कोरोना-शॉक: पूंजीवादी इतिहास में सबसे बड़ा संकट
कोरोना वायरस के चलते हम एक अभूतपूर्व आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक संकट का सामना कर रहे हैं। इस वैश्विक महामारी से हाल के दशकों के राजनीतिक और आर्थिक ढांचे के बारे में क्या पता चलता है? क्या हम पूंजीवाद के इतिहास के सबसे बड़े संकट का सामना कर रहे हैं?
आखिरी सवाल की बात पहले करें, तो यह निश्चित ही पूंजीवादी इतिहास का सबसे भयावह संकट है। यह जो वैश्विक बीमारी हमारे सामाजिक ढांचे पर थोपी गई है, वह आधुनिक इतिहास में सबसे लापरवाह और सबसे बड़ी हड़ताल है। कम से कम दुनिया की आधी श्रमशक्ति बेरोज़गार है। उनका श्रम न होने से दुनिया का विकास थम चुका है। इससे हमेशा के लिए मार्क्स का फॉर्मूला सही साबित हो जाता है कि संपदा मज़दूरों द्वारा बनाई जाती है, ना कि पूंजी या इससे बने उपकरणों द्वारा। मज़दूर ही किसी तरह का मूल्य उत्पादित करता है। इसी मूल्य से पूंजी बनती है। फिर यह पूंजी कामग़ार लोगों के खिलाफ़ तानाशाही भरा रवैया अख़्तियार कर लेती है। अगर मज़दूर हड़ताल पर चला जाता है, तो मार्क्स का तर्क सही साबित हो जाता है। यह पहली चीज है, जो हमें इस हड़ताल से पता चलती है।
पिछले पांच दशक से पूंजीवादी व्यवस्था मुनाफ़े से संघर्ष कर रही है। इस व्यवस्था ने एक ऐसा ढांचा तैयार कर दिया है, जिससे सामाजिक संस्थान मानव भक्षण का केंद्र बन गए हैं और यह सिर्फ़ पूंजी को फायदा पहुंचाने में मशगूल हैं। उत्पादन और आपूर्ति श्रंख्ला के वैश्वीकरण, जिससे पहले बिखरे हुए कारखानों के लिए कम निवेश और कम खतरा उठाने की जरूरत पड़ती थी, उसका हमारी दुनिया पर बहुत प्रभाव पड़ा है। उत्पादन शक्ति में इस विकास से सबकांट्रेक्टर्स को अपने देशों में पूंजी इकट्ठा करनी पड़ी और पूंजीवादी ढांचे का खतरा उठाना पड़ा। जबकि एकाधिकार प्राप्त फर्म्स ने अपनी बौद्धिक संपदा और आपूर्ति श्रंखला पर पकड़ा का इस्तेमाल करते हुए खूब पैसा कमाया, जिसे उन्होंने किसी तरह की उत्पादक गतिविधियों में न निवेश कर कैसीनो और ''टैक्स हैवन'' की तरफ मोड़ दिया।
इसी लाभ पर कर ना लगा पाने के चलते राज्यों के पास पैसे में कमी आई। उन्हें सत्ताधारी वर्ग और साम्राज्यवादी प्रशासन (IMF के ज़रिए) के दबाव में अपने बजट में कटौती करनी पड़ी। इसी से खर्च में कटौती की अवधारणा बनी। इस अवधारणा को शैक्षणिक, स्वास्थ्य, सार्वजनिक यातायात और बुजुर्गों की देखभाल करने वाले राज्य प्रायोजित सामाजिक संस्थानों के खिलाफ़ खूब इस्तेमाल किया गया। स्वास्थ्य सेवाओं और खर्च में कटौती के चलते कोरोना महामारी के पहले ज़्यादातर पूंजीवादी देश कमजोर थे। इसके बाद एक हवा का झोंका आया और यह देश भरभराकर ढहते चले गए।
