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गुजरात मॉडल का तीव्र विकास एक मिथक हैः प्रभात पटनायक

प्रख्यात अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक ने न्यूज़़क्लिक के प्रधान संपादक प्रबीर पुरकायस्थ के साथ एक साक्षात्कार में गुजरात तथा केरल के विकास मॉडल पर चर्चा किया। उन्होंने वर्तमान भारतीय अर्थव्यवस्था में आवश्यक सेवाओं के निजीकरण को सबसे अधिक संकट पैदा करने वाला कारक बताया।

prabhat patnyak

सवाल -2013-14 में विकास का गुजरात बनाम केरल मॉडल चर्चा का विषय हुआ करता था। लेकिन 2014 के बाद से देश के बाकी हिस्सों पर गुजरात मॉडल को थोपते हुए साफ तौर पर देखा गया है। पिछले पांच वर्षों में यहां तक कि पूर्ववर्ती 10 वर्षों से भी अधिक समय में हमने गुजरात मॉडल की ओर बहुत तेज़ झुकाव देखा है जिसने श्रमिकों और विभिन्न लाभों में कटौती की और जिसने पूंजीवादी को अधिक से अधिक संसाधन सौंपे। अगर आप दोनों मॉडल पर नज़र डालते हैं तो आप मौजूदा स्थिति के बारे में क्या सोचते हैं?

प्रभात पटनायक - आप जिस बदलाव के बारे में बात कर रहे हैं वह बिल्कुल सही है। यह पूरी तरह से गलत धारणा पर आधारित है। वास्तव में यदि मैं ऐसा कहूं कि 2013 या 2014 में भी ये चर्चा एक गलत धारणा पर आधारित थी जो निम्नलिखित है। एक विचार है कि केरल मॉडल वितरण, कल्याण और अन्य मामलों में बेहतर परिणाम प्रस्तुत करता है लेकिन विकास के मामले में नहीं करता है। जबकि गुजरात मॉडल विकास के मामले में बहुत बेहतर परिणाम प्रस्तुत करता है। 

अब यह एक गलत धारणा है। क्योंकि मैंने 2004-05 और 2011-12 के बीच केरल तथा गुजरात की विकास दर की तुलना करते हुए आकलन किया था।  जिसमें केरल में वाम लोकतांत्रिक मोर्चा (एलडीएप) की सरकार थी, जो जिस  आर्थिक रणनीति का इस्तेमाल कर रहे थे, जो यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) और गुजरात मॉडल से अलग थी।

आप पाएंगे कि इस अवधि में केरल के प्रति व्यक्ति वास्तविक राज्य घरेलू उत्पाद की दर में वृद्धि हुई जो कि भारतीय औसत की तुलना में तेज़ गति से बढ़ी थी और जो गुजरात के समान थी। इसलिए यह पूरा मिथक कि गुजरात मॉडल आपको तेज़ी से विकास देता है वास्तव में मिथक के अलावा और कुछ भी नहीं है।

मैं केरल मॉडल के बारे में इस अर्थ में बात कर रहा हूं कि एलडीएफ जिस मॉडल को लागू करता है, वह यूडीएफ अवधि में नहीं होता है हालांकि इसका बहुत कुछ जारी रहता है पर कुछ परिवर्तन के साथ। लेकिन केरल में वामपंथी रणनीति न केवल वितरण के दृष्टिकोण से बेहतर है बल्कि वास्तव में यह विकास दर के मामले में उतना ही अच्छा है।

 सवाल -तो आप वास्तव में इसकी क्या विशेषता बताएंगे? क्योंकि गुजरात मॉडल बहुत स्पष्ट है कि वह पूंजीपतियों को ज़मीन देता है, श्रमिकों को कम मज़दूरी पर काम करने के लिए मजबूर करता है, सभी कल्याणकारी उपायों को हटा देता है और पूंजीपतियों के लिए उस पूंजी का उपयोग करता है। तो यह क्या स्पष्ट करता है?

