए जरूरी है कि नागरिक मुखर होकर सही तरह के सवाल और जवाब  का हिस्सा बनते रहें। यह तभी हो पाता है जब मीडिया जिम्मेदार तरीके से सार्वभौमिक मानवीय मूल्यों के इर्द-गिर्द रहकर काम करती रहती है। जैसे युद्ध को हवा देना मीडिया की हत्या करना है और शान्ति के लिए सारे सूचनाओं से लैस मर्यादित अभिव्यक्ति करना मीडिया का दायित्व है। लेकिन एक देश को एक नागरिक जितनी आजादी हासिल नहीं। उसके कर्तव्य और उसकी जिम्मेदारियां उसे एक आम इंसान की तरह भावनाओं में बहने की इजाज़त नहीं देती। पुलवामा के दर्दनाक हादसे के जवाब के तौर पर हो सकता है कि बहुत सारे विकल्प हो। यकीनन जितनी सूचनाएं , जितनी रणनीतियां एक सरकार को हासिल हो सकती है, उतनी एक नागरिक और मीडिया को नहीं। हमारी प्रशासनिक व्यवस्था भी सरकार को ही इजाजत देती है कि वह कोई भी जिम्मेदारी भरा कदम उठाये।

अब सारी परेशानी यहीं से शुरू होती है। हमारी अनैतिक किस्म की राजनीति, अनैतिक और अवसरवाद किस्म का नागरिक बोध, अन्यायी किस्म की जीवन शैली हमसे हमारा सहअस्तित्व और शांति वाला नागरिक बोध छीन लेती है। फिर भी अगर मीडिया के सभी तंत्र सही से अपनी भूमिका निभाए तो इन परेशानियों से हम निजात पा सकते हैं। लेकिन ऐसा होता ही नहीं है। हमारी मीडिया हमारी कमियों पर सवार होकर अपना बाजार बनाती है। और नफ़रत बेचने का कारोबार करती है। 

अभी हाल में प्रिंट और न्यूज़ चैनल पर चल रहे हेडिंग को पढ़े तो इस खेल को पूरी तरह समझा जा सकता है।

कुछ  न्यूज़ चैनल के हेडिंग -

“गरजा हिंदुस्तान काँप गया पाकिस्तान” 

“कल घुस कर मारा आज घुसने पर मारा” 

“डर के मारे बातचीत चाहता है पाकिस्तान” 

“पाकिस्तान झुका, विंग कमांडर अभिनंदन को छोड़ने का फैसला”

“भारत में घुसेगो तो मारे जाओगे” 

“नक़्शे से पाक साफ हो जाएगा” 

“अब पकिस्तान का फाइनल इलाज होगा” 

“जब तक तोड़ेंगे नहीं ,तब तक छोड़ेंगे  नहीं” 

“हिंदुस्तान से टकराएगा तो मुँह की खाएगा" 

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अखबार के हेडिंग-

“न पाक ठिकाने नेस्तनाबूत” 

“शहीदों  की तेरहवीं से पहला बदला” 

एक तनाव भरे हालात  के सामने ऐसे हेडिंग को पढ़कर देखिये। इसके अलावा स्क्रीन पर आग लगाकर, कुछ रिटायर्ड जनरलों को बैठाकर लगातार ‘बदला...बदला’ की एक बहस चलाई गई। एक सामान्य हिंदुस्तानी के सामने ये सारे हेडिंग, ये सारी बातें, बहसें शांति का पैगाम लेकर नहीं आते बल्कि नफ़रत का माहौल लेकर आते हैं। इन सारे हेडिंगों के अंतर्गत चलने वाली खबरें और बहसें एक नागरिक को जागरूक बनाने की बजाय भीतर से नफ़रती बनाने का काम करती हैं। 

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कारोबारी मीडिया के इस आतंकी काम पर मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार कहते हैं, “आज न्यूज़ चैनलों के आगे पाकिस्तान दुश्मन है। कल कोई और दुश्मन था और कल कोई और होगा, लेकिन गौर करें तो ये कारोबारी चैनल, मीडिया इस देश के भीतर लगातार दुश्मन की तलाश में है। अपने ही नागरिकों के बीच दुश्मन खोजे जा रहे हैं। अपने ही पाठकों-दर्शकों, नागरिकों के बीच पाकिस्तान खोजे जा रहे हैं। जो इनसे असहमत हैं, इनकी आलोचना करते हैं, सत्ता की नीतियों से सहमत नहीं है, वो इनके दुश्मन है? ये सब कारोबारी मीडिया के लिए दुश्मन हैं? मीडिया सत्ता के साथ खड़ा है और ऐसा होने से उसकी भाषा नागरिकों को कुचलने की भाषा हो गयी है। मुझे ये बात कहते हुए अफसोस हो रहा है कि ये कारोबारी मीडिया लोकतंत्र का नया खलनायक है।” 

इस तनाव के माहौल में मीडिया का काम केवल  युद्ध का माहौल ही तैयार ही नहीं कर रहा था। बल्कि सूचनाओं की बलि भी चढ़ा रहा था। द प्रिंट में तकरीबन 30 साल डिफेंस एरिया में पत्रकारिता कर चुके और भारत सरकार के मान्यता प्राप्त डिफेन्स कॉरेस्पोंडेंट रह चुके मुकेश कुमार सिंह लिखते है - 