राज्य नीतियों में से सामाजिक पहलू को निकाल देने का मतलब यह हुआ कि राज्य के पास अब लोगों को सहयोग करने की क्षमता नहीं थी। ट्रेड यूनियनों और दूसरे सार्वजनिक संस्थाओं को पूंजीवादी देशों में अलग करने का प्रभाव यह हुआ कि जन कार्रवाई की आदतें खत्म हो गईं। इसलिए पूंजीवादी देशों में लोग बड़े स्तर पर राज्य की कार्रवाई पर निर्भर करते हैं। वहीं हमने क्यूबा और केरल में देखा कि लोगों के संगठनो ने राज्य के साथ मिलकर कोरोना के खिलाफ़ जंग लड़ी। इन पूंजीवादी देशों में केवल इन्हीं वामपंथी संस्थाओं ने सरकार से बिना मदद या अनुमति के राहत पहुंचाई। बल्कि इन संस्थाओं की इस बात के लिए काफ़ी तारीफ़ भी होती है।इस महामारी के दौर में पूंजीवाद ने दिखा दिया है कि यह संकटकाल में लोगों की क्षमता बढ़ाने और गैर-संकट काल में उनकी योग्यताएं बढ़ाने में नाकामयाब रहा है।
दूसरी तरफ अर्थव्यवस्था को बचाने और लोगों को इस संकट के दौर में बुनियादी सामाजिक सुरक्षाएं उपलब्ध कराने के नाम पर ज़्यादातर सरकारों को बेलऑउट पैकेज लाने पड़े। क्या पिछले वक़्त का कोई विश्लेषण है या यह संभव है कि नवउदारवादी नीतियों को और गहराई तक उतारा जा रहा है?
जो राज्य अपने पूंजीपति वर्ग के लिए समर्पित होते हैं, उनकी प्रतिक्रिया इस महामारी में कमजोर रही है। यह देश केवल तरलता के नाम पर औद्योगिक घरानों के लिए पैसा बहाते जा रहे हैं। बल्कि महामारी के दौरान तरलता की कोई समस्या नहीं थी। दरअसल यह संकट थोपी हुई हड़ताल और लॉकडाउन में श्रम के रुकने की वजह से पैदा हुआ है। इस पूरे संकट की वजह ही यही थी। ना कि निवेशकों में किसी तरह की चिंताएं थीं।
दुनिया के संसाधनों का और बेहतर उपयोग क्या हो सकता था? जैसे- विकासशील देशों के कर्ज़ में 11 ट्रिलियन डॉलर की कटौती। आखिर अर्जेंटीना को एक और संकट में डालकर क्या मिला? उधारकर्ताओं को क्या हासिल हुआ, उनका पैसा तो कतई नहीं मिला? आख़िर कर्ज चुकाने में रियायत क्यों नहीं दी गई। जबकि यह कर्ज चुकने वाला भी नहीं है। आखिर किसकी मनाही पर विकासशील देशों के लोग दिक्कतों का सामना करने के लिए खड़े हैं। वहां अब कर्ज़ का एक जाल बन जाएगा। दूसरी बात, राहत के लिए बड़े स्तर पर पैसा लगाया जाना चाहिए था। आधी इंसानी अबादी आज भूखी है। भूख को दूर करने के लिए संसाधनों का आवंटन किया जाना चाहिए था।
