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“छुट्टियो न रहे एतवार, लोगवा देखs तनी कइसन हsई सरकार...”

बिहार में आशा कार्यकर्ता पिछले एक दिसंबर से अपनी 15 सूत्री मांगों के लिए अनिश्चितकालीन राज्यव्यापी हड़ताल पर हैं, लेकिन राज्य की ‘सुशासनी’ सरकार उनकी कोई सुनवाई नहीं कर रही।
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“...छुट्टियो न रहे एतवार (रविवार) लोगवा देखs तनी, कइसन हsई सरकार लोगवा देखs तनी....” ये लोकगीत इन दिनों बिहार में आंदोलनकारी आशाकर्मी कार्यकर्ताओं का नारा बन गया है जो पिछले 1 दिसंबर से “आशा संयुक्त संघर्ष समिति” के बैनर तले अपनी 15 सूत्री मांगों के लिए अनिश्चितकालीन राज्यव्यापी हड़ताल पर हैं। केंद्र सरकार से निर्धारित प्रोत्साहन राशि प्रदेश की सरकार द्वारा अविलंब दिये जाने व उसका नियमित भुगतान करने तथा नौकरी के स्थायीकरण समेत अपने सम्मानजनक भरण पोषण की मांगों को वे सरकार के सामने लगातार उठातीं रहीं हैं। 
गत 11 सितंबर’18 को प्रधानमंत्री ने वीडियो कान्फ्रेंसिंग से देश भर की आशा कार्यकर्ताओं से बात की और उनकी महती भूमिका की सराहना करते हुए केंद्र से दिये जानेवाली 3000 रुपये की प्रोत्साहन राशि को दुगुनी करने की घोषणा की थी। साथ ही केंद्र सरकार की ओर से मुफ्त बीमा सुविधा देने की भी बात कही जबकि केरल, तेलंगाना व कुछ अन्य राज्यों मेँ पहले से ही केंद्र की देय राशि के अलावा राज्य सरकार की ओर से भी प्रोत्साहन राशि दी जा रही है। लेकिन बिहार एनडीए सरकार के ‘सुशासनी’ रवैये को देखकर यही कहा जा सकता है कि उनके लिए प्रधानमंत्री की घोषणा का कोई महत्व नहीं है। राज्य सरकार की ओर से कोई प्रोत्साहन राशि देना तो दूर सन् 2011 में केंद्र से दी जानेवाली 3000 रुपये की ही राशि देने पर अड़ी हुई है।जबकि यह राशि भी केंद्र सरकार ने दुगुनी कर दी है। हद तो ये है कि यह राशि भी नियमित रूप से नहीं देकर बिहार की सरकार सभी आशा कार्यकर्ताओं से बंधुआ मजदूर की तरह काम करा रही है। राज्य के मुख्यमंत्री व उपमुख्यमंत्री जो हर मौकों पर स्त्री सशक्तिकरण के लिए अपनी सरकार के अव्वल काम करने का ढिंढोरा तो खूब पीटते हैं, लेकिन गाँव की गरीब महिलाओं की स्वास्थ्य के लिए पूरी निष्ठा से काम कर रहीं हज़ारों हज़ार आशाकर्मी महिलाओं के सवालों से उन्हें कोई मतलब नहीं है। 

