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भारत के लिए चीन के साथ टकराव से बाहर निकलना अभी भी संभव

जयशंकर ने भारत के साथ अमेरिकी गठजोड़ की जो पूरी की पूरी विदेश नीति आगे बढ़ाई है- वह अब सवालों के घेरे में आ गई है।
भारत लिए चीन के साथ टकराव से बाहर निकलना अभी भी संभव

बीजिंग स्थित दो भारतीय संवाददाताओं ने गुरुवार को एक प्रेस वार्ता में चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता हुआ चुनयिंग को विदेश मंत्री एस॰ जयशंकर द्वारा हाल ही में ऑस्ट्रेलियाई विदेश मंत्री टैंक लोवी इंस्टीट्यूट के साथ एक साक्षात्कार में चीन के साथ भारत के समस्याग्रस्त संबंधों के बारे में संक्षिप्त सी जानकारी दी है। जिसका एक खास उद्देश्य था।

हुआ चुनयिंग की टिप्पणियों में तीन बातें कही गई। एक, भारत को मौजूदा स्थिति को बिगाड़ने की ज़िम्मेदारी लेनी चाहिए; दो, चीन पूर्वी लद्दाख में जमीनी हालात को बदलने के लिए बल के उपयोग का प्रस्ताव नहीं करता है, लेकिन अपनी क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा के मामले में वह दृढ़ है; और, तीन, भारत को चीन के खिलाफ काम करने के बजाय चीन के साथ काम करना चाहिए, जो दोनों के आपसी लाभ के लिए सही होगा, इसके लिए राष्ट्रपति शी जिनपिंग और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को आपसी सहमति और राजनीतिक पारस्परिक विश्वास को बढ़ाकर व्यावहारिक सहयोग को मजबूत करने की दिशा में काम करना होगा।

अगर इस पर विश्वास करें तो विदेशी वातावरण ने जयशंकर को मेगाफोन कूटनीति करने के लिए प्रेरित किया है। अमेरिकी चुनावों में डोनाल्ड ट्रम्प की चौंकाने वाली हार से भारतीय सरकार अभी उबर रही है। सत्ता में आने वाला बाइडन प्रशासन द्वारा भारत को चीन के 'जवाब' के रूप में देखने की संभावना नहीं है।

जयशंकर ने भारत के साथ अमेरिको गठजोड़ की जो पूरी की पूरी विदेश नीति आगे बढ़ाई है- वह सवालों के घेरे में आ गई है। चीन के खिलाफ सख्त रवैए का लाभ अभी तो कहीं नज़र नहीं आ रहा है बल्कि यह उल्टा साबित हो सकता है, लेकिन यू-टर्न से भी भारत की साख का नुकसान होगा। चीन सीमा और क्षेत्र से पीछे हटने की जल्दी में नहीं है और अंतरराष्ट्रीय समुदाय इसे भूल आगे बढ़ रहा है। लद्दाख में लंबा टकराव भारत के हित में नहीं है।

चीन का ध्यान अब बाइडन प्रशासन के साथ जुड़ाव की ओर है। पिछले एक सप्ताह के दौरान, शीर्ष चीनी अधिकारियों ने अमेरिका के साथ बातचीत फिर से शुरू करने, संबंधों को पटरी पर लाने और "द्विपक्षीय संबंधों को अगले चरण में ले जाने के लिए आपसी विश्वास का पुनर्निर्माण" करने के लिए ने तीन बार बातों को दोहराया है।  

स्टेट काउंसिलर और विदेश मंत्री वांग यी ने 7 दिसंबर को यूएस-चाइना बिजनेस काउंसिल के निदेशक मंडल के प्रतिनिधिमंडल के साथ मिलकर आभासी बैठक (virtual meeting) की और चार दिन बाद बीजिंग में अंतरराष्ट्रीय स्थिति और 2020 में चीन की कूटनीति विषय पर एक संगोष्ठी आयोजित की।   