हमें इस पल को इस बात से समझना चाहिए कि आज पूंजीवादी देश एक बड़ी आबादी को भूखे रहने के लिए छोड़ चुके हैं। मेरे हिसाब से पूंजीवाद मानव सभ्यता के बारे में सबसे घिनौना है। यह व्यवस्था हायपरसोनिक क्रूज मिसाईल तो बना सकती है, पर भूखे को खाना नहीं खिला सकती। यह पूरी तरह से नैतिक असफलता है। मेरी नज़र में इस पर समाज में जरूरी गुस्सा पैदा नहीं हुआ। यहां गुस्से से मेरा मतलब लोगों के भूखे रहने से सिर्फ नहीं है, बल्कि यह गुस्सा व्यवस्था पर होना चाहिए था। क्योंकि यही वह व्यवस्था है, जो ताकतवर हथियार बना सकती है, सभी के लिए जरूरी भोजन उगा सकती है। लेकिन फिर इसी भोजन को जरूरी लोगों तक पहुंचाने के बजाए नाश कर दिया जाता है। किसी समाज की नैतिकता उसके संविधान में नहीं होती, ना ही यह उसके किसी दार्शनिक के उम्दा काम में होती है, दरअसल यह इस बात पर निर्भर करता है कि यह समाज अपने बहुसंख्यकों के साथ किस तरीके का व्यवहार करता है, जो आज भी भूखे रहने को मजबूर हैं और अनपढ़ हैं। मुझे डर है कि जब तक इन पूंजीवादी समाजों में शक्ति संतुलन नहीं होता, तब तब पुरानी नीतियां ही जारी रहेंगी या इनमें और गिरावट भी आ सकती है।
-स मायने में, कोरोना महामारी के बाद दुनिया पहले जैसी नहीं रहेगी, जहां नवउदारवादी व्यवस्था की सभी बुराईयों को सामने आने दिया गया। लेकिन वित्तीय ढांचे और बड़ी कंपनियों को जाने वाले सार्वजनिक पैसे से पूंजी का केंद्रीयकरण और बढ़ेगा। ठीक इसी दौरान हम श्रम अधिकारों में छूट को भी देख रहे हैं, ताकि इन लोगों को रोजग़ार की ''गारंटी'' दी जा सके। आखिर इन विरोधाभासों का क्या मतलब निकाला जाए?
पूंजीवादी राज्यों ने बड़े स्तर पर जिन संसाधनों को खर्च किया है, उसमें से ज़्यादातर औद्योगिक घरानों और वित्तीय संस्थाओं को गया है। पूंजीवादी वर्ग के प्रभाव वाले हर देश में ऐसा ही हुआ है। राहत पहुंचाई गई है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। इस संकटकाल का इस्तेमाल कर सर्विलांस सिस्टम को मजबूत किया जा रहा है, नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ़्तारी हो रही है। साथ में श्रम कानूनों को भी कमज़ोर किया जा रहा है। इसमें कोई विरोधभास नहीं है। क्योंकि यहां किसी भी पूंजीवादी व्यवस्था के सारे तत्व मौजूद हैं। राज्यों में प्रभुत्वशाली पूंजीवादी वर्ग ने फिलहाल अपने फलने-फूलने का प्रबंध कर लिया है। इसके बाद यह लोग दूसरे लोगों की कमजोरियों का फायदा उठाते हैं और इन कमजोरियों की आड़ में उन नीतियों को आगे बढ़ाते हैं, जिनसे इन्हें स्थायी लाभ मिलेगा।
भारत में नीतियां बहुत कठोर हैं। सरकार काम के घंटे 10 और 12 घंटे तक बढ़ाना चाहती है। यह बेहद भद्दा है, जैसे हम 19 वीं सदी में लौट रहे हों। भारत में कामग़ारों का शोषण कोई विदेशी अवधारणा नहीं रही, यहां काम की जगहों पर तमाम तरह की हिंसाएं होती रही हैं, बच्चों के लिए बनाए गए श्रम कानूनों को लागू करने पर भी कोई ध्यान नहीं दिया जाता। लेकिन अब जब पूंजीपतियों तक आंच पहुंच रही है, तब