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2005 में विश्व स्वास्थ्य संगठन के दिशा निर्देशों के तहत ग्रामीण क्षेत्र के लोगों को सस्ती और बेहतर स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराने के लिए भारत में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की शुरुआत की गयी थी। जिसके तहत देश के प्राय: सभी राज्यों में 8.70 आशा कार्यकर्ताओं (एक्रिडाइटेल सोशल हेल्थ एक्टिविस्ट–मान्यताप्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता) का चयन व प्रशिक्षित कर महिलाओं का नियोजन किया गया। उसी का परिणाम है कि आज अगर देश के ग्रामीण इलाकों के आमलोगों को जो थोड़ी बहुत सरकारी प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएँ मिल पा रहीं हैं, जो गाँव-गाँव जाकर दिन हो या रात हो, गर्भवती महिलाओं व शिशुओं की आवश्यक स्वास्थ्य सहायता करने से लेकर सरकार द्वारा चलायी जा रहे सभी जन योजनाओं का प्रचार प्रसार कर जागरूक बना रहीं हैं वह यही आशा कार्यकर्ता हैं। इसीलिए आज इन्हें देश में चलाये जा रहे स्वास्थ्य के सबसे बड़े फ्लैगशिप प्रोग्राम की रीढ़ माना जा रहा है। सरकार की रिपोर्ट ही बताती है कि आज गांवों में इन आशा कार्यकर्ताओं के कारण ही संस्थागत प्रसव कार्य सर्व सुलभ हो सका है जिससे मातृ–शिशु मृत्यु दर में काफी कमी आई है।
आशा कार्यकर्ता का आम तौर पर ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं में से ही चयन किया जाता है। इसके बाद सरकार के स्वास्थ्य विभाग की ओर से उन्हें प्रशिक्षित कर विभाग द्वारा निर्धारित कार्यक्षेत्रों में लगाया जाता है। जहां उन्हें गाँव के लोगों को प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधा लेने व उन्हें स्वास्थ्य केंद्र पाहुंचाने तथा स्वास्थ्य जागरूकता फैलाने जैसे 8 प्रकार के निर्दिष्ट कार्य करने होते हैं। इसके अलावा बाल विवाह, घरेलू हिंसा व दहेज जैसी कुरीतियों के खिलाफ तथा शराबबंदी के लिए सरकार द्वारा संचालित अन्य कई योजनाओं के प्रचार–प्रसार के काम भी करने होते हैं। शुरूआत में इन आशाकर्मियों के लिए कोई निश्चित मानदेय नहीं तय था लेकिन 2011 में देश के तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी द्वारा 3000 रुपये प्रतिमाह प्रोत्साहन राशि देने की घोषणा के पश्चात मानदेय निर्धारित हुआ। इसके नियमित भुगतान लेने के लिए भी आज बिहार की महिला आशा वर्करों को आंदोलन करना पड़ रहा है। आज अशाकर्मियों की हड़ताल के कारण राज्य के सभी स्वास्थ्य केन्द्र लगभग ठप्प हो गए हैं और पूरी ग्रामीण स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरा सी गयी है। 
हड़ताली आशा कार्यकर्ताओं का कहना है कि हमें पता है कि हमारी हड़ताल से गाँव की गरीब महिलाओं को काफी परेशानी हो रही है लेकिन हम भी मजबूर कर दिये गए हैं। राज्य सरकार बिना वेतन दिये बंधुआ मजदूर की तरह सिर्फ हमसे काम करा रही है और सरकारी सेवक का दर्जा भी नहीं दे रही है। राज्य में स्वास्थ्य सेवा सुदृढ़ करने के नाम पर हमारा नियोजन कर मुख्यमंत्री ने सिर्फ ठगने का काम किया है, जबकि हम आशाकर्मियों की दिन-रात की सक्रियता से  ही आज पूरे ग्रामीण इलाकों की स्वास्थ्य व्यवस्था जैसे तैसे चल पा रही है। ऐसे में राज्य की सरकार तथा स्वास्थ्य विभाग द्वारा आशा वर्करों की ज़रूरी मांगों पर कोई संज्ञान नहीं लिया जाना, दर्शाता है कि उन्हें न तो हड़ताली अशाकर्मियों से कोई मतलब है और न ही लोगों को हो रही परेशानियों की परवाह है। लेकिन यह भी सनद रखने की ज़रूरत है कि वर्तमान मुख्यमंत्री जी व उनकी पार्टी को पिछले चुनाव में विजयी बनाने में जिन ग्रामीण महिला मतदाताओं का भारी योगदान रहा है, इस बार वह कहीं पलट न जाये। 

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