 प्रभात पटनायक - वास्तव में आप दो वैकल्पिक परिदृश्यों के संदर्भ में सोच सकते हैं। मान लीजिए कि आपके पास बजट में 100 रुपये है। आप ये कहते हुए पूंजीपति को 100 रुपये दे सकते हैं कि आईए और यहां आकर निवेश करिए। आप ज़मीन ख़रीदते हैं या उन्हें ज़मीन देते हैं या जो भी हो और वे कुछ निवेश करते हैं। आपने उन्हें सब्सिडी वगैरह दी है जिससे विकास होता है।

लेकिन केरल मॉडल ने जो किया है वह उन 100 रुपये को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से लोगों को अतिरिक्त क्रय शक्ति के रूप में सौंपता है। अप्रत्यक्ष रूप से मेरा मतलब है उदाहरण के तौर पर जिस अवधि के बारे में बात कर रहे हैं वह सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा का एक बड़ा विस्तार था जिसे यूडीएफ ने नष्ट कर दिया। एक बार जब लोग निजी स्वास्थ्य केंद्र में जाना बंद कर देते हैं और सार्वजनिक स्वास्थ्य केंद्र में जाने लगते हैं तो उनके हाथों में एक अतिरिक्त क्रय शक्ति होती है जिसे वे खर्च करते हैं। परिणामस्वरूप मांग बढ़ती है और इस मांग को पूरा करने के लिए सभी प्रकार के स्थानीय लघु-स्तरीय उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि होती है।

इस पूरी अवधि के दौरान केरल में किसी भी बड़े पूंजीवादी समूह द्वारा कोई बड़ी परियोजना संचालित नहीं की गई थी। कुछ सार्वजनिक क्षेत्र का निवेश था लेकिन कोई बड़ी परियोजना नहीं थी। फिर भी विकास की दर काफी ऊंची थी। इसलिए लोगों के हाथों में क्रय शक्ति आने से विकास को बढ़ावा देने वाला प्रभाव हो सकता है जो कि आप उस क्रय शक्ति को टाटा या किसी और को देने के समय जो करते हैं उसकी तुलना में वितरण की दृष्टि से बेहतर नहीं है।

 सवाल - यूडीएफ ने शिक्षा प्रणाली को भी बर्बाद कर दिया। दिल्ली सरकार को छोड़कर शायद पूरे भारत में निजी स्कूलों में अपने बच्चों को अधिक संख्या में रखने की लोगों की प्रवृत्ति थी। ऐसा लगता है कि दिल्ली सरकार ने शिक्षा पर निवेश किया है। अब जब एलडीएफ ने वापसी की है तो उन्होंने वास्तव में स्कूल प्रणाली में बहुत सारे निवेश किए हैं...

प्रभात पटनायक- जी बिल्कुल। वास्तव में मुझे लगता है कि केरल में सच्चाई यह है कि एलडीएफ सरकार ने शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा में अधिक पैसा लगाया है जिसकी वास्तव में बड़े पैमाने पर समाज द्वारा सराहना की गई थी। वास्तव में बाद में जब अस्पतालों में खर्च कम करने के लिए कुछ प्रयास किए गए तो बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए जिसमें डॉक्टर भी शामिल हुए। इसलिए मुद्दा यह है कि उदाहरण के लिए यह बहुत हद तक इंग्लैंड में जब मार्गरेट थैचर ने एनएचएस (नेशनल हेल्थ सिस्टम) को नष्ट करने की कोशिश की तो वहां बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुआ जिसमें चिकित्सा पेशा के लोग शामिल हुए और इन्हीं पेशे के लोगों ने भी मूल रूप से एनएचएस शुरू करने का विरोध किया था। इसलिए मुझे लगता है कि एक निश्चित बिंदु पर वे यह देखने लगते हैं कि यह सामाजिक रूप से फायदेमंद है। और मुझे लगता है कि केरल में यही बात अब शिक्षा के साथ-साथ स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में भी आम धारणा बन गई है।

 सवाल -चलिए अब वापस होते हैं। यदि आप ऐसा नहीं करते हैं जैसे कि स्वास्थ्य के साथ-साथ सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली को नष्ट करना तो समाज में विकास और लोगों पर प्रभाव के परिणाम क्या होते हैं?

 प्रभात पटनायक - आपके पास दो चीजों का एक संयोजन होगा। कुछ अवरोध होगा, स्वाभाविक रूप से कई लोग वहन नहीं कर पाएंगे और इसलिए छोड़ देंगे। लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि जो लोग वास्तव में अपने बच्चों को निजी स्वास्थ्य सेवा या शिक्षा केंद्रों में भेज रहे हैं वे ऐसा भोजन सहित अन्य रास्तों में अपने ख़र्च को कम करके ही करेंगे। वास्तव में न केवल केरल में बल्कि भारत में हर जगह भूखमरी बढ़ने की वजह से इन आवश्यक सेवाओं का निजीकरण हुआ है। इसलिए आप पाते हैं कि क्रय शक्ति जिसे या तो भूख को मिटाने या स्थानीय सामान खरीदने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता था, वह अब शिक्षा या स्वास्थ्य सेवा के निजी प्रदाताओं की जेब में चला जाता है। इसलिए यह वास्तव में एक विकास निरोधक प्रभाव है।