उन्हें केवल एक ही समाधान समझ में आता है कि राजकोष से ज़्यादा से ज़्यादा पैसा निकाला जाए या फिर कामग़ार वर्ग के लिए काम के घंटे बढ़ाने की मांग की जाए। किसी संकट काल में पूंजीवादी वर्ग से परोपकारी होने की आशा करना पूंजीवाद की प्रवृत्ति को न समझ पाने वाली बात है। यह ढांचा मुनाफ़े को ज़्यादा से ज़्यादा बढ़ाने और जंगी स्तर की प्रतिस्पर्धा करने के विचार के ईर्द-गिर्द बुना हुआ है। यह ढांचा इंसान की लालच को दूसरे गुणों पर तरज़ीह देता है। इसलिए पूंजीपति वर्ग और उसके प्रभुत्व वाले देशों में ऐसी ही नीतियां जारी रहेंगी।
नुकसान बहुत ज़्यादा है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के मुताबिक़, दुनिया के 2.7 अरब कामग़ारों में से 81 फ़ीसदी बेरोज़गार हैं। उन्हें करीब़ 3.2 ट्रिलियन डॉलर का नुकसान होगा। वैश्विक व्यापार करीब़ 32 फ़ीसदी कम होगा। यह सब बेहद अहम है। इसका मतलब यह होगा कि सप्लाई चेन को नुकसान होगा और इसका कुछ हिस्सा खत्म होने की कगार तक ढकेला जा चुका होगा। लंबे लॉकडाउन का मतलब है कि कृषिगत उत्पादन पर भी बुरा असर पड़ सकता है, जिससे दुनिया के कई हिस्सों में अकाल तक फैलने की गुंजाईश है।
मुझे लगता है कि इस बुर्जुआवादी व्यवस्था को इस समस्या से पार पाने के तरीकों के बारे में कोई अंदाजा ही नहीं है। यह लोग पुराने ढर्रे पर अटके हुए हैं। बाज़ार में तरलता बढ़ा रहे हैं, चीन को डरा रहे हैं, वेनेजुएला और ईरान के खिलाफ़ सैन्यवाद को उकसा रहे हैं। इन तरीकों को अपनाने के बजाए सरकारों को गंभीरता से विचार करना चाहिए कि एक महामारी के दौर में व्यापार को कैसे प्रबंधित किया जाए, कैसे आर्थिक गतिविधियों को आकार दिया जाए कि वे वैश्विक व्यापार पर अपनी निर्भरता कम करें, ताकि किसी बड़ी वैश्विक अर्थव्यवस्था बनाने के बजाए क्षेत्रीय अर्थव्यवस्थाओं को बल दिया जा सके। यह तय किया जा सके कि अरबों कामग़ारों और कर्मचारियों को आर्थिक गतिविधियों को आकार देने में शामिल किया जाए, जिनके यह लोग केंद्र हैं। क्या सार्वजनिक स्वास्थ्य में खर्च को बड़े स्तर पर बढ़ाया जाएगा? यह सबसे ज़्यादा जरूरी बात है। इस पर कोई सार्वजनिक विमर्श ही नहीं हो रहा है। संकट के दौरान सभी कह रहे हैं कि नर्स बहुत ज़्यादा जरूरी होती हैं, जब महामारी का दौर खत्म हो जाएगा तो सभी नर्सों को भूल जाएँगे। बुर्जुआवादी व्यवस्था की यही असफलता है।
इस पूरी प्रक्रिया में तकनीक क्षेत्र सबसे ज़्यादा विकास करेगा। इसमें कोई शक नहीं है कि अमेजन के मालिक जेफ बेजोस कुछ दिन बाद दुनिया के पहले ट्रिलियनर बन सकते हैं। आखिर ''प्लेटफॉर्म कैपिटलिज़्म' की यह कई गुना वृद्धि क्या दिखाती है? इसके क्या नतीज़े होंगे?
