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क्या भारत का सच में एससीओ से कोई नाता है?

मध्य एशिया में, भारत कोई अहम खिलाड़ी नहीं है। चीन और कुछ मध्य एशियाई देशों ने कथित तौर पर पहले उदाहरण में भारत को समूह में शामिल करने के बारे में ग़लतियाँ की थीं। उन्हें डर था कि भारत एससीओ सहयोग की गतिशीलता को धीमा कर देगा।
एससीओ

30 नवंबर को होने वाली शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन की शिखर बैठक एक अवास्तविक सी बात लगती है। क्योंकि एक 'आभासी' बैठक होने के नाते, यह बैठक आठ एससीओ राजनेताओं को एक-दूसरे के आमने-सामने आरोप-प्रत्यारोप करने या एक दूसरे का अभिवादन करने की शर्मिंदगी से बचा देती।

कल्पना कीजिए, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने पाकिस्तानी समकक्ष इमरान खान या चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ एक ही मेज पर बैठकर आँख से आँख मिलानी पड़ती! सौभाग्य से, कोरोना वायरस महामारी उनके बचाव में आ गई।

सबसे बड़ी शर्मिंदगी तो मोदी को उठानी पड़ती- अगर उन्हें एससीओ के शासकीय परिषद के प्रमुखों में इमरान खान की मेजबानी करनी पड़ती, जो बैठक 30 नवंबर को आयोजित होनी थी  और भारत को उसकी मेजबानी करनी थी। इस बीच, निश्चित रूप से मोदी के लिए एक अन्य तकलीफदेह बैठक- 17 नवंबर को 12 वीं ब्रिक्स शिखर बैठक का आयोजन होती। फिर से, कोविड-19 ने इसे आमने-सामने की बैठक होने से बचा लिया है।

भारत में वैसे भी इस तरह के क्षेत्रीय समूहों के बारे में कोई खास उत्साह नहीं है, जिसमें संयुक्त राज्य अमेरिका भागीदार न ही। अब, चार देशों का समूह (QUAD) ही वह जगह है जहाँ मोदी सरकार की नियति है।

फिर भी, 10 नवंबर को हुई एससीओ शिखर बैठक भारतीय कूटनीति के लिए एक दुर्लभ क्षण बन जाता है। जबकि एससीओ की बैठक मूल रूप से एक चीनी राजनयिक पहल थी। और भारत इस मामले में इंच दर इंच घुट कर मर रहा था। क्या इस बैठक के माध्यम से लद्दाख गतिरोध का मीठा बदला लिया जा सकता था?

तथाकथित "शंघाई भावना" एससीओ का मुख्य सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के तहत एससीओ सदस्य देश आपसी विश्वास, आपसी लाभ, समानता, परामर्श, सांस्कृतिक विविधता, सम्मान और सामान्य विकास की खोज के लक्ष्य के साथ काम करते है।

लेकिन मोदी सरकार शंघाई भावनाको कुछ अलग ही रूप से देखती है। क्योंकि आठ एससीओ सदस्यों में से दो- संस्थापक सदस्य चीन और पड़ोसी पाकिस्तान- जिनसे मोदी सरकार की बोलचाल न के बराबर है। इसमें शी जिनपिंग और इमरान खान के नेतृत्व वाली सरकारों के साथ "आपसी विश्वास" का अभाव है।

कम से कम मोदी सरकार इन दोनों में से किसी भी देश के साथ पारस्परिक रूप से लाभप्रद संबंधों के मामले में कोई दिलचस्पी भी नहीं लेती है। भारत की चीन के साथ प्रतिद्वंद्विता है और वह भविष्य में एक दिन चीन से आर्थिक और सामरिक रूप से पार पाने के लिए दृढ़ संकल्प लिए हुए है। पाकिस्तान को भारत एक असफल राष्ट्र मानता है और उसे तिरस्कारपूर्वक नज़रों से देखता है।

किसी भी कीमत पर, भारत इन दोनों देशों में से किसी एक भी साथ "सामान्य विकास" के विचार को पूरी तरह से खारिज कर देता है जब तक कि वे इसकी पूर्व-शर्तों को पूरा नहीं करते हैं। पाकिस्तान से तो मोदी सरकार को कोई परामर्श लेने में भी दिलचस्पी नहीं है। वे सिर्फ इस बात पर चर्चा करना चाहते हैं कि पाकिस्तान अवैध रूप से कब्जे वाले भारतीय क्षेत्रों को कब खाली करेगा। 