इसके अलावा उदाहरण के लिए यदि कोई ऐसी बीमारी है जिसे गंभीर माना जा सकता है तो निम्न मध्यम वर्ग या वह तबका जो ग़रीब नहीं है, वह अचानक ज़्यादा ख़र्च या आय के भारी नुकसान के परिणामस्वरूप पूरी तरह से ग़रीब हो जाता है।

बिल्कुल। वास्तव में यह भारत के बड़े हिस्सों में किसान संकट के मुख्य कारणों में से एक है। केरल में फिर उस अवधि के दौरान हम ऋण राहत प्रदान करने के लिए एक विधेयक लाए। वास्तव में हम एक ऋण राहत आयुक्त नियुक्त किया। मैं सरकार का एक हिस्सा था। और विधानसभा में उठाए गए मुद्दों में से एक यह था कि बड़ी मात्रा में कर्ज कृषि कार्यों के कारण नहीं बल्कि स्वास्थ्य व्यय और इसी तरह के अन्य कार्यों से हुआ है, तो क्या राज्य को कृषि ऋण राहत आयोग के माध्यम से गैर-कृषि उद्देश्यों के लिए किए गए ऋण की जिम्मेदारी लेनी चाहिए? जिसका उत्तर था कि जब एक कृषक की बात होती है तो उसकी अर्थव्यवस्था कुल अर्थव्यवस्था होती है। आपके पास वास्तव में गैर-कृषि खातों से कृषि खातों का अंतर नहीं होता है। तो आप बिल्कुल सही हैं कि इन तरीकों से खर्च में वृद्धि संकट और ऋण का एक बहुत बड़ा कारण है।

 सवाल -तो आपको लगता है कि किसानों की परेशानी, इस कारण का हिस्सा वास्तव में स्वास्थ्य जैसी चीजें हैं?

प्रभात पटनायक - बिल्कुल। वास्तव में यह कुछ ऐसा है जो पूरे भारत में सत्य है।अखबारों में इन रिपोर्टों की भरमार है कि दिल्ली के पड़ोस में किसी बच्चे को अचानक कोई गंभीर बीमारी हो गई। वे अपने बच्चे को मैक्स अस्पताल में लाते हैं जहां बच्चे को भर्ती किया जाता है। बहुत जल्द उन्हें बिल का भुगतान करना पड़ता है इसलिए वे अपनी ज़मीन के प्लॉट को बेच देते हैं या कर्ज लेते हैं या ज़मीन को गिरवी रख देते हैं। यह केवल पिछले बिलों का भुगतान करने के लिए पर्याप्त है। फिर बच्चा बीमार होने के बावजूद छोड़ दिया जाता है और मर जाता है। तो माता-पिता ने दोनों को खो दिया है एक तरफ ज़मीन तो दूसरी तरफ बच्चा। इस तरह की दिल दहला देने वाली कहानियां मौजूद हैं और मुझे लगता है कि आवश्यक सेवाओं का निजीकरण वर्तमान भारतीय अर्थव्यवस्था में सबसे ज़्यादा संकट पैदा करने वाले कारकों में से एक है।

मध्यम वर्ग के बहुत से लोगों में नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के प्रति आकर्षण है क्योंकि इस वर्ग को लाभ हुआ है और वे सरकारी अस्पतालों में नहीं जाना चाहते हैं या अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में नहीं भेजना चाहते हैं। आपके पास निजी अस्पताल भी हैं जो निजी स्वास्थ्य सेवा के साथ सरकारी सेवक प्रदान करते हैं।

मुझे लगता है कि यहां मुर्गी और अंडे की समस्या है। यदि आप सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा से, सार्वजनिक शिक्षा से और इसी तरह अन्य संस्थाओं से सार्वजनिक व्यय को वापस ले रहे हैं तो इस मामले में यह स्वभाविक है कि आप वास्तव में इन सुविधाओं को नष्ट करते हैं। इस स्थिति में स्वाभाविक रूप से मध्यम वर्ग वहां जाता है। लेकिन मध्यम वर्ग एक अच्छी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा या शिक्षा प्रणाली के विपरीत नहीं जाएंगे। यही हाल अब विश्वविद्यालयों का है। यदि आप वास्तव में सरकारी विश्वविद्यालयों को धन मुहैया नहीं कराते हैं तो स्वाभाविक रूप से आप शिक्षा का निजीकरण करना चाहते हैं। तो यह बहुत ही जानबूझकर किया गया कार्य है। केरल मॉडल की बात यह है कि यह उस रास्ते पर नहीं गया।

