Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

हिंदुत्ववादी बौद्धिक आलोचकों का स्वागत

पृथक और यहाँ तक कि विपरीत विचारों के साथ संबद्ध होने की आवश्यकता वामपंथियों के लिए विशेष रूप से यह सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण हो जाती है कि इसकी रीति को दूसरे विचारों द्वारा प्रेरित नहीं किया जाता है।
manusmriti

यह देखकर अच्छा लगता है कि बौद्धिक आधार पर हिंदुत्व के कई बुद्धिजीवी आलोचक अब सामने आने लगे हैं। इनको हाल के दिनों इंटरनेट पर ही देखा जा सकता है। देश में इस बौद्धिक विमर्श को क्रूर ताकतों द्वारा दबाया गया जिसका जड़वत कर देने वाला प्रभाव था। आख़िरकार ये प्रभाव ख़त्म हो रहा है। लेकिन ये आलोचना कई अलग-अलग द्रष्टिकोण से होती है। इस स्तर पर उनके बीच अंतर करना अशिष्ट और यहाँ तक कि सांप्रदायिक लग सकता है, फिर भी ये ज़रूरी है कि हम आत्म-स्पष्टीकरण करें। वास्तव में ऐसा करने से कुछ भी सांप्रदायिक नहीं होता है।

कुछ आलोचक प्रमाणिकता के पूर्ण बोध का हवाला देते हैं जिसके साथ हिंदुत्व के द्रष्टिकोण धारण किए जाते हैं और इस प्रमाणिकता के कारण अन्य के साथ किसी भी तर्क में संबद्ध होने के लिए उनके समर्थकों की अनिच्छा होती है। यह आलोचना होती है कि कोई कभी भी अपनी स्थिति के सत्य के बारे में निश्चित नहीं हो सकता और चूंकि हमेशा एक संभावना है कि एक ग़लत हो सकता है और दूसरा सही हो सकता है इसलिए हमेशा दूसरों के विचारों के साथ वचनबद्ध होना चाहिए। यह तर्क इस तरह के प्रमाणीकरण की अनुपस्थिति में विशेषता को देखते हुए किसी की अपनी स्थिति के बारे में प्रमाणिकता की अनुपस्थिति से दूसरों के साथ वचनबद्धता की आवश्यकता को दर्शाता है।

निस्संदेह यह सुनिश्चित करने के लिए किसी के द्रष्टिकोण की यथार्थता के बारे में कभी भी कोई निश्चित नहीं हो सकता, लेकिन किसी के द्रष्टिकोण के बारे में निश्चितता की न्यूनतम सीमा किसी भी रीति के लिए आवश्यक है। इसलिए प्रमाणन की अनुपस्थिति में नैतिक गुण को देखते हुए यह पूरी तरह से रीति त्याग करने के लिए एक तर्क हो सकता है। इस आधार पर हिंदुत्ववादी ताक़तों की आलोचना करना कि वे अपने विचारों को प्रमाणिकता के साथ रखते हैं, किसी भी प्रमाणिकता के आलोचक के पतन का जोख़िम उठाते हैं। आख़िरकार जब कोई जाति व्यवस्था का विरोध करता है या जब कोई पितृसत्ता का विरोध करता है तो उसके विरोध को प्रमाणीकरण द्वारा अवगत कराया जाता है। दूसरे शब्दों में प्रमाणिकता का अभाव हमेशा एक गुण नहीं होता है। इसके विपरीत जब रवींद्रनाथ टैगोर ने अपनी प्रसिद्ध कविता 'एकला चलो रे' लिखी थी तो वे प्रमाणिकता के गुण को क़ायम किए हुए थे।

यह सुनिश्चित करने के लिए यह तर्क दिया जा सकता है कि जाति व्यवस्था या पितृसत्ता के विरोध में नैतिक स्थिति है और यह कि किसी की नैतिक स्थिति में प्रमाणिकता हो सकती है तो किसी की वैज्ञानिक स्थिति के संबंध में निश्चितता नहीं होनी चाहिए। लेकिन नैतिक और वैज्ञानिक स्थितियों के बीच यह अंतर स्वयं जांच नहीं कर सकता है। यहाँ तक कि जाति व्यवस्था या पितृसत्ता का विरोध और ऐसे विरोध से उत्पन्न रीति के लिए प्रमाणिकता के स्तर की आवश्यकता होती है और इन मामलों में यथास्थिति बनने के जोखिम के बिना प्रमाणिकता की अनुपस्थिति को कोई धारण नहीं कर सकता है।