फिर, 11 दिसंबर को, एक असाधारण कदम में, वांग चेन, नेशनल पीपुल्स कांग्रेस स्टैंडिंग कमेटी के उपाध्यक्ष और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी सेंट्रल कमेटी के पोलित ब्यूरो के सदस्य, ने चीन में अमेरिकन चैंबर ऑफ कॉमर्स द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में भाग लिया जिससे यह इशारा मिलता है कि बीजिंग अमेरिका के साथ बातचीत को फिर से शुरू करने को कितना अधिक महत्व देता है। यह बहुत अधिक प्रतीकात्मक कदम था क्योंकि वांग चीन के, उन 14 शीर्ष सांसदों में से हैं जिन पर हाल ही में हांगकांग के मुद्दे पर ट्रम्प प्रशासन ने प्रतिबंध लगा दिया था।

बाइडन से अपेक्षा की जाती है कि वह ‘अमेरिका फर्स्ट’ के दृष्टिकोण को त्याग देंगे और इसके बजाय अमेरिका अपने यूरोपीय सहयोगियों के साथ मिलकर काम कारेंगे। लेकिन ट्रान्साटलांटिक सहयोग और समन्वय चुनौतियों भी पेश करता है। जर्मन नेतृत्व यहां महत्वपूर्ण हो जाता है, लेकिन चीन पर ईयू-यूएस सहयोग की वास्तविक क्षमता केवल तभी पता चलेगी जब एंजेला मर्केल का उत्तराधिकारी 2021 की दूसरी छमाही में अखाड़े में उतरेगा। 

पिछले चार वर्षों के दौरान किसी भी समय, ट्रम्प प्रेसीडेंसी की ट्रान्साटलांटिक साझेदारी काफी दोषपूर्ण रही हैं और यूरोप बाइडन से परे अमेरिकी नीतियों की निरंतरता को बर्दाश्त नहीं करेगा। मामले का सार यह है कि कोरोनोवायरस महामारी के आर्थिक परिणाम अमेरिका और चीन के साथ यूरोपीय देशों के संबंधों की विविधता को आकार देते रहेंगे।

एशिया में भी, अमेरिका और चीन के बीच का पक्ष लेने के मामले में आसियान देशों की तुलनीय स्थिति दिखाई देती है। यह मानना होगा कि, बाइडन प्रशासन को चीन को शामिल करने की  काफी जरूरत है। जलवायु परिवर्तन के मामले पर अमरीका के प्रतिनिधि के रूप में जॉन केरी और अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि के लिए नामिती कैथरीन ताई, चीन के साथ हल्के स्पर्श का संकेत देते हैं, यहां तक कि वे रिश्ते में संरचनात्मक परिवर्तन पर जोर दे रहे हैं। दोनों काफी रणनीतिक विचारक हैं। उनके पास चीन द्वारा पेश की जाने वाली वास्तविक चुनौतियों की बेहतरीन समझ है।

यह एक पहेली है। जैसे ही अमेरिका और चीन कई बड़े प्राथमिकता वाले मुद्दों पर बातचीत  शुरू करेंगे- जैसे कि महामारी, जलवायु परिवर्तन, व्यापार और आर्थिक मुद्दों से लेकर, ईरान परमाणु मुद्दे और उत्तर कोरिया आदि- चीन के साथ भारत के गतिरोध को एशिया की भू-राजनीति में कोई खास महत्व नहीं दिया जाएगा। बाइडन चीन को नाराज करने के लिए क्वाड (चार देशों का गठजोड़) को कोई भी अनुचित महत्व नहीं देगा। वैसे भी भारत अमेरिका के लिए कोई खास प्राथमिकता संबंध वाला देश नहीं है।

दूसरी तरफ, चीन ने, पिछले महीने 14 अन्य एशिया-प्रशांत के देशों के साथ दुनिया के सबसे बड़े मुक्त व्यापार समझौते, आरसीईपी पर चर्चा खत्म की और उसके समापन के बाद, यूरोपीय संघ के साथ एक द्विपक्षीय निवेश संधि (बीआईटी) पर अपनी वार्ता को तेज कर दिया है, जो हो सकता है पूरा खेल ही बदल दे। भारत के मामले में भी, चीन व्यापार और निवेश का भागीदार है जो वास्तव में बड़े आर्थिक परिवर्तन को बढ़ावा दे सकता है। अंतिम विश्लेषण में कहा जाए तो, चीन के साथ आर्थिक संबंध मजबूत करने से भारत को एशियाई औद्योगिक श्रृंखला में बेहतर एकीकृत होने में मदद मिल सकती है जो भारत की आर्थिक तरक्की का रास्ता बन सकता है।

कुल मिलाकर, पुनर्विचार की जरूरत है कि कैसे चीन के सामने “खड़ा' हुआ जाए- अगर हमें ऐसा करना है तो। भारत ने वियतनाम या जापान के विपरीत, टकराव और अपने को बड़ी ताक़त के रूप में पेश करके खुद को बेहद कमजोर बना दिया है, जो पहले इसी तरह के रास्ते पर चल रहे थे। चीन के साथ आर्थिक संबंधों में अति उत्साह के कारण भी हमारे देश को कोई लाभ नहीं मिला है और इसे केवल अति-उत्साही व्यवहार के रूप में देखा जा सकता है।

भारत का चीन के प्रति बिना सोचा-समझा रुख रिश्तों में चिड़चिड़ापन और तनाव पैदा करता है जबकि भारत की आर्थिक कमजोरी और इसकी सीमाओं को ध्यान में रखते हुए उसे आगे बढ़ना चाहिए था, क्योंकि चीन की तुलना में भारत की अर्थव्यवस्था उसके पांचवे हिस्से के बराबर है। भारत का अति-उत्साह किसी को प्रभावित नहीं करता है, उल्टे इससे एशियाई क्षेत्र में उसके द्वारा रचनात्मक, ऊर्जावान नेतृत्व की भूमिका निभाने की क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

हमारे सत्तारूढ़ कुलीनों के बीच इस बात को लेकर अपर्याप्त मान्यता है कि भारत के साथ फंसने से चीन पर ज्यादा नकारात्मक असर नहीं पड़ेगा। सौभाग्य से, कुछ वास्तविक नौसैनिक देखभाल के कारण, भारत ने झिंजियांग, हांगकांग और ताइवान पर चीन की लाल रेखाओं को पार नहीं किया। 

हालांकि, चीन के मामले में नकारात्मक रुख लेने से हम चीन की जायज अंतर्राष्ट्रीय आकांक्षाओं और अनिवार्यताओं को समझने में नाकामयाब हो जाते है, जैसे कि चीन की खुद के रणनीतिक लिए तरक्की के लिए (जैसे, बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव), चीन की बढ़ती सैन्य क्षमता जो उसकी आर्थिक तरक्की की रक्षा करती है, और उसकी नई ताकत जिसके साथ वह वैश्विक नीति बनाने को तराशने की अपनी आकांक्षाओं को पूरा करता है।

चीन इतिहास में कोई पहला देश नहीं है जो नाटकीय रूप से बढ़ती तरक्की, बेहद व्यापार-निर्भर क्षेत्रीय महाशक्ति अपने पंखों को फड़फड़ा रही है जो एक सदी से अधिक के दमन के बाद अपनी ऐतिहासिक महानता का पुन: साबित कर रही है। इसे 'विस्तारवाद' के रूप में परिभाषित करना झल्लाहट और शून्य मानसिकता को ही दर्शाता है।

जलवायु परिवर्तन पर चीन के साथ सहयोग के मामले में भारत का एकमात्र सबसे बड़ा सबक बाइडन की जो खोज में ये हो सकता है कि ईमानदारी के साथ उन मुद्दों को ढूंढना संभव है जिन पर चीन के साथ काम करने के लिए वास्तविक सामान्य आधार है। बदकिस्मती से भारत संयुक्त रूप से महामारी के खिलाफ लड़ने के चीन के बार-बार किए आह्वान पर बेहतर रुख अपनाने में विफल रहा है। जब कोई संबंध तनाव में होता है, तो सबसे स्मार्ट चीज़ों को करना चाहिए जो संभावित साझा हितों को ध्यान में रखती हों और जो आगे चलकर एक-दूसरे को बांटने के बजाय एकजुट कर सकती हों। 

यह कहना ठीक होगा कि अधीनता और शत्रुता के बीच भी एक बीच का रास्ता होता है। आगामी यूएस-चीन के रिश्तों पर दोबारा से पहल भारत के लिए सबक होगा कि वह कितनी अधिक परिपक्वता से काम करती है वैसे नहीं जैसी अपरिपक्वता इसने पहले दिखाई है। यानि भारत को स्वतंत्र राष्ट्रीय निर्णय या समझ को संरक्षित करने और उसके अनुरूप कार्रवाई करने की जरूरत है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें-

Getting India out of the Hole with China Is Still Possible

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