लॉकडाउन के पहले बड़ी प्लेटफॉर्म कंपनियों (इनमें अमेजन सबसे बड़ी है) ने खुदरा व्यापार के एक बड़े हिस्से पर कब्जा़ कर लिया था। इनकी कोशिश है कि लोग सबकुछ ऑनलाइन खरीदें। ताकि ईंट-गारे से बनी दुकानों को खत्म किया जा सके। लॉकडाउन के दौरान कई लोगों ने इन प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल सामान खरीदने में किया। इस अनुभव के बाद कई लोग लॉकडाउन के खत्म होने पर भी दुकानों पर सामान खरीदने नहीं जाएंगे। इस बात की संभावना है कि बहुत सारे सामान और सेवाएं ऑनलाइन ही उपलब्ध कराई जाएंगी।
लेकिन हमें इसे बढ़ा-चढ़ाकर नहीं देखना चाहिए। विकसित पूंजीवादी राज्यों में यह व्यवस्था खूब फलेगी-फूलेगी, क्योंकि वहां इंटरनेट और बिजली की अच्छी पहुंच है। लेकिन यह व्यवस्था वहां कारगर साबित नहीं हो सकती, जहां इंटरनेट कवरेज कमजोर है। इतना तय है कि यह प्लेटफॉर्म बिजनेस कई पारिवारिक उद्यमियों को बर्बाद कर देंगे। जबकि इन पारिवारिक उद्यमों में प्लेटफॉर्म बिज़नेस से ज़्यादा लोग काम पर लगे होते हैं। शहर के सामाजिक पर्यावरण पर भी प्रभाव पड़ सकता है, क्योंकि खुदरा दुकानें व्यापार से बाहर हो चुकी होंगी। पता नहीं कब रेस्त्रां और कैफे की वापसी होगी। क्योंकि महामारी के खत्म होने के बाद भी लोग सावधानी बरतेंगे और खुले में खाने से परहेज करेंगे। इससे भी प्लेटफॉर्म बिज़नेस के जरिए होने वाली फूड डिलेवरी को बल मिलेगा। इन चीजों का खुदरा व्यापार पर क्या असर पड़ेगा, यह देखने वाली बात होगी।
प्लेटफॉर्म बिज़नेस के इस बढ़ते प्रभाव का निचले स्तर तक असर होगा। हम जानते हैं कि अमेजन की तरह के ट्रांजिशनल फर्म का सप्लाई चेन पर बहुत असर है, ऐसी फर्म अपने मनमुताबिक शर्तों को अपने सब-कांट्रेक्टर्स पर थोप सकती हैं। बदले में यह सब-कांट्रेक्टर्स उन कर्मचारियों का शोषण करेंगे, जिन्हें उन्होंने काम पर रखा है। इसलिए मुक़्त व्यापार क्षेत्र और फैक्टरी फॉर्म में इन कर्मचारियों की स्थिति किसी नर्क जैसी होगी। जैसे-जैसे इन प्लेटफॉर्म का प्रभुत्व बढ़ता जाएगा, इससे उत्पादन क्षेत्र के सिकुड़ने का जो असर पड़ेगा, हमें उसे नजरंदाज नहीं करना चाहिए।
महामारी के दौरान अमेरिका और चीन के बीच भी स्थितियों में तनाव काफ़ी बढ़ गया है। अंदाजा है कि चीन इस स्थिति में मजबूती से निकल कर सामने आएगा। कोरोना महामारी से निपटने की कार्रवाई के आधार पर यह अंदाजा लगाया गया है। आखिर आने वाले वक़्त में जब दुनिया मे चीन की स्थिति मजबूत होगी और अमेरिका का एकाधिकार कमजोर पड़ेगा, तब दुनिया की भूराजनीति कैसी होगी?
मुझे लगता है कि आने वाले वक़्त में हमारे सामने बड़ा संकट है। चीन अब दुनिया के निर्माण क्षेत्र का आधार है, उसने अपने बड़े अधिशेष का इस्तेमाल दुनिया के सभी महाद्वीपों पर व्यापारिक प्रबंधन के लिए किया है। चीन की विदेश नीति भी आपसी फायदे पर आधारित है। इससे चीन के कई देशों से मित्रवत् संबंध बढ़े हैं। इनमें इटली भी शामिल है। साथ में कोरोना महामारी पर चीन की प्रतिक्रिया भी आदर्श रही है। जैसे ही यह साफ हुआ था कि कोरोना वायरस इंसानों के ज़रिए फैल सकता है, चीन ने वुहान शहर को बंद कर दिया था। इसके बाद स्तरीकृत तरीके से शटडॉउन लागू किया गया और कम्यूनिस्ट पार्टी, ट्रेड यूनियन और दूसरे जनवादी संगठनों का आह्वान किया गया। इनमें पड़ोसी समितियां भी शामिल थीं। किसी दूसरी दुनिया में वायरस से निपटने के तरीके के लिए चीन को खूब प्रशंसा मिलती।
दूसरी तरफ हमारे सामने अमेरिका का उदाहरण है, जिसने लंबे वक़्त तक अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए किसी भी हद तक जाने वाले उपाय अपनाए हैं। ब्राजील इस बात का पहला उदाहरण बना था, जब 1964 में एक सैन्य तख्तापलट में अमेरिका ने हिस्सा लिया, जिससे कम्यूनिस्ट विरोधी ताकतें मजबूत हुईं, ताकि ब्राजील के जनवादी आंदोलन को तोड़ा जा सके। इसके बाद यह तरीके दूसरे दक्षिण अमेरिकी देशों में भी अपनाए गए। लेकिन इनसे अमेरिका को किसी भी तरह से असहज महसूस नहीं हुआ। जबकि औपचारिक तौर पर अमेरिका उदारवाद की पैरवी करता है। यह हिंसा खुद अमेरिका में भी घर कर गई। वहां कई मायनों में दुनिया की सबसे बड़ी सैन्य ताकत है, इसके बावजूद अमेरिका ने नए हथियार बनाना चालू रखा। इनमें हायपरसोनिक मिसाईल थीं, जिनसे कुछ घंटों में पूरी दुनिया में कहीं भी हमला किया जा सकता है। यह बहुत खतरनाक थीं, इससे भयादोहन की थ्योरी कूढ़े के डब्बे में फेंक दी गई।
अमेरिका, चीन के एक बड़े विज्ञान और तकनीकी शक्ति के तौर पर उभार से नाखुश है। अमेरिका के लिए चीन का दुनिया की वर्कशॉप होना या वहां से कुशल और स्वस्थ्य मजदूरों को उपलब्ध करवाना बर्दाश्त था, लेकिन जैसे ही चीन 5G जैसी उच्च दर्जे की तकनीकों में महारत हासिल करने लगा, तो अमेरिकी शक्ति के लिए वह खतरा बनने लगा। इसी पृष्ठभूमि में व्यापार युद्ध हुआ। इसी पृष्ठभूमि में अमेरिका, कोरोना महामारी का इस्तेमाल कर चीन की साख दुनियाभर में खराब कर रहा है। ताकि सप्लाई चेन चीन के बाहर भेजी जा सके। अमेरिकी प्रभुत्व से बाहर निकलते चीन का अंदाजा अमेरिका की युद्धरत भाषा से भी लग जाता है। इस युद्धोन्मादी भाषा के साथ खतरनाक हथियारों का मिश्रण हमें दक्षिण-चीन सागर में युद्ध के निकट ले जाने में सक्षम है। आज का वक़्त काफ़ी ख़तरनाक है।
इसलिए हमने युद्ध की तैयारियों के खिलाफ़ बॉउफिका अपील जारी की है। हमें आशा है कि जनवादी आंदोलन और दल इस अपील के साथ दुनिया के लोगों के बीच इस अपील के साथ कैंपेन करेंगे। हमें अमेरिका की युद्धोन्माद के खिलाफ़ अतंरराष्ट्रीय शांति आंदोलन खड़ा करना होगा।
चूंकि हमने चीन का उल्लेख किया, तो बता दें कि चीन, विएतनाम, केरल राज्य समेत भारत, पुर्तगाल, क्यूबा और वेनेजुएला जैसे समाजवादी देशों में कोरोना वायरस को रोकने में एक हद तक सफलता हासिल हुई है। इस प्रक्रिया से क्या सीख मिल सकती है और यह हमारी पृथ्वी के राजनीतिक जीवन के बारे में क्या बताते हैं?
