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श्रीलंका का संकट सभी दक्षिण एशियाई देशों के लिए चेतावनी

निर्ल्लज तरीके के निजीकरण और सिंहली अति-राष्ट्रवाद पर अंकुश लगाने के लिए अधिकाधिक राजकीय हस्तक्षेप पर श्रीलंका में चल रही बहस, सभी दक्षिण एशियाई देशों के लिए चेतावनी है कि ऐसी गलतियां दोबारा न दोहराई जाएं।
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अधिकांश दक्षिण एशियाई मूल के लोग हमारे क्षेत्र को प्राथमिक तौर पर उत्तरी चश्मे से देखने के आदी हैं। कहने का अर्थ यह है कि हम उन चीजों पर अपना ध्यान केंद्रित रखते हैं जो भारत-पाकिस्तान मोर्चे पर घटती हैं। पूर्व के दशकों में, हमारा आकलन संयुक्त राज्य अमेरिका के द्वारा निभाई गई भूमिका पर निर्भर करता था। लेकिन हाल के दिनों में, अमेरिकियों को पूरे तौर पर तो नहीं पर कुछ हद तक चीन के द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया गया है। श्रीलंका में हुए हाल के घटनाक्रमों की पृष्ठभूमि के बरक्श, आइये इस भौगोलिक पूर्वाग्रह को एक पल के लिए उलट देते हैं। नेपाल द्वारा स्थापित और अब श्रीलंका स्थित पत्रिका, हिमाल साउथएशियन की भावना के साथ, आइये हम इस क्षेत्र को एक दक्षिणी चश्मे के माध्यम से देखते हैं। श्रीलंका में आया यह आर्थिक उथल-पुथल संभवतः हमें इस नए दृष्टिकोण को समझने के लिए कुछ सुराग दे सके।

इस क्षेत्र में एक के बाद एक तीन चीजें बड़ी तेजी से घटित हुई हैं। एक, बिम्सटेक शिखर वार्ता को इस बार आभासी तरीके से आयोजित किया गया था; दूसरा, पाकिस्तान में राजनीतिक उथल-पुथल जो एक बार फिर से सैनिक शासन के दौर को दर्शाती है; और तीसरा, हाल के दिनों तक श्रीलंकाई राज्य के करीब-करीब पूर्ण पतन की घटना, जो कि इस क्षेत्र का पोस्टर बॉय हुआ करता था। आखिरकार, एक दशक से भी कम समय हुआ होगा, जब ज्यां द्रेज़ और अमर्त्य सेन ने अपने विशाल एन अनसर्टेन ग्लोरी: इंडिया एंड इट्स कॉन्ट्राडिक्शन्स (2013) में श्रीलंका के सामाजिक संकेतकों को सभी दक्षिण एशियाई देशों की तुलना में सबसे काफी बेहतर के रूप में बताया था, जिसमें भारत भी शामिल था। 

अचानक से इतना क्या गलत हो गया? सभी विश्लेषण को यदि एक साथ रखें तो ये पांच प्रमुख व्याख्याओं की ओर इशारा करते हैं। सबसे पहले, कोविड-19 महामारी ने इस देश की अर्थव्यवस्था के तीन मुख्य आधारों: पर्यटन, चाय के व्यापार और पश्चिम एशिया में काम कर रहे प्रवासी श्रीलंकाई लोगों के द्वारा भेजे जाने वाले रेमिटेंस को पूरी तरह से तबाह करके रख दिया। दूसरा, मई 2021 से रासायनिक उर्वरकों पर अचानक से प्रतिबन्ध ने किसानों को जैविक खेती की ओर रुख करने के लिए मजबूर कर दिया। राजनीतिक नेतृत्व के द्वारा इस प्रतिबंध को पर्यावरण की दृष्टि से एक सुविचारित निर्णय के रूप में प्रचारित किया गया, लेकिन इसका असली लक्ष्य देश के घटते विदेशी मुद्रा भण्डार को संरक्षित रखने का था। लेकिन इसका नतीजा कृषि उपज में एक अभूतपूर्व गिरावट के रूप में सामने आया, जिसने ग्रामीण आबादी के अधिकांश हिस्से को पूरी तरह से कंगाली के कगार पर ला खड़ा कर दिया। 