“अब पत्रकार या तो जल्दी में हैं या राजनीतिक खिलौना बन चुके हैं। ऐसे माहौल में ‘सूत्र’ का मतलब ‘सरकारी प्लांट’ या ‘भक्तों की गोदी पत्रकारिता’ बन चुका है। वायुसेना के मिशन बालाकोट के बाद तो पत्रकारिता ने अपने पतन का नया ऑर्बिट (चक्र) ख़ुद ही बना लिया है। इसके लिए भले ही खबर प्लांट करने वालों को ज़िम्मेदार ठहराया जाए, लेकिन इससे भी बड़ा सवाल ये है कि क्या खबरें प्लांट करने वाले अफ़सरों की ख़ामियों की वजह से मीडिया अपने बुनियादी उसूलों को नज़रअंदाज़ करके युद्धोन्माद फ़ैलाने में जुट जाएगा?  जब अफ़सरों को पत्रकारों के सवाल ही नहीं सुनने थे तो फिर उन्होंने प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलायी ही क्यों? प्रेस रिलीज़ और साउंड बाइट तो बग़ैर पत्रकारों को बुलाये भी जारी की जा सकती थी। पत्रकारों को सरकार की ओर से ऑन-रिकॉर्ड तो छोड़िए, ऑफ़ रिकॉर्ड भी ब्रीफ़्रिंग क्यों नहीं की गयी? सरकार ने ये साफ क्यों नहीं किया कि भारतीय वायुसेना ने जिस बालाकोट को निशाना बनाया वो है कहां? पाक अधिकृत कश्मीर में या पाकिस्तान के उत्तर पश्चिमी सूबे ख़ैबर-पख़्तूनवा में? सरकार ने ये भी साफ़ नहीं किया कि मुहिम में कितने विमानों ने हिस्सा लिया? कितनों ने नियंत्रण रेखा पार की? कितने ‘स्टैंड बाई’ पर रहे? ये बहुत छोटे-छोटे, लेकिन अहम सवाल हैं, इन्हें लेकर ही सूत्रों ने अलग-अलग लोगों को इतनी अलग-अलग बातें बतायीं कि हमारा मीडिया कवरेज़ ही हास्यास्पद हो गया। इस बारे में सरकार ने अगर एक बयान दे दिया होता या ये कह दिया होता कि अभी ये जानकारियां सार्वजनिक नहीं की जा सकतीं, तो मीडिया खुद भी उलझन में नहीं पड़ती और न देश को अलग-अलग तरह की जानकारियां दी जातीं।” 

इसी विषय पर वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार लिखते हैं – “मैं यह बात पहले से कहता रहा हूं कि न्यूज़ चैनल देखना बंद कीजिये, मुझे भी देखना बंद कीजिये। मैं जानता हूं कि आप इतनी आसानी से मूर्खता के इस नशे से बाहर नहीं आ सकते लेकिन एक बार फिर अपील करता हूं कि बस इन ढाई महीनों के न्यूज़ चैनलों को देखना बंद कर दीजिए। जो आप इस वक्त चैनलों पर देख रहे हैं, वह सनक का संसार है। उन्माद का संसार है। इनकी यही फितरत हो गई है। पहली बार ऐसा नहीं हो रहा है। जब पाकिस्तान से तनाव नहीं होता है तब ये चैनल मंदिर को लेकर तनाव पैदा करते हैं, जब मंदिर का तनाव नहीं होता है तो ये चैनल पद्मावति फिल्म को लेकर तनाव पैदा करते हैं, जब फिल्म का तनाव नहीं होता है तो ये चैनल कैराना के झूठ को लेकर हिन्दू-मुसलमान में तनाव में पैदा करते हैं। जब कुछ नहीं होता है तो ये फर्ज़ी सर्वे पर घंटों कार्यक्रम करते हैं जिनका कोई मतलब नहीं होता है। सत्य और तथ्य की हर संभावना समाप्त कर दी गई है। मैं हर रोज़ पब्लिक को धेकेले जाते देखता हूं। चैनल पब्लिक को मंझधार में धकेल कर रखना चाहते हैं। जहां राजनीति अपना बंवडर रच रही है। राजनीतिक दलों से बाहर के मसलों की जगह नहीं बची है। न जाने कितने मसले इंतज़ार कर रहे हैं। चैनलों ने अपने संपर्क में आए लोगों को, लोगों के खिलाफ तैयार किया है। आपकी हार का एलान है इन चैनलों की बादशाहत। आपकी ग़ुलामी है इनकी जीत। इनके असर से कोई इतनी आसानी से नहीं निकल सकता है। आप एक दर्शक हैं। आप एक नेता का समर्थन करने के लिए पत्रकारिता के पतन का समर्थन मत कीजिए।”

अंत में

पहले यही मीडिया आपको भूत-प्रेत की कहानियां परोसता था, अपराध की घटनाओं को सनसनी बनाकर बेचता था और अब यही आपको नफ़रत और युद्ध परोस रहा है। इसलिए फैसला आपको लेना है कि आपको जानकारी चाहिए या उन्माद। विवेक चाहिए या पागलपन। शांति चाहिए या युद्ध...। बदला चाहिए या बदलाव।

#SAY_NO_TO_WAR

 

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