अगर आप चीन से लेकर विएतनाम, केरल से क्यूबा और वेनेजुएला तक देखेंगे, तो पाएंगे कि इस संकट में इन राज्यों ने एक अलग प्रक्रिया अपनाई है। ट्राईकॉन्टिनेंटल: इंस्टीट्यूट फॉर सोशल रिसर्च, में हम इसे ''कोरोनाशॉक'' कहते हैं। कोरोनाशॉक एक शब्दावली है, जो बताती है कि कैसे कोई वायरस इतनी तेजी से दुनिया को चपेट में ले सकता है। यह बताता है कि कैसे बुर्जुआवादी राज्यों में सामाजिक ढांचा भरभराकर गिर गया है। जबकि दुनिया के समाजवादी हिस्से में ज़्यादा प्रतिरोध देखने को मिला है। यह जरूरी है कि समाजवादी व्यवस्था में क्या किया गया, उसका गंभीरता से अध्ययन किया जाए, ताकि इनसे हासिल सीखों को लोगों तक पहुंचाया जा सके। आज पूरे G-20 के सभी देशों से ज़्यादा आशाएं अकेले केरल से हैं।
वाम धड़े को दो दिशाओं में देखना चाहिए। पहला, हमें अपने डॉक्टरों, नर्स, मेडिक्स, पैरामेडिक्स, एंबुलेंस ड्राईवर समेत तमाम स्वास्थ्यकर्मियों को ज़्यादा से ज़्यादा मदद देनी चाहिए। यह लोग एक बेहद संक्रमित बीमारी से मुकाबला कर रहे हैं, वह भी बुर्जुआवादी व्यवस्था में, जो खर्च में कटौती के आधार पर काम करती है। किसी समाज के मूल्य उसके संविधान में नहीं, बल्कि उसके बजट में निहित होते हैं। बुर्जुआवादी ढांचे के बजट में स्वास्थ्य खर्च पर बहुत कटौती हुई है। आज संकट सिर्फ वायरस का नहीं है, बल्कि कमजोर स्वास्थ्य ढांचे का भी है, जिसे निजी फायदे के लिए बलि का बकरा बना दिया गया और अब यह स्वास्थ्यकर्मियों के अधिक से अधिक शोषण पर आधारित है।
दूसरी बात, हमें बेरोज़गार वंचित कामग़ारों को मदद देने की दिशा में काम करना चाहिए। यह अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले वह लोग हैं, जो रोज की कमाई और हफ़्ते के वेतन पर निर्भर होते हैं। इनमें से कई के पास ना तो खुद की बचत रखने और ना ही सरकारी पूंजी हस्तांतरण का लाभ उठाने के लिए बैंक अकाउंट नहीं है। दुनिया के समाजवादी हिस्से में खाने के ठीये खोल दिये गए हैं, ताकि इन कामग़ार वर्ग के लोगों को सीधा पोषण मिल सके। यह बहुत सामान्य सा काम है, लेकिन बुर्जुआवादी ढांचे में इतना होना भी मुश्किल है।
इस वास्तिविकता को ध्यान में रखते हुए हमें बुर्जुआवादी ढांचे और समाजवादी ढांचे के बुनियादी फर्क को समझना है। यही फर्क विएतनाम और इटली के बीच है। विएतनाण चीन के पास स्थित है, फिर भी वहां कोरोना वायरस से कोई मौत नहीं हुई, एक वैज्ञानिक पद्धित के ज़रिए उन्होंने इसके संक्रमण को रोका। वहीं इटली महामारी से बर्बाद हो गया। वहां संक्रमण चेन तोड़ना बहुत मुश्किल साबित हुआ। इटली और विएतनाम में क्या अंतर है? दरअसल यह पांच तथ्य हैं- राजनीतिज्ञों द्वारा वैज्ञानिक प्रक्रिया पर आधारित कार्रवाई, वायरस से फैलने वाले संक्रमण के लिए तेजी से तैयारियां, लोगों के संगठन बनाकर बड़े स्तर जनकार्रवाई, लॉकडाउन में लोगों को फौरी राहत ताकि वे उसका सम्मान कर सकें और एक अंतरराष्ट्रीयवाद की मंशा, जिसमें जरूरी देशों के लिए ''प्रोटेक्टिव एक्विपमेंट्स'' का उत्पादन किया जाए। आखिरी बिंदु से पता चलता है कि इस वायरस से निपटने में विएतनाम की तरफ से किसी क्षेत्र के इंसानों से घृणा नहीं पाली गई। इसके लिए वहां के प्रधानमंत्री न्गुयेन ज़ुआन फुक की प्रशंसा बनती है, जिन्होंने ऊपर से नेतृत्व किया।
आज नवउदारवाद गहराई से पकड़ बना रहा है, धुर दक्षिणपंथ और नवफासीवाद का ब्राजील जैसे कई देशों में विकास हो रहा है, साथ में वामपंथी अपने लोकप्रिय तरीकों- सड़कों पर धरने, से भी विरोध प्रदर्शन नहीं कर सकते, क्या ऐशे में कोई आस बचती है? यह कहां मिलेगी?
