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हिंदी ने अमित शाह की चालाकी पकड़ ली!  

जीवन शैलियों के बदलने पर भाषाओं का स्वरूप बदल जाता है।  इसलिए  दुनिया की किसी भी भाषा की तरह हिंदी का स्वरूप भी बदल रहा है। फिर भी हिंदी मौजूदा समय देश में सबसे अधिक राजनीतिक हैसियत रखती है और जनसम्पर्क का सबसे सशक्त माध्यम है। लेकिन क्या राजनीति और जनसम्पर्क के माध्यम के तौर पर हिंदी आम जनता को सशक्त करने का सचुमच माध्यम बन रही है या बस भावुकता की भाषा बनकर रह गयी है?  पूंजीवाद के इस दौर में हिंदी की क्या हैसियत है ? इस समय की ज़रूरत के तहत कैसी हिंदी पढ़ी और लिखी जानी चाहिए ? इन सारे मुद्दों पर अपनी राय रख रहे हैं हिंदी के लेखक और आलोचक संजीव कुमार। 

जीवन शैलियों के बदलने पर भाषाओं का स्वरूप बदल जाता है।  इसलिए  दुनिया की किसी भी भाषा की तरह हिंदी का स्वरूप भी बदल रहा है। फिर भी हिंदी मौजूदा समय देश में सबसे अधिक राजनीतिक हैसियत रखती है और जनसम्पर्क का सबसे सशक्त माध्यम है। लेकिन क्या राजनीति और जनसम्पर्क के माध्यम के तौर पर हिंदी आम जनता को सशक्त करने का सचुमच माध्यम बन रही है या बस भावुकता की भाषा बनकर रह गयी है?  पूंजीवाद के इस दौर में हिंदी की क्या हैसियत है ? इस समय की ज़रूरत के तहत कैसी हिंदी पढ़ी और लिखी जानी चाहिए ? इन सारे मुद्दों पर अपनी राय रख रहे हैं हिंदी के लेखक और आलोचक संजीव कुमार। 

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