तीसरा, प्रत्यक्ष करों को कम करने वाली लोकलुभावन नीति ने, हलांकि इसने मध्य एवं उच्च वर्गों को अस्थाई तौर पर उत्साहित करने का काम किया, लेकिन लंबे काल में इसने निहायत जरुरी विदेशी मुद्रा भण्डार में कमी लाने का काम किया। स्थिर विदेशी मुद्रा भण्डार के बिना, आवश्यक वस्तुओं जैसे तेल और दूध सहित अन्य डेयरी उत्पादों सहित दैनिक इस्तेमाल की उपभोक्ता वस्तुओं के आयात को इसने बुरी तरह से प्रभावित करना शुरू कर दिया। कोलंबो विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर, के. अमृतलिंगम ने सरकार की “घोर नीतिगत विफलता” की ओर इशारा करते हुए व्यंग्य में कहा: “हम एक द्वीप राष्ट्र हैं, इसके बावजूद हम डिब्बाबंद मछली का आयात कर रहे हैं।”

चौथा, 2019 के ईस्टर संडे के आतंकी हमलों के बाद से बिगड़ती अंतर-सांप्रदायिक हालात ने कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से बाधित करके रख दिया। चूँकि श्रीलंकाई मुसलमान (जिन्हें मूर्स भी कहा जाता है) पारंपरिक तौर पर एक व्यापारिक समुदाय हैं, ऐसे में उनके खिलाफ लोकप्रिय विरोध ने घरेलू व्यापारिक परिदृश्य को अनिवार्य तौर पर प्रभावित किया है। इस बीच पर्यटकों की आमद में भी काफी कमी आई है। और पांचवी और अंतिम व्याख्या, हालाँकि यह निश्चित रूप से किसी से कम नहीं है, वह है कथित तौर पर चीनियों द्वारा बिछाया गया कर्ज का जाल। बड़े पैमाने पर बुनियादी ढाँचे के विकास ऋण के माध्यम से, जिसमें सबसे प्रमुख हंबनटोटा बंदरगाह परिसर का 99 साल का पट्टा है। और इस प्रकार श्रीलंकाई नेतृत्व ने अर्थव्यवस्था के भविष्य को चीनी नियंत्रण में गिरवी रख दिया है, जिससे श्रीलंका को वस्तुतः एक अधीन राज्य के रूप में प्रस्तुत कर दिया है।

जहाँ उपरोक्त में से प्रत्येक वजहें काफी हद तक अच्छी तरह से स्थापित हैं, यहाँ पर इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है कि कोविड-19 वाले कारक को यदि छोड़ दें, तो बाकी के सभी चार कारक राष्ट्रीय राजनीति का नतीजा हैं। विदेशी मदद को स्वीकार या अस्वीकार करना मुख्य रुप से प्राप्तकर्ता का विशेषाधिकार है। दानदाता के ऊपर सारा दोष मढ़ना यदि/जब चीजें गलत हो जायें, का अर्थ है बग्गी को घोड़े के आगे रख देना। यह कहना निश्चित रूप से बेतुका होगा कि बड़ी शक्तियाँ छोटे देशों की राजनीति को प्रभावित नहीं करती हैं, लेकिन यह भी प्राथमिक ज्ञान है कि अंतिम विश्लेषण में, प्राप्त करने वाले राष्ट्र के ऊपर ही सारी जवाबदेही बनती है।