वामपंथी धड़े को यह बात माननी चाहिए कि हमारी ताकत के स्त्रोत- ट्रेड यूनियन और किसान संघ आज काफ़ी कमज़ोर हो चुके हैं। आज कामग़ार वर्ग और किसानों के साथ-साथ कर्मचारियों के संगठन बनाना बहुत जरूरी है। मजबूत संगठन का कोई विकल्प नहीं है। सिर्फ़ इतना काफ़ी नहीं है कि हमें जनता की नब्ज़ और उसके विचारों के बारे में पता हो। अगर हमारे पास मजबूत संगठनात्मक क्षमता नहीं होगी, तो नवफासीवादी ताकतें, जो पीड़ा को पकड़कर नफ़रत में बदल देती हैं, उनसे पार पाना मुश्किल होगा। महामारी के दौरान वामपंथ ने दुनियाभर में अपनी पकड़ की मजबूती बनाए रखने की कोशिश की है, प्रवाह बनाने रखने की कोशिश की है, ताकि यह बिखर ना जाए। एकांत में समाजवाद बनाना मुश्किल है। कई कारणों के चलते बड़ी संख्या में लोग इंटरनेट पर शामिल नहीं होते हैं(मोबाईल होने के बावजूद भी इंटरनेट की पहुंच बड़ी समस्या है)। हम जानते हैं कि तकलीफ़ काफ़ी महीन है। हम उन लोगों में शामिल हैं, जो राहत पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं। हमें याद रखना चाहिए कि जब यह महामारी खत्म हो जाएगी, तब हमारे पास लोगों की चिंताएं दूर करने के लिए एक कार्यक्रम हो। यह कार्यक्रम समाजवादी सपने में भीतर तक धंसा हुआ हो।
इस महामारी से निपटने में पूंजीवादी राज्यों की असफलता भयावह मानवीय अनुभवों की में एक और जोड़ है। लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है। इस दूसरे पहलू में विनम्र रहने की क्षमता शामिल है। हमें इस भयावहता में खो नहीं जाना है। हमें यह याद रखना चाहिए कि संवेदनशील लोगों की तरह, हमारे पास भी किसी अच्छे लक्ष्य को हासिल करने के लिए संघर्ष की क्षमता है। हमें इसी के लिए जिंदा रहना है। अकेले में मत खो जाना। हमें सामाजिक भाईचारे के साथ रहना है।
(विजय प्रसाद Tricontinental: Institute for Social Research के निदेशक हैं। वे लेफ्टवर्ड बुक्स के मुख्य संपादक और ग्लोबट्रॉटर के मुख्य संवाददाता भी हैं। उनकी सबसे हालिया किताब वाशिंगटन बुलेट्स (लेफ्टवर्ड बुक्स, जुलाई 2020) है।)
अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।
CoronaShock: The Greatest Crisis in the History of Capitalism
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