वामपंथ और दक्षिणपंथ के बीच बुनियादी अंतर इस तथ्य में निहित है कि वामपंथी आवश्यक सबूतों के साथ वचनबद्ध हैं और दूसरों के विचारों के साथ यहाँ तक कि अपने विरोधियों के प्रति भी सबूतों के साथ चर्चा करते हैं। यह ऐसा इसलिए नहीं करते हैं कि वे प्रमाणिकता के साथ अपनी स्थिति पर क़ायम हैं जो इसे रीति में संबद्ध करने में सक्षम बनाता है। यह तथ्य का आधार देते हैं। पृथक और यहाँ तक कि विपरीत विचारों के साथ संबद्ध होने की आवश्यकता वामपंथियों के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि यह रीति में प्रतिबद्ध और वचनबद्ध हैं और यह सुनिश्चित करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण है कि इसकी रीति को ग़लत विचारों द्वारा प्रेरित नहीं किया जाता है।

दूसरे शब्दों में दूसरों के विचारों और सबूत के साथ प्रमाणिकता और संबद्धता के बीच विरोधाभास देखना एक विशेष ज्ञान के द्रष्टिकोण की विशेषता है, एक उदार द्रष्टिकोण जो रीति को त्याग देता है और आमतौर पर यथास्थिति को निराशाजनक बनाने को लेकर सावधान रहता है। वैकल्पिक ज्ञान के द्रष्टिकोण में इन दोनों के बीच कोई विरोधाभास नहीं है, कोई जो वामपंथ की सदस्यता लेते हैं। इस वाम ज्ञान के द्रष्टिकोण का इस तथ्य से वर्णन किया जाता है कि यह दुनिया को इसे बदलने की द्रष्टि से व्याख्या करना चाहता है, जो व्याख्या मार्क्स ने फ़्यूरबाच के ग्यारहवें थीसिस में की है।

निश्चित रूप से इस थीसिस की कभी-कभी ग़लत तरीक़े से व्याख्या की जाती है ये ये सोचकर कि विश्व की व्याख्या करने का कार्य और विश्व को बदलने का कार्य दो अलग-अलग और असंबद्ध कार्य हैं; लेकिन ग्यारहवीं थीसिस का आशय दो बौद्धिक दृष्टिकोणों के बीच अंतर करने को लेकर है। पहला, जिसकी विश्व की व्याख्या का मतलब रीति को प्रेरित करना है और दूसरा, जिसकी विश्व की व्याख्या यथास्थिति पर अटकल से अधिक कुछ भी नहीं है।

पूर्ववर्ती बौद्धिक दृष्टिकोण के अंतर्गत न केवल सबूतों और दूसरों के विचारों से संबद्ध है, न ही रीति के साथ विरोधाभास और इसलिए वह प्रमाणिकता जो रीति से संबद्ध करने के लिए आवश्यक है बल्कि वास्तव में इसके लिए ज़रूरी है। यह सुनिश्चित करने का एकमात्र साधन है कि प्रमाणीकरण स्वयं को बदलने के लिए खुला है। अपने स्वयं के दृष्टिकोण पर मज़बूती से क़ायम रहते हुए दूसरे के विचारों के साथ वचनबद्धता इससे बेहतर उदाहरण नहीं हो सकता है। मार्क्स की थ्योरी ऑफ़ सरप्लस वैल्यू की अपेक्षा जो कभी-कभी कैपिटल के वॉल्यूम IV को स्थापित करने के लिए आरंभ किया जाता है।

निश्चित रूप से हिंदुत्व उनके लिए अपमानजनक विशेषणों का इस्तेमाल करने के अलावा किसी भी अन्य विचारों से संबद्ध नहीं है, न तो वामपंथियों के विचारों से और न ही उदारवादियों से; इसके रुख की पहचान कट्टरता से की जाती है, इस खुलासे की निर्विवाद स्वीकृति शीर्ष स्तर से उत्पन्न होती है। इसकी वामपंथी और उदारवादी ज्ञान दोनों स्तरों से आलोचना की जा सकती है। लेकिन इन दो स्थितियों में भी दोनों हिंदुत्व की आलोचना करते हुए जो एक महत्वपूर्ण अंतर है जिस पर हमें नज़र डालने से बचना नहीं चाहिए। इस अंतर का आविर्भाव सत्य है कि हिंदुत्व का उदारवादी आलोचक जो वास्तव में प्रमाण की कमी को स्वीकार करता है और इस तरह विश्व को बदलने की रीति की कमी का अनुमान दक्षिणपंथ और वामपंथ दोनों को लक्षित करते हुए इस स्थिति में प्रवेश कर सकता है। यह उदारवादी रुख एक विशिष्ट ज्ञान की स्थिति से उत्पन्न होता है जो वामपंथ के लिए बेहद अपरिचित है और यह एकमात्र संभव ज्ञान की स्थिति नहीं है। वाम बौद्धिक द्रष्टिकोण में रीति के लिए आवश्यक प्रमाणिकता दूसरों के विचारों के साथ जुड़ाव को नहीं रोकती है बल्कि इसे अनिवार्य बना देती है।