इन दिनों श्रीलंका पर होने वाली कोई भी राजनीतिक चर्चा भारत और चीन के बीच की प्रतिद्वंदिता के संदर्भ के बिना पूरी नहीं होती है। कोलंबो में सत्ता के गलियारों में प्रभाव के लिए प्रतिस्पर्धा के अपने प्रयासों में, इनमें से प्रत्येक ने श्रीलंकाई राजनीतिक वर्ग को प्रभावित करने की कोशिश की है। कुछ लोगों ने इन प्रयासों में हाल की चीनी सफलता की ओर इशारा किया है, जो अनिवार्य रूप से द्वीप की अर्थव्यवस्था में इसकी बढ़ती पैठ के लिए अग्रणी बनाता है। चीनी नेतृत्व के द्वारा सर्वोच्च स्तर पर दिए गये हालिया बयानों में इस लक्ष्य की ओर स्पष्ट रूप से इशारा किया गया है।

भारत इस चुनौती का सामना कैसे करेगा? भारतीय हाथी के सामने चीनी ड्रैगन का सामना करने के लिए एक अन्तर्निहित पंगुता है। अर्थव्यवस्थाओं के सापेक्ष आकार के अलावा, जिसमें भारत की तुलना में चीन के पास बड़े पैमाने पर बढ़त हासिल है, मेरी समझ में वह यह है कि श्रीलंका के लोग, प्रभावी तौर पर बहुसंख्यक सिंहली समुदाय, भारतीय इरादों के बारे में एक गहरा संदेह रखते हैं। यह संदेह मुख्यतया सदियों पुराने सिंहली-तमिल जातीय संघर्ष से उपजता है। यह तत्व श्रीलंका की भारत की नीति और विस्तार से, इसकी चीन नीति के बारे में हमारी समझ के केंद्र में होना चाहिए। 

हालाँकि वे देश की 2.2 करोड़ आबादी के करीब 75% हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं, इसके बावजूद सिंहली भारतीय राज्य तमिलनाडु में पाक जलडमरूमध्य में एक छोटी सी कूद की दूरी पर रहने वाले 7 करोड़ से अधिक तमिलों की तुलना में अल्पसंख्यक ग्रंथि से पीड़ित हैं। (यह जनसांख्यिकीय मनोग्रंथि आज के भारत में हिंदुओं के बीच में भी मौजूद है। देश की मुस्लिम आबादी से काफी अधिक होने के बावजूद, कई लोग ‘हिन्दू खतरे में हैं’ वाली आशंका से खुद को जकड़े हुए हैं, जिसे दक्षिणपंथी हिन्दू नेताओं के द्वारा कुटिलता से प्रोत्साहित किया जाता है जो ज्यादा बड़ी वैश्विक मुस्लिम आबादी की ओर इशारा करते हैं।

भारत पर चीन के लिए सिंहली लोगों की सामान्य प्राथमिकता को उस पुरानी कहावत के माध्यम से भी समझा जा सकता है कि घनिष्ठता अवमानना को जन्म देती है। यकीनन, सिंहली-तमिल गृहयुद्ध में ईमानदार बिचौलिए की भूमिका निभाने के लिए 1987 में भारतीय शांति सेना (आईपीकेएफ) को श्रीलंका भेजने का भारत का फैसला विशेष रूप से अनुपयोगी साबित हुआ था। राजीव गाँधी सरकार की अपेक्षाओं के विपरीत, इस तैनाती ने न तो सिंहली और न ही तमिलों के विश्वास को अर्जित किया। किसी भी गृहयुद्ध को वश में करने के लिए विदेशी सेना का हस्तक्षेप हमेशा से जोखिम से भरा होता है, विशेषकर तब जब दोनों विरोधी पक्ष उस सेना को पक्षपातपूर्ण मानते हों।