लेकिन आज भारत की वास्तविक दुविधा कुछ और है: कि बिडेन प्रशासन के एजेंडे में मध्य एशिया का कोई प्रमुख एजेंडा होने की संभावना नहीं है। यह क्षेत्र अमेरिका के लिए तब तक महत्वपूर्ण था, जब तक अमेरिकी सेना अफगानिस्तान में तैनात थी। अब अमेरिकी सेना की वापसी से, वाशिंगटन के लिए इस क्षेत्र का महत्व कम हो जाएगा। यह भारत को अचानक एक लड़खड़ाहट में छोड़ देगा।

यदि अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ अपनी नौकरी में रहते, तो अफगान युद्ध के बाद भी वह शख्श चीनी लेंस के माध्यम से इस क्षेत्र में निगरानी रख रहा होता। वास्तव में, मध्य एशिया पर अमेरिका-भारतीय नीति पर दोनों देशों के समन्वय ने इस वर्ष की शुरुआत में जब अपना रुख बदला तो वे इस क्षेत्र में चीनी प्रभाव को कम करके आंक गए थे। 

इसके बाद फरवरी में पोम्पेओ के मध्य एशियाई दौरे के दौरान उन्होंने सभी पांच पूर्व-सोवियत मध्य एशियाई देशों- कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, ताजिकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उजबेकिस्तान के विदेश मंत्रियों के साथ बैठक की थी। 

यात्रा के पहले, पोम्पेओ ने खुले तौर पर स्वीकार किया कि उनकी यात्रा पर मध्य एशियाई देश "संप्रभु और स्वतंत्र होना चाहते हैं" और वाशिंगटन के पास "उन्हें ये सब हासिल करने में मदद करने का एक महत्वपूर्ण अवसर है।" उन्होंने चिंता जताई कि इस क्षेत्र में "बहुत सारी गतिविधि- चीनी गतिविधि और रूसी गतिविधि" है।

पोम्पेओ को उस वक़्त बहुत बैचेनी महसूस हुई जब मध्य एशियाई देशों ने तेजी से बढ़ती चीन की ट्रिलियन-डॉलर बेल्ट और रोड के माध्यम से ग्लोबल ट्रेड योजना को अपनी पस्त होती अर्थव्यवस्थाओं में सुधार के लिए रामबाण के रूप में देखा।

लेकिन मध्य एशिया में पोम्पेओ के विचार को बहुत कम उत्साह के साथ लिया गया, और इसलिए उन्हें कोई खास सफलता नहीं मिली। इस क्षेत्र के मिजाज को अनुभवी राजनयिक, और उज़्बेकिस्तान के विदेश मंत्री अब्दुलअज़ीज़ कामिलोव ने उस वक़्त आसानी से समझ लिया, जब उन्होंने अमेरिकी मीडिया से कहा कि "हम वास्तव में अपने क्षेत्र में बड़ी शक्तियों के बीच  प्रतियोगिता के मामले में में खुद के लिए प्रतिकूल राजनीतिक परिणाम महसूस नहीं करना चाहेंगे।"

पोम्पेओ को आखिरकार जवाब मिल गया, कि मध्य एशियाई क्षेत्र के विशिष्ट भूगोल को देखते हुए, जिनकी सीमाएं चीन के साथ लगी हैं वे देश चीन के इनबाउंड पैन-कॉन्टिनेंटल इन्फ्रास्ट्रक्चर निवेश पर निर्भर होने के कारण और जिससे उनके आर्थिक विकास को बढ़ावा मिल सकता है और इसलिए अमेरिका के लिए यहाँ निराशा और बहिष्कार के अलावा कुछ नहीं है। बीजिंग के अखबार चाइना डेली इस मामले में स्पष्ट रूप से तिरस्कारपूर्ण बात कही:

पूर्व सीआईए प्रमुख का चीन को दागदार बनाने की कोशिशों में एक कट्टरपंथी रुख रहा हैं, इस मामले में उन्होने अपने सभी पूर्ववर्तियों को पछाड़ दिया हैजब तक अमेरिका की प्रतिबद्धता चीन की तरह नहीं है कि वह इस क्षेत्र में कनेक्टिविटी के माध्यम से मध्य एशिया में सहयोग का विस्तार करेगा, तो मान लीजिए कि पोम्पेओ अपना समय बर्बाद कर रहा है और चीन के हितों को कमजोर करने की कोशिश कर रहा है।

इस प्रकार साउथ ब्लॉक और इस धुघलके के बीच हाल ही में काम के बँटवारे को देखते हुए  जिसमें पोम्पेओ ने मध्य एशिया डेस्क को अपने भारतीय समकक्ष को सौंप दिया। यह मध्य एशिया में एससीओ के असर को कम करने में भारत को ढाल बनाने की पोम्पेओ की स्मार्ट सोच थी।  