सवाल-उस रास्ते पर जाते हुए मनमोहन सिंह के काल में और उससे भी ज्यादा मोदी के समय में उम्मीदें थीं कि उद्योग, नौकरियां आदि का विकास होगा लेकिन पूरा नहीं हुआ है। यदि हम दूसरा पक्ष लेते हैं तो विकास हो लेकिन वितरण खराब है तो भी यहां विकास वास्तव में किया ही नहीं जा रहा है।

प्रभात पटनायक-जी बिल्कुल। और मुझे लगता है कि इसके पीछे भी विश्व अर्थव्यवस्था का विकास है। मूल रूप से 2008 के बाद विश्व अर्थव्यवस्था में विकास दर में कमी देखी गई है। प्रारंभ में चीन और भारत जैसे देश उस मंदी से पीड़ित नहीं थे लेकिन ऐसा नहीं है। यहां तक कि चीनी अर्थव्यवस्था जो विकास दर के मामले में इन वर्षों में इतनी गतिशील रही है वह भी धीमी हो गई है। ऐसा ही भारत है। भारत के मामले में जो सबसे ज़्यादा है वह ये कि उच्च विकास की अवधि में भी रोज़गार स्पष्ट रुप से उत्पन्न नहीं किया जा रहा था। आर्थिक संकट की अवधि में रोज़गार सृजन धीमा हो गया है। और इसके साथ जब आप नोटबंदी और जीएसटी इत्यादि के प्रभावों को जोड़ते हैं जो वास्तव में लघु उत्पादन क्षेत्र, अनौपचारिक क्षेत्र या अल्प उत्पादन क्षेत्र को भारी नुकसान पहुंचा है। ऐसे में आप पाते हैं कि वास्तव में हमारे सामने एक बड़ा रोज़गार संकट है।

सवाल- गुजरात मॉडल को ही लीजिए जहां आप बड़ी पूंजी को प्रोत्साहन देते हैं। यह इस बात पर ध्यान नहीं देता है कि अनौपचारिक क्षेत्र में क्या होता है जो देश में वास्तविक रोज़गार का मुख्य आधार है। क्या आपको लगता है कि मोदी सरकार द्वारा लागू किए गए जीएसटी और नोटबंदी अनौपचारिक क्षेत्र के लिए दो बड़े हमले थे?

 प्रभात पटनायक -बिल्कुल। यह अनौपचारिक क्षेत्र के लिए बहुत बड़ा झटका है। उस समय नोटबंदी की वजह से बहुत अधिक किसान ऋणग्रस्त हो गए। नोटबंदी उस समय हुआ जब वे अपनी कृषि संबंधी ज़रुरत का सामान खरीदने जा रहे थें । उन्होंने ये सामान कर्ज लेकर लिया। इसके चलते किसानों पर इस समय बोझ बन गया।

तो जब तक हम मांग को उत्तेजित नहीं करते हैं यह होने वाला नहीं है और मांग को उत्तेजित करने का मतलब है कि लोगों के द्वारा अधिक क्रय शक्ति और अधिक सरकारी निवेश। ये दोनों पी चिदंबरम या नरेंद्र मोदी की नव-उदारवादी नीतियों के तहत बाधित किया गया है।

मुझे लगता है कि यह बिल्कुल सही है। मैं सोचता हूं कि यह काफी दिलचस्प है। केरल में एक चीज जो देखने लायक है वह ये है कि राज्य सरकार द्वारा अपने खर्चों में इजाफा करने के लिए व्यापक रूप से नवउदारवादी प्रतिमान के भीतर कुछ गुंजाइश कैसे है। उस अवधि (2004-05 से 2011-12) में सरकार ने अपना खर्च बढ़ाया। मुझे पता है क्योंकि जब हमने शुरुआत की थी तो हमने मुफ्त योजना प्रारूप की एक अवधारणा विकसित की थी... मुफ्त योजना प्रारूप को जब हमने शुरू किया था तो यह लगभग 300 करोड़ रुपये का था और जब हमने इसे पांचवें वर्ष में समाप्त किया तो यह 2,000 करोड़ रुपये से अधिक का था। इस तरह हमने वास्तव में संसाधन जुटाए हैं। 

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