एक अंतिम तर्क। श्रीलंका के संकट ने दीर्घकालिक प्रगति और विकास के बारे में उस शाश्वत पहेली की विशिष्टता को प्रमुखता से उजागर कर दिया है: एक मुक्त अर्थव्यवस्था है जिसमें सामाजिक खर्च में कटौती आगे बढ़ने का तरीका है, या किसी को सीमित ‘विकास’ के साथ कल्याणकारी राज्य में निवेश करना चाहिए, लेकिन अधिक से अधिक आम लोगों की खुशहाली? 1990 के दशक की शुरुआत में, जब भारत की राज्य-नियंत्रित अर्थव्यवस्था की विफलता लगता था कि असहनीय हो गई है, तो नरसिम्हा राव-मनमोहन सिंह की जोड़ी ने अर्थव्यवस्था को धीरे-धीरे खोलने का विकल्प चुना था। कम अवधि में इसने नाटकीय परिणाम दिए, लेकिन उस शुरूआती वायदे का अधिकांश हिस्सा आज पूरी तरह से ढहने के कगार पर नजर आता है, क्योंकि रोजगार-हीन विकास ने बेरोजगारी की समस्या को अभूतपूर्व स्तर पर पहुंचा दिया है।

श्रीलंका ने भारत के 1991 वाले क्षण को लगभग बीस साल पहले ही अनुमानित कर लिया था। 1970 के दशक के उत्तरार्ध में, इसके ‘समाजवादी’ मॉडल को एक खुली अर्थव्यवस्था से तब्दील कर दिया गया था, जिसने वाकई में आने वाले दशकों में सकारात्मक नतीजे दिए। लेकिन अब वह पारी गहरे तनाव में दिखाई दे रही है, और लोग एक बार फिर से निर्ल्लज निजीकरण के जहरीले मिश्रण एवं फिर से उफान मारती सिंघली जातीय अति-राष्ट्रवाद को काबू में रखने के लिए अधिकाधिक राजकीय हस्तक्षेप की बात करने लगे हैं। इस प्रकार कह सकते हैं कि श्रीलंका का संकट एकदम सही समय पर आया है। यह सभी दक्षिण एशियाई लोगों के लिए एक चेतावनी है - कि न सिर्फ हमें हमारे संकट से उबारो, बल्कि हमारी गलतियों से भी सीखो, कहीं ऐसा न हो कि आप भी हमारी तरह ही भुगतो।

उपसंहार: दक्षिण एशिया पर कोई भी चर्चा इस क्षेत्र में लोकतंत्र की स्थिति के संदर्भ के बिना पूरी नहीं हो सकती है। सभी वैश्विक संकेतक गिरावट की ओर इशारा करते हैं, जो कि इस क्षेत्र के दो पारंपरिक रूप से स्थिर लोकतंत्रों, भारत और श्रीलंका में विकास के लिए कोई छोटे उपाय नहीं सुझाते हैं। आज, नेपाल ही एकमात्र ऐसा दक्षिण एशियाई देश है जो कुछ उम्मीद जगाता है।

नेपाल के प्रमुख टिप्पणीकारों में से एक, कनक मणि दीक्षित की यह टिप्पणी काफी हद तक सटीक थी, जब उन्होंने नेपाली टाइम्स में लिखा था: “अभी के लिए, भले ही राजनीति कितनी भी जीर्ण-शीर्ण दिखने में महसूस हो, इसके बावजूद नेपाल अपने खुलेपन, मौलिक स्वतंत्रता और अंतर-सामुदायिक संबंधों के लिहाज से दक्षिण एशिया के भीतर एक शरणस्थली के तौर पर है। इसे ‘बंद समाज’ की ओर बढ़ते आंदोलन का प्रतिरोध करना होगा, जैसा कि बिग इंडिया सहित बाकी क्षेत्र में देखा जा सकता है, और न ही इसे बीजिंग के साथ संबंध बनाने के लिए मौजूदा स्वतंत्रता के साथ कोई समझौता करने की जरूरत है।”

लेखक सामाजिक विज्ञान संस्थान, नई दिल्ली में वरिष्ठ फेलो हैं। आप जेएनयू में आईसीएसएसआर नेशनल फेलो और साउथ एशियन स्टडीज के प्रोफेसर थे। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

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