हिंदुत्व द्रष्टिकोण की दूसरे प्रकार की आलोचना जो किसी के सामने आती है वह है दूसरों के साथ चर्चा में शामिल न होने की इच्छा और समझौते से किसी समाधान पर पहुँचना। यह फिर से पूरी तरह से एक वैध आलोचना है जैसे कि ऊपर चर्चा की गई है जो अन्य विचारों के साथ जुड़ाव की संपूर्ण कमी पर केंद्रित है; दूसरों के विचारों के साथ जुड़ाव की कमी की तरह यह भी स्थापित करता है। लेकिन इसकी व्याख्या काफ़ी ध्यानपूर्वक करने की ज़रूरत है।

'कलेक्टिव च्वाइस एंड सोशल वेलफ़ेयर" में अमर्त्य सेन 19 वीं शताब्दी के ब्रिटिश लेखक वाल्टर बैजहोट का उद्धरण करते हैं और लिखते हैं कि लोकतंत्र "चर्चा द्वारा बनी सरकार" है। यह एक उपयुक्त कल्पना नहीं है क्योंकि चर्चा से एक आम सहमति का पता चलता है जो वर्ग-विरोध वाले किसी समाज में असंभव है। लेकिन अगर हम इस चर्चा की कल्पना को एक पल के लिए भी स्वीकार कर लेते हैं तो ऐसी किसी भी चर्चा की सरकार के शासन को स्वीकार करने के लिए सहमत होने के अर्थ में एक अस्थायी राजनीतिक संघर्ष को रोकने की सहमति द्वारा पहचान की जा सकती है। जबकि इस विश्वास के साथ उन ताक़तों द्वारा जो सामाजिक व्यवस्था बदलने की इच्छा रखते हैं समय के अनुसार उनके द्रष्टिकोण को जनसमर्थन और हिमायत मिलेग। वर्ग संघर्ष जारी है। चर्चा का अर्थ यह नहीं होता है कि इस तरह की चर्चा के पक्षकारों के पास अपना कोई द्रष्टिकोण नहीं है या किसी समझौते पर पहुंचने के क्रम में इस तरह की चर्चा के परिणाम के रूप में अपना द्रष्टिकोण त्याग देते हैं।

दूसरे शब्दों में जब वामपंथी "चर्चा द्वारा बनी सरकार" जैसी विशिष्ट प्रणाली में भाग लेने के लिए सहमत होते हैं तो ऐसा वह अपने स्वयं के वामपंथी द्रष्टिकोण को छोड़ कर नहीं करते हैं, लेकिन इस विश्वास में कि समय के साथ उनके द्रष्टिकोण को साबित कर दिया जाएगा और वर्तमान की तुलना में अधिक समर्थन प्राप्त होगा जिसका वे लाभ उठा रहे हैं। वास्तव में आम तौर पर इतिहास में जब वामपंथी द्रष्टिकोण को अधिक समर्थन और लोकप्रिय समर्थन प्राप्त करने में सफ़लता मिली है तो वे वामपंथियों के विरोधी हैं जिन्होंने "चर्चा द्वारा बनी सरकार" में भाग लेना बंद कर दिया है और लोकतंत्र को बर्बाद करने की कोशिश की जिसका 1930 के दशक में स्पेन, 1974 में चिली और कई लैटिन अमेरिकी देश साक्षी हैं। लेकिन "चर्चा द्वारा बनी सरकार" का अर्थ यह नहीं है कि इस तरह की चर्चा करने के लिए पक्षकारों ने विचारों से अपने दिमाग़ को खाली कर दिया है, किसी भी अन्य के विचारों के साथ जुड़ाव का अर्थ है कि कोई किसी की धारणा और किसी की रीति को छोड़ देता है।

संक्षेप में बौद्धिक आधार पर हिंदुत्व के बौद्धिक आलोचकों का स्वागत अब होने लगा है। अन्य आलोचकों से वाम बौद्धिक द्रष्टिकोण की आलोचना का सीमांकन करना आवश्यक हो जाता है। 

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest