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कैसे भारत मुसलमानों को मनमाने तरीके से अनिश्चित काल के लिए जेलों में कैद कर रहा है?

यह कोई अकेले आर्यन खान के साथ नहीं हो रहा है। ऐसा अलग-अलग शैक्षणिक, सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि से आने वाले मुसलमानों के साथ हो रहा है, जो अपनी ताकत, विशेषाधिकार और शिक्षा या उसके बगैर भी जेलों में बंद हैं, जिनके साथ अब उन्हें भी शामिल कर लिया गया है। 
muslim
प्रतीकात्मक तस्वीर।

एक घूम-घूमकर फेरी लगाने वाले 25-वर्षीय चूड़ी-विक्रेता ने अपने काम-धंधे के लिए उत्तर प्रदेश के ब्रिज मोऊ, हरदोई में अपने घर को छोड़ 800 किमी दूरी पर स्थित मध्यप्रदेश के इंदौर की राह पकड़ी थी। इस चूड़ी विक्रेता सहित इस पेशे से जुड़े क्षेत्र के अन्य लोगों के लिए यह समय हिन्दू त्यौहारों की एक पूरी श्रृंखला की शुरुआत से पहले की एक सालाना यात्रा है, जिसे उनके व्यवसाय के लिए सबसे ज्यादा फलदायक समय माना जाता है।

उसने शायद कभी ख्वाब में भी नहीं सोचा होगा कि इस साल की उसकी इस यात्रा में घटनाओं का सिलसिला क्या मोड़ लेने जा रहा है। यह घर-घर जाकर चूड़ी बेचने वाला विक्रेता अचानक उस समय खबर बन गया जब उसकी बेरहमी से पिटाई का मोबाइल वीडियो क्लिप, गाली-गलौज और मुस्लिम विरोधी सूचकों के बीच उससे चूड़ियों का बैग छीन लिया गया, की वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होने लगी। उस पर हमला करने वाले लोग उसे लगातार “हिन्दू इलाके” में धंधा करने के खिलाफ धमकाते नजर आये।

इससे पहले कि उसका जख्म भरता, उन लोगों द्वारा उसके खिलाफ जालसाजी करने, एक महिला की इज्जत से खेलने, धोखा देने और एक नाबालिग के साथ गलत हरकत करने का आरोप मढ़ दिया गया था।

यह विक्रेता, जिसके दूर-दराज के गाँव में सरकारी स्कूल या स्वास्थ्य सुविधा का नामोनिशान तक नहीं है, और जहाँ आबादी का अधिसंख्य हिस्सा हाई स्कूल तक की पढ़ाई को पूरा नहीं कर पाता है, वहां पर उसे उस एकमात्र पेशे से जुड़े रहने के लिए दंडित किया गया था, जिसके अलावा उसे किसी अन्य काम का अनुभव नहीं है। आर्टिकल 14 के साथ बातचीत में उसकी पत्नी ने बताया “जब से हमारी शादी हुई है, तभी से मेरे पति चूड़ियाँ बेचने का काम कर रहे हैं। हमारे परिवार की आय का एकमात्र स्रोत यही है.”

पिछले साल अक्टूबर में एक दलित महिला के साथ कथित सामूहिक बलात्कार और बाद में उसकी मौत की खबर ने पूरे भारत को झकझोर कर रख दिया था। उसके परिवार की त्रासदी तब और भी कई गुना बढ़ गई, जब पुलिस द्वारा परिवार की मर्जी के खिलाफ आधी रात में उसका जबरन अंतिम संस्कार कर दिया गया।

इसी प्रकार एक पत्रकार जो अपने उम्र के चालीसवें वर्ष के शुरुआती दिनों में चल रहे थे, ने इस स्टोरी को कवर करने के लिए दिल्ली से उत्तर प्रदेश के हाथरस जाने के लिए एक कैब साझा की। हालाँकि, वे और उनके सहयात्री और ड्राईवर सहित तक को कभी अपना गंतव्य नसीब न हो सका।

मूलतः केरल के रहने वाले इस दिल्ली स्थित लेखक ने अपने पत्रकारिता के कैरियर की शुरुआत 2011 में की थी। उनकी पत्नी रैहनाथ ने हाल ही लिखा था कि “पत्रकारिता का चुनाव उन्होंने इसलिए किया था क्योंकि इस पेशे के प्रति उनमें जूनून और प्यार था।” उसने उन्हें एक ईमानदार और साधारण सपनों के साथ जीने वाला इंसान बताया। उनका कहना था “भले ही उनके ख्वाब बड़े नहीं थे लेकिन उनकी हमेशा से यह ख्वाहिश थी कि हमारे आधे-अधूरे घर को एक दिन पूरा कर लिया जाये और शेष जीवन अपने परिवार और माँ के साथ गुजारा जाये।”

इससे पूर्व वे तेजस डेली, थालसमयम, और एक पोर्टल अज़ीमुखम सहित केरल के कई समाचार पत्रों के लिए काम कर चुके थे।

इस रिपोर्टर की दुर्भाग्यपूर्ण यात्रा को याद करते हुए उनकी पत्नी ने कहा “जैसा कि लड़की के शव का जबरन अंतिम दाह-संस्कार कर दिया गया था, जिसके चलते हाथरस मामले ने सारी दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया था। ऐसे में उन्होंने घटना-स्थल का दौरा करने का फैसला लिय। उन्हें कार्यालय में बैठे-बैठे स्टोरी पर काम करना पसंद नहीं था, बल्कि वे हमेशा जमीन पर जाकर रिपोर्टिंग किया करते थे। इस बार उनको हाथरस के लिए प्रस्थान करना पड़ा, जो कि उनके लिए पूरी तरह से  अनजान जगह थी। मैं और मेरे बच्चे कभी भी अपने सिर को नहीं झुकायेंगे। हमें बेहद संघर्षों के बीच में अपने जीवन कू गुजारना पड़ रहा है, लेकिन हमें उन पर गर्व है।”

प्रतिष्ठित आईआईटी बॉम्बे से कंप्यूटर साइंस में स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने अपनी राह बदल ली थी, और एक अन्य प्रमुख संस्थान, जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से आधुनिक इतिहास में स्नातकोत्तर किया। वहीँ से उन्होंने अपनी पीएचडी की शिक्षा को जारी रखा, जब तक कि एक विरोध प्रदर्शन, जिसके आयोजन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी, के चलते इसे बीच में ही अधूरा छोड़ना पड़ गय। अचानक से भारत एक दढ़ियल, चश्माधारी नवोदित इतिहासकार को लेकर सचेत हो जाता है, जिसकी अगुआई में दिसंबर 2019 में संसद द्वारा प्रख्यापित स्वाभाविक रूप से निषेधात्मक चरित्र वाले नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के विरोध-स्वरुप दिल्ली के शाहीन बाग़ में एक सड़क को जाम कर दिया गया था।

इस आईआईटी ग्रेजुएट को, जैसा कि इन प्रतिष्ठित संस्थानों के स्नातकों के साथ यह आम बात है, उन्हें भी अपना कोर्स खत्म करने पर एक अमेरिकी बैंक द्वारा एक अच्छी-खासी नौकरी की पेशकश की गई थी। इसके बावजूद उन्होंने भारत में ही बने रहने के विकल्प को चुना और बेंगलुरु में एक नौकरी पकड़ ली। कई पूर्वी और पश्चिमी भाषाओं पर अपनी अच्छी पकड़ रखने वाले एक बहुभाषाविद होने के साथ-साथ उनके भाषणों में अक्सर कानों को सुकून देने वाले शेर सुनने को मिला करते थे। वे उर्दू साहित्य-पोर्टल, रेख्ता.ओआरजी पोर्टल के लिए एक शब्दकोश के निर्माण के काम से भी जुड़े हुए थे

जब एक स्टोरी के सिलसिले में मैंने उन्हें दिसंबर की एक सर्द रात में संपर्क किया तो उस दौरान वे विरोध की वैचारिक और बौद्धिक शक्ति के तौर पर थे, जिन्होंने यह सुनिश्चित करने के लिए अपने शरीर तक को उस पंक्ति में लगा रखा था कि उस दिन न खत्म हो जाये, जिस दिन यह शुरू हुआ था। इतने बड़े उपक्रम के बावजूद वे पूरी तरह से सरल थे। विरोध के दौरान उनकी गतिविधियों को देखकर यह स्पष्ट हो गया था कि वे किस प्रकार के व्यक्तित्व के मालिक हैं: एक ऐसा इंसान जिसे मित्रों द्वारा उधार दिए गए कपड़ों को पहनने से कोई दिक्कत नहीं है – “ये किसी भाई ने दिया है”- या स्वेच्छा से धरना स्थल के पास एक दुकान की सीढ़ियों पर उन्हें सोया हुआ पाया जा सकता था।

उन्होंने धीरे-धीरे खुद को शाहीन बाग़ के विरोध आंदोलन से अलग कर लिया था और इसके बाद वे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में दिए गए अपने भाषण की वजह से सुर्ख़ियों में आये। उन्होंने अपने दर्शकों से इसी प्रकार के प्रदर्शनों को सारे देश भर में आयोजित करने की गुजारिश की थी और सरकार को समुदाय की मांगों को सुनने के लिए मजबूर करने के लिए चक्का-जाम करने जैसे उपायों का सहारा लेने के लिए कहा था। लेकिन यह एक भाषण कई भाषणों से अधिक का निकला।