विदेश मंत्री एस॰ जयशंकर ने 28 अक्टूबर को डिजिटल वीडियो-कॉन्फ्रेंस में भारत-मध्य एशिया वार्ता की एक बैठक की विधिवत अध्यक्षता की, जो कि अमेरिका-भारत 2 + 2 मंत्रिस्तरीय वार्ता के एक दिन बाद और मुश्किल से दस बाद होने वाली शंघाई सहयोग संगठन शिखर सम्मेलन के पहले थी। 

जयशंकर ने "कनेक्टिविटी, ऊर्जा, आईटी, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, कृषि, आदि जैसे क्षेत्रों में प्राथमिकता वाले विकास संबंधी परियोजनाओं" के लिए 1 बिलियन डॉलर [7500 करोड़ रुपए] भारत की तरफ से कर्ज़ (लाइन ऑफ क्रेडिट) देने के बारे में बैठक में शानदार घोषणा की।

मई 2015 में अपनी यात्रा के दौरान उलान्बतार मंगोलिया में इसी तरह की समान यानि 1 बिलियन डॉलर इंडियन लाइन ऑफ क्रेडिट की घोषणा मोदी ने की थी जिसमें उन्होने आंतरिक एशिया में चीन के प्रभाव को कम करने आँकने की गलती करने की कोशिश की थी जो यूएस-भारतीय कोशिश का एक ओर निराशाजनक एपिसोड बनकर रह गया था। 

भारत ने मध्य एशिया में अपना दांव खो दिया है। मध्य एशिया की आर्थिक वृद्धि काफी हद तक चीन पर निर्भर करती है। चीन की सीमा शुल्क सेवा के आंकड़ों के अनुसार, 2018 में, पांच मध्य एशियाई देशों के साथ कुल कारोबार 41.7 बिलियन डॉलर से अधिक था। चीनी वाणिज्य मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, 2018 में मध्य एशिया के पांच देशों में प्रत्यक्ष निवेश की मात्रा  14.7 बिलियन डॉलर तक पहुंच गई थी।

इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि मध्य एशिया (2018 में 28 प्रतिशत से अधिक) में चीनी निर्यात का एक बड़ा हिस्सा उच्च मूल्य वाले मशीनों और उपकरणों, इलेक्ट्रॉनिक्स और स्पेयर पार्ट्स से था। इस क्षेत्र में चीन के साथ सहयोग की रीढ़ मध्य एशिया-चीन गैस पाइपलाइन है, और दिलचस्प बात यह है कि इसे 2009 में बनाया गया था, यानि बेल्ट एंड रोड की पहल से बहुत पहले।

चीन की सॉफ्ट पॉवर का मुख्य प्रतीक कन्फ्यूशियस इंस्टीट्यूट और इसके चीनी अध्ययन वर्ग हैं। मध्य एशिया में इस संगठन की 37 शाखाएँ हैं। अकेले कजाकिस्तान में पांच कन्फ्यूशियस संस्थानों में 14000 छात्र पढ़ते हैं। मध्य एशिया में सिर्फ बेल्ट और रोड के इर्द-गिर्द बीजिंग की सभी गतिविधियों को स्वचालित रूप से देखना गलत है।

मध्य एशिया में, भारत एक अहम खिलाड़ी नहीं है। क्षेत्र के साथ सहयोग का प्रारूप- कनेक्ट मध्य एशिया- किसी नीति का गठन नहीं करता है। भारत में न केवल सक्रिय नीति का अभाव है, बल्कि यह वहां होने वाली घटनाओं पर मुश्किल से कोई प्रतिक्रिया देता है।

क्या भारत का एससीओ से कोई नाता है? चीन और कुछ मध्य एशियाई देशों ने कथित तौर पर पहले उदाहरण में भारत को समूह में शामिल करने के बारे में गलतियाँ की थीं। उन्हें डर था कि भारत एससीओ सहयोग की गतिशीलता को धीमा कर देगा।

लेकिन भारत के "समय-समय पर आज़माए मित्र" रूस ने स्पष्ट रूप से अलग सोचा था। कल ये मिश्रित विचार रूसी दिमाग पर कैसे काम करेंगे हम इसे कभी नहीं जान पाएंगे। आखिरकार, शंघाई भावना ने दशकों की दरार के बाद चीन-रूस के रिश्तों को सामान्य करने में मदद की है।

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