ये सत्तर वर्षीय इंसान उत्तर प्रदेश के रामपुर से लोकसभा सांसद हैं। आप करीब तीन दशकों से समाजवादी पार्टी के सबसे अहम सदस्यों में से एक रहे हैं और तब उन्हें उत्तर प्रदेश में 2012-17 के दौरान तत्कालीन मुख्य मंत्री अखिलेश यादव के बाद पार्टी में दूसरे नंबर के नेता के तौर पर देखा जाता था। रामपुर विधानसभा सीट को तो वस्तुतः उनकी जेब में माना जाता था, जहाँ से उन्होंने कई बार चुनावों में जीत हासिल की थी। 

समाजवादी पार्टी की झोली में “मुस्लिम वोटों” के लिए अहम दांतेदार क्षमता प्रदान करने के लिए उन्हें एक महत्वपूर्ण कड़ी के तौर पर माना जाता है। हालाँकि, इस चुनावी सफलता के बावजूद, इस रामपुर के सांसद का एक विचित्र राजनीतिक रिकॉर्ड भी रहा है। उत्तर प्रदेश की राजनीति में उनके इस संबे कार्यकाल में वे जिस समुदाय की रहनुमाई करने का दम भरा करते थे, को उनके चलते किसी भी प्रकार का प्रत्यक्ष लाभ नहीं हुआ है। 2013 के विनाशकारी मुज़फ्फरनगर दंगों के दौरान वे उत्तरप्रदेश के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री हुआ करते थे – जिसमें मुसलमानों को व्यापक पैमाने पर जिंदगियों, संसाधनों और सम्मान का नुकसान झेलना पड़ा था, और राज्य पुलिस के पर ढिलाई बरतने के ही नहीं बल्कि इस काण्ड में पूरी तरह से मिलीभगत होने का भी आरोप था।

वे शायद एक लंबे समय तक चलने वाली विरासत के तौर पर ताउम्र एक अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय की अध्यक्षता करने का इरादा रखते थे - जो अपनी शुरुआत से ही विवादों के घेरे में आ गया था, जिसमें जमीन की चोरी से लेकर इसके काम-काज पर अपनी मजबूत पकड़ जैसे अनेकों आरोपों की झड़ी ही लग गई थी।

हालाँकि एक वयोवृद्ध नेता के लिए, जिन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) में 1970 के दशक में छात्र राजनीति में प्रवेश किया हो, का भारतीय राजनीति के तय मानकों की तुलना में जाली जन्म प्रमाणपत्र जैसे तुच्छ मामलों में पतन कुछ अटपटा सा जान पड़ता है।

दक्षिणी केलिफोर्निया विश्वविद्यालय से हाल ही में स्नातक बनकर लौटे 23-वर्षीय युवा को अपने अभिनेता पिता के बेटे के नाम से कहीं ज्यादा बेहतर तरीके से जाना जाता है। प्रसिद्धियों की बुलंदी पर खड़े पिता के पास फेसबुक, ट्विटर और इंस्टाग्राम पर कुलमिलाकर 10 करोड़ से भी अधिक फालोवर्स हैं। एक हिन्दू से शादी करने वाले इस मुसलमान के सोशल मीडिया अकाउंट में अपने प्रशसंकों को सभी धार्मिक उत्सवों पर शुभकामनाएं देने का मौका नहीं चूकते देखा गया है। फेसबुक और इंस्टाग्राम पर उनकी अंतिम पोस्ट में गणेशजी की एक तस्वीर के साथ शीर्षक में लिखा गया है “भगवान गणेश का आशीर्वाद हम सभी पर बना रहे जब तक कि वे अगले साल दोबारा से नहीं आते ... गणपति बप्पा मोरया!!!” इसलिए कोई आश्चर्य की बात नहीं कि अक्सर उन्हें “समावेशी भारत” के पोस्टर बॉय के तौर पर देखा जाता है।

हालाँकि वे नरेंद्र मोदी के साथ उस बॉलीवुड सेल्फी का हिस्सा नहीं थे, लेकिन उन्हें एक अन्य मशहूर सेल्फी में पीएम के साथ चित्रित किया गया था।

लेकिन इस कई अवार्ड-विजेता करोड़पति के लिए इनमें से कुछ भी पर्याप्त साबित नहीं हुआ जब उनका बेटा एक क्रूज शिप पर नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (एनसीबी) के छापे का शिकार हो गया, क्योंकि उसने दोस्तों के साथ एक पार्टी की थी। इस छापे के बाद से ही अभिनेता ने एक गरिमापूर्ण चुप्पी बना रखी है, और उनकी सोशल मीडिया प्रोफाइल में किसी प्रकार की गतिविधि नहीं देखी गई है। इसके विपरीत, फिल्म बिरादरी ने उनके मशहूर निवास में आने का सिलसिला बना रखा है, शायद इस दुःख की घड़ी में उनके कंधों पर पर कुछ समय के लिए दिलासा दिलाने के लिए अपना हाथ रखने के लिए।

मुफलिसी में अपने जीवन को गुजारते हुए, पांच छोटे-छोटे बच्चों के पिता तस्लीम अली को घूम-घूमकर चूड़ियाँ बेचने के लिए अपने घर से 800 किमी दूर 50 दिनों से भी अधिक समय से बंदी जीवन बिताने के लिए मजबूर होना पड़ा है। उनकी हालिया सुनवाई के दौरान पुलिस केस डायरी को पेश करने में विफल रही। इस बीच, उस पर हमला करने वाले सभी लोग जमानत पर बाहर घूम रहे हैं।

इसी प्रकार पत्रकार सिद्दीक कप्पन भी पिछले एक साल से भी अधिक समय से जेल में बंद हैं। उनके खिलाफ षड्यंत्र, राजद्रोह, धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने, और आतंकी आरोपों सहित कई आरोप मढ़ दिए गए हैं। इस मामले में पुलिस की ओर से 5,000-पन्नों का आरोपपत्र दाखिल किया गया है, और जैसा कि एक पत्रकार के शब्दों में इसमें “ऐलिस इन वंडरलैंड वाली विचित्रता” भरी पड़ी है। कारावास में रहते हुए उन्होंने इस बीच कोविड-19 का भी सामना किया, कथित तौर पर उन्हें एक चारपाई से बांधा गया था, और एक प्लास्टिक की बोतल में पेशाब करने के लिए मजबूर किया गया। इस तबाही के मंजर में और जोड़ने के लिए बता दें कि कप्पन या उनके वकील को आरोप पत्र की एक प्रति तक नहीं सौंपी गई है। इसी दौरान अगस्त में उनकी माँ का इंतकाल हो गया था।

जेएनयू के विद्वान शरजील इमाम को जेल में रहते हुए 600 दिनों से अधिक का समय बीत चुका है। पांच राज्यों की ओर से उनके खिलाफ राजद्रोह से लेकर 2020 के दिल्ली हत्याकांड के “मास्टरमाइंड” होने तक के आरोपों के आधार पर मामले दर्ज किये गए हैं। जबकि उत्तर-पूर्वी दिल्ली में फरवरी के अंत में जो हिंसा फैली थी, उसके करीब एक महीने पहले से ही वे जेल में बंद थे।

समाजवादी पार्टी के नेता आज़म खान फरवरी 2020 से अपने बेटे के जन्म प्रमाणपत्र के साथ धोखाधड़ी के आरोपों में जेल में बंद रखा गया है। उन्हें जेल में उस शासन द्वारा डाला गया है जिसने बिना कोई कारण बताये 77 मामलों को वापस ले लिया है – जिनमें से कुछ में 2013 के मुज़फ्फरनगर दंगों में आजीवन कारावास की सजा तक दी गई थी। वहीँ दूसरी तरफ राज्य के पुलिस बल ने केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा के बेटे आशीष मिश्रा को गिरफ्तार करने में बड़े आराम से हाथ-पाँव हिलाए हैं - जिसके चलते उसे सर्वोच्च न्यायलय से कड़ी आलोचना भी सुनने को मिली है। आरोप है कि आशीष की कार ने लखीमपुर खीरी में चार प्रदर्शनकारी किसानों को कुचल कर मार डाला था।

शाहरुख़ खान के बेटे आर्यन खान को पिछले एक हफ्ते से भी अधिक समय से बंदी बनाकर रखा गया है। मानो कोएन बंधुओं की फिल्म से सीधे चुराए हुए कथानक की पंक्तियों की तरह ही एनसीबी के अधिकारियों के साथ भाजपा से जुड़े दो व्यक्ति भी छापे के दौरान वहां पर मौजूद थे, (सनद रहे यह पार्टी केंद्र में शासन में है और जिसका एनसीबी पर प्रत्यक्ष नियंत्रण है)। हालांकि उसके पास से कोई मादक पदार्थ नहीं मिला है, लेकिन मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट की अदालत ने आर्यन को जमानत देने से इंकार कर दिया है। द इंडियन एक्सप्रेस ने अपनी रिपोर्ट में कहा है: “याचिका पर मामले के गुण और तथ्यों के आधार पर फैसला नहीं किया गया है।” इस बीच सोशल मीडिया पर शाहरुख़ के खिलाफ बहिष्कार का आह्वान ट्रेंड करना शुरू हो चुका है।

वसी मनाज़िर एक स्वतंत्र लेखक हैं। व्यक्त किये गये विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

How India is Incarcerating Muslims Indiscriminately